Saturday 4 April 2020

यौवन पार से ---------------------

आज यौवन पार से विश्राम ने मुझको पुकारा
ओ प्रमंजन ठहर सम्मुख खड़ा सीमा द्वार तेरा |
तोड़ता चलता रहा तू है सभी युग  -मान्यतायें
भ्रान्ति के कितनें घरौंदे तोड़कर तूने ढहाये
रूढ़ि के अश्वत्थ भीमाकार अविचल
वज्र टक्कर से हिला तूनें गिराये
अगति की औंधी शिलायें क्षार कर दीं
खण्ड बन बन प्रतिक्रिया के दुर्ग टूटे
नीति -आडम्बर बना उड़ फेन -जाला
ध्वंस -ध्वनि कर भ्रम -कपट के कुंभ फूटे
राह अनजानी न कोई चल सका जो
चरण चिन्हों से उसे तूने जगाया
अमा का आवर्त घिरता ही गया जब
प्राण - लौ की दीप्ति दे तूनें भगाया
ध्वंस नींवों पर नयी रचना सजा दी
खंडहर में रच दिया इतिहास ताजा
दी लगा ललकार तूनें मृत्यु को भी
शक्तिहीने , शक्ति हो तो आज आजा
रौंद डाली जिन पगों नें दस दिशायें
श्रम - लहर का हो रहा क्यों उन पगों में आज फेरा
आज यौवन --------------------------
हर दुपहरी ढल सुनहरी साँझ होती ,
हर कदम थक कर कहीं विश्राम पाते
बरस कर जलधर नहीं चुकते सदा को
शक्ति लेनें फिर जलधि के पास जाते
एक गति पर सूर्य भी चलता कहाँ है
ढल ढला कर स्वर्ण -वर्णीं रूप लाता
रोक कर क्षण भर गगन में पंख पक्षी
हो त्वरित फिर से नयी आशा जगाता
थकन की अनुभूति फिर अभिशाप हो क्यों
शक्ति संचय में लगे विश्राम - बेला
हो सजग फिर कवि -गुरु की पंक्ति बोले
उठ पथिक , तू चल अकेला , चल अकेला
जोड़ दे इतिहास में अनजान राहें
मूर्त कर दे तू युगों के स्वप्न सारे
अंजनी - सुत  बन गरज ललकार दे दे
निशिचरों से हाथ हों दो चार प्यारे |
रक्त -शोषी , अमर बेली सभ्यता को क्षार कर दे
तोड़ दे कुंठा कपाटों के कुलाबे
रुद्ध घुटती संस्कृति को साँस दे दे
नग्न कर दे छील कर झूठे छलावे
सांस के संयत्र चलता रह अभी तू
दूर है अब तक अरे स्वर्णिम सवेरा
आज यौवन --------------------

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