Tuesday, 26 November 2019

                                               जय मेवाड़ जय महाराणा प्रताप

उदयपुर की पहाड़ियों की लम्बी और दुरूह श्रंखला ,दो पहाड़ियों का समानान्तर प्रस्तार के बीच एक उपत्यका ,दोनों किनारों पर पहाडी में कुछ नैसर्गिक और कुछ काट कर बनायी गयी मानव निर्मित गुफाएँ। बीच की एक अपेक्षाकृत बड़ी गुफा में हल्दी घाटी के अविस्मर्णीय युद्ध में सुरक्षित निकल आये मेवाड़ के महाराणा प्रताप और और उनके परिवार का निवास ,साथ लगी और सामने की कुछ गुफाओं में महाराजा के अत्यन्त विश्वस्त राजपूत सेना के बचे हुये दस -बारह सेना अधिकारी ,पौष्टिक आहार के अभाव में क्षीण शरीर ,पर मुँह पर आत्म बल की दमक भरी चमक। पास के पहाड़ी जंगलों से कुछ बनवासी पेंड़ की पतली टहनियों से बनी डालियों में जंगली कन्दमूल फल लेकर उतरते दिखायी पड़ते हैं। महाराणा प्रताप की बेटी से जब जंगली बिलाव उसकी रोटी छीन ले गया था उसके कुछ दिन बाद का आशा -निराशा भरा माहौल। अकबर के दरबार के राजपूत सामन्त द्वारा लिखी गयी प्रेरक पंक्तियों को पढ़कर महाराणा प्रताप का अपराजित आत्म विश्वास पुन :लौट आया है। पर सेना जुटाने के संसाधन कहीं से जुटाये नहीं जा सकते। मुग़ल सेना और मुग़ल साम्राज्य के बल पर सेनापति मानसिंह चारो ओर घेराबन्दी बनाये बैठे हैं। मेवाड़ साम्राज्य के अधिकाँश धनिक लुट चुके हैं पर दो एक जाने माने धन श्रेष्ठी किन्हीं गुप्त स्थानों में छिपे हुये हैं। न तो महाराणा को उनका पता है और न उनको महाराणा का। कुछ बनवासी भिल्ल ,गोंड आदि पर्वतीय बनवासी बाहरी संसार से सम्पर्क के साधन हैं। उन्हीं बनवासी परिवारों की नारियां महाराणा के परिवार के लिये भोजन साम्रग्री जुटाती हैं। और सेवारत रहती हैं। यह वनवासी भिल्ल ,गोंड भी इतनी सावधानी से अपना काम करते हैं कि उसकी भनक तक मुग़ल सेना अधिकारियों के पास नहीं पंहुँच पाती। राणा के साथ रह रहे १ ० -१२  शूर -वीर राजपूत सेनापति कभी -कभी वनवासियों की मदद से अपना भेष बदलकर पहाड़ियों की श्रंखला में स्वाभाविक रूप से पायी जाने वाली अन्य गुफाओं की तलाश करते हैं। उन्हें विश्वास है कि संपन्नतम श्रेष्ठियों के कुछ परिवार महाराणा के वफादार हैं। और यदि वे मिल जायँ तो युद्ध के लिये सेना और रण सामग्री फिर से जुटायी जा सकती है। मेवाड़ राज्य की जनता मुगुल सेना की घेराबन्दी के बावजूद भी महाराणा पर अपने प्राण निछावर कर सकती है। पर आतंक और असहायता उन्हें चुप किये हुये है। कुछ बनवासी स्त्रियाँ डलियों में कन्दमूल फल इकठ्ठा कर महाराणा के परिवार के लिये ले आती हैं। लम्बी गुफा के अन्तिम छोर पर एक लम्बी प्रस्तर पट्टी डाल  कर महाराणा प्रताप लेते हुये हैं। उनका लम्बा फलदार चमचमाता भाला पास ही गुफा के पत्थरों का सहारा लेकर खड़ा है। म्यान में बंद लम्बी तलवार पास ही रखी हुई है। महारानी रूपलेखा कुछ फल बेटी के आगे रख देती है फिर उन बनवासी औरतों की ओर देखती है। उन्हें लगता है कि उन औरतों में एक ऐसी अधेड़ साथिन है जो पहले कभी नहीं आयी। वे वनवासी टोली की सबसे समझदार अर्धवयस्का निरंजनी से जानना चाहती हैं कि टोली में और किसको ले लिया गया है। महारानी रूपलेखा को भी प्रत्येक क्षण सावधान रहने की आवश्यकता है। वे जानती है कि मुग़ल सेना के अधिकारी जासूसी के लिये काईयाँ चालें चल रहें हैं। निरंजनी इशारे से बताती है कि नयी अर्धवयस्का वनवासिन से कोई खतरा नहीं हैं और वह महारानी से इशारे से प्रार्थना करती है कि इस नयी अर्धवयस्का वनवासिन को गुफा के अन्तिम छोर पर विश्राम कर रहे महाराणा से मिलवा दें। महारानी रूपलेखा करतल और उँगलियों के इशारे सर पूछती हैं कि मुलाक़ात की आवश्यकता कैसे आ पड़ी है। निरंजनी गुफा की छत के ऊपर  हाँथ जोड़कर छत  के ऊपर फ़ैली नीली छतरी के मालिक महाठाकुर प्रभु को प्रणाम करती है। रूप लेखा समझ जाती है कि शायद आराध्य देव उनके कुल देवता प्रसन्न हुये हैं और कोई जरूरी सन्देश महाराणा तक भेजा गया है। पहली ही निगाह में उन्होंने समझ लिया था कि नयी अर्धवयस्का बनवासिन के ऊपरी वस्त्र जल्दी में जुटाये गये हैं। चौड़ा लंहगा ,कमर पर छोटा पड़ रहा था और ओढ़नी भी भिल्ल स्त्रियों की भांति वक्ष पर नहीं डाली गयी थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि वनवासी नारी के छद्दम भेष में कोई मुगुल भेदिया हो? महारानी रूपलेखा नें फिर एक बार प्रश्न भरी निगाहों से निरंजनी की ओर देखा ,निरंजनी नें पहले सिर झुकाकर उनके चरणों को प्रणाम किया। फिर अपने गले पर उँगली फ़ेरी। महारानी रूपलेखा समझ गयी कि यदि धोखा हो तो उसका गला काट दिया जाय। जंगल की यह नारियाँ न केवल बहादुर थीं बल्कि महाराणा प्रताप के लिये अपना सर्वश्व निछावर कर सकती थीं। उनकी बोटी -बोटी भी कट जाय पर उनके मुँह से भेद का एक भी शब्द नहीं निकल सकता था। इन्हीं के सहारे और इन्हीं की एकत्रित खाद्य सामग्री से महाराणा प्रताप और उनका छोटा सा दल इन गुफाओं में काफी लम्बे अरसे तक सुरक्षित रह सका था। पुरुष भील और गौड वनवासी शहद इकठ्ठा करते ,छोटे -मोटे वनप्राणियों का शिकार करते ,लम्बे पेड़ों और बाँस के झुरमुटों से लाठियाँ बनाते ,खटोले बनाते ,हिंडोले बनाते और उन्हें बाजार में बेंच आते। वनवासियों की कारीगरी किसी स्कूल में नहीं सिखायी जाती। उसे वे स्वयं अपने वन्य परिवेश में सीख लेते हैं। इन वनवासियों पर मुग़ल सैनिक और मुग़ल अधिकारी कभी भी शक नहीं कर सकते थे।
                          वन वासी नारी टोली को वहीं खड़े रहने का इशारा कर महारानी गुफा की  अन्तिम छोर की ओर चल पडीं जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि गुफा की चौड़ाई तो १ ०-१२ फुट ही रही होगी । पर इसकी गहराई लगभग ७० या ७५ फीट थी। गुफा के बीच में पथ्थरों की एक कृत्रिम दीवार खड़ी थी।  भीलों ने दीवार को इस तरीके से रचा था कि ऊपर का एक  पत्थर हटाते ही नीचे के और पत्थर भीतर की ओर जाने का एक सकरा कृत्रिम रास्ता बन जाता था। महाराणा प्रताप ,इसी दीवार के पीछे गुफा के अन्तिम छोर पर कभी बैठते ,कभी विश्राम करते ,कभी अपने अत्यन्त विश्वस्त्र सैनिक सरदारों से महारानी द्वारा संदेशा भिजवा कर परामर्श द्वारा आगे की रणनीति तय करते। अब उनकी सबसे बड़ी समस्या सेना और शस्त्र जुटाने के लिये धन की व्यवस्था करना था। विशाल मुग़ल सेना की घेराबन्दी उन्हें बाहर कहीं नहीं जाने दे सकती  थी और उन तक पहुंचना भी असम्भव सा लगता था। ऐसा लग रहा था कि उन गुफाओं में ही महाराणा प्रताप ,उनके परिवार और उनके विश्वस्त्र सभासदों का एक एक करके समय आ जायेगा। महारानी रूपलेखा निरन्तर ठाकुर भगवान् का स्मरण करती थीं। न जाने क्यों उनके भीतर से बार बार यह आवाज आती थी शीघ्र ही कोई मार्ग खुलने वाला है। वे हल्के  कदमों से चलकर महाराणा के पास आकर खड़ी हों गयीं। उन्होंने महाराणा को प्रणाम किया लेटे हुये महाराणा उठ कर बैठ गये। लम्बी शिलापट्टिका पर अपने पास हाथ थपथपाकर महारानी को बैठ जाने को इंगित किया। सलज्ज महारानी सुलेखा कुछ दूर उनके चरणों के पास बैठ गयीं ,निराशा के उस गहन अन्धकार में भी दोनों के बीच जो बातचीत हुयी उसमें उनके अपार आत्मिक प्यार की स्पष्ट झलक मिलती है।
                   महारानी सुलेखा का स्वागत है। मेवाड़ के पराजित महाराणा के पास अब और देने को क्या है प्राण ही तो हैं ,और हमारे प्राण तो सदैव आपके बन्दी ही रहे हैं।
                   हे क्षत्रिय श्रेष्ठ आप राजपूत कुल के गौरव हैं। आप भारत माता के माथे पर लगने वाले पवित्र तिलक की भाँतिहैं । आपने मुझे क्या नहीं दिया। संसार की और कौन सी नारी है जिसे  ऐसा  भाग्य मिला हो। ह्रदयेश्वर एक अधेड़ वयस्का वनवासिन आप से मिलना चाहती है। मुझे शक है कि कहीं वह वनवासी नारी भेष में पुरुष न हो उसे वनवासी नारियों के वस्त्र पहनने का सलूक नहीं आता पर निरंजना कहती है कि उसके पास आपके लिये कोई विशेष सन्देश है और यदि इसमें तनिक भी भूल हो तो उसका और उसकी साथिनो का गला काट दिया जाय। प्राण नाथ आप तो जानते ही हैं कि निरंजना हमारा कितना बड़ा सहारा है।
                     महाराणा प्रताप कुछ सोचने लगते हैं। एक द्रढ़ निश्चय का भाव उनके मुख पर आ जाता है। म्यान में रखी तलवार उठाकर अपने बगल में रख लेते है। मूंठ का कुछ हिस्सा म्यान से बाहर खींच लेते है। और फिर राजसी स्वर में महारानी को आदेश देते हैं कि वापस जाकर उस अर्धवयस्का वनवासी नारी को अकेली अन्दर भेज दें। महारानी रूप लेखा नें अन्दर आते समय द्वार फिर से बन्द कर दिया था। अब फिर पत्थर उठाकर द्वार खोलती है पर बन्द नहीं करती। उस अर्धवयस्का वनवासी नारी को अपने साथ लेकर सकरे दरवाजे तक जाती है। उसे अन्दर जाने को कहती है और फिर द्वार बन्द कर देती है। लौट कर अपने स्थान पर आकर बैठ जाती है। टोली की और वनवासी नारियाँ उनके आस -पास बैठ जाती है। एकाध अपने साथ वन में खिले हुये कुछ फूल साथ ले आयी है उन फूलों को महारानी रूप लेखा के बालों को सजाने लगती है। एकाध महारानी से कुछ फल खा लेने का आग्रह करती है। छोटी बच्ची फल खाकर निद्रा की गोद में चली गयी है।वह शान्ति के साथ  स्वप्न लोक में खोई हुयी है उसकी पलकें बन्द हैं पर उसका नन्हां चाँद सा मुखड़ा गुफा में प्रकाश बिखेर रहा है। समय बीतता चला जाता है ,आधी घड़ी का समय बीत चुका है। महारानी चिन्तित हो उठी हैं। पर गुफा के भीतरी भाग से अभी तक कोई पुकार तो आयी नहीं। सहसा लगता है कि कुछ पद चाप निकट आते जा रहें हैं। भीतर से दरवाजा खुलता है। महाराणा प्रताप के साथ जो सज्जन चल रहे हैं उनकी वय ५५ -६०  के बीच होगी। वे सिर पर मेवाड़ी पगड़ी बांधें हैं। अंगरखा पहने हैं। पैरों में दुपल्लू राजस्थानी ढंग की धोती बांधें हैं और साथ ही कामदार राजस्थानी जूतियाँ पहने हैं। उनके हाँथ में एक लंहगा और एक ओढ़नी है। महारानी रूप लेखा समझ जाती है कि दरअसल उस वनवासी अधेड़  नारी वेष  में यह महाश्रेष्ठी ही महाराज से मिलने आये थे। महाराणा को द्वार से बाहर आते देख महारानी रूप लेखा और वनवासियों की पूरी टोली सादर खड़ी हो जाती है और उन्हें हाँथ जोड़कर प्रणाम करती है महाराज रूपलेखा के पास आते हैं और एक प्यार भरी द्रष्टि उस पर डाल कर कहते हैं रूपलेखे यह मेवाड़ राज्य के सबसे समर्थ और अतुल सम्पदा के मालिक श्रीमन्त भामाशाह जी हैं। महारानी रूपलेखा हाँथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करती हैं श्रेष्ठी भामाशाह आदर के साथ कहते हैं महारानी आप मेवाड़ राज्य की राज्य श्री हैं उम्र में आप मेरी पुत्री तुल्य हैं पर क्षत्राणी के आदर्श चरित्र के रूप आपकी यशोगाथा दिगदिगन्त में लहराती  है । आने वाला इतिहास शाहत्राब्दियों तक मेवाड़ की गौरव गाथा दोहराता रहे इसलिये आज मैं महाराणा के चरणों में अपना सब कुछ समर्पित  करने आया था। महाराणा प्रताप की जय हो। मेवाड़ का स्वतंत्रता युद्ध फिर से प्रारम्भ होगा। महाराणा प्रताप ताली बजाकर इंगित देते हैं बनवासियों नारियों की टोली तुरन्त गुफा से बाहर निकल जाती है। पास की गुफाओं में महाराणा के दशाधिक शूर वीर सेनापति गुफा में प्रवेश करते हैं। सभी दीवाल के पीछे अन्तर गुफा में प्रवेश करते हैं। महारानी रूपलेखा झिझकती है। महाराणा प्रताप उन्हें हाँथ पकड़कर चलने का आग्रह करते हैं कहते सुने जाते हैं तुम वीर पुत्री हो ,वीर क्षत्राणी हो ,भारतीय नारी का गौरव हो ,तुम्हें ही तो राज्य श्री के स्थान पर बिठाकर नयी सेना का संगठन किया जायेगा। सुनना चाहोगी श्रीमन्त भामाशाह के अद्दभुत त्याग की अमर कहानी ,साठ सहस्त्र सेना साठ सहस्त्र आयुध सुसज्जित सेना ,बीस वर्ष तक उनके द्वारा समर्पित सम्पत्ति पर खड़ी रह सकती है। जब तक राजस्थान का इतिहास है श्रीमन्त भामाशाह की कथा घर -घर में गूँजेगी। उदयपुर की पहाड़ियाँ छोड़कर शीघ्र ही उदयपुर  के महल में महारानी रूपलेखा का निवास होगा।
                    एक समवेत स्वर गूँजता है -जय मेवाड़ ,जय महाराणा प्रताप। दूर कहीं कविता की चार लाईनें हवा में गूँजती सुनायी पड़ती हैं:-
                                                    "यों धनिक  जगत में बहुतेरे ,
                                                     पर भामाशाह अकेले थे ।
                                                    अतुलित धन कर अर्पित सहर्ष ,
                                                    वह स्वतन्त्रता की होली खेले थे ॥
          दूर क्षितिज पर लहराता कपिध्वज पार्थ का रथ। पार्थ सारथी तिर्यक ग्रीवा में हतोत्साहित  अर्जुन को उत्साहित करते हुये । गीता की अमर पंक्तियाँ अन्तरिक्ष में गूँज रहीं हैं।
                 " परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम ,
                    धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे -युगे ।"


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