अलंकरण
क्या हुआ ग्रीवा तुम्हारी रह गयी यदि अन अलंकृत
हाँथ नंगे , कान सूनें
तुम अकेली तो नहीं हो , कोटि गृह की यह कहानी
क्या इसी से हेय हो तुम
तुच्छ या मेरी जवानी ?
क्या हुआ यदि पास के थुल - थुल वणिक नें
हार हीरक हस्तिनी को भेंट डाला
क्या हुआ यदि आयकर -आयुक्त नें अपनी शमा को
ला चढ़ायी मोतियों की श्याम माला
क्या हुआ यदि मौत का व्यापार करके
सेठ दमड़ी नें रखेलिन सेर सोने से मढ़ी है
क्या हुआ यदि सचिव पत्नी की सुहावन नील साड़ी
उदधि अन्तर पार करके स्वर्ण तारों से जड़ी है |
तुम तनिक आँखें उठाओ चलो मेरे साथ आओ
इन लुटेरों से अलग भी देश का संसार है
स्वर्ण , हीरे और मणि माणिक न जिसको तौल पाये
वह सहज जीवन वहां है मुक्त अब तक प्यार है |
यहाँ श्रम -सीकर पिरोकर मोतियों की माल बनती
यहाँ निर्मल हास में हीरक - कनी है झिलमिलाती
तुम यहाँ श्रृंगार की सच्ची कला की दीक्षा लो
पुष्प की शुचिता तिजोरी की खनक में मिल न पाती
बुद्धि जीवी हम , इन्हीं श्रम - जीवियों के साथ हैं
हम अगर मष्तिष्क हैं तो यह हमारे हाँथ हैं
युक्ति श्रम के मेल से श्रृंगार का श्रृंगार होगा
हाँथ में होगी कुदाली कंठ में श्रमहार होगा |
अन्य के श्रम पर रही पल रक्त जीवी जो व्यवस्था
स्वर्ण -चादर से उसे ढक कर दिखाना पाप है
कोटि जन नंगे बुभुक्षित भटक कर जब फिर रहे हों
स्वर्ण ग्रीवा है नहीं वरदान केवल शाप है |
लो उठाओ कदम मेरा साथ दो
लो उठाओ हाथ में तुम हाथ दो
है शपथ हमको तुम्हारे प्यार की
है शपथ हमको दुःखी संसार की
श्रम रहेगा धर्म अपना कर्म ही श्रृंगार है
हर दुःखी को गोद में भर थपथपाना ही प्रिये गलहार है
क्या हुआ ग्रीवा तुम्हारी रह गयी यदि अन अलंकृत ------
आस्तिकता
कह रहे श्रुति , शास्त्र सब
अश्रु विगलित दीन स्वर में
छोड़ संबल स्वयं का , संसार का
टेर दो , करूणानिधि जग जायेंगें
पर स्वयं से आस्था तज
या स्वयं- सीमा मिटाकर
व्यक्ति होनें का सहज अभिमान
कैसे छोड़ दूँ मैं |
मैं इकाई , दर्प -दीपित ही मिलूँगा
सुद्रढ़ सिर ऊँचा किये इन्सान सा |
शास्ता मैं
भीम स्वर , उल्लंब बाहु
पुकारता हूँ
आस्तिकता को नये आयाम देनें
रूढ़ि को ललकारता हूँ
वह न चरवाहा
न हम पशु मात्र हैं
वह हमारा दर्पहै , अभिमान है
वह हमारे ही प्रखर व्यक्तित्व की
बेधक त्वरा है , सान है |
वन्ध्यत्व
क्या हुआ ग्रीवा तुम्हारी रह गयी यदि अन अलंकृत
हाँथ नंगे , कान सूनें
तुम अकेली तो नहीं हो , कोटि गृह की यह कहानी
क्या इसी से हेय हो तुम
तुच्छ या मेरी जवानी ?
क्या हुआ यदि पास के थुल - थुल वणिक नें
हार हीरक हस्तिनी को भेंट डाला
क्या हुआ यदि आयकर -आयुक्त नें अपनी शमा को
ला चढ़ायी मोतियों की श्याम माला
क्या हुआ यदि मौत का व्यापार करके
सेठ दमड़ी नें रखेलिन सेर सोने से मढ़ी है
क्या हुआ यदि सचिव पत्नी की सुहावन नील साड़ी
उदधि अन्तर पार करके स्वर्ण तारों से जड़ी है |
तुम तनिक आँखें उठाओ चलो मेरे साथ आओ
इन लुटेरों से अलग भी देश का संसार है
स्वर्ण , हीरे और मणि माणिक न जिसको तौल पाये
वह सहज जीवन वहां है मुक्त अब तक प्यार है |
यहाँ श्रम -सीकर पिरोकर मोतियों की माल बनती
यहाँ निर्मल हास में हीरक - कनी है झिलमिलाती
तुम यहाँ श्रृंगार की सच्ची कला की दीक्षा लो
पुष्प की शुचिता तिजोरी की खनक में मिल न पाती
बुद्धि जीवी हम , इन्हीं श्रम - जीवियों के साथ हैं
हम अगर मष्तिष्क हैं तो यह हमारे हाँथ हैं
युक्ति श्रम के मेल से श्रृंगार का श्रृंगार होगा
हाँथ में होगी कुदाली कंठ में श्रमहार होगा |
अन्य के श्रम पर रही पल रक्त जीवी जो व्यवस्था
स्वर्ण -चादर से उसे ढक कर दिखाना पाप है
कोटि जन नंगे बुभुक्षित भटक कर जब फिर रहे हों
स्वर्ण ग्रीवा है नहीं वरदान केवल शाप है |
लो उठाओ कदम मेरा साथ दो
लो उठाओ हाथ में तुम हाथ दो
है शपथ हमको तुम्हारे प्यार की
है शपथ हमको दुःखी संसार की
श्रम रहेगा धर्म अपना कर्म ही श्रृंगार है
हर दुःखी को गोद में भर थपथपाना ही प्रिये गलहार है
क्या हुआ ग्रीवा तुम्हारी रह गयी यदि अन अलंकृत ------
आस्तिकता
कह रहे श्रुति , शास्त्र सब
अश्रु विगलित दीन स्वर में
छोड़ संबल स्वयं का , संसार का
टेर दो , करूणानिधि जग जायेंगें
पर स्वयं से आस्था तज
या स्वयं- सीमा मिटाकर
व्यक्ति होनें का सहज अभिमान
कैसे छोड़ दूँ मैं |
मैं इकाई , दर्प -दीपित ही मिलूँगा
सुद्रढ़ सिर ऊँचा किये इन्सान सा |
शास्ता मैं
भीम स्वर , उल्लंब बाहु
पुकारता हूँ
आस्तिकता को नये आयाम देनें
रूढ़ि को ललकारता हूँ
वह न चरवाहा
न हम पशु मात्र हैं
वह हमारा दर्पहै , अभिमान है
वह हमारे ही प्रखर व्यक्तित्व की
बेधक त्वरा है , सान है |
वन्ध्यत्व
ठीक है सर कर न पाया पार हूँ मैं
ठीक है अब तक पड़ा मंझधार हूँ मैं
जो न तेरे धार में विजयी बनें हैं
कर्म -रत सच्ची कलम की हार हूँ मैं |
पर न इसका अर्थ मैं गतिहीन था
याकि पहुँचे पार जो वे वीर थे
बात इतनी है कि मैं तेरा स्वयं
जबकि उनके पाँव नीचे तीर थे |
चतुर्दिश जय -घोष उनका गूंजता है
नट - तमाशे ढोल -स्वर पर चल रहे
सृजन - रत हलधर उपेक्षित हैं पड़े
मुफ्तखोरे सांड़ कितनें पल रहे |
पर दमामों का दबेगा शोर जब
सत्य का स्वर उभर कर छा जायेगा
उछल कर लघु बूँद सा सहसा , प्रिये
नाम अपना भी कहीं आ जायेगा |
समुद है स्वीकार इस जग की उपेक्षा
पर गला अपना किसी का स्वर न लूँगा
दान काली को करूँगा जीभ अपनी
पर उसी माँ की शपथ मैं वर न लूँगा |
जान लूँगा जब कलम बंध्या हुयी है
रेत का प्रस्तार मन पर छा रहा है
छोड़ प्राणों का अनूठा देश मेरा
कवि कहीं परदेश को प्रिय जा रहा है |
जान लूँगा जब विगत पर जी रहा हूँ
काल से है कट चुका अनुबन्ध मेरा
श्रोत अन्तर के सिमट कर चुक गये हैं
सतह से ही शेष है सम्बन्ध मेरा |
तो नये अंकुर जगाने को धारा में
खाद बनकर देह यह मिल जायेगी
देखते ही देखते इतिहास के सन्दर्भ में
फसल कविता की नयी खिल जायेगी |
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