Tuesday, 26 November 2019

                                                                                 शब्द -समर
     
                          उत्तर मध्य भारत का एक अर्ध विकसित नगर जिसे त्रिविक्रमपुर के नाम से जाना जाता है। त्रिपाठी सद्ग्रहस्थों का एक साफ़ सुथरा गृह। गृह के बाहर गोबर लिपी भित्ति से आवेष्ठित एक खुला प्रांगण ,सुरिचिपूर्ण मिट्टी के बने ऊँचे धारक घेरों में तुलसी विटपों की सुहानी पंक्ति । गृह के भीतर सबसे पहले बैठका ,फिर अगल -बगल के कई कक्ष ,बीच में अन्तर आँगन फिर दोनों ओर कक्ष और कक्षों को जोड़ती हुयी एक चौड़ी दालान।गृह के पीछे हरे -भरे वृक्षों से शीतलता पान वाला खुला मैदान। गृह के पीछे की भित्ति में पीछे निकलने के लिये एक द्वार मुख्यता :घर और पड़ोस की महिलाओं के लिये आने -जाने का सुरक्षित मार्ग। चैत्र का महीना समाप्ति की ओर है। दिन के दस बजे हैं अभी भीषण गर्मी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है। भरे पुरे घर में स्त्रियों और बच्चों की चहल -पहल , भूषण नाम से अपनी पहचान बनाने वाले युवा कवि का आगमन। गृह में उसकी दो बड़ी भाभियाँ ,उसकी माँ और उसके छोटे  आँगन में ,दौड़ने ,खेलने वाले भतीजे और भतीजियाँ। दोनों बड़े भाई बाहर वृक्षों और खेतों की देख रेख में व्यस्त। भाइयों में सबसे छोटा भूषण अभी तक अविवाहित। मस्त मौला ,फक्कड़ पर  अद्वितीय स्रजनात्मक प्रतिभा का धनी। मुग़ल सम्राट अकबर ,जहाँगीर और शाहजहाँ के इस्लामी सहिष्णु शासन का काल समाप्तप्राय। औरंगजेब के कट्टर इस्लामी शासन का प्रारम्भ दाराशिकोह की पराजय और निर्मम ह्त्या। बहु संख्यक हिन्दू जन मानस में आक्रोश। मुसलमान शासकों द्वारा जजिया कर लागू करने की शुरुआत। कवि भूषण के छन्दों में अन्याय को जला देने के लिये अग्नि की लपटें। आस -पास के सभी क्षेत्रों में उसका सम्मान। हर जगह से बुलावा । उनका ओजस्वी व्यक्तित्व कविता पाठ। अतुल सम्मान पर गृह की आर्थिक व्यवस्था में योगदान न के बराबर। सदैव हड़बड़ी में ,शीघ्रता में क्योंकि सभी समूहों ,समितियों और सभाओं में उनकी उपस्थिति अनिवार्य। सिर पर सिर त्राण (पगड़ी )कटि से  ऊपर एक लम्बा सिला हुआ वस्त्र जो भुजाओं में केवल कुहनियों तक पहुंचता है। कटि के नीचे सुथ्थ्न ढंग की धोती का पहनावा। पैरों में पत्राण। आँगन में पहुचने से पहले पैरों से जूतियाँ निकाल देते हैं फिर लम्बे -चौड़े नाबदान पर बैठ कर पैर धोते हैं। मिट्टी लगाकर हाँथ साफ़ करते हैं। फिर मुँह पर भी पानी का हाँथ फेरते हैं। दूर खूंटी पर टंगे एक अंग पोछा से हाँथ और मुँह पोछते हैं। सिर त्राण पहले ही उतारा जा चुका था अब ऊपर का लम्बा वस्त्र भी निकाल देते हैं। भाभी रसोई के बाहर काष्ठ पीठ डाल देती है। कांसे की थाली में कटोरियों में दाल ,सब्जी और थाली में चावल -रोटी रख कर सामने रख देती है। यह रोज का सुनिश्चित क्रम है। भाभी जानती है कि भोजन की इतनी मात्रा पर्याप्त है फिर भी कटोरदान पास रखकर कह देती है कि अगर मन हो तो और रोटियाँ ले ली जायँ ,एक छोटी कटोरी में शुद्ध घृत भी है फिर भाभी रसोई छोड़ कर किसी छोटे बच्चे के हाँथ पाँव धोकर बाहर निकल जाती है। भूषण अपनी इस छोटी भाभी को बहुत सम्मान की द्रष्टि से देखते  हैं। वह उन्हें माँ जैसा प्यार करती है। माँ अब बहुत बृद्ध हो गयी है। अलग कक्ष में बैठी या पड़ी रहती है। भोजन करने के बाद भूषण कुछ देर के लिये उनके साथ उठ -बैठ लेते हैं। माँ उनसे कविता के अतिरिक्त कोई और ऐसा काम करने को कहती है जो अर्थ उपार्जन की प्रकृति का हो। सुरुचिपूर्वक कवि भूषण भोजन का पहला ग्रास दाल में डुबोकर और सब्जी रखकर मुँह में डालते हैं। उन्हें लगता है कि दाल सब्जी में नमक न के बराबर है। कहीं भाभी भूल तो नहीं गयी ? ग्रीष्म की ऋतु में भूषण शरीर से अधिक परिश्रम करते हैं क्योकि लम्बे -चौड़े दिनों में उनका कहीं न कहीं आना -जाना होता रहता है। शरीर से काफी स्वेद श्रवित होता है कुछ अतिरिक्त नमक की मांग रहती है। भाभी को पुकार कर रसोई में आकर नमक देने की बात करते हैं। भाभी को समय लग रहा है। छोटे बच्चे को साफ़ सुथरा करने में समय लगता ही है। भूषण फिर आवाज देते हैं भाभी कहती है आती हूँ लाला इतने बेताब  क्यों हो रहे हो। भूषण कौर लिये बैठे हैं। नमक की कमी से स्वाद किर किरा हो रहा है। फिर तीसरी आवाज देते हैं। जल्दी करो भाभी मैं कौर लिये बैठा हूँ। कहाँ उलझ गयी भाभी गुस्से में छोटे बच्चे को पालने पर ही छोड़ देती है। छोटा बच्चा जो अभी तक शिशु ही है रोने लगता है। भाभी गुस्से में हाथ धोकर रसोई में घुसती है चुटकी से थोड़ा पिसा सेंधा नमक थाली में रख देती है। कहती है ज्यादा नमक खाते हो इसलिये ज्यादा गुस्सा करते हो। जब किसी को ब्याह कर लाना तो उसपर ऐसी हुकूमत करना। मुझे और भी तो कितने झंझट हैं। खाते -खाते भूषण कहते हैं कि उन्हें भी बहुत सारे झंझट हैं\ और उनके पास समय नहीं होता। बच्चे के रोने की आवाज भाभी तक आती है। भाभी तैश में आकर कहती है ," लाला तुम तो ऐसे रोब  से बातें कर रहे हो जितना कोई हाथी नसीन भी नहीं करता। "
                        भूषण का आत्म अभिमान चोट खाता है कहते हैं ," भाभी मैं क्या किसी हाथी नसीन से कम हूँ। " मेरी प्रशंसा क्या किसी हाथी नसीन से कम होती है। भाभी को  नहले पर दहला लगाना आता है। आखिर वह मतिराम की पत्नी है। उसके पति स्वयं जाने -माने कवि हैं। फिर भी वह गृह गृहस्थी चलाने के लिये जायदाद की पूरी देख -भाल करते हैं। अपना समय फिजूल की शेखियों में बर्बाद नहीं करते।  वह चोट करती है , " सभी के भाग्य में हाथी नसीन होना नहीं होता। बेकार की शेखी मत बघारो लाला। मैंने तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है। बोलो और नमक तो नहीं चाहिये ,वह छोटा विभीषण रो रहा है। " न जाने क्या होता है। अद्दभुत प्रतिभा के धनी , हिन्दू सस्कृति के प्रति पूर्णत : समर्पित भाभी के शब्दों का प्रहार झेल कर तिलमिला उठते हैं\ पर अपने आवेश को नियन्त्रित कर शांत स्वर में कहते हैं देखो भाभी तुम मेरी आदरणीया हो , तुम मेरी माँ तुल्य हो क्या जैसा जो कुछ मैं हूँ वह तुम्हारी माप पर खरा नहीं उतरता\ यदि मैं हाथी नसीन हो जाऊं तो मैं क्या कुछ बदल जाऊँगा।  भूषण तो भूषण ही रहेगा भाभी उसे बिकने के लिये बाध्य मत करो। उत्तर भारत में तो मेरा खरीददार दिखता ही नहीं। हलाहल कूट को बस त्रिनेत्र शिव ही कंठ में धारण कर सकते हैं। बच्चे के रोने की आवाज तेज होती है भाभी उठ खड़ी होती है उठते उठते कहती है। जब ब्याह कर आयी थी तुम्हारे बड़े भाई भी इसी प्रकार की लम्बी -चौड़ी हांका करते थे कहते थे राजसी ठाठ से घर को मढ़ दूँगा। कहते थे स्वर्ण आभूषणों से मेरे रूप को कई गुना बढ़ा देंगें। अरे लाला तुम सब भाईयों में अपना बड़प्पन दिखाने का मर्ज लग गया है। मेरे जेठ जी कुछ लिखते -विखते रहते हैं। बड़ी बहना भी कह रही थी कि इन लफ्फाजी करने वाले भाइयों में सभी केवल प्रशंसा का आसव पीकर मस्त रहते हैं। जीवन की कठोर सच्चायी से इनका कोई परिचय नहीं है। हमारी नसीब में बैलगाड़ी ही बनी रहे यही बहुत है। हमारी गैय्या बछडे देती रहे तो खेती बाड़ी चलती रहेगी। रथ हमारे भाग्य में कहाँ है। और हाथी क्या हमारी जिन्दगी कभी हमारे दरवाजे पर खड़ा हो सकता है।
                       भूषण नें अभी तक कुछ ही कौर मुँह में डाले हैं। तीन चौथायी भोजन थाली में अनछुआ पडा है भाभी तो खड़ी ही थी। खुद भी तमग कर खड़े हो जाते हैं। कहते हैं भाभी मैं अपना अपमान तो बर्दाश्त कर सकता हूँ पर आपने  न केवल देवर का अपमान किया है बल्कि अपने पूज्य पति और ज्येष्ठ श्री का भी। हमारे पूज्य पिता आज नहीं हैं पर जो विरासत हमने उनसे पायी है कि वह इतनी भव्य और ओजपूर्ण है कि वह हमें अमरत्व के द्वार तक पहुँचा सकती है। अच्छा तो सुनो भाभी मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इस घर के द्वार पर तभी आकर भाइयों को अपना मुँह दिखाऊंगा जब मैं सबसे आगे विशाल गजराज पर बैठा हूँगा और मेरे पीछे हाथियों की लम्बी कतार होगी। तब नमक देने में देरी तो नहीं करोगी भाभी ?
                   भूषण यह कहकर उठ जाते हैं हाथ पैर धोते हैं मुँह पर जल के छीटे मारते हैं सिर पर उष्णीष रखते हैं , वक्ष वस्त्र पहनते हैं फिर माँ के कक्ष में जाकर माँ के चरणों में सिर रखकर उसका आशीर्वाद मांगते हैं । माँ की श्रवण शक्ति बहुत कम है भाभी और देवर में क्या बातचीत हुयी है इसे वह नहीं जानती। माँ आशीर्वाद का हाँथ भूषण के सिर पर रखती है कहती है बेटा रात्रि को जल्दी आ जाया करो। स्वर्ग जाने से पहले तुम्हारे पिता ने जो मुझसे कहा था सुनना चाहोगे ? उन्होंने कहा था हमारा भूषण हम दोनों को अमर कर देगा। भूषण के आँखों के जल बिन्दु माँ के चरणों पर पड़ते हैं। रुदन को रोककर आँगन से बाहर आकर पदत्राण पहन लेते हैं और शीघ्रता से गृह के मुख्य द्वार से बाहर निकल जाते है।  सोचते जा रहें हैं कि उत्तरावर्त का शौर्य तो मर चुका मेरी रणभेरी किस नरसिंह को हिन्दू संस्कृति के सच्चे उद्धारक के रूप में इतिहास के पटल पर अवतरित होने की प्रेरणा दे पायेगी। चलते है ओरछा से होकर महाराष्ट्र की ओर अब तो अन्याय पूर्ण मुल्ला संस्कृति को जड़मूल से उखाड़ ही फेकना होगा। हिन्दू चिन्तन की सामासिकता कोई कालजयी राष्ट्र पुरुष देश का भविष्य रचने के लिये उभार कर सामने लायेगी। असमर्थ तो यह कर नहीं सकते पर सम्भवत : समर्थ राम दास महाराष्ट्र की चेतना में पुन : नव चेतना का सन्चार कर दें।
 पटाक्षेप .......दूर से गूँजती कविता की पंक्तियाँ " शिवा जो न होतो सुन्नत हॉट सबकी ।"
  औरंगजेब के कट्टर इस्लामी जनून के कारण हिन्दुस्तान के इस्लाम से इतर अन्य दार्शनिक अवधारणाओं के अनुयायी दूसरी या तीसरी श्रेणी के नागरिक बन गये हैं। जजिया कर तो उन पर लगा ही है साथ ही ऊँचे पदों पर भी उनकी नियुक्ति रूक गयी है। औरंगजेब कट्टर मुल्लाओं की चपेट में है। शरियत की गलत -सलत व्याख्या की जा रही है। सर क़त्ल किये जा रहे हैं । मन्दिर गिराये जा रहें हैं। गुरु तेगबहादुर के दोनों पुत्रों को दीवाल में जीवित चुनवा दिया गया।उन्होंने सर दिया पर सार न दिया। ऐसे में माता भवानी के पुजारी समर्थ  रामदास से शक्ति प्राप्त करने वाला प्रेरणा पुरुष शिवा जी राजे महाराष्ट्र में स्वतंत्रता का बिगुल बजा देते है। महाराज जै  सिंह द्वारा आदरपूर्ण बराबरी की व्यवहार की आशा पर शिवाजी उनके साथ दिल्ली आये थे पर औरंगजेब के दरबार में उन्हें पाँच हजारी पंक्ति में खड़ा कर उनका घोर अपमान किया गया।
                 कवि भूषण ने लिखा है :-
                " सबन के आगे ठाढ़े रहिबे के जोग ,
                  ताहि खड़ो कियो जाय प्यादन के नियरे।"
                शिवा जी नें भरे दरबार में ही निडर होकर अपना विरोध और क्रोध प्रकट किया। उन्हें महाराज जै सिंह के कहने पर महाराज जै सिंह के महल में ही कैद कर लिया गया। शिवाजी राजे किस प्रकार मिठाई के लम्बे -चौड़े झाले में छिपकर नजर कैद से मुक्त हो गए इसका विस्तृत विवरण "माटी " के पाठकों ने इतिहास के पन्नों में पढ़ा ही होगा\ हिन्दू   जाति के इस सिरमौर वीर का संरक्षण पूरी सतर्कता के साथ हिन्दू संस्कृति के चिन्तक ,विचारक और संरक्षक करते रहे। एक लम्बे अरसे के बाद एक छदद्म वेष में शिवाजी राजे माँ जीजाबाई के सामने उपस्थित होकर कोई भिक्षा पाने की प्रार्थना करने लगे। उनका वेष परिवर्तन इतनी कुशलता से हुआ था कि स्वयं उनकी माँ ही उन्हें प्रथम द्रष्टि में पहचान नहीं पायीं। अपनी लम्बी गुप्त यात्रा के दौरान शवाजी ने भारत की लक्ष -लक्ष जनता के ह्रदय के भावोँ को पूरी तरह समझ लिया था। वे आश्वस्त थे कि औरंगजेब की कट्टर इस्लामी नीति के खिलाफ उन्हें न केवल हिन्दुओं का व्यापक समर्थन मिलेगा बल्कि सहिष्णु मुसलमान भाई भी उनका पूरा साथ देंगें। हिन्दुस्तान में जन्में पले पुसे और अकबरी परम्परा के मुस्लिम वर्ग सहकारिता और सह अस्तित्व को कैसे नकार सकते हैं। शिवाजी राजे का जय रथ माँ जीजाबाई का आशीर्वाद लेकर और समर्थ रामदास से शक्ति पाकर विजय यात्रा पर निकल पड़ा। मुग़ल साम्राज्य की सारी फ़ौज उन्हें पस्त करने में लगा दी गयी। स्वयं शहनशाह औरंगजेब वर्षों दक्षिण में टिके रहे ताकि शिवाजी को पकड़ कर कैद कर लिया जाय या मार दिया जाय। पर भारत का भविष्य अभी एक नयी गुलामी के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। शिवाजी द्वारा स्वतन्त्र स्थापित राज्य औरंगजेब के लिए न मिटने वाला सरदर्द बन गया। काशी में शिवाजी को क्षत्रियत्व प्रदान कर उन्हें चक्रवर्ती सम्राट के रूप में विभूषित किया गया। वे आज तक छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम से जाने जाते हैं। शिवाराजे तो उनके प्रारम्भिक विजय काल का सम्बोधन था। महाकवि भूषण को पहली बार दक्षिणावर्त की धरती पर पहली बार एक ऐसा जननायक देखने को मिला जिसमे श्री राम की वीरता और श्री कृष्ण की उदारता दोनों आदर्श रूप में समन्वित हुयी थी। इतिहास का सत्य तो इतिहासकार जाने पर जनश्रुतियां तो यह कहती हैं कि शिवाजी नें एक के बाद एक बावन विजये हासिल कीं। "माटी ' कोई इतिहास की पत्रिका नहीं है ,इतिहास का धूमिल आधार पाकर शब्द शिल्पियों की कल्पनायें और अधिक रंग बिरँगी दिखायी पड़ने लगती हैं। "माटी " नहीं जानती कि वे बावन किले कौन कौन से थे ? पर कुछ प्रसिद्ध विजयों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैंजैसे सिंह गढ़ की विजय या पुरन्दर की विजय आदि आदि। कहते हैं महाकवि भूषण नें इन्ही बावन विजयों के आधार पर शिवा बावनी लिखी जिसका एक एक सवैया छन्द हिन्दी भाषा का सबसे चमकदार नगीना है। कौन हिन्दी भाषा -भाषी प्रेमी है जो शिवा बावनी पढ़कर वीर काव्य के प्रभाव से अछूता रह जाय। और विजयों से भी अधिक था खुंखार कट्टर पन्थियों के लिये शिवाजी नाम का आतंक\ उनके नाम से ही मुसलमान ,नवाब सेनापति और शासक थर्रा उठते थे। उनके नाम का यह आतंक मुसलमान शासको के घरों में घुसकर उनकी बेगमों का दिल दहला देता था तभी तो भूषण नें शिवाजी के नाम के त्रास को अविस्मर्णीय पंक्तियों में चित्रित किया है।
                " ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी
                  ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं।
                  कन्द मूल भोग करे कन्द मूल भोग करे।
                 तीन बेर खाती ,वे तीन बेर खाती हैं।
                  सरजा शिवाजी शिवराज वीर तेरे त्रास
                  नगन जड़ाती ते वे नगन जड़ाती हैं।"       
         क्षत्रपति शिवाजी की मृत्यु  के बाद भी उनके वीरत्व और स्वाभिमान की परम्परा मराठा साम्राज्य के कर्ण धारों की सबसे मूल्यवान धरोहर बनी रही , जब मराठा साम्राज्य की शक्ति पेशवाओं के हाँथ में आयी तब मराठा साम्राज्य का आतंक ,दिल्ली के सिह्नासन पर बैठे नपुंसक सम्राटों को सदैव नतमस्तक किये रहता था। पेशवा बाजी राव प्रथम और द्वितीय की तुलना तो महान विजेता सम्राट स्कन्ध गुप्त से की जाती है। अश्वारूढ़ विशाल मराठा वाहिनी रात रात भर में सैकड़ों मीलों का सफ़र कर शत्रु सेनाओं को रौंद कर रख देती थी। हिन्दी कविता प्रेमी सभी उस दोहे से परिचित होंगें जो ओरछा के राजा छत्र साल ने पेशवा बाजीराव को लिखा था। जन श्रुति है और अधिकतर इतिहासकार इस जन श्रुति से सहमत हैं कि जब छत्रसाल की सेना चारो ओर मुग़ल सेना से घेर ली गयी और पराजय उनके सामने मुँह बाये खड़ी हो गयी तो उन्होंने एक कुशल अश्वारोही को कविता की दो पंक्तियाँ लिख कर हिन्दू धर्म रक्षक बाजीराव पेशवा के पास लिख भेजी। दोहा इस प्रकार था।
" जो गति ग्राह गजेन्द्र की ,सो गति बरनेउ आज
  बाजी जाति बुन्देल की वाजी राखव लाज ।"
                       जिस समय यह पत्र बाजीराव को मिला उस समय उनकी विशाल सेना ओरक्षा से सैकड़ों मील दूर थी पर बुन्देल की लाज तो रखनी ही थी रातों रात घोड़ों के खुरों से सैकड़ों मील धरती की परतें उघड़ गयीं। मुग़ल सेना दोहरी मार से पिटकर पराजित होकर भागी। न जाने कितने अस्त्र -शस्त्र और मार असवात छोड़ गयी। शव सड़ते रहे ,घायल तड़पते रहे। भूषण जी ने इन छत्रसाल की गुण गाथा में भी कुछ अत्यन्त प्रभावशाली वीर छन्द ,सवैये लिखे हैं। सभी हिन्दी कविता प्रेमी ऐसी पंक्तियों से परिचित हैं :-
" रैया राव चम्पत के छत्रसाल महाराज
भूषण सकै करि बखान कोऊ बलन को
 पक्षी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर
 तेरी वरछी नें वर छीने  हैं खलन के ।"
                           पर हम बात कर रहे थे महाकवि भूषण और उनकी भाभी द्वारा किये उनके तिरष्कार की। हम फिर से दोहराते हैं कि इतिहास का सत्य साहित्य का सत्य नहीं होता है सच पूंछो तो इतिहास का सत्य स्थिर होता है। जबकि साहित्य का सत्य चेतन होता है वह फलता-फूलता , बढ़ता और विस्तारित होता है। जन श्रुति कहती है कि शिवाजी के सुपुत्र साहूजी और अन्य समर्थ मराठा सरदारों नें शिवा बावनी के एक एक छन्द पर एक एक हाथी देकर उन्हें पुरष्कृत किया। जनश्रुति यह भी कहती है कि महाराज छत्रसाल नें स्वयं उनकी पालकी उठाने में हाथ लगाया। " माटी " के पाठक साहित्य की ऊँचाईयों और गहराइयों से परिचित हैं। जन श्रुति में  जन कल्पना के पंख लग जाते हैं तो वह गगन बिहारी बन जाती है। वह सुरसा के मुँह का प्रसार पा जाती है और उसमे सभी असंभव सम्भव हो जाता है। तो जन श्रुति कहती है कि महाकवि भूषण बावन गजों की पंक्ति लेकर आगे के सबसे ऊँचे गजराज की पीठ पर बैठ कर त्रिविक्रम पुर पहुँचे कहाँ से और कैसे निर्विघ्न पहुँच गए यह हाथियों के महावत जानते होंगें। पर उनके पहुँचने की खबर पाकर त्रिविक्रम पुर की बाजार ,गलियों और नुक्कणों पर भीड़ उमड़ पड़ी। हाथियों की पंक्ति भीड़ से रास्ता बनाती हुयी मतिराम त्रिपाठी के अगले द्वार पर पहुच गयी। ब्रद्धा मां तो कुछ सुन समझ नहीं पायी पर भाभियाँ और उनके बाल -बच्चे घबरा कर कक्ष में छुपने के लिए भगे। उन्हें भ्रम हुआ कि शायद कोई नवाबी या लुटेरी मुस्लिम सेना का कोई सिपाह सालार उनका घर और नगर लूटने आया है। बूढ़ी स्त्रियों ,मर्दों और बच्चों को मार दिया जायेगा। नवयुवक यदि बच निकले तो उनका भाग्य नहीं तो कुत्तों और सियारों का भोजन बनेगें और नवयुवतियां भेड़िया सिपाहियों के लिये कामेच्छा पूर्ति  का साधन बनेंगीं।  पर मतिराम त्रिपाठी और उनके अग्रज जिनका नाम शायद यदि मैं गलत नहीं हूँ ,कृपा राम था वीर पुत्र और वीर बन्धु थे। उन्होंने छत पर चढ़कर हस्तियों की उस लम्बी पंक्ति को देखा। उन्होंने देखा कि सबसे आगे सबसे ऊँचे गजराज पर उनका सबसे छोटा भाई भूषण बैठा है उसके सिर पर छत्र लहरा रहा है , वह राजकवि के वेष कीमती वस्त्र पहने है। उसका महावत भी एक विशेष पगड़ी धारण किये हुये है। उन्हें भ्रम हुआ कि कहीं वह सपना तो नहीं देख रहे हैं। उन्होंने फिर आँखें मलीं\ हस्ति पंक्ति कुछ और नजदीक आ गयी थी। अरे हाँ यह तो भूषण ही है आश्चर्य से फटती हुयी आँखें लिये वह सीढ़ियों से शीघ्रता से उतरकर नीचे आये। कृपा राम और मतिराम नें अपनी अपनी गृहणियों और बच्चों को कक्ष से बाहर आने को कहा चिल्लाते गये कि छुटुआ आ गया ह।  माँ नें नहीं सुना पर उन्होंने जोर सर चिल्लाकर कहा ," अम्मा छुटुआ आ गया ,भूषण घर आ गया ,धन्य हुये हमारे भाग्य ।" भूषण का गजराज द्वार पर पहुँचा उसने सूंड उठाकर भाईयों का अभिवादन किया।  भाइयों नें कुछ देर भूषण के नीचे उतरने की प्रतीक्षा की तब भूषण नें कहा भाभियाँ कहाँ हैं ? छोटी भाभी से कहो कि थाली में थोड़ा सा नमक डाल कर द्वार पर आये और मुझे नीचे उतरने का हुक्म दे। साहित्यकार यह नहीं बताते कि छोटी भाभी नमक लेकर आयी या नहीं आयी हाँ यह अवश्य बतातें हैं कि सिर ढके मुखड़ों को नीचे झुकाकर सुख के आँसूं द्वार के  देहरी पर टप टप गिर पड़े।  महाकवि भूषण महावत द्वारा हाथी को बिठालकर नीच उतारे गये। उन्होंने ज्येष्ठ भ्राताओं और भाभियों के चरण स्पर्श किये और वृद्धा माँ के पैरों पर गिर कर काफी देर चुपचाप रोते रहे। "माटी " नहीं जानती कि वे क्यों रोये ? शायद दिवंगत पिता की याद में ,शायद अपरम्पार भगवत कृपा की कृतज्ञता के रूप में ,शायद महानायक अद्वितीय अश्वारोही ,हिन्दू धर्म उद्धारक छत्रपति शिवाजी की पावन स्मृति में। "माटी "के पाठक इस बारे में स्वतन्त्र निर्णय लेने के लिए पूर्ण रूप से बन्धनमुक्त हैं ।

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