Friday 29 November 2019

         निर्मम सत्य

                      उमर के साथ स्मृति पर पड़ा हुआ धुधंलका गहराता जाता है | काफी पहले की बात है मैं उस समय गाँव के मिडिल स्कूल में आठवीं का विद्यार्थी रहा हूँगा | दीवाली के आस -पास उन दिनों कट्टर धार्मिक हिन्दुओं में भी जुंआ खेलने का रिवाज था |  तरुण , बड़े और बूढ़े सभी पाँसा फेंककर या कौड़ियां चलाकर आने वाले वर्षों में अपने भाग्य की अजमाइस करते थे जीत गए तो सुखद भविष्य की कल्पना और हारे तो भजन ,पूजन में मानसिक शान्ति की कल्पना | जो लोग जुंआ के व्यसनी होते हैं उन्हें तो वर्ष के हर दिन बिना कौड़ी फेंकें नहीं रहा जाता | वे तो एक प्रकार के मानसिक रोगी होते हैं | हार जीत का उल्लास और अवसाद उन्हें नशा बनकर अपनी चपेट में दबोच लेता है | यों उन्हें आशावादी भी कहा जा सकता है जो जीवन के प्रति एक सकारात्मक द्रष्टिकोण का परिचायक  है | निरन्तर हारने वाला जुआड़ी भी हर बार अगला दांव जीत लेने की संजीवनी शक्ति जुटाता रहता है | और यही मिथ्या मरीचका उसे जीवन का सम्बल प्रदान करती है | महाकवि ने कितनी सटीक अभिव्यक्ति की है ?" सूझ जुआरिह आपन दाऊँ |" पर दीवाली के दिन का जुआँ एक प्रकार से परम्परागत स्वीकृत धार्मिक मान्यता थी | ऐसा विश्वास था कि लक्ष्मी जी की कृपा और विमुखता कौड़ियों के माध्यम से जानी जा सकती है और आने वाले वर्ष भर के लिये उनकी कृपा से अवगत होना एक शुभकारी हस्तकला है और इसे अधिकाँश हिन्दू समाज सहज रूप से लेता था | यों महाभारत के पाठक जानते ही हैं कि ध्यूत क्रीड़ा का उन्माद बड़े से बड़े धर्मात्मा को भी अपनी जकड में ले लेता था |
                            तो पड़ोस के घर की एक दालान में आस -पास के लोगों का जमवाड़ा होता और इकन्नी ,दुअन्नी ,चवन्नी ,रुपया दांव पर लगाकर लक्ष्मी जी की कृपा की आहट ली जाती थी | हम कुछ किशोर भी उस भीड़ के आस -पास बैठकर मुठ्ठियों में बन्द कौड़ियों की खड़खड़ाहट और नक्की दुआ की आवाजों के साथ उनकी फेंक देखा करते थे | कई बार बडी  सनसनी का माहौल बन जाता था | उस समय तक भारत स्वतन्त्र नहीं हुआ था पर ब्रिटिश क़ानून के अन्तर्गत भी खुले आम जुआं खेलना एक  अपराध था | पर दीवाली के दिन गाँव के थाने में परम्परा का आदर होता था और एक दिन और रात अनकही स्वीकृति के साथ कौड़ियों का खेल चलता रहता था | उस दीवाली को छुट्टी के दिन 12 बजे दालान में काफी भीड़ -भाड़ थी | नक्की दुआ का बाजार गर्म था | शहर में एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाले गाँव के अध्यापक राम औतार शुक्ल महफ़िल में जमा थे | हुआ कुछ ऐसा कि हारते चले जाते थे और हर हार के बाद दुगनी बोली लगाते थे | पर भाग्य ने उनका साथ देना छोड़ दिया था , कुछ लोगों ने उनसे कहा भी कि महूरत उनके साथ नहीं चल रहा है और वे खेल छोड़कर उठ जांय | पर शुक्ला जी थे जो अपनी जिद्द पर अड़े थे कि वे जीत कर ही रहेंगें | पर हुआ वही जो होना था | धर्मराज युधिष्ठिर सहज रूप से हारे थे या शकुनि के छल भरे पाशों के कारण | महाभारतकार तो इसमें शकुनि का ही दोष बताते हैं पर उस दिन तो मुझे ऐसा  ही लगा कि राम औतार शुक्ल की भाग्य लक्ष्मी उन्हें छोड़कर  कहीं और चली गयीं हैं | जो हो आखिर जो कुछ जेब में था सब खाली कर देने के बाद शुक्ल जी मैदान छोड़कर उठ खड़े हुये | बोले मैं भागा नहीं जा रहा हूँ | दोबारा जेब भरकर वापस आऊंगा | शायद वह उनकी डींग ही रही हो पर हम किशोरों को उनकी इस बात ने प्रभावित किया | हमनें इतिहास में पढ़ा था कि मुगलों के आक्रमण के समय भारत के सभी योद्धा बहुत बहादुरी के साथ लड़ते थे | यह दूसरी बात थी कि उन्हें अधिकतर पराजय की ही मुंह देखना पड़ता था | मेरे किशोर मन पर राम औतार शुक्ल की Heroic छाप पड़ चुकी थी | वे लगभग 28 वर्ष के थे और सुनने में आया था कि आने वाली गर्मी में उनकी शादी पड़ोस के गाँव की एक पढ़ी लिखी लड़की से होने वाली है | समय कभी रुका है ? तीन वर्ष बीत गये और मैं गाँव से शहर में जाकर दसवीं पास कर इण्टर में दाखिल हो गया | उमर के साथ व्यवहारिक ज्ञान में भी कुछ बढ़ोत्तरी हो गयी थी | ग्राम्य जीवन और शहरी जीवन के बीच की विसंगतियां मुझे स्पष्ट रूप से नजर आने लगी थीं | मुझे रहन -सहन , कमरे के लिये और पढ़ाई के खर्च के लिये आमदनी के किसी साधन की तलाश थी | शहर के जिस प्राइमरी  स्कूल में राम औतार जी पढ़ाते थे उसी के पास के मुहल्ले में मैनें रहने के लिये एक छोटा सा कमरा ले रखा था | एक शाम कहीं से पता लगाकर शुक्ल जी मेरे कमरे में आये | उम्र में काफी छोटे होने के कारण और गाँव के सहज व्यवहार से परिचित होने के कारण मैनें उनका चरण स्पर्श करके अभिवादन किया | उन्होंने कहा, "  कोई काम करना चाहोगे ? पास ही एक स्कूल खुल रहा है | भारत सरकार ने पंजाब से आये शरणार्थियों के लिये प्राइवेट रूप में दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में बैठने की इजाजत दे दी है | स्कूल में दसवीं की छात्रायें और छात्र हैं | ज्यादातर उमर में तुमसे बड़े हैं पर मुझे विश्वास है कि तुम उन्हें पढ़ा लोगे | तुमनें दसवीं में बहुत अच्छे अंक प्राप्त किये हैं और गाँव में तुम्हारी बड़ी तारीफ़ है |"
                                         मैनें कहा हाँ हाँ क्यों नहीं चलिये आज शाम से ही आप के साथ चलकर काम की शुरुआत करते हैं | आपकी आशाओं पर खरा उतरने की कोशिश करूँगा | और इस प्रकार पढानें के प्रारम्भिक दौर की शुरुआत हुयी जो मेरे अन्तिम वर्ष पास कर लेने तक चलता रहा | राम औतार शुक्ल जो कभी महीनें दो महीनें में सड़क पर मिल जाते तो हालचाल पूछते और फिर बड़े होने के नाते मुझे ठीक राह पर चलते रहने की सलाह देकर चले जाते | मैं जानता था कि उनकी शादी हो चुकी है पर मैं यह नहीं जानता था कि वे कहाँ और किस मकान में रहते हैं क्योंकि वे मुझे अपने साथ घर पर नहीं ले गये थे | और समय चलता रहा | इण्टर करके मैं बी. ए. में भर्ती हुआ | तरुणायी आयी | शरीर भर गया | कक्षा में मित्रों की प्रशंसा पाकर आत्मविश्वास से आचरण में आदर्श प्रियता झलकने लगी | बहुत से पुराने सम्बन्ध पुराने पड़ गये | नये मित्र मिलते गये | राम औतार जी कहाँ हैं और कैसे हैं इस विषय में अधिक जानकारी न जुटा सका फिर वे मुझसे उमर में 12 -13 वर्ष बड़े थे | मैं जानता था कि एक अच्छे अध्यापक होने के नाते शादी के बाद वे एक सफल नागरिक और सद्गृहस्थ का कर्तव्य निभा रहे होंगें और अब तक पिता होने का गौरव भी  प्राप्त कर सकें होंगें | देखते ही देखते बी. ए. की परीक्षायें सम्पन्न हुयीं और फिर परिणाम की परीक्षा और फिर आशा के अनुरूप चर्चा के लायक सफलता की प्राप्ति ,सोचा एम. ए. के लिये किसी और अच्छे कालेज में प्रवेश लिया जाय ऐसा सम्भव हो पाया क्योंकि अंकतालिका ने मुझे एक बड़े दायरे में चर्चा का विषय बना दिया था | एम. ए. के प्रथम वर्ष में मेरे कुछ नये मित्रों में एक था मेधावी सुधाकर तिवारी |
                                    सुधाकर मोहक व्यक्तित्व का धनी था और साथ ही कक्षा के अच्छे विद्यार्थियों में उसकी गणना थी | कुछ दिनों में ही मैं जान गया कि वह मेरे गाँव से लगभग 10 मील दूर के गाँव गहलौं से आया हुआ है , कि उसके पिता भी उसी गाँव में जिला बोर्ड के अंतर्गत चलने वाले एक स्कूल में अध्यापक हैं कि उसका एक छोटा भाई और दो बड़ी बहनें हैं ,कि दोनों बड़ी बहनों का व्याह हो चुका है ,कि उसका छोटा भाई इण्टर में पढ़ रहा है ,कि पिताजी की सेवा निवृत्ति के दो -तीन साल बाकी हैं ,कि वह एम.ए. के बाद तुरन्त नौकरी करना चाहेगा आदि आदि |
                             बरसात के बाद दशहरा और दीवाली के बीच की लम्बी छुट्टी होती थी और शायद अब भी होती है | उन दिनों गाँव में दशहरा के मेले में गन्ने आ जाया करते थे | सिघांड़ों की भी भरमार रहती थी | और फिर उसके गाँव में दशहरे का मेला भी कई दिन तक लगता था और रात्रि को आयोजित होने वाले कुछ रामायणी कार्यक्रम जैसे फुलवारी और धनुष यज्ञ तो देखने योग्य ही होते थे | परशुरामी के क्षेत्र में तो उन दिनों शिवदत्त की धूम थी और जनक के पाठ के लिये वंश लाल जानें -मानें जाते थे | सहपाठी सुधाकर तिवारी ने प्रस्ताव किया कि दशहरे के दो दिन मैं उसके साथ रहकर उसके गाँव में बिताऊँ | मित्रता के निश्छल आग्रह ने मुझे उसके प्रस्ताव के लिये स्वीकृत देने को बाध्य कर दिया |
                                   उस शाम जब मैं उसके गाँव गहलौ पहुंचा तो मेरे लिये जलपान लेकर उसकी बड़ी बहन सुषमा बाहर आयी | शुषमा की माँ एक बुलावे के कारण पड़ोस में हो रहे कीर्तन में गयी थीं | कुछ देर बाद मैनें सुधाकर से पूछा कि शुषमा उसकी सबसे बड़ी बहन है या उससे छोटी तो उसने बताया कि शुषमा से छोटी बहन अपने ससुराल में है पर शुषमा हमारे पास ही रहती है | मैनें पूछा आपके Elder Brother Inlaw क्या काम करते हैं तो उसने बताया कि वे  शहर के म्युनिसपिल प्राइमरी स्कूल में शिक्षक हैं | बात आयी गयी हुयी | उस रात धनुष यज्ञ का आयोजन हुआ और शिवदत्त अग्निहोत्री की परशुरामी ने हम सबको काफी प्रभावित किया ,अगले दिन वहां से जानें से पहले मैं सुधाकर की माँ के पैर छूने अन्दर गया तो उन्होंने अपने पास पडी एक चारपायी  पर मुझे बैठने को कहा और मुझसे पूछा कि मैं किस गाँव का हूँ और कहाँ का मिश्रा हूँ | विज्ञ पाठक जानते ही होंगें कि कान्यकुब्ज ब्राम्हणों में बीघा -बिस्वा की मर्यादायें चलती हैं और परम्परागत विचारों में बीस बिस्वा वाले ब्राम्हणों को कुछ अधिक महत्व दिया जाता है | अब शायद यह मान्यता समाप्त प्राय हो गयी है पर जिस समय की यह बात है उस समय तक सामान्य कान्यकुब्ज घरों में इस मान्यता का काफी बोलबाला था | मैनें उन्हें बताया कि मैं अमुक गाँव का हूँ और कहाँ का मिश्रा  हूँ | गाँव का नाम सुनकर वह कुछ देर चुप रहीं और फिर कहा , " बेटा तुम राम औतार शुक्ल को जानते होंगे |" मैनें कहा हाँ हाँ अम्मा उन्हें मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ | बहुत अच्छे आदमी हैं | शहर में अध्यापक हैं फिर मैनें पूछा कि राम औतार शुक्ल को कैसे जानती हो ? उन्होंने दुःख भरी आवाज में कहा ," राम औतार जी  तो मेरे बड़े दामाद हैं | शुषमा उन्हीं को व्याही है |"मुझे सुधाकर ने बताया था कि शुषमा उसी के घर रहती है | इसलिये मैनें माँ से पूछा कि शुषमा कब से ससुराल नहीं गयी है | उन्होंने कहा , 'बेटा  क्या बताऊँ शादी के बाद ससुराल से लौटने के बाद से आज तक शुषमा ससुराल नहीं गयी है |"मैनें पूछा ऐसा क्यों है ?तो उन्होंने बताया कि राम औतार उन्हें अपनी पत्नी के रूप में नहीं स्वीकारते और वे कहते हैं कि उससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है | यह सुनकर मैं आश्चर्य में पड़ गया | शुषमा मुझे पढ़ी- लिखी ,सुरुचिपूर्ण और समझदार नारी के रूप में दिखायी पड़ रही थी | तो क्या राम औतार शुक्ल का चारित्रिक दिखावा महज एक आडम्बर है | क्या वे अन्य किसी शारीरिक सम्बन्ध में उलझ गये हैं | मुझे तो वे एक शुभ चिन्तक हितैषी के रूप में मूल्यवान मानव गुणों से विभूषित दिखायी पड़ रहे थे | मेरे मन में एक विचार उठा कि मैं  मित्र सुधाकर से इस विषय में कुछ बात चीत करूँ फिर न जानें क्यों मुझे ऐसा लगा कि मैं दूसरों की जिन्दगी में दखल न देकर अपनी अपनी राहों पर चलने दूँ |
                                         समय चलता गया | रुक जानें पर संसार का काम भला कैसे चलेगा | समय को तो चलना ही है | एम. ए. की परीक्षा का परिणाम आ गया था | मेरी उपलब्धि फिर आस -पास के गाँवों में चर्चा का विषय बन गयी थी | मित्र बधाई दे रहे थे | मेरे गाँव में भी मेरे कुछ समवयस्कों ने मुझे सम्मानित करना चाहा | इन्हीं आयोजकों में एक थे राम औतार शुक्ल के सबसे छोटे भाई रमापति शुक्ला | उस छोटे से जमाव में कुछ देर की हंसी -खुशी के माहौल के बाद मैनें रमापति जी से पूछा कि उनके बड़े भाई राम औतार शुक्ला जी शहर के किस मुहल्ले में रहते हैं वे कुछ देर चुप रहे फिर बोले कि उन्हें ठीक पता नहीं है पर शायद ग्वालटोली में वे किसी रिटायर्ड मास्टरनी के मकान में रहते हैं |
                                        कुछ ऐसा संयोग हुआ कि ग्वालटोली के पास ही एक बड़ी बीमा कम्पनी के दफ्तर में मेरी नियुक्ति का सुअवसर मिला | एक दिन शाम को बाजार में घूमते हुये मैनें देखा कि राम औतार शुक्ल एक अधेड़ प्रौढ़ा के साथ झोला लिये हुये एक सब्जी की दुकान पर मोल भाव कर रहे हैं | उन्हें देखकर और उनके साथ एक प्रौढ़ा को देखकर मेरे मन में कुछ संकोच आया और मुझे लगा कि मुझे उनको  नमस्कार करने का यह सुअवसर नहीं है | पर उन्होंने मेरे साथ मेरे हाई स्कूल पास करने के बाद जो अहसान किया था उसका गहरा बोध मेरी चेतना पर गहरा दबाव डाल रहा था और आखिरकार मैनें उनके पास पहुँचकर मैनें उन्हें नमस्कार किया और झुककर उनके पैरों की ओर हाँथ बढ़ाया | उन्होंने कहा कौन अजय | कहाँ हो ? क्या करते हो ? मैनें उन्हें बताया कि मैं  फिलहाल ओरियन्टल इन्श्योरेंस कम्पनी में असिस्टेन्ट मैनेजर हूँ और सिविल सर्विसेज की तैय्यारी कर रहा हूँ | फिर मैनें उस प्रौढ़ा की ओर देखकर दोनों हाँथ जोड़कर नमस्कार किया | कुछ हिचक कर शुक्ला जी बोले ," ये शुक्लाइन हैं | विधवां हैं ,प्राइमरी की मास्टरी से सेवा निवृत्त हो चुकी हैं | मैं इन्हीं के साथ रहता हूँ | हम दोनों मिलकर पतियों द्वारा पत्नियों पर हो रहे दुर्व्योहार को रोकने के लिये एक संगठन बना रहे हैं | यह पतियों द्वारा परित्यक्त स्त्रियों के लिये बड़ा रचनात्मक काम कर रही हैं | आडम्बर भरे आदर के साथ मैनें राम औतार शुक्ल को दुबारा नमस्कार किया और कहा कि उन दोनों के पारस्परिक सहयोग से निश्चय ही उपेक्षित नारी समाज का अभूतपूर्ण कल्याण होगा | इस बात को पांच वर्ष बीत चुके हैं | अभी कल ही अखबार में एक खबर पढ़ी है कि राम औतार शुक्ल नाम के एक प्राइमरी अध्यापक और उनकी सेवानिवृत्त प्रौढ़ा साथिन ने नारी शरीर बेचने का धन्धा चला रखा था | और उन्हें आई.पी.सी. की धारा के मातहत गिरफ्तार कर लिया गया है | मेरा विश्वास है कि गिरफ्तार होने वाले राम औतार शुक्ल मेरे गाँव वाले नहीं हैं | हे! प्रभु ,हे श्रष्टि के रक्षक ,मेरे विश्वास को तोड़ मत देना |

No comments:

Post a Comment