Tuesday, 26 November 2019

                                                                                    आस्तिक दर्शन

                    फ्रांस के किसी दार्शनिक लेखक ने भारत की औपनिशदिक विशेषताओं का उल्लेख करते हुये एक मनोरंजक कहानी का हवाला दिया है। वह लिखता है कि उसे काशी का एक चिन्तनशील ब्राम्हण मिला जिसने बातों ही बातों में उससे कहा कि कि यदि वो इस धरती पर जन्म न लेता तो कितना अच्छा होता। फ्रेंच दार्शनिक नें पूंछा ," ऐसा क्यों ?" ब्राम्हण नें उत्तर दिया कि वह पिछले 40  वर्षों से शास्त्रों का अध्ययन कर रहा है। वह जानता है कि उसकी नर काया भौतिक तत्त्वों से बनी है पर उसे यह समझ में नहीं आता कि यह भौतिक तत्व किस प्रकार उसके मन में विचारों का सृजन करते हैं। उसने आगे कहा मुझे इतना भी ज्ञान नहीं है कि जिस सहज भाव से मैं चल लेता हूँ या जिस आमाशयी प्रक्रिया से मेरा खाना हजम होता है ठीक वैसी ही कोई समझ में आ जाने वाली प्रक्रिया मेरी विचारधारा को सन्चालित करती है। जिस तरीके से मैं अपने हाथ से कोई वस्तु सहज भाव से उठा लेता हूँ क्या उसी प्रकार से मेरा मस्तिष्क भी सहज भाव से किसी विचार को पकड़ लेता है। मैं मस्तिष्क की गहराइयों पर बड़े -बड़े व्याख्यान देता हूँ और सुनने वाले भले ही प्रभावित हो जायँ पर बोल लेने के बाद मैं स्वयं ही भ्रमित हो जाता हूँ और मुझे  अपने कहे हुये पर शर्म आने लगती है। अब भला  मैं मन की शान्ति कहाँ से पाऊँ। काश इस धरती पर मेरा जन्म न होता।
             फ्रेन्च दार्शनिक नें आगे लिखा है कि उसी दिन उसने उस चिन्तनशील ब्राम्हण से करीब 50   गज की दूरी पर एक घर में रहने  वाली माथे पर तिलक लगाये एक नारी से बात की।  दार्शनिक नें उससे पूंछा क्या कभी उसने यह सोचा है कि उसकी आत्मा क्या उन्हीं तत्त्वों से बनी है जिनसे उनका शरीर। दार्शनिक लिखता है कि उस स्त्री नें उसके प्रश्न को समझ ही नहीं पाया। उस स्त्री नें अपने सारे जीवन में इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया था। वे प्रश्न जो चिन्तनशील ब्राम्हण को ४0  वर्षीं से तंग कर रहे थे उस स्त्री के लिये बेमानी थे। वह तो भगवान विष्णु के 10  अवतारों में अटल विश्वास  रखती थी और आचमन के लिये यदि उसे थोड़ा सा गंगा जल हथेली पर मिल जाय तो वह अपने को संसार की सबसे सुखी स्त्री समझती थी। इस नारी से मुलाक़ात करने के बाद फ्रेन्च दार्शनिक लौट कर फिर उस चिन्तनशील ब्राम्हण के पास गया और बोला ,"पंडित जी आपसे 5 0  गज की दूरी पर जो तिलक धारी स्त्री रहती है उसने अपने को कभी भी मैटर और सोल के प्रश्नों में नहीं उलझाया। वह कितना सन्तुष्ट और सुखी जीवन जी रही है और एक हैं आप जो व्यर्थ की मानसिक अशान्ति मोल ले रहें हैं।
                     चिन्तनशील ब्राम्हण नें कहा ," फिरंगी दार्शनिक आप ठीक कहते हैं हजारों बार मैंने सोचा है कि मैं भी वैसा ही प्रसन्न रहूँ जैसी वो तिलकधारी नारी देह। पर तब मुझे ऐसा लगा है कि मुझे वैसा ही मूर्ख भी होना होगा। मैं इतनी बड़ी मूर्खता मोल लेकर प्रसन्नता की गोद में नहीं जाना चाहता। मानसिक चिन्तन से उत्पन्न अशान्ति ही मेरा आभूषण है। ब्राम्हण अस्मिता की यह पहचान है । "फ्रांस के उस दार्शनिक नें लिखा है कि चिंतनशील ब्राम्हण के इस उत्तर नें उसे एक ऐसी दिव्य आन्तरिक द्रष्टि प्रदान की जो उसे किन्हीं पश्चिमी धर्म ग्रन्थों में नहीं मिल पायी थी।
                        तो मस्तिष्क में जिज्ञासाओं का जन्म और उनके संतोषजनक उत्तर पाने के प्रयास सभ्य मानव की विरासत हैं। इनसे मुक्ति पाने का अर्थ है पशुओं जैसा सहज दिखने वाला अज्ञान भरा जीवन। चिन्ता नहीं करनी है पर चिन्तन अवश्य करना है ,गूढ़ से गूढ़तम ,सूक्ष्म से सूक्ष्मतम चिन्तन की प्रक्रिया मस्तिष्क के अपार अपरचित विस्तार से न जाने कितने मणि -माणिक खोजकर ले आती है।सर्वविदित है कि हर काया सामान नहीं होती ठीक वैसे ही हर मस्तिष्क सामान नहीं होता।  पर जिस प्रकार मानव काया की सरंचना के कुछ सामान्य नियम हैं वैसे ही मस्तिष्क के सरंचना के भी कुछ सामान्य आधार मिल सकते हैं। मानव काया पर भी लाखों वर्षों के विकास क्रम की लुप्त प्राय छापें देखी जा सकती हैं। उसी प्रकार मानव मस्तिष्क में भी लाखों वर्षों से चिन्तन विकास को निरन्तरता के सूत्र तलाशे जा सकते हैं। शक्ति ,सत्ता और सुख उपभोग के एनेकानेक प्रयोगों के बाद अब मानव जाति  Democracy के विश्वव्यापी प्रयोगों को अपनाने की ओर अग्रसर है। हजारों वर्ष पहले यह प्रयोग छोटे स्तर पर सीमित क्षेत्रों में किये गये थे तब उनके रूप में आज जैसी समरसता नहीं थी पर मूल रूप से वे जनतान्त्रिक प्रयोग ही थे। आज का विश्व घूम फिर कर उन प्रयोगों को परिवर्धित ,परिपोषित कर समस्त विश्व में लागू करना चाह रहा है। इस दिशा में आधुनिक मानव सभ्यता नें निश्चय ही आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त की हैं। योरोपियन और अमेरिकन डिमोक्रेसीज तो सफल प्रयोग है ही भारत का 6 5  वर्ष पुराना जनतान्त्रिक प्रयोग भी काफी कुछ सफल माना जा सकता है। यद्यपि उसके कुछ दुर्बल पक्ष भी उभर कर आये हैं। गहन चिन्तन के द्वारा ही इन दुर्बलताओं का निराकरण किया जा सकता है। अज्ञानी तिलकधारी पुजारिन की भाँति इस भ्रम में डूबे रहना कि जो व्यवस्था चल रही है वही ठीक है हमें लक्षित ऊँचाइयों तक नहीं पहुचा सकती।
                              स्रष्टि  में कितनी विभिन्नता है यह हम सभी जानते हैं। इसे स्रष्टिकार का कौशल कहें या प्रकृति का रस्यात्मक खेल कि जंगम स्रष्टि में जीवन संघर्ष का निर्दयी खूनी खेल प्रत्येक क्षण अनवरत गति से चलता रहता है। धरती ,समुद्र और आकाश सभी जगह कोई जीवन किसी जीवन का भक्षण कर रहा है और स्वयं किसी  अन्य का भक्ष्य बन रहा है। मानव सभ्यता नें ही इस दिशा में कुछ प्रतिबन्ध लगा सकने में कुछ सफलता पायी है। चार्वाक नें तो कहा ही था कि , " मैं आकाश में पतंग , धरती पर चारपायी और समुद्र में जलतरी को छोड़ कर सभी कुछ खा सकता हूँ। " उसने भी विद्वान दार्शनिक होने के नाते ,धरती पर मनुष्य के खाने की बात नहीं कही पर अब तो आज मानव मानव को खा रहा है। याद करिये निठारी के उस राज कुमार कोली को जो बच्चों को फुसलाकर उन्हें मारकर पकाकर उनका माँस खाया करता था और जिसने एक नारी को भोगकर उसे पकाकर खा डाला था। खैर तो छोडिये मनुष्य के रूप में इस घिनौने पशु का स्मरण और आइये हम जंगल में डिमोक्रेसी के सम्बन्ध में एक कहानी पर विचार करें।
                             कहते हैं मानव नें अपनी प्रारम्भिक अवस्था में जब जंगलों का काटना प्रारम्भ किया और जंगल में रहने वाले प्राणियों को अपनी हिंसा भरी भूख का शिकार बनाया तो जंगल के जानवरों नें सामूहिक रूप से मानव के हिंसक प्रयासों को रोकने के लिये एक विचार मंच आयोजित किया। आखिर आदमी भी तो मिल जुल कर कबीलायी भाई चारे के डोरों से बंध कर जंगल पर जंगल विजय पाते जा रहे थे। उन दिनों बहुत विशाल जंगल रहते होंगें। साफ़ सुथरी भूमि तो बहुत ही कम रही होगी पर प्रारम्भिक आदि मानव के हाथ में जब कुल्हाड़ा आ गया तो जंगल पर जंगल साफ होने लगे। घने जंगल के बीच जानवरों की सभा में गजराज को प्रधान चुन कर सभा आयोजित हुयी श्रगाल राज नें प्रस्ताव रखा कि जंगल सभी का है और सभी को इसमें रहने का बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये। लोमड़ मामा नें भी इसका समर्थन किया। खरगोशों  के सरदार अपनी पतली आवाज की सीटी बजाते हुये यह बताया कि छोटे बड़े सभी बराबर हैं ,कुदरत नें हम सबको बनाया है। आखिर आदमियों की कौम में भी तो कोई लम्बा है तो कोई नाटा ,कोई बहुत मोटा है तो कोई सीकिया है , कोई काला है तो कोई गेहुआं है। कोई लंलौंछ है तो कोई पीताभ है। कुछ लोगों के बाल हमारे पूँछ के नोक जैसे घुंघराले हैं और कुछ के ऐसे लम्बे जैसे सिंह महराज के अयाल। खरगोश की इस बात की बहुत सराहना हुयी और सभी सभा में उपस्थित वन्य प्राणियों नें ताली बजाकर इन बातों का अनुमोदन किया।  ताली बजाते समय जब सिंह राज नें अपने पंजों को देखा तो उसके मन में एक विचार कौंध गया\ उसने गजराज से कुछ कहने की अनुमति माँगी। गजराज नें उनका उठा हुआ पंजा देख लिया था और उन्हें अनुमति तो देनी ही थी। सिंह राज नें कहा राजा खरगोश की बात बहुत पायेदार है\ सभी कुछ पंजों पर ही खड़ा होता है। पंचायत का मतलब ही है पंजों का बोलबाला\ मैं खरगोश राज से कहूँगा कि वे अपना पंजा दिखावें।  मैं आप सबको अपना पंजा दिखाता हूँ यह कहकर सिंह राज दहाड़े और जंगली जानवरों की पंचायत एक दूसरे को कुचलती हुयी भाग खड़ी हुयी। क्या पता शायद इसी कहानी के बल पर भारतीय जनतन्त्र में किसी राजनैतिक पार्टी नें पंजे को अपना निशान बना लिया  है। सिंह राज की बात आ गयी तो बहुत पहले का एक चनावी नारा दिमाग में कौंध गया। नारे को कृपया किसी राजनैतिक प्रचार से जोड़ कर न देखे। उसके शब्दों की संगीतमयता और उसके अर्थ की गहनता की ओर ध्यान दें।
                      एक शेरनी सौ लंगूर ,चिक मगलूर -चिक मगलूर , चलिये छोडिये इन हल्की -फुल्की बातों को\ मिल जुल कर थोड़ा कुछ गहन चिन्तन कर लें।  आखिर सकारात्मक चिन्तन ही तो किसी समस्या के समाधान की ओर ले जाता है।
                   हमारी आज की जम्हूरियत कई मायनों में एक लचड़ -पचड़ क़ानून की व्यवस्था ही कही जा सकती है हर एक वयस्क नर -नारी को वोट का अधिकार है यह हमारी जम्हूरियत का सबसे सबल पक्ष है पर अंध विश्वास ,अशिक्षा ,घोर गरीबी और गर्दन तोड़ महगाई झेलने वाला भारत का लगभग दो तिहायी जन समुदाय युनिवर्सल फ्रेंन्चाइजी के अधिकार को एक छलावे भरी चाल  से अधिक कुछ नहीं मानता। और है भी तो यह एक छलावा ही\ सपनों की सौदागरी। जाति -पाति का मिथकीय ,लुभावनी तकनीकी प्रगति का मायाजाल। क्षेत्रीय पहचानों का महाकाव्यीय विस्तार\ यही कारण है कि आजादी के संग्राम के महानायकों के महाप्रयाण के बाद सारा भारत क्षेत्रीय भूखण्डों में बटकर जीवन और मरण के बीच पड़ा है अपंग होकर भी वह जीवित है और जिजीविषा लेकर भी वह मरणोन्मुख है।भिन्न -भिन्न राज्यों की गलियों ,मुहल्लों और प्रखंडों में घूम फिर कर मुश्किल से हमें कुछ ही भारतीय या हिन्दुस्तानी मिल पाते हैं। हम तिलंग हैं ,हम मराठे हैं ,हम बंगाली हैं ,हम पंजाबी हैं ,हम कश्मीरी हैं ,हम बुन्देलखंडी हैं ,हम झारखन्डी हैं ,हम उड़िया हैं ,हम असमिया हैं पर  शायद हम सच्चे अर्थों में हिन्दुस्तानी नहीं। हम जाट  हैं ,हम अहीर हैं ,हम गूजर हैं ,हम जाटव  हैं ,हम राजपूत हैं ,हम जांगड़ हैं ,हम राँगण हैं ,हम मुखर्जी हैं ,हम मिश्रा हैं ,हम शेख हैं ,हम सैय्यद हैं ,हम कुंजड़ा हैं ,हम चिकवा हैं पर शायद ही हम हिन्दुस्तानी हैं। और तो और अगर हम हिन्दुस्तानी हैं तो क्या हम भारतीय भी हैं और अगर हम भारतीय भी हैं तो क्या हम हिन्दुस्तानी भी हैं ?
                        मदर मेरी को साड़ी पहनाकर गोद में शिशु लेकर जाते हुये दिखाने पर भी क्या वे भारतीयों की श्रद्धा पा सकेंगीं ? मसीह की सेवा में निरत न जाने कितने पादरी स्वयं ही इस प्रकार के परिवर्तन का विरोध करते दिखायी पड़ रहे हैं। स्पष्ट है कि भारतीय जनतंत्र सच्चे अर्थों में भारतीय जनता को अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं कर सका है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय तो यहाँ तक कह चुका है कि शायद भगवान भी इस देश में उचित न्याय व्यवस्था लागू नहीं कर पायेंगें।
                       ऐसा उसने इसलिये कहा क्योंकि कितने ही सांसद चुनाव हार  जाने के बाद भी सरकारी बंगले और निवास स्थान नहीं छोड़ते और क़ानून उन्हें ऐसा करने में अपने को लचर पाता है। जिस जनतंत्र में सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश भी व्यवहारिक रूप न ले सके जन -तन्त्र की गौरव गाथा को मात्र शब्द आडम्बर ही कहा जायेगा तो सोचिये क्या आत्म पवित्रता का भारत की आज की राजनीति में कोई अर्थ रह गया है ? "हम्माम में हम सभी नंगें हैं "यह कहकर राजनीतिक पार्टियाँ सच्चायी  से दूर भागने की कोशिश कर रहीं हैं। पर काल का अहेरी अपनी कमान पर तीर चढ़ाये ठीक समय का इन्तजार कर रहा है शर -विद्ध पक्षी की भाँति अपनी काल्पनिक ऊँचाई में उड़ते हुये अधिकाँश भ्रष्ट और भ्रमित जन -प्रतिनिधि लुंज -पुंज होकर माटी में लोटते दिखाई पड़ेंगें।
                             गहन चिन्तन करने पर हम पाते हैं कि आज के भारत में सदाचार ,ज्ञान और त्याग का कोई अर्थ नहीं रह गया है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि दुष्ट ,दुराचारी आततायी और आतंकी हुये बिना राजनीति में सफलता पायी ही नहीं जा सकती। ग्राम पंचायत से लेकर राज्य की विधान सभाओं और केन्द्रीय संसद में भी जघन्य अपराधों के षडयंत्रकारी और विधाता बैठे दिखाई पड़ते हैं। तब क्या किया जाय। एक मार्ग तो यह है कि हम मानव जन्मों की अनवरत श्रंखला में विश्वास करें। हम मान लें कि हमारे अच्छे कर्मों का फल इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में या फिर उससे अगले जन्म में मिलेगा। भारतीय चिन्तन का मूल स्वर आस्तिकता का रहा है , हम मानते हैं कि श्रष्टा का न्याय सम्पूर्ण और ब्रम्हाण्डीय विवेक पर आधारित है। हम मानते हैं कि अन्याय से पोषित वृत्तासुर ,दशानन और कंस निश्चय ही एक दिन राख के ढेर बनकर वायु में उड़ जायेंगें। सदाचारी रह कर भी ,सदपथ पर चलकर भी ,मूल्य आधारित जीवन जी कर भी ,प्रतिभा पुत्र होकर भी जब हमें आज की सामाजिक ,राजनीतिक व्यवस्था में सम्माननीय स्थान नहीं मिल पाता तो हमारा चिन्तन माओ ,चे गवेरा ,Fidel Kastro, और प्रचण्ड की ओर देखने लगता है। पर हमें अंग्रेजी की इस कहावत में पूरा विश्वास करना होगा कि " Wheels of Justice grind slowly but grind surely." बापू तभी तो कहा करते थे , " It is only through pure means that ideal results can be attained ." और अब कहीं -कहीं दिखायी तो पड़ने लगा है कि कुछ मन्त्री , आई .ए . एस .और आई .पी .एस .अधिकारी , कुछ सर्विस सेलेक्शन बोर्ड्स के सदस्य और कुछ सांसद और विधायक जेल की सलाखों के पीछे खड़े हैं। ऊषा की कुछ किरणे ही आने वाले प्रभात का आभाष देती हैं। हमें भारतीय आस्तिक दर्शन के अनुगामियों और चिन्तकों को ईश्वरीय न्याय की अटलता और सर्वोच्चता में विश्वास रखना ही होगा। इस मार्ग पर चलने में हमें जो भी मिले सफलता -असफलता ,सुख -दुःख ,राग -विराग ,जीवन म्रत्यु उसे हमें हँस -हँस कर वरण करना होगा। यह वरण ही समाधिस्थ योगी की प्रसन्नता हमें दे पायेगा।

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