Thursday, 18 October 2018

     परशुधर की ओर


                    यह उस युग की बात है जब जिसे हम आज इतिहास के नाम से जानते हैं उसका प्रारंम्भ भी नहीं हुआ था। स्मृति में बहुत पहले की  सहेजी महाकाब्यों में समावेशित धुँधले पुराकाल की कथाएँ अब स्पष्ट रूप से उभरनें में आना -कानी करनें लगीं हैं ।  कहाँ पढ़ा था कि किसी डाल  में अस्सी हजार बाल खिल्य ऋषि लटके हुए थे और जब गरुण जी उस पर बैठ गये तब वह डाल टूट गयी और गरुण जी नें उसे अपनें पन्जों में पकड़े रखा और यत्न पूर्वक ऋषियों को व्यथा पहुँचाये बिना किसी सुरम्य पर्वतीय वादी में उतार दिया । कुछ बड़ा होने पर जब पाश्चात्य विद्वानों का अग्रेजी अनुवाद पढ़ा तो उन्होंने बालखिल्य को Hair Splitter कहकर सम्बोधित किया । इस अनुवाद नें हमें एक नयी सूझ दी । हो सकता है  यह बालखिल्य ऋषि बाल की खाल निकालने वाले तार्किक रहे हों । इन ऋषियों नें किसी एक वन्य प्रान्तर में अपनें प्रचार को दार्शनिक शब्दों में ढालकर वहाँ के वनवासियों तक पहुँचा दिया हो । उनके अनुयायियों की संख्या हजारों में पहुँच गयी ही । वैनतेय गरुण जब इस वन प्रान्तर में वैष्णव धर्म के सन्देश वाहक बनकर पहुँचे तो उन्होंने वैदिक आस्था पर कुतर्क करने वाले इन वाल खिल्यों को किसी दूर पर्वतीय उपत्यका में जाने को विवश कर दिया हो । हाँ ऐसा उन्होंने अहिंसक ढंग से अपनें दर्शन की कुतर्क पर अजेयता सिद्ध करके किया होगा । हो सकता है मेरा यह अनुमान केवल बौद्धिक विलास हो । पर बौद्धिक विलास में जो गगनचुम्बी पैंगे लगती हैं उनका सतांश भी तो ऐन्द्रिक विलास में नहीं होता । तो मैं बात कर रहा था किसी बहुत दूर कालावधि के गहन कुहासे से छन कर आते हुये मानव के मष्तिस्क विकास की । द्विपदीय मानव चतुष्पदीय और बहुपदीय श्रष्टि के शत सहस्त्र प्राणियों से अपनें अस्तित्व को सुरक्षित करने के लिए संघर्षरत था । प्रत्येक क्षण जीवन मरण के बीच झूलता था । प्रत्येक रात्रि  आने वाली मृत्यु की पुकार सुनकर आँखों आँखों में कट जाती थी।  पर मृत्यु को हथेली पर लिये साहसी नवयुवकों की टोलियाँ सहस्त्रों वर्षों तक नग्न अवस्था में और तत्पश्चात अर्ध नग्न अवस्था में दूर दूर तक फैले लता, वृक्ष आच्छादित भयावह कटानों से युक्त विविध वनचरों ,जलचरों से भरे भूमिखण्डों में विचरण किया करती थी। आगे के दो पैर ऋजुता पायी काया के कारण हाथ बनकर स्वतन्त्र परिचालन के लिए मुक्त हो गये थे । और दो मुक्त हाथों की स्वतन्त्र परिचालन क्रिया आने वाली सहस्त्राब्दियों में मानव को प्रकृति का सार्वभौम साम्राज्य बनानें जा रही थी ।
                      ऐसी ही एक टोली में तेजस्वी युवकों ,युवतियों के बीच सूर्य दीप्ति से भरा ओजस्वी मुख और लम्बी पुष्ठ काया  लिये एक नव युवक जंगल प्रान्तर में विचरण कर रहा था । सम्बोधन के लिये हम इस युवक को विद्युत पाद कहकर पुकारेँगेँ ।' माटी 'के अतीत अन्वेषी पाठक जानते ही हैं कि हमारा दिया गया यह नाम केवल सुविधा के लिये है क्योंकि जिस काल की यह बात है उस समय तक भाषा का कोई सुनिश्चित रूप स्थिर ही नहीं हो सका था । टोली में घूमते  हुये विद्युत पाद नें देखा कि जब घन झुण्डों के धवल श्याम  हस्ती आकाश में मँडराते थे और सूँड उठाकर चिघ्घाडते  थे तो उनके गजदन्तों की चमक इतनी कौंध भर देती थी कि सभी जीवित प्राणी भयातुर हो काँप उठते थे । विद्युत पाद नें आदिम मानव मस्तिष्क की चिन्तन तंत्रिकाओं पर दबाव डाल कर सोचना प्रारम्भ किया । मेघीय गजों का यह गर्जन और कौंध शायद जंगल में घूमनें वाले हस्तियों की चिघ्घाड़ और बाहर निकले लम्बे दन्तो की सफेदी से भिन्न है । इस चमक में कुछ रहस्य है । ऐसा लगता है कि शायद कोई आदि शक्ति सब कुछ जला देने वाली जादुयीय चिनगारियों का खेल दिखाती चलती है । अगर यह चिन्गारियाँ हमारी टोली को मिल जायँ तो सभी वन्य पशु हमसे भय खाने लगेंगें और हम वन प्रान्तर के विजेता बनकर इससे उपार्जित होने वाली सभी सामग्री  के अधिकारी हो  जायेंगें । भूमि भी हमारी ,वृक्ष भी हमारे,लतायें भी हमारी ,जलाशय भी हमारे ,और प्रस्तरीय प्रस्तार भी हमारे । दुर्गम हिंसक पशु और भूमिगत सरीसृप हमारे पास भी नहीं आ सकेंगें । कितना सुखद होगा वह जीवन ! हमारी टोली आस -पास की सभी टोलियों से श्रेष्ठ हो जायेगी । पर ऐसा कैसे हो? उसने सोचा कि इसके लिये आँख बंद कर गहरा चिन्तन किया जाय ।
                                 कुछ दिन विद्युत पाद का चिन्तन चलता रहा । उसके मस्तिष्क में आदि शक्ति के कौन कौन से नाम उभरे कोई नहीं जानता । कौन सी रूपाकृतियाँ आयीं कोई नहीं जानता हाँ पर इतना अवश्य है कि उसकी टोली की कई नवयुवतियाँ और नवयुवक चिन्तन के समय उसके मुख पर उभर आने वाले प्रकाश से प्रभावित होने लगे । उन्हें लगा कि यह प्रकाश मेघमालाओं से झरने वाली चिनगारियों से छनकर उसके पास आया है । और फिर एक शाम प्रबल अन्धड़ का प्रवाह चल निकला सारा वन्य प्रान्तर वायु से हिल हिल कर न जाने कितने अजीबो गरीब स्वर निकालने लगा । पशु -पक्षी भी किसी आने वाली दैवीय आपत्ति का अहसास पाकर इधर -उधर छिपने लगे । फिर शीतलता आयी और फिर उड़ती-उतराती ,,इठलाती -बलखाती मेघ मालायें नील गगन को आच्छादित करनें लगीं । अन्धकार बढ़ता गया । विद्युत पाद एक वट वृक्ष के नीचे बैठकर चिन्तन में डूबा था । अर्ध रात्रि के आस -पास एक भयानक गड़गड़ाहट की आवाज हुयी लगा जैसे सैकड़ों वृक्ष उखड गये हों या फिर दूर की पहाड़ी उखड कर हवा में उड़ रही हो । और फिर विद्युत पाद से केवल 15 -20 डग की दूरी पर आँखों को बन्द कर देने वाली सूर्य की दीप्ति से भी अधिक चमकीली चिनगारियों की एक लपक धरती में धँसती दिखायी पडी । कुछ ही क्षण में वह लपक उलटकर मेघमालाओं में तिरोहित हो गयी । विद्युत पाद नें देखा कि आस -पास चारो ओर अग्नि की प्रभात कालीन सूर्य जैसी लाल -लाल लपटें उठ रही हैं । सभी कुछ जलकर काला हो रहा था । चारो ओर पशु -पक्षियों के झुलसे हुये शरीर पड़े थे । कितने हर्ष की बात थी कि उसकी टोली इस समय एक  दूर सुरक्षित गुफा में आराम कर रही थी । वह स्वयं काफी दूर चलकर इस विशाल वृक्ष के नीचे चिन्तन करनें के लिये आ गया था । विद्युत पाद नें ऊपर निगाह उठायी तो उसे लगा कि आधा वट वृक्ष झुलस चुका हैऔर उसके नीचे की डालों में मेघमालाओं से घिरी आग पसरती जा रही  है । कितना आश्चर्य था कि विद्युत पाद इस आघात से बच गया था । क्या आदि शक्ति नें उसे आसमान से फेंककर चिनगारियों की यह धरोहर उसे सौँप दी है ? अचानक विद्युत पाद को लगा कि वट वृक्ष गिरने वाला है । उसनें सिर पर जल रही एक लम्बी डाल को उठा लिया और तेजी से गुफा की ओर दौड़ चला । रास्ते में यदि कोई जीवित खुंखार जानवर था तो  भी उसे कोई डर  न था क्योंकि वह जानता था कि आदि शक्ति नें उसे एक ताकत दे दी है । अब वह सचमुच ही विद्युत पाद हो गया था । अग्नि की शलाका उसके हाँथ में थी पर समस्या थी कि इस अग्नि को सदा कैसे जलाये रखा जाय ? माना कि चारो ओर घने जंगल थे ,माना कि जलनें की प्रचुर सामग्री थी पर अपनी बस्ती में एक स्थान पर निरन्तर इस अग्नि को जलाये रखना होगा । तभी हिंसक पशुओं ,सरी सृपों और हड्डियाँ कपा देने वाली शीत से रक्षा हो सकेगी । पर उपल वृष्टि और अति वृष्टि में इसे बचाकर कैसे रखा जाय ? चलो देखेंगें  अभी तो सुभागा और अपाला को यह निर्देश देने होंगे कि उनका काम निरन्तर इस अग्नि को जलाये रखना है । कम से कम एक लौ तो सदैव जलती ही रहे फिर उसी एक ज्वाला से अनेक ज्वालायें उत्पन्न कर ली जायेगी । ज्वाला देवी अपनें प्राथमिक रूप में आदि मानव की विचार धारा में प्रवेश कर गयीं और निरन्तर लौ जगाये  रखने की परम्परा नें भी अपना एक स्थायी पूजा विधान बना लिया । विद्युत पाद अब  अपनी टोली का नायक था और यह टोली धीरे धीरे आस पास की अन्य टोलियों को भी लौ बाटती रही पर अब सुभागा विद्युत पाद के अधिक नजदीक आती गयी और दोनों के सम्मोहक प्राकृतिक मिलन नें जिस शिशु को जन्म दिया उसका नाम पड़ा अग्निपाद । शैशव से ही अग्निपाद गहरे  चिन्तन का धनी लगने लगा था । सुहागा और विद्युत पाद शैशव से कैशोर्य की ओर बढ़ते हुये अग्निपाद को देखकर कहा करते थे कि निश्चय ही एक दिन उनका पुत्र मानव इतिहास का अमर पुरुष बनेगा । काल कितनी तेजी से गुजरता है इसका अहसास हमें तब हो पाता है जब हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं और हम बृद्ध हो जाते हैं । विद्युत पाद और सुभागा अब ढलान पर थे और अग्निपाद तरुणायी  की चट्टान पर । वट वृक्षों की छाया में बैठकर चिन्तन करनें के बजाय वह दूर -दूर भिन्न -भिन्न रंग की विस्तृत पहाड़ियों पर चढ़कर किसी चट्टान के नीचे बैठता और चिन्तन करता । अग्नि को निरन्तर जलाये रखना अब एक समस्या बन गयी थी । टोली जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती तो किसी न किसी को निरन्तर जलती डाली को हाँथ में लेकर चलना होता । आस -पास की टोलियों से एकाध बार यह सुननें में भी आने लगा कि आग को जलाये रखना इतना आवश्यक हो गया था कि यदि किसी की असावधानी से आग बुझ जाय तो उसे टोली से खदेड़ कर जंगली जानवरों का ग्रास बना दिया जाता था । अग्निहीन टोली को फिर किसी अग्नियुक्त टोली से आग की भीख माँगनीं पड़ती थी और यह उस टोली के लिये  अत्यन्त अपमान का क्षण होता था । एक दिन अग्निपाद काफी दूर चला गया एक पहाड़ी के पत्थर छोटी -छोटी चमकदार बिन्दियों से भरे हुये बड़े सुन्दर लग रहे थे । वह ऊपर तक चढ़ता गया, वह ऊंचाई पर बैठनें ही वाला था कि उसके  पैर की टकराहट से लुढ़कता -पुढकता एक पत्थर नीचे पत्थरों पर जा गिरा । आग की एक कौंध चमक कर बुझ गयी । अग्निपाद को लगा कि शायद उसे कुछ भ्रम हुआ है । पर नहीं -नहीं यह शुभ नहीं था तो क्या किसी ख़ास किस्म के पत्थर अपनें में आग छिपाये हैं ? अग्निपाद नें एक बड़ा सा पत्थर हाथ में उठाकर पूरी ताकत से दूसरे पत्थर पर दे मारा । चिनगारियों की कौंध फ़ैल गयी । अग्निपाद नें आग्नेय पत्थरों की रगड़ से अग्नि उत्पन्न करने की तकनीक का अभ्यास करना शुरू किया । विद्युतपाद और सुभागा अपने इस पुत्र की महान उपलब्धि सेअत्यन्त प्रसन्न हुये पर अब धर्म नें अपना सुनिश्चित स्वरूप स्थित करना शुरू कर दिया था । यज्ञों की परम्परा केवल अग्नि को जलाये रखनें के लिये ही नहीं थी । यज्ञ के माध्यम से देवताओं और पितरों को तृप्त करने की दार्शनिक धारणा जन्म लेने लगी थी । पीढ़ियां पर पीढ़ियां गुजरती गयीं । समय का कारवाँ गुबार उड़ाता चला गया । चन्दन की लकड़ियाँ अग्नि में जलने से सुगन्ध का सम्मोहक वातावरण बननें लगा पर क्या चन्दन की शीतलता में भी अग्नि का निवास हो सकता है इस दिशा में अग्निपाद की परम्परा में जन्मी प्रतिभाशाली सन्तानें सोचनें लगीं और इसी परम्परा में एक महान अन्वेषक दृढ़वती और कालजयी पुरुष नें जन्म लिया जिन्हें जमदग्नि के नाम से जाना जाता है । पत्थरों से आगे बढ़कर लकड़ियों ,अस्थियों से होते हुये ताम्र युग की शुरुआत हो चुकी थी । ताम्र से बने आयुध पाकर कुछ टोलियों के सरदार ...
......................... स्वच्छंद होने लगे थे । नियम टूट रहे थे । पवित्र मर्यादायें टूटती जा रही थीं । काष्ठ घर्षण के द्वारा चन्दन की रगड़ के द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की तकनीक खोजने वाले जमदग्नि जैसे मनीषी स्वच्छंद अतिचारियों से जिन्हे राजा के नाम से अभिहित किया जाने लगा था अपने को अपमानित महसूस कर रहे थे । जमदग्नि नें अपने पुत्र परशुराम को शस्त्र और शास्त्र मनन और चिन्तन सभी में अपनें युग का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता बनाकर उन्हें दूर अन्तर उपलब्धि का मार्ग खोजने के लिये प्रस्थानित  दिया था । परशुधर की माँ रेणुका अपनी बढ़ती उम्र में भी अपनें नारी सौन्दर्य और शालीन आचरण के लिये निकट के सभी उपनिवेशों में चर्चित हो रही थी । हजारों भुजायें फैलाये अनाचार पवित्रता के प्रबल प्रवाह को स्तंभित कर रहा था । इतिहास के पर्दे के पीछे ऐसा कुछ घटित होना था जो मानव चिन्तन को एक नया मोड़ दे और ऐश्वर्य या शक्ति को इन्द्रिय सुख से न जोड़ कर मानव कल्याण की ओर उन्मुख करे । अतीत की इन रहस्य भरी कोहिलकाओं में' माटी' आपको शीघ्र ही विचरण करायेगी । 

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