क्या सार्थक ? क्या निरर्थक ?
ललित साहित्य के सभी सुधी पाठक इन दिनों साहित्य रचना की जिन विधाओं को अधिक संरक्षण प्रदान कर रहे हैं उनमें कथा साहित्य प्रमुख है। अंग्रेजी में जिसे Fiction कहते हैं। उसमें कथा कहने के सभी प्रकार सम्मिलित हो जाते हैं -जैसे छोटी बड़ी कहानियाँ ,छोटे बड़े उपन्यास ,मनोरन्जक गल्प आदि । अब इस कथन से कौन परिचित नहीं होगा कि , " Truth is strange than fiction." अनेक बार कथायें सत्य लगती हैं पर कथा के रूप में वर्णित सत्य झूठा लगता है। अभी हाल ही में ताजमहल देखने गयी एक टोली में मैं भी सम्मिलित था। आगरा गया तो सोचा सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर सत्येन्द्र शुक्ला से मिल लिया जाय। उन्होंने मुझे हिन्दी उपन्यासों का अच्छा -खासा परिचय मेरी मानविकीय स्नातक परीक्षा के दौरान करवा दिया था। बैठके में मेरे पहुँचते ही उनके चेहरे पर खुशी का भाव झलक आया। मैं मन ही मन खुश हुआ कि मेरे ऊपर आशीर्वाद का भाव अभी तक उनके मन में सुरक्षित है। शिष्टाचार के बाद उन्होंने कहा समदर्शी नौकरी कैसी चल रही है मैंने कहा गुरुदेव आपकी कृपा है। बोले आगरा कैसे आना हुआ है। मैंने बताया आफिस के ताज दर्शन की योजना Week End योजना के अन्तर्गत आना हुआ है। सोचा आपका आशीर्वाद ले लूं फिर वापस जाऊं और सभी साथी नूर महल में चक्कर लगा रहे हैं। सत्येद्र जी ने पूंछा कहानी -वहानी लिखते हो ?मैंने कहा हाँ कोई घटना मन पर प्रभाव छोड़ जाती है तो उसे शब्द बद्ध करने का प्रयास करता हूँ कई बार किसी घटना में चिन्तन का इतना अधिक पुट हो जाता है कि कहानी कहानी न रहकर एक लेख सा बन जाती है।शुक्ला जी नें कहा अरे भाई चारो ओर जो घटित हो रहा है सभी में तो कहानी के कथानक और चरित्र खोजे जा सकते हैं। कई बार आँखों देखा सच भी इतना अहैतुक और असामाजिक लगता है कि उसे कथा बध्य करना कठिन हो जाता है।
मैंने जानना चाहा कि क्या किसी ऐसी घटना से वह रूबरू हुये हैं। उन्होंने कहा हाँ समदर्शी , अभी पिछले महीने पहले की ही तो बात है। हुआ यों कि हम कुछ सेवा निवृत्त लोग एक गाड़ी करके दिल्ली के अक्षर धाम मन्दिर को देखने के लिए गये।मन्दिर देख सुन लेने के बाद कुछ लोग खरीद -फरोख्त में लग गये और हम दो तीन सज्जन गाड़ी लेकर इन्द्रप्रस्थ एक्सटेंशन में आ गये। इस एक्सटेंशन के सोसाइटियों द्वारा बने हुये अलग -अलग इन्क्लेव हैं। मेरे दो साथियों के रिश्तेदार सीताराम इन्कलेव में रहते थे। मेरी बेटी आशीर्वाद इन्क्लेव में रहती है। आमने -सामने तो ही हैं गाड़ी बाहर खड़ी कर दी गयी वे दोनों सीताराम एपार्टमेन्ट की ओर चले गये और मैं आशीर्वाद इन्क्लेव की ओर पर हुआ ऐसा कि मेरी बेटी उस समय अपने फ़्लैट में नहीं थी। ताला बन्द था। पड़ोस की फ़्लैट वालों नें बताया कि वह 15 -20 मिनट बाद लगभग सवा चार बजे अपने बच्चों को साथ लेकर स्कूल से वापस आयेगी। जिस स्कूल में वह अध्यापिका है उस स्कूल में उसके बच्चे भी पढ़ते थे। मैंने सोचा कि पटपड़ गंज के कोने में बने एक पार्क में थोड़ी देर चक्कर लगा लूँ और फिर वापस फ़्लैट में आकर बच्चों से मिल लूँगा। उस समय पार्क में माली के अतिरिक्त बहुत कम लोग होते हैं क्योंकि घूमने वालों का जमघट शाम के समय ही शुरू होता है। हमें बैंच पर हल्के पीले कपड़े पहने एक सफ़ेद बालों वाले चश्मा लगाये हुये बुजुर्ग दिखायी पड़े जो अपने हाँथ में एक पत्रिका लेकर कुछ पढ़ रहे थे। उनके बगल में भी दो एक पत्रिकायें पड़ी थीं। अपने उमर से बड़े उन बुजुर्ग से बातचीत करने का मेरा मन हो आया मैंने उनके पास जाकर बेंच पर बैठने की अपनी इच्छा ब्यक्त की। बगल में पड़ी पत्रिकाओं को थोड़ा खिसकाकर उन्होंने बैठने को कहा। और पूंछा कि क्या घूमने के लिये पार्क में आना हुआ है। मैंने बताया कि मैं अपनी लड़की से मिलने आया था वह एक स्कूल में अध्यापिका है और लगभग आधे घन्टे में फ़्लैट पर वापस आयेगीआदि -आदि । बात चीत चल पड़ी और उन्होंने जान लिया कि मैं भी एक अध्यापक रहा हूँ वे बोले कि वे स्वयं भी एक प्राईमरी के अध्यापक थे और उनके रिटायरमेन्ट के लगभग 17 -18 वर्ष हो गये हैं । बात ही बातों में उन्होंने बताया कि वे उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले से हैं , गुप्ता हैं , उनकी पत्नी का निधन हो चुका है । दो सन्तानें हैं। बड़ी पुत्री बलिया में ब्याही है उसके पति भी अध्यापक हैं। कुछ जमीन भी है दो सन्तानें हैं , सुखी हैं पुत्री से छोटा बेटा पढ़ने में बहुत तेज था उन्होंने अपनी सारी पूँजी लगाकर उसे एम .बी .बी .एस . कराया फिर उसे कुछ वजीफा मिल गया बाकी उनके पास जो कुछ बचा -खुचा था उन्होंने उसकी एम .डी . की पढ़ाई में लगा दिया। अब वह एम . डी .है। उसके कुछ साथी डाक्टरों नें मिलकर एक नर्सिंग होम खोल लिया है। कई सहायक डाक्टर लगा लिये हैं , कई नर्सें है । पार्क से लगे हुये शिवालिक एपार्टमेन्ट में उसने एक सेट खरीद लिया है आगे चलकर अलग से अपनी कोई कोठी बनवा लेगा। शुक्ला जी नें जानना चाहा कि उनके लड़के की शादी हो गयी है या नहीं तो उन्होंने बताया कि शादी एक बहुत बड़े घर में हो गयी है लड़की के पिता सोना -चाँदी का काम करते हैं। दो भाई नौकरों के साथ दुकान सम्भालते हैं। बहू टेलीविजन आर्टिस्ट रही है। चार साल का एक पोता है बहू अब भी कभी -कभी प्राइवेट टी .वी . चैनल्स पर ऐंकर का काम करने के लिये बुला ली जाती है।
शुक्ला जी नें आगे कहा कि यह सुनकर वह मन ही मन बहुत खुश हुये। सोचा कितना सुखी जीवन है इन बुजुर्गवार का लड़की अपने घर में सुखी . लड़का ,बहू और पोता उच्च वर्गीय समाज का स्तर पाकर गुप्ता जी को एक अतिरिक्त गौरव प्रदान कर रहे हैं। शुक्ला जी उठने को हुये शायद बेटी अब स्कूल से वापस आ गयी हो उठते -उठते उन्होंने पूंछा गुप्ता जी आप फ़्लैट पर कब जाते हो ?
हल्के गेरुये वस्त्र पहने प्राइमरी स्कूल के उस सेवा निवृत्त अध्यापक नें शुक्ला जी की ओर एक ऐसी द्रष्टि से देखा जिसका अर्थ वे नहीं समझ पाये उन्होंने कहा क्या बात है गुप्ताजी ? क्या कुछ नाराज हो गये गुप्ता जी बोले अरे नहीं भाई। नाराज -आराज क्या होना है। तुमने प्रश्न ही ऐसा किया है कि मेरे पास उसका उत्तर नहीं है । शुक्ला जी नें कहा क्यों गुप्ताजी बहू तो फ़्लैट पर ही रहती है पोता भी वहीं होगा आपका इन्तजार करता होगा। छोटे बच्चे बूढों के साथ बातचीत कर मन में बहुत आनन्द पाते हैं। गुप्ता जी बोले अब क्या बताऊ भाई जब तक मेरा बेटा वापस नहीं आ जाता मैं फ़्लैट पर वापस नहीं जाता कई बार वह देर रात घर पहुँचता है और मुझे उस सूनसान अँधेरे में पार्क में ही समय काटना होता है। यह तो कहो मालियों से मेरी जान- पहचान है मेरे लड़के का फ़्लैट पार्क से लगा है और माली मुझे पार्क में रुके रहने की इजाजत दे देते हैं। नहीं तो कहाँ खपता -मरता नहीं जानता।
शुक्ला जी को बड़ा ताज्जुब हुआ बोले क्यों गुप्ता जी बहू को पसन्द नहीं करते ? गुप्ता जी बोले अरे भाई बहू मेरे को पसन्द नहीं करती पहले कुछ दिन अपने कमरे में रुका था फिर वह बात -बात में कहने लगी कि मेरे शरीर में दुर्गन्ध आती है और कमरा गंदा हो जाता है। जब कभी पोता मेरे पास आता उसे खींच कर दूर ले जाती यहाँ तक कि मेरी बहू को पोते द्वारा मेरे को Grand Pa कहे जाने में भी आपत्ति है। अब मैं ठहरा बहराइच के एक गाँव के प्राइमरी स्कूल का एक रिटायर्ड अध्यापक , न मुझे अंग्रेजी आती है और न अंग्रेजी रहन -सहन। पत्नी के मरने के बाद कपड़े बदल लिये। अपने कमरे में धुप -धाप जलाकर सियाराम के एक फोटो के साथ एकाध भजन गुनगुनाता रहता हूँ। कुछ दिन लड़के के दबाव में बहू नें यह बर्दाश्त किया और फिर उसने खुली लड़ाई छेड़ दी अब लड़के की जान को आफत यदि वह सुधी पोता को मेरे पास आने को कहता भी तो उसकी पत्नी उसे खींच कर वापस ले जाती। डा .रन्जन गुप्ता एम .डी . नें अपनी पत्नी को घर की मैनेजिंग डायरक्टरशिप सौंप दी। तीन कमरों के उस फ़्लैट में मेरे लिये एक कमरे को पार्टीशन कर एक छोटा सा कक्ष बना दिया गया है पर अब वहां जाने पर भी मेरा दम घुटने लगता है। मन ही नहीं होता जब रात को लड़का आ जाता है और शायद एकाध बार मेरे बारे में सुधी से पूंछता है तब मैं दरवाजे के पास पहुँचकर चुपके से एक अलग रास्ते से अपने छोटे कमरे में पहुँच जाता हूँ।
शुक्ला जी मुझसे बोले समदर्शी तुम्हें यकीन नहीं होगा कि ऐसा भी हो सकता है पर जो मैं कह रहा हूँ वह शत -प्रतिशत सच है। पहले तो मुझे भी यकीन नहीं हुआ था पर अभी तो कहना बाकी है वह शायद तुम्हारे मानव सम्बन्धों के सारे विश्वास ढहाकर गिरा दे। मैंने जानना चाहा कि और क्या बाकी है ? प्रोफ़ेसर सत्येन्द्र शुक्ला जी बोले कि उन्होंने गुप्ता जी से जानना चाहा कि खाने -पीने की व्यवस्था कैसे होती है । उन्होंने कहा कि बहराइच के गाँव से जब वे आये थे तो एक डेढ़ सप्ताह बेटे के किचन से वे खाना माँग लाते थे पर फिर बहू को कभी -कभी काम वाले के न आने पर हाँथ से काम करना पड़ा और वे मेरे खाने -पीने के ढंग को लेकर बडबडाने लगी। एक बार इस सम्बन्ध में जब मेरा बेटा देर रात घर लौटा तो मुझे पति और पत्नी में किसी झड़प होने का आभाष मिला। कान लगाकर सुना तो पाया कि बहू को मेरे खान -पान में हब्सीपन की झलक आती थी और वह नहीं चाहती थी कि उसका छोटा सा बेटा मेरी आदतों को सीख ले। उसने स्पष्ट रूप से मेरे बेटे से कहा कि अपने बाप को खाने -पीने के बर्तन ,सामान ,और गैस चूल्हा उनके अपने कमरे में ही मुहैया कर दें और वे वहीं पर अपना खाना बना लिया करें। गुप्ता जी नें आगे बताया कि उन्होंने अगले ही दिन उनके पास जो छोटे -मोटे पैसे बचे हैं उससे तवा ,कटोरा ,कड़ाही और थाली खरीद ली। बेटे को उन्होंने यह नहीं बताया कि उन्होंने बहू से चलने वाली उसकी झड़प की कोई जानकारी हासिल की है। उन्होंने सिर्फ यही कहा कि वे एक सन्यासी का जीवन जीना चाहते हैं और इसलिए वे अपना खाना स्वयं तैय्यार करेंगें। लड़के नें किसी से कहकर गैस चूल्हा मँगवाकर उनके कमरे में भेज दिया। अगली रात को वह उनके कमरे में आया और कुछ पैसे देने चाहे गुप्ता जी नें उससे कह दिया कि उनके पास खर्चे भर के पैसे हैं जब जरूरत होगी तब माँग लेगें। संकोच न करना कहकर लड़का चला गया तब से वे अपने उस छोटे कमरे में ही अपना खाना ऊषा पूर्व अँधेरे में ही बना लेते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी खट -खट की आवाज भी बहू के मन में घ्रणा उत्पन्न करेगी। रात को जाते समय छोटी -मोटी सब्जी भी अपने साथ ले जाते हैं। मैं यह सब सुनकर अवाक रह गया।
शुक्ला जी आगे बोले समदर्शी जो कुछ मैंने कहा है उसमें कोई भी बात झूँठ की नहीं जोड़ी गयी है। मानव सम्बन्धों की कहानी एक गहरी और घ्रणित स्वार्थ की पाश्चात्य जगत से आने वाली गन्दी विचारधारा से दूषित हो गयी है। यौवन की भोगलिप्सा नें अनिवार्य रूप से आने वाले वार्धक्य के कष्ट पूर्ण जीवन को समझने की संवेदना शून्य कर दी है। काफी देर हो चुकी थी मैं जानता था मेरी बेटी घर पर आ गयी होगी। उठने जा ही रहा था कि मैंने पार्क के गेट से माधुरी को अपने दोनों बच्चों के साथ पार्क के अन्दर आते देखा। भाव विभोर होकर मैं उठ खड़ा हुआ माधुरी मेरे पास आ गयी और बोली बगल के फ़्लैट वालों नें आपके आने की बात बतायी थी मैंने अभी फ़्लैट का ताला भी नहीं खोला है। मैं जानती थी कि आप पार्क में बैठे होंगे फिर उसने गुप्ता जी की ओर दोनों हाँथ जोड़कर कहा प्रणाम स्वीकार करें दादाजी आपसे तो प्रत्येक शाम को पार्क में तो मिलना होता ही है आप सच्चे अर्थों में सन्यासी हैं। आपके बेटे रन्जन की तो इतनी मशहूरी है कि इस इलाके का हर मरीज उन्ही के पास इलाज के लिये जाता है। आपकी बहू की झलक भी एकाध बार टेलीविजन पर देखी है। कभी अपनी इस बेटी के घर आकर भी धन्य करना आशीर्वाद इन्क्लेव में मेरी फ़्लैट का नम्बर 14 है। बच्चों के पिता इन दिनों हिमांचल प्रदेश में व्यापार के सम्बन्ध में गये हुये हैं। अभी पिता जी के साथ चलिये न ।
शुक्ला जी का मन भर आया बोले बेटी फिर कभी आऊँगा मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। माधुरी नें उन्हें पुन :प्रणाम किया और फिर मुझे लेकर वह इन्क्लेव की ओर चल पड़ी।
समदर्शी बेटे आप जानना चाहेंगें क्या मैंने यह सब बातें अपनी बेटी से बतायीं नहीं मैंने उससे कुछ भी नहीं कहा नौकरी के कारण उसे दिल्ली की इस फ़्लैट में रहना पड़ रहा है वरना गाँव में उसके देवर के परिवार के साथ रह रहे अपने ससुर को छोड़ कर आने का उसका मन ही नहीं होता था फिर भी समधी सत्यानन्द जी साल में चार छह महीने तो यंहां रह ही जाते हैं। जो माँ -बाप अपनी बेटी को बहू बनने की शिक्षा नहीं देते और भारत की आदर्श नारियों की गाथायें उन्हें नहीं सुनाते वे निश्चय ही भारतीय समाज के विघटन के लिये जिम्मेदार हैं। मैं उन्हें प्रणाम कर उठने ही वाला था उन्होंने कहा देखो समदर्शी इसे वास्तविक रूप से घट रही विखन्डित परिवार परम्परा को किस प्रकार सन्तुलित करके पुर्नजीवन प्रदान किया जाय इस दिशा में हम सबको मिलकर प्रयास करना होगा। कहानी लिखना चाहो तो इस घटना को हूबहू जैसा मैंने बताया है वैसा ही लिख देन। कांट -छाँट और जोड़ -तोड़ मत करना। कलात्मकता के नाम पर सच्चायी का गला घोंट दिया जाता है\ प्रेमचन्द्र का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद यदि कोई रचनात्मक प्रतिभा फिर से सशक्त ढंग से उजागर कर दे तो उससे हिन्दी साहित्य का बहुत बड़ा कल्याण हो सकेगा। मैंने उठकर प्रोफ़ेसर साहब को प्रणाम करते हुये कहा आपने मुझे कथा साहित्य को पढने -समझने की एक नयी द्रष्टि दी है जो घट रहा है उसे लिखना और जो घटना चाहिये उसकी ओर इंगित करना इन दोनों का निर्दोष मिलन ही श्रेष्ठ कथा साहित्य को जन्म दे सकता है। यदि कोई सफलता मिली तो पूरा श्रेय गुरुवर का होगा। असफलता का सारा बोझ तो मुझे ढोना ही है\ प्रोफ़ेसर सत्येन्द्र शुक्ल मुझे द्वार तक छोड़ने आये कहा बेटे समदर्शी यदा -कदा आ जाया करो जीवन में निरर्थकता का सूनापन छा रहा है। अस्त प्राय : सूरज की ओर देखता हुआ मैं आगे बढ़ता चला गया।
ललित साहित्य के सभी सुधी पाठक इन दिनों साहित्य रचना की जिन विधाओं को अधिक संरक्षण प्रदान कर रहे हैं उनमें कथा साहित्य प्रमुख है। अंग्रेजी में जिसे Fiction कहते हैं। उसमें कथा कहने के सभी प्रकार सम्मिलित हो जाते हैं -जैसे छोटी बड़ी कहानियाँ ,छोटे बड़े उपन्यास ,मनोरन्जक गल्प आदि । अब इस कथन से कौन परिचित नहीं होगा कि , " Truth is strange than fiction." अनेक बार कथायें सत्य लगती हैं पर कथा के रूप में वर्णित सत्य झूठा लगता है। अभी हाल ही में ताजमहल देखने गयी एक टोली में मैं भी सम्मिलित था। आगरा गया तो सोचा सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर सत्येन्द्र शुक्ला से मिल लिया जाय। उन्होंने मुझे हिन्दी उपन्यासों का अच्छा -खासा परिचय मेरी मानविकीय स्नातक परीक्षा के दौरान करवा दिया था। बैठके में मेरे पहुँचते ही उनके चेहरे पर खुशी का भाव झलक आया। मैं मन ही मन खुश हुआ कि मेरे ऊपर आशीर्वाद का भाव अभी तक उनके मन में सुरक्षित है। शिष्टाचार के बाद उन्होंने कहा समदर्शी नौकरी कैसी चल रही है मैंने कहा गुरुदेव आपकी कृपा है। बोले आगरा कैसे आना हुआ है। मैंने बताया आफिस के ताज दर्शन की योजना Week End योजना के अन्तर्गत आना हुआ है। सोचा आपका आशीर्वाद ले लूं फिर वापस जाऊं और सभी साथी नूर महल में चक्कर लगा रहे हैं। सत्येद्र जी ने पूंछा कहानी -वहानी लिखते हो ?मैंने कहा हाँ कोई घटना मन पर प्रभाव छोड़ जाती है तो उसे शब्द बद्ध करने का प्रयास करता हूँ कई बार किसी घटना में चिन्तन का इतना अधिक पुट हो जाता है कि कहानी कहानी न रहकर एक लेख सा बन जाती है।शुक्ला जी नें कहा अरे भाई चारो ओर जो घटित हो रहा है सभी में तो कहानी के कथानक और चरित्र खोजे जा सकते हैं। कई बार आँखों देखा सच भी इतना अहैतुक और असामाजिक लगता है कि उसे कथा बध्य करना कठिन हो जाता है।
मैंने जानना चाहा कि क्या किसी ऐसी घटना से वह रूबरू हुये हैं। उन्होंने कहा हाँ समदर्शी , अभी पिछले महीने पहले की ही तो बात है। हुआ यों कि हम कुछ सेवा निवृत्त लोग एक गाड़ी करके दिल्ली के अक्षर धाम मन्दिर को देखने के लिए गये।मन्दिर देख सुन लेने के बाद कुछ लोग खरीद -फरोख्त में लग गये और हम दो तीन सज्जन गाड़ी लेकर इन्द्रप्रस्थ एक्सटेंशन में आ गये। इस एक्सटेंशन के सोसाइटियों द्वारा बने हुये अलग -अलग इन्क्लेव हैं। मेरे दो साथियों के रिश्तेदार सीताराम इन्कलेव में रहते थे। मेरी बेटी आशीर्वाद इन्क्लेव में रहती है। आमने -सामने तो ही हैं गाड़ी बाहर खड़ी कर दी गयी वे दोनों सीताराम एपार्टमेन्ट की ओर चले गये और मैं आशीर्वाद इन्क्लेव की ओर पर हुआ ऐसा कि मेरी बेटी उस समय अपने फ़्लैट में नहीं थी। ताला बन्द था। पड़ोस की फ़्लैट वालों नें बताया कि वह 15 -20 मिनट बाद लगभग सवा चार बजे अपने बच्चों को साथ लेकर स्कूल से वापस आयेगी। जिस स्कूल में वह अध्यापिका है उस स्कूल में उसके बच्चे भी पढ़ते थे। मैंने सोचा कि पटपड़ गंज के कोने में बने एक पार्क में थोड़ी देर चक्कर लगा लूँ और फिर वापस फ़्लैट में आकर बच्चों से मिल लूँगा। उस समय पार्क में माली के अतिरिक्त बहुत कम लोग होते हैं क्योंकि घूमने वालों का जमघट शाम के समय ही शुरू होता है। हमें बैंच पर हल्के पीले कपड़े पहने एक सफ़ेद बालों वाले चश्मा लगाये हुये बुजुर्ग दिखायी पड़े जो अपने हाँथ में एक पत्रिका लेकर कुछ पढ़ रहे थे। उनके बगल में भी दो एक पत्रिकायें पड़ी थीं। अपने उमर से बड़े उन बुजुर्ग से बातचीत करने का मेरा मन हो आया मैंने उनके पास जाकर बेंच पर बैठने की अपनी इच्छा ब्यक्त की। बगल में पड़ी पत्रिकाओं को थोड़ा खिसकाकर उन्होंने बैठने को कहा। और पूंछा कि क्या घूमने के लिये पार्क में आना हुआ है। मैंने बताया कि मैं अपनी लड़की से मिलने आया था वह एक स्कूल में अध्यापिका है और लगभग आधे घन्टे में फ़्लैट पर वापस आयेगीआदि -आदि । बात चीत चल पड़ी और उन्होंने जान लिया कि मैं भी एक अध्यापक रहा हूँ वे बोले कि वे स्वयं भी एक प्राईमरी के अध्यापक थे और उनके रिटायरमेन्ट के लगभग 17 -18 वर्ष हो गये हैं । बात ही बातों में उन्होंने बताया कि वे उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले से हैं , गुप्ता हैं , उनकी पत्नी का निधन हो चुका है । दो सन्तानें हैं। बड़ी पुत्री बलिया में ब्याही है उसके पति भी अध्यापक हैं। कुछ जमीन भी है दो सन्तानें हैं , सुखी हैं पुत्री से छोटा बेटा पढ़ने में बहुत तेज था उन्होंने अपनी सारी पूँजी लगाकर उसे एम .बी .बी .एस . कराया फिर उसे कुछ वजीफा मिल गया बाकी उनके पास जो कुछ बचा -खुचा था उन्होंने उसकी एम .डी . की पढ़ाई में लगा दिया। अब वह एम . डी .है। उसके कुछ साथी डाक्टरों नें मिलकर एक नर्सिंग होम खोल लिया है। कई सहायक डाक्टर लगा लिये हैं , कई नर्सें है । पार्क से लगे हुये शिवालिक एपार्टमेन्ट में उसने एक सेट खरीद लिया है आगे चलकर अलग से अपनी कोई कोठी बनवा लेगा। शुक्ला जी नें जानना चाहा कि उनके लड़के की शादी हो गयी है या नहीं तो उन्होंने बताया कि शादी एक बहुत बड़े घर में हो गयी है लड़की के पिता सोना -चाँदी का काम करते हैं। दो भाई नौकरों के साथ दुकान सम्भालते हैं। बहू टेलीविजन आर्टिस्ट रही है। चार साल का एक पोता है बहू अब भी कभी -कभी प्राइवेट टी .वी . चैनल्स पर ऐंकर का काम करने के लिये बुला ली जाती है।
शुक्ला जी नें आगे कहा कि यह सुनकर वह मन ही मन बहुत खुश हुये। सोचा कितना सुखी जीवन है इन बुजुर्गवार का लड़की अपने घर में सुखी . लड़का ,बहू और पोता उच्च वर्गीय समाज का स्तर पाकर गुप्ता जी को एक अतिरिक्त गौरव प्रदान कर रहे हैं। शुक्ला जी उठने को हुये शायद बेटी अब स्कूल से वापस आ गयी हो उठते -उठते उन्होंने पूंछा गुप्ता जी आप फ़्लैट पर कब जाते हो ?
हल्के गेरुये वस्त्र पहने प्राइमरी स्कूल के उस सेवा निवृत्त अध्यापक नें शुक्ला जी की ओर एक ऐसी द्रष्टि से देखा जिसका अर्थ वे नहीं समझ पाये उन्होंने कहा क्या बात है गुप्ताजी ? क्या कुछ नाराज हो गये गुप्ता जी बोले अरे नहीं भाई। नाराज -आराज क्या होना है। तुमने प्रश्न ही ऐसा किया है कि मेरे पास उसका उत्तर नहीं है । शुक्ला जी नें कहा क्यों गुप्ताजी बहू तो फ़्लैट पर ही रहती है पोता भी वहीं होगा आपका इन्तजार करता होगा। छोटे बच्चे बूढों के साथ बातचीत कर मन में बहुत आनन्द पाते हैं। गुप्ता जी बोले अब क्या बताऊ भाई जब तक मेरा बेटा वापस नहीं आ जाता मैं फ़्लैट पर वापस नहीं जाता कई बार वह देर रात घर पहुँचता है और मुझे उस सूनसान अँधेरे में पार्क में ही समय काटना होता है। यह तो कहो मालियों से मेरी जान- पहचान है मेरे लड़के का फ़्लैट पार्क से लगा है और माली मुझे पार्क में रुके रहने की इजाजत दे देते हैं। नहीं तो कहाँ खपता -मरता नहीं जानता।
शुक्ला जी को बड़ा ताज्जुब हुआ बोले क्यों गुप्ता जी बहू को पसन्द नहीं करते ? गुप्ता जी बोले अरे भाई बहू मेरे को पसन्द नहीं करती पहले कुछ दिन अपने कमरे में रुका था फिर वह बात -बात में कहने लगी कि मेरे शरीर में दुर्गन्ध आती है और कमरा गंदा हो जाता है। जब कभी पोता मेरे पास आता उसे खींच कर दूर ले जाती यहाँ तक कि मेरी बहू को पोते द्वारा मेरे को Grand Pa कहे जाने में भी आपत्ति है। अब मैं ठहरा बहराइच के एक गाँव के प्राइमरी स्कूल का एक रिटायर्ड अध्यापक , न मुझे अंग्रेजी आती है और न अंग्रेजी रहन -सहन। पत्नी के मरने के बाद कपड़े बदल लिये। अपने कमरे में धुप -धाप जलाकर सियाराम के एक फोटो के साथ एकाध भजन गुनगुनाता रहता हूँ। कुछ दिन लड़के के दबाव में बहू नें यह बर्दाश्त किया और फिर उसने खुली लड़ाई छेड़ दी अब लड़के की जान को आफत यदि वह सुधी पोता को मेरे पास आने को कहता भी तो उसकी पत्नी उसे खींच कर वापस ले जाती। डा .रन्जन गुप्ता एम .डी . नें अपनी पत्नी को घर की मैनेजिंग डायरक्टरशिप सौंप दी। तीन कमरों के उस फ़्लैट में मेरे लिये एक कमरे को पार्टीशन कर एक छोटा सा कक्ष बना दिया गया है पर अब वहां जाने पर भी मेरा दम घुटने लगता है। मन ही नहीं होता जब रात को लड़का आ जाता है और शायद एकाध बार मेरे बारे में सुधी से पूंछता है तब मैं दरवाजे के पास पहुँचकर चुपके से एक अलग रास्ते से अपने छोटे कमरे में पहुँच जाता हूँ।
शुक्ला जी मुझसे बोले समदर्शी तुम्हें यकीन नहीं होगा कि ऐसा भी हो सकता है पर जो मैं कह रहा हूँ वह शत -प्रतिशत सच है। पहले तो मुझे भी यकीन नहीं हुआ था पर अभी तो कहना बाकी है वह शायद तुम्हारे मानव सम्बन्धों के सारे विश्वास ढहाकर गिरा दे। मैंने जानना चाहा कि और क्या बाकी है ? प्रोफ़ेसर सत्येन्द्र शुक्ला जी बोले कि उन्होंने गुप्ता जी से जानना चाहा कि खाने -पीने की व्यवस्था कैसे होती है । उन्होंने कहा कि बहराइच के गाँव से जब वे आये थे तो एक डेढ़ सप्ताह बेटे के किचन से वे खाना माँग लाते थे पर फिर बहू को कभी -कभी काम वाले के न आने पर हाँथ से काम करना पड़ा और वे मेरे खाने -पीने के ढंग को लेकर बडबडाने लगी। एक बार इस सम्बन्ध में जब मेरा बेटा देर रात घर लौटा तो मुझे पति और पत्नी में किसी झड़प होने का आभाष मिला। कान लगाकर सुना तो पाया कि बहू को मेरे खान -पान में हब्सीपन की झलक आती थी और वह नहीं चाहती थी कि उसका छोटा सा बेटा मेरी आदतों को सीख ले। उसने स्पष्ट रूप से मेरे बेटे से कहा कि अपने बाप को खाने -पीने के बर्तन ,सामान ,और गैस चूल्हा उनके अपने कमरे में ही मुहैया कर दें और वे वहीं पर अपना खाना बना लिया करें। गुप्ता जी नें आगे बताया कि उन्होंने अगले ही दिन उनके पास जो छोटे -मोटे पैसे बचे हैं उससे तवा ,कटोरा ,कड़ाही और थाली खरीद ली। बेटे को उन्होंने यह नहीं बताया कि उन्होंने बहू से चलने वाली उसकी झड़प की कोई जानकारी हासिल की है। उन्होंने सिर्फ यही कहा कि वे एक सन्यासी का जीवन जीना चाहते हैं और इसलिए वे अपना खाना स्वयं तैय्यार करेंगें। लड़के नें किसी से कहकर गैस चूल्हा मँगवाकर उनके कमरे में भेज दिया। अगली रात को वह उनके कमरे में आया और कुछ पैसे देने चाहे गुप्ता जी नें उससे कह दिया कि उनके पास खर्चे भर के पैसे हैं जब जरूरत होगी तब माँग लेगें। संकोच न करना कहकर लड़का चला गया तब से वे अपने उस छोटे कमरे में ही अपना खाना ऊषा पूर्व अँधेरे में ही बना लेते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी खट -खट की आवाज भी बहू के मन में घ्रणा उत्पन्न करेगी। रात को जाते समय छोटी -मोटी सब्जी भी अपने साथ ले जाते हैं। मैं यह सब सुनकर अवाक रह गया।
शुक्ला जी आगे बोले समदर्शी जो कुछ मैंने कहा है उसमें कोई भी बात झूँठ की नहीं जोड़ी गयी है। मानव सम्बन्धों की कहानी एक गहरी और घ्रणित स्वार्थ की पाश्चात्य जगत से आने वाली गन्दी विचारधारा से दूषित हो गयी है। यौवन की भोगलिप्सा नें अनिवार्य रूप से आने वाले वार्धक्य के कष्ट पूर्ण जीवन को समझने की संवेदना शून्य कर दी है। काफी देर हो चुकी थी मैं जानता था मेरी बेटी घर पर आ गयी होगी। उठने जा ही रहा था कि मैंने पार्क के गेट से माधुरी को अपने दोनों बच्चों के साथ पार्क के अन्दर आते देखा। भाव विभोर होकर मैं उठ खड़ा हुआ माधुरी मेरे पास आ गयी और बोली बगल के फ़्लैट वालों नें आपके आने की बात बतायी थी मैंने अभी फ़्लैट का ताला भी नहीं खोला है। मैं जानती थी कि आप पार्क में बैठे होंगे फिर उसने गुप्ता जी की ओर दोनों हाँथ जोड़कर कहा प्रणाम स्वीकार करें दादाजी आपसे तो प्रत्येक शाम को पार्क में तो मिलना होता ही है आप सच्चे अर्थों में सन्यासी हैं। आपके बेटे रन्जन की तो इतनी मशहूरी है कि इस इलाके का हर मरीज उन्ही के पास इलाज के लिये जाता है। आपकी बहू की झलक भी एकाध बार टेलीविजन पर देखी है। कभी अपनी इस बेटी के घर आकर भी धन्य करना आशीर्वाद इन्क्लेव में मेरी फ़्लैट का नम्बर 14 है। बच्चों के पिता इन दिनों हिमांचल प्रदेश में व्यापार के सम्बन्ध में गये हुये हैं। अभी पिता जी के साथ चलिये न ।
शुक्ला जी का मन भर आया बोले बेटी फिर कभी आऊँगा मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। माधुरी नें उन्हें पुन :प्रणाम किया और फिर मुझे लेकर वह इन्क्लेव की ओर चल पड़ी।
समदर्शी बेटे आप जानना चाहेंगें क्या मैंने यह सब बातें अपनी बेटी से बतायीं नहीं मैंने उससे कुछ भी नहीं कहा नौकरी के कारण उसे दिल्ली की इस फ़्लैट में रहना पड़ रहा है वरना गाँव में उसके देवर के परिवार के साथ रह रहे अपने ससुर को छोड़ कर आने का उसका मन ही नहीं होता था फिर भी समधी सत्यानन्द जी साल में चार छह महीने तो यंहां रह ही जाते हैं। जो माँ -बाप अपनी बेटी को बहू बनने की शिक्षा नहीं देते और भारत की आदर्श नारियों की गाथायें उन्हें नहीं सुनाते वे निश्चय ही भारतीय समाज के विघटन के लिये जिम्मेदार हैं। मैं उन्हें प्रणाम कर उठने ही वाला था उन्होंने कहा देखो समदर्शी इसे वास्तविक रूप से घट रही विखन्डित परिवार परम्परा को किस प्रकार सन्तुलित करके पुर्नजीवन प्रदान किया जाय इस दिशा में हम सबको मिलकर प्रयास करना होगा। कहानी लिखना चाहो तो इस घटना को हूबहू जैसा मैंने बताया है वैसा ही लिख देन। कांट -छाँट और जोड़ -तोड़ मत करना। कलात्मकता के नाम पर सच्चायी का गला घोंट दिया जाता है\ प्रेमचन्द्र का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद यदि कोई रचनात्मक प्रतिभा फिर से सशक्त ढंग से उजागर कर दे तो उससे हिन्दी साहित्य का बहुत बड़ा कल्याण हो सकेगा। मैंने उठकर प्रोफ़ेसर साहब को प्रणाम करते हुये कहा आपने मुझे कथा साहित्य को पढने -समझने की एक नयी द्रष्टि दी है जो घट रहा है उसे लिखना और जो घटना चाहिये उसकी ओर इंगित करना इन दोनों का निर्दोष मिलन ही श्रेष्ठ कथा साहित्य को जन्म दे सकता है। यदि कोई सफलता मिली तो पूरा श्रेय गुरुवर का होगा। असफलता का सारा बोझ तो मुझे ढोना ही है\ प्रोफ़ेसर सत्येन्द्र शुक्ल मुझे द्वार तक छोड़ने आये कहा बेटे समदर्शी यदा -कदा आ जाया करो जीवन में निरर्थकता का सूनापन छा रहा है। अस्त प्राय : सूरज की ओर देखता हुआ मैं आगे बढ़ता चला गया।
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