अहंकार
हाँ पाल रहा हूँ अहंकार
दुर्जेय , विकट
करनें संस्कारित युग - अभिरुचि
देनें मानव को नये मान
जो जन को
जन में रहकर भी
एक जनेतर संज्ञा दे |
जन सर्वोपरि स्वीकार मुझे
पर मैं ठप्पा हूँ नहीं , विविधिता हूँ उसकी
मैं कोटि -कोटि वर्षों में निखरा प्रकृति रूप
अरविन्द- कल्पना का मैं पावन उन्नायक
मैं भिन्न , अनन्य , अलीक , अकल्पित अद्वितीय
मैं सिर की ग़णना नहीं
न केवल उठा हाँथ
मेरा व्यक्तित्व न पंक्ति -बद्धता को अर्पित
दुर्लघ्य शिखर का हूँ मैं विरला आरोही
पग - पीड़ित गलियों में भटकी जन - रूचि को मैं
दे रहा शिखर का नया मार्ग |
जो प्राणवान
खुरदरी नोक पत्थर की
जिनके पैरों से टकरा करके
भरती कराह
मेरे स्वर का आह्वान उन्हीं को
अर्पित है |
विष -दंश
हूँ मिला रहा
हर कूप , वापिका , सरिता में
दो बूँद जहर
विषधर का फण ले नाचेगी
कुछ समय बाद
जीवन सागर की लहर - लहर
फड़फड़ा
उगलकर झाग
मरेगी दनु - सन्तति
पथरायी आँखों वाली
नंगी लाशों के अम्बार
चाँदनी चूमेगी
मंडराते गिद्ध
न लाश नोचकर खायेंगें
आँखों में काजल आँज
भवानी घूमेगी |
फिर अन्तराल----------
इसलिये कि दंशित देहें
सड़ - सड़ गल - गल कर
पा प्रकृति प्रक्रिया का
अमृत- सिंचन पावन
बन जायें उर्वरक
उन अँकुओं को जन्मानें
जो विष को पीकर
नीलकंठ सा विहस सके |
उस नव - हरीतिमा के गायक
फिर आयेंगें
मैं जहर - बुझी इस पीढ़ी का
उद्घोषक हूँ |
हाँ - मैं विप्लव का पोषक हूँ |
हाँ पाल रहा हूँ अहंकार
दुर्जेय , विकट
करनें संस्कारित युग - अभिरुचि
देनें मानव को नये मान
जो जन को
जन में रहकर भी
एक जनेतर संज्ञा दे |
जन सर्वोपरि स्वीकार मुझे
पर मैं ठप्पा हूँ नहीं , विविधिता हूँ उसकी
मैं कोटि -कोटि वर्षों में निखरा प्रकृति रूप
अरविन्द- कल्पना का मैं पावन उन्नायक
मैं भिन्न , अनन्य , अलीक , अकल्पित अद्वितीय
मैं सिर की ग़णना नहीं
न केवल उठा हाँथ
मेरा व्यक्तित्व न पंक्ति -बद्धता को अर्पित
दुर्लघ्य शिखर का हूँ मैं विरला आरोही
पग - पीड़ित गलियों में भटकी जन - रूचि को मैं
दे रहा शिखर का नया मार्ग |
जो प्राणवान
खुरदरी नोक पत्थर की
जिनके पैरों से टकरा करके
भरती कराह
मेरे स्वर का आह्वान उन्हीं को
अर्पित है |
विष -दंश
हूँ मिला रहा
हर कूप , वापिका , सरिता में
दो बूँद जहर
विषधर का फण ले नाचेगी
कुछ समय बाद
जीवन सागर की लहर - लहर
फड़फड़ा
उगलकर झाग
मरेगी दनु - सन्तति
पथरायी आँखों वाली
नंगी लाशों के अम्बार
चाँदनी चूमेगी
मंडराते गिद्ध
न लाश नोचकर खायेंगें
आँखों में काजल आँज
भवानी घूमेगी |
फिर अन्तराल----------
इसलिये कि दंशित देहें
सड़ - सड़ गल - गल कर
पा प्रकृति प्रक्रिया का
अमृत- सिंचन पावन
बन जायें उर्वरक
उन अँकुओं को जन्मानें
जो विष को पीकर
नीलकंठ सा विहस सके |
उस नव - हरीतिमा के गायक
फिर आयेंगें
मैं जहर - बुझी इस पीढ़ी का
उद्घोषक हूँ |
हाँ - मैं विप्लव का पोषक हूँ |
No comments:
Post a Comment