नारी मूल्याँकन
और कि यह
प्रोफ़ेसर , पंडित , कलाकार , कवि
सृष्टिकार सब
जो
प्रसाद से , तुर्गनेव से
पंत , नीत्से और पिकासो से
नीचे है बात न करते
देख कहीं लेते निज पथ पर
रूपगर्विता
ऐसी रमणीं
सीख चुकी है जो
आधुनिका का पहरावा
जहां उग्र की या जोला की
कला मूर्त हो कर रह जाती
तो
चाल बदलते
चुपके चुपके मन के भीतर
हाल बदलते
कालर पर की गर्द भगाते
कंठ -लंगोटी खींच सजाते
और कहीं नेता गण हों तो
मत्थे पर की सीधी टोपी ,
कर देती जो घाव
अगर पड़ जाये किन्हीं मांसल अंगों पर ,
तिरछी करते
और
उसी दिन
कला - भवन में , ज्ञान - कक्ष में
संसद में
सर्वोदय के कल्याण -पक्ष में
भाषण देते
' नारी पूज्य महान
भोग की नहीं वस्तु है | '
आलोक वृत्त
वृत्त यह आलोक का तुमको समर्पित
तुम दिपो , मैं दीप्ति का दर्शक
तुम्हारे अनुगतों की पंक्ति का सीमान्त
बन कर ही सहज हूँ |
कोण की निरपेक्षता से मैं सहज ही देख लूँगा
रूप अन्तस का तुम्हारे
जो प्रभा के पुंज से मण्डित सभी को कौंधता है
किन्तु जो
व्यक्तित्व से निः सृत न होकर आवरण है
और तुमको - हाँ तुम्ही को
बोझ बनकर रौंदता है |
शीघ्र ही -------विश्वास मुझको -------
चेतना तुमको झटक कर त्रास देगी
और आरोपित प्रभा का पुंज , विषधर सा
उठा फन यदि गरल का डंक मारे
तो उठा कर द्रष्टि अपनेँ अनुगतों की
पंक्ति के अन्तिम सिरे पर देख लेना
मैं अहं की भष्म का शीतल प्रलेपन
दे तुम्हें विष -मुक्ति दूँगा ----- और
फिर से पंक्ति के अन्तिम सिरे पर जा
प्रतीक्षा -रत रहूँगा
कब स्वयं दो डग उठा तुम पास मेरे आ सकोगी |
निर्णय की बेला
युग भार तुम्हारे कन्धों पर रे तरुण आज
निर्माण हेतु संहार करो संहार करो
पत्थर पानी की आड़ी सीधी रेखायें
मानवता का इतिहास बनाती रहीं सदा
ये बड़ी बोलियाँ नेताओं की सच मानों
जीवित मानव को लाश बनाती रहीं सदा
जब सिसक सिसक दम तोड़ रहे लाखों नन्हें
बेबस ममता की भूखी निर्बल बाहों में
तब जवानी भारत की कब तक भटके
छल भरी राजनीति की निष्फल अन्धी राहों में
निर्णय की बेला आ पहुंचीं रे तरुण आज
मर मिटनें वाला सृजन शील तुम प्यार करो
युग भार ----------------------------
जो तरुणाईं वह कहाँ लीक की मर्यादा पर चलती है
जो ज्वार किसी के काबू में कब आता है
आँधियाँ तोड़ती चलती हैं अवरोधों को
हिम -खण्ड पिघल जल धारा में बह जाता है
कल की दुनियां उन हांथों से बन पायेगी
जो हाँथ आज का अनगढ़ महल ढहा देंगें
कल के विशाल भू खण्ड तभी बन पायेंगें
जब हिम नद मग के प्रस्तर खण्ड बहा देंगें
इतिहास चुनौती लिये खड़ा दोराहे पर
नर नाहर बन ओ युवक उसे स्वीकार करो
युग भार ----------------------------------
फिर चाँद किसी का बन न जाय कल उपनिवेश
परसों मंगल पर कहीं न कोई हावी हो
होकर रक्तिम फिर बहे न सरिता का पानी
चाहे दजला फरात हो चाहे रावी हो
फिर प्रजातन्त्र की रक्षा का देकर नारा
घुस जाये न घर में कोई नीच दुराचारी
मदमत्त विदेशी अफसर की सगीनों से
छिद जाये न शत शत हाय कहीं फिर नर नारी
सैरान्ध्रों की द्रावक पुकार अब व्यर्थ न हो
युग भीम उठो फिर कीचक का संहार करो
युग भार -----------------------------
-वैश्या युग -सभ्यता
लो उठाता हाँथ हूँ मैं
आज देने को समर्थन पौद को
जो विप्लवी है
तुम चढ़ाओगें मुझे फाँसी
चढ़ा दो
तुम सुई की नोक से तन छेद मेरा
बर्फ - सिल्ली पर लिटाकर
नाजियों पर नाज कर लो
या अंधेरे भुँइघरे में
बंद कर दो मुझे मेरी चिन्तना को
राज कर लो , और कुछ दिन ,
फिर सुलगती पेट की यह आग
आँखों से झरेगी
वैश्या युग - सभ्यता तब
ताप से जलकर मरेगी |
मुँह न जनता को दिखा पाते
बिना बन्दूक का परकोट डाले
फिर बिकी बन्दूक भी
कल जान जायेगी असलियत
जब स्वयं औलाद उसकी
काम माँगेगी
न सारा राज्य केवल ग्राम माँगेगी
मगर
सड़ती व्यवस्था का दुयोधन
दर्प की ललकार देगा
शुचिका की नोक भर धरती न देकर
गोलियों का हार देगा
तब
बिकी बन्दूक की नलियाँ मुड़ेंगीं
रूप -जीवी सभ्यता की
लिजलिजी परतें उड़ेंगीं
मैं उसी दिन की प्रतीक्षा में
अभी तक जी रहा हूँ |
और कि यह
प्रोफ़ेसर , पंडित , कलाकार , कवि
सृष्टिकार सब
जो
प्रसाद से , तुर्गनेव से
पंत , नीत्से और पिकासो से
नीचे है बात न करते
देख कहीं लेते निज पथ पर
रूपगर्विता
ऐसी रमणीं
सीख चुकी है जो
आधुनिका का पहरावा
जहां उग्र की या जोला की
कला मूर्त हो कर रह जाती
तो
चाल बदलते
चुपके चुपके मन के भीतर
हाल बदलते
कालर पर की गर्द भगाते
कंठ -लंगोटी खींच सजाते
और कहीं नेता गण हों तो
मत्थे पर की सीधी टोपी ,
कर देती जो घाव
अगर पड़ जाये किन्हीं मांसल अंगों पर ,
तिरछी करते
और
उसी दिन
कला - भवन में , ज्ञान - कक्ष में
संसद में
सर्वोदय के कल्याण -पक्ष में
भाषण देते
' नारी पूज्य महान
भोग की नहीं वस्तु है | '
आलोक वृत्त
वृत्त यह आलोक का तुमको समर्पित
तुम दिपो , मैं दीप्ति का दर्शक
तुम्हारे अनुगतों की पंक्ति का सीमान्त
बन कर ही सहज हूँ |
कोण की निरपेक्षता से मैं सहज ही देख लूँगा
रूप अन्तस का तुम्हारे
जो प्रभा के पुंज से मण्डित सभी को कौंधता है
किन्तु जो
व्यक्तित्व से निः सृत न होकर आवरण है
और तुमको - हाँ तुम्ही को
बोझ बनकर रौंदता है |
शीघ्र ही -------विश्वास मुझको -------
चेतना तुमको झटक कर त्रास देगी
और आरोपित प्रभा का पुंज , विषधर सा
उठा फन यदि गरल का डंक मारे
तो उठा कर द्रष्टि अपनेँ अनुगतों की
पंक्ति के अन्तिम सिरे पर देख लेना
मैं अहं की भष्म का शीतल प्रलेपन
दे तुम्हें विष -मुक्ति दूँगा ----- और
फिर से पंक्ति के अन्तिम सिरे पर जा
प्रतीक्षा -रत रहूँगा
कब स्वयं दो डग उठा तुम पास मेरे आ सकोगी |
निर्णय की बेला
युग भार तुम्हारे कन्धों पर रे तरुण आज
निर्माण हेतु संहार करो संहार करो
पत्थर पानी की आड़ी सीधी रेखायें
मानवता का इतिहास बनाती रहीं सदा
ये बड़ी बोलियाँ नेताओं की सच मानों
जीवित मानव को लाश बनाती रहीं सदा
जब सिसक सिसक दम तोड़ रहे लाखों नन्हें
बेबस ममता की भूखी निर्बल बाहों में
तब जवानी भारत की कब तक भटके
छल भरी राजनीति की निष्फल अन्धी राहों में
निर्णय की बेला आ पहुंचीं रे तरुण आज
मर मिटनें वाला सृजन शील तुम प्यार करो
युग भार ----------------------------
जो तरुणाईं वह कहाँ लीक की मर्यादा पर चलती है
जो ज्वार किसी के काबू में कब आता है
आँधियाँ तोड़ती चलती हैं अवरोधों को
हिम -खण्ड पिघल जल धारा में बह जाता है
कल की दुनियां उन हांथों से बन पायेगी
जो हाँथ आज का अनगढ़ महल ढहा देंगें
कल के विशाल भू खण्ड तभी बन पायेंगें
जब हिम नद मग के प्रस्तर खण्ड बहा देंगें
इतिहास चुनौती लिये खड़ा दोराहे पर
नर नाहर बन ओ युवक उसे स्वीकार करो
युग भार ----------------------------------
फिर चाँद किसी का बन न जाय कल उपनिवेश
परसों मंगल पर कहीं न कोई हावी हो
होकर रक्तिम फिर बहे न सरिता का पानी
चाहे दजला फरात हो चाहे रावी हो
फिर प्रजातन्त्र की रक्षा का देकर नारा
घुस जाये न घर में कोई नीच दुराचारी
मदमत्त विदेशी अफसर की सगीनों से
छिद जाये न शत शत हाय कहीं फिर नर नारी
सैरान्ध्रों की द्रावक पुकार अब व्यर्थ न हो
युग भीम उठो फिर कीचक का संहार करो
युग भार -----------------------------
-वैश्या युग -सभ्यता
लो उठाता हाँथ हूँ मैं
आज देने को समर्थन पौद को
जो विप्लवी है
तुम चढ़ाओगें मुझे फाँसी
चढ़ा दो
तुम सुई की नोक से तन छेद मेरा
बर्फ - सिल्ली पर लिटाकर
नाजियों पर नाज कर लो
या अंधेरे भुँइघरे में
बंद कर दो मुझे मेरी चिन्तना को
राज कर लो , और कुछ दिन ,
फिर सुलगती पेट की यह आग
आँखों से झरेगी
वैश्या युग - सभ्यता तब
ताप से जलकर मरेगी |
मुँह न जनता को दिखा पाते
बिना बन्दूक का परकोट डाले
फिर बिकी बन्दूक भी
कल जान जायेगी असलियत
जब स्वयं औलाद उसकी
काम माँगेगी
न सारा राज्य केवल ग्राम माँगेगी
मगर
सड़ती व्यवस्था का दुयोधन
दर्प की ललकार देगा
शुचिका की नोक भर धरती न देकर
गोलियों का हार देगा
तब
बिकी बन्दूक की नलियाँ मुड़ेंगीं
रूप -जीवी सभ्यता की
लिजलिजी परतें उड़ेंगीं
मैं उसी दिन की प्रतीक्षा में
अभी तक जी रहा हूँ |
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