Friday 13 March 2020

नागफनी 

लो कथा सुनाता हूँ
मन व्यथा सुनाता हूँ
आजादी के गत  बावन वर्षों  की कथा सुनाता हूँ
था पाँच बरस का जब
नेहरू जी आये थे
घर को गोबर से लीप पोत
तब माँ नें दिये जलाये थे
मैदान मदरसे का जो
उसमेँ जुड़ी भीड़ फिर भारी थी
आशाओं की नव फसल
काटनें की भारी तैय्यारी थी
जोरों का जय - जयकार हुआ
फिर उत्सुक भीड़ लगी सुननें
आशा के डोरों से कल के
अति सुन्दर स्वप्न लगी बुननें
गान्धी जी का जो राम राज्य
फिर से भारत में आयेगा
दहि - दूध बहेगा गलियों में
घर घर में वैभव छायेगा
नन्हें -मुन्हें जो अभी तलक
दुख में अभाव में पलते थे
जीवन भर अपनी जठर अग्नि में
जिन्दा जलते रहते थे
जिनके होठों ने कभी न जाना
क्षुधा -तृप्ति का मुसकाना
दम तोड़ सिसकता रहा सदा से
व्यथा भरा जिनका गाना
वे नव भारत की नयी वायु में
सिंच पलकर लहरायेंगें
खिलते फूलों से निखर निखर
हर डगर डगर पर छायेंगें
उनका भारत हो स्वर्ण - देश
जग में महिमा- मण्डित होगा
सम्मान देश की माटी का
फिर कभी नहीं खण्डित होगा
 मिट नहीं सकेगी भटक भटक
फिर कभी देश की तरूणाई
हर युवा रहेगा कर्म - निरत
हर घर में सुख की शहनाई
हिन्दू , मुस्लिम , पारसी , सिक्ख
एक ही राग में गायेंगें
ईसाई , बौद्ध , जैन , नास्तिक
घुलमिल हिन्दी कहलायेंगें
सोने की बाली फसलों में
उद्योगों से धन बरसेगा
सदियों का मुरझाया भारत
आजादी जल पा सरसेगा |
मैं खड़ा हुआ था भीड़ बीच
कुछ अधिक समझ में आ न सका
था घटा कहीं कुछ दिव्य , महत
जिसकी तह तक मैं जा न सका
कौतूहल रत था पास वहीं
नन्हाँ इस्माइल खड़ा हुआ
चाचा वजीर की बाँह थाम
था किसी चित्र सा जड़ा  हुआ
थे हम दोनों अनजान किन्तु
दोनों के मन नें जाना था
कुछ नष्ट हुआ कुछ सृष्ट हुआ
कुछ आया है कुछ आना था
घर आकर माँ  से पूछा था
अब दूध - भात मिल जायेगा
शंकर साहू के मंगू सा
क्या मेरा तन खिल जायेगा ?
माँ  ने हँस कर था कहा
अभी कल ही आजादी आयी है
हीरे मोती की गठरी भी
क्या बाँध साथ वह लायी है ?
तुम पढ़ो लिखो मेहनत करके
फिर तुम जवान हो जाओगे
आजाद देश की धरती पर
सम्मान ढेर भर पाओगे
आजादी है आ गयी न अब
धन का जन पर शासन होगा
धनवान बाँट कर खायेंगें
हर जगह न्याय आसन  होगा
मैं उस विरवे  सा पनप चला
जो मरुथल में लहराता है
लू के झोंकों से पल पुसकर
जो नाग - फनी बन जाता है
मैं पढ़ लिख कर तैय्यार हुआ
पर पाया कोई काम न था
चल गयीं योजनायें कितनी
पर हम जैसों का नाम न था
इस्माइल भी ऐमें करके
सड़कों पर घूमा करता है
आजाद देश के ख्यालों को
सपनों में चूमा करता है
माँ भी अब बूढ़ी हुयी
न उसके स्वप्न अभी साकार हुये
मैं भी जवान हो गया
न उसके तन पर कपड़े  चार हुये
चाचा वजीर ढल गये न अब
मजदूरी पर जा पाते हैं
घर के सारे प्राणीं जानें
दो जून कहाँ से खाते हैं
माँ की आँखें भी हुयी मंद
अब अधिक नहीं वह सिल  पाती है
बेकार पुत्र को देख देख
भीतर से कुछ हिल जाती है
शंकर साहू हैं फूल गये
अब मुशकिल से उठ पाते हैं
उनके सुपुत्र ' मंगू बेटा '
सोनें की फसल उगाते हैं
है लेंन  देंन बढ़ गया -
तेल ,सीमेन्ट  सभी का सौदा है
हैं चुनें गये सरपंच और
अब ऊँचा उनका हौदा है
मंजूर अली के दो बेटे
जो बी. ए. पास न कर पाये
हैं बड़े दरोगा थानें मेँ -
फारम भरवानें थे आये
अगला चुनाव लड़ काजी जी
क़ानून बनानें जायेंगें
नौकरियों में जो पक्षपात
उस पर काफी चिल्लायेंगें
इस्माइल मुझ से कभी कभी
संजीदा होकर कहता है
किसलिये बगावत ठहरी है
यह किला नहीं क्यों ढहता है
मैनें देखा है वह अकसर
है दूर कहीं ताका करता
धंसती आँखें हैं बता रहीं -
शायद हर दिन फाँका करता
जब भींच मुठ्ठियाँ हाँथों की
वह घर का हाल बताता है
गढ्ढों में जलती आँखों से
तब खून झलक कर आता है
मुझको चिन्ता है बीज नक्सली
उसमें कहीं न जग जाये
मानव - मूल्यों की फसल - बीच
हिंसा की आग न लग जाये
पर क्या कह कर आश्वस्त करूं
मैं बेकारी का मारा हूँ
सच पूछो तो मन ही मन मैं
उसके तर्कों से हारा हूँ -
दुखियारी माँ  के पास बैठ
उस दिन मैं भी तो बोला था
कुछ क्षण को मेरा मन भी तो
मानव - मूल्यों से डोला था
मैं बोला,  माँ मैं बड़ा हुआ
पढ़ लिख कर आज जवान बना
दो रोटी तुमको दे न सका
मैं कहाँ देश की शान बना ?
पढनें में अव्वल रहा सदा
मंगू न चार के पार हुआ
यह देश मुझे ठुकराता है
मंगू सबका सरदार हुआ
इस्माइल भूखा डोल रहा
कादिर है थानेदार बना
क्या यही देश की आजादी
है यह कितना अन्धेर घना
जब अपनें हिलते हाँथों से
कपड़ों पर सुई चलाती हो
मेरा तब खून उबलता है
कब तक बज्जर की छाती हो ?
भूखी जनता की निबल देह
भेड़िये नोच कर खाते हैं
फिर मंचों पर चिल्ला चिल्ला
वे देश -भक्त कहलाते हैं
बन सत्यकाम बन देख लिया
जग का न द्वार खुल पायेगा
शायद हिंसा की बाँह पकड़
ही नया सवेरा आयेगा
मेरे जैसे लाखों शिक्षित
शायद घुल घुल मर जायेंगें
पर उनमें से दस पांच उभर
इस्माइल बन कर आयेंगें
ओ महादेश के नेताओ
मत जान बूझ अनजान बनों
बस समय शेष थोड़ा सा है
फिर से भावी की शान बनों
यह अन्तिम मौक़ा मिला  तुम्हें
अब पापों का परिहार करो
जीवन की ढलती बेला में
कुछ तो स्वदेश से प्यार करो
कूड़ा -करकट बन मैला - घर में
अगर न तुम को सड़ना है
तो बेकारी से खड्ग उठा
सबसे पहले अब लड़ना है
है यह लंम्बा वृतान्त
एक परिकथा सुनाता हूँ
मन व्यथा सुनाता हूँ
आजादी के गत बावन वर्षों  कथा सुनाता हूँ ||

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