शात कर्णी
आज से लगभग १९ शताब्दी पहले सन १०६ के आस पास दक्षिणी महाराष्ट्र के एक छोटे से नगर में एक टूटी -फूटी अट्टालिका का ऊपरी कक्ष। अठारह -उन्नीस वर्षीय गेहुएं वर्ण का एक तरुण जिसके मुख पर गौरव भरी दीप्ति है अधेड़ वय की स्वरूपवान नारी के समक्ष हाथ जोड़े खड़ा है। नवयुवक का विशाल वक्ष ,उसकी पुष्ट भुजायें ,उसका लम्बा ऊंचा कद और उसका दीप्ति भाल उसके महापराक्रमी होने की सूचना दे रहा है। साड़ी से आवेष्ठित उसकी स्वरूपा माँ उसे सामने रखी काष्ठ पट्टिका पर बैठने को कहती है। वह स्वयं भी एक ऊँची काष्ठ पट्टिका पर बैठी है। पास में दो तीन खाली काष्ठ पट्टिकायें भी रखी हुयीं हैं। नवयुवक बैठ जाता है। उसे शातिकणि के नाम से जाना जाता है। वार्तालाप प्रारम्भ होता है ।
शातकर्णी :- माता श्री आज्ञा दें। बीस सैनिक जुटा लिए गयें हैं। मैंने स्वयं उनका चयन किया है। उनमे शारीरिक पुष्टता और वीरता का प्रशंसनीय संयोग उपस्थित है। इतने ही छिप्र गति अश्व्वों के व्यवस्था भी हो गयी है। आज रात्रि को ही मुझे अभियान करना है। पग धूलि लेने आया हूँ।
माता श्री :- वत्स सातवाहन वंश को तुमसे बहुत बड़ी आशायें हैं। तुम्हारे प्रथम पूर्वज सिमुक श्री महान योद्धा थे। एक विशाल भू भाग उनके अधिकार में था। बाद के उत्तराधिकारी दुर्बल साबित हुये। तुम्हारे दिवंगत पिता श्री से बहुत बड़ी आशायें थीं। इस छोटे से नगर के आस पास का भू भाग उन्होंने ही शक छत्रप को पराजित कर जीता था पर सात वाहन वंश का दुर्भाग्य ही थी जो उन्हें तुम्हारे जन्म के बाद हमसे खींचकर भगवान की गोद में ले गया। वत्स बहुत यत्न से पाल पोस कर मैंने उनकी धरोहर को बड़ा किया है। तुम बिल्कुल उन्हीं की प्रतिकृति हो। हे मेरे दुर्भाग्य तुमने उन्हें छीन कर मुझे अनाथ कर दिया। (आँखों में आंसू आ जाते हैं जिन्हें वह आँचल से पोछने लगती है )
शातकर्णी :- दुखी न हो माता श्री। मैं दिवंगत पिता श्री की स्मृति में श्रद्धा से विनत होकर सिर झुकाता हूँ। मैनें उन्हें नहीं देखा है पर आप मेरे लिये सबसे बड़ा जीवन सिम्बल हैं। अभियान की आज्ञां दें माता श्री और यह भी स्वीकार करें कि आज से मैं अकेले शातकर्णी नहीं बल्कि गौतमी पुत्र शातिकर्ण के नाम से जाना जाऊं। मालवा की ओर मालवा विजय का मेरा अभियान कब तक चलेगा कह नहीं सकता। पर आपका आशीर्वाद निष्फल नहीं होगा। मालवा विजय कर आपके चरणों में फिर प्रणाम करूँगा और तब काठियावाढ़ का अभियान प्रारम्भ करूँगा। आज्ञां दें माता श्री।
गौतमी :- (खड़े होकर पुत्र के सिर पर जिसे वह अधिक लम्बाई के कारण झुका लेता है हाथ रखती है। जाओ वत्स तुम्हारे दिग्विजय की कहानियां युगों -युगों तक सुनायी जायेगी। )
गौतमी पुत्र शातिकर्ण का कक्ष से वाहिर्गमन। सीढयों से उतरते पद चापों की आवाज अश्वों की पीठों पर सैनिकों के बैठने की हलचल और फिर जय शातिकर्ण का ऊँचा गूँजता स्वर।
(शीतकाल की समाप्ति और बसन्त का आगमन मालवा विजय की सूचना गौतमी तक आ गयी है। गौतमी शातिकर्ण की प्रतीक्षा कर रही है। नीचे घोड़ों के रुकने की खलबल । घोड़े से कूंदकर द्रुतिगति से सीढयाँ चढ़ कर शातिकर्ण का माता श्री के कक्ष में प्रवेश। भूमि पर लोटकर चरणों में प्रणाम। आँसू भरी आँखों से पुत्र को देखती है फिर उठाकर गले लगा लेती है। वत्स तुम सातवाहन वंश के गर्व हो। ब्राम्हण धर्म का पुनुरुत्थान करो ,विदेशी शासकों ,यवनों तथा पहलवों को पराजित कर उन्हें भारतीय जीवन शैली अपनाने को प्रेरित करो । )
शातिकर्ण :- माँ कल प्रभात से पहले ही काठियावाढ़ का अभियान प्रारम्भ होगा। शकों के शाशक नह्पान को भारत की वीरता से परिचित कराना है।
गौतमी :- वत्स एक दो दिन तो विश्राम कर लेते। सैनिक भी थक गये होंगे।
शातिकर्ण :- माता श्री मालवा विजय के बाद अपनी सेना में लगभग २०० अश्वारोही ,पचास हस्ति योद्धा और दो सहस्त्र पदाति सैनिक आ गये हैं। काठियावाढ़ अभियान कुछ ही दिन में संपन्न हो जायेगा। माता श्री गौतमी पुत्र शातिकर्ण विदेशी शासकों के मस्तक को भारत माँ की चरण रज लगाने के लिये बाध्य कर देगा।
गौतमी :- जाओ वत्स मैं तुम्हे राष्ट्र को समर्पित करती हूँ। त्रिदेव तुम्हारी रक्षा करेंगे ।
बसन्त ऋतु की समाप्ति होने वाली है। शातकर्णी उस टूटी -फूटी अट्टालिका के ऊपरी कक्ष में फिर से प्रवेश करता है। उसके आने के पूर्व सूचना गौतमी को नहीं मिल पायी है। शातिकर्ण माँ के चरणों में लेटकर प्रणाम करता है।
गौतमी :- वत्स बिना पूर्व सूचना के सहसा कैसे आ गये ? सब कुशल तो है।
शातिकर्ण :- माता श्री आपका आशीर्वाद कभी निष्फल होता है । काठियावाढ़ ध्वस्त हो चुका है। अपना एक प्रतिनिधि शासक के रूप में वहाँ बिठा आया हूँ। सेना पीछे आ रही है। मैं तीब्र गति से आकर मात श्री को सूचना देने आ पहुँचा हूँ पर सूचना के साथ आशीर्वाद मांगने भी आया हूँ क्योंकि अब बरार , कोंकण ,पूना ,नासिक के विजय अभियान प्रारम्भ करने हैं। सम्पूर्ण गुजरात सातवाहनों की प्रतीक्षा कर रहा है। आपके लिये एक नाये भावन के निर्माण की नींव रख दी गयी है। राजधानी का चयन पूरे आन्ध्रप्रदेश प्रदेश के विजय के बाद किया जायेगा।
गौतमी :- वत्स विन्ध्य के पार का इतिहास तुम्हारी गौरव गाथा युगों -युगों तक दोहराता रहेगा। मैं चाहती हूँ कि ब्राम्हण धर्म में स्वीकृत देवताओं की पूजा हर जगह प्रारम्भ करवा दी जाय। इन्द्र ,वासुदेव ,सूर्य ,चन्द्र ,विष्णु ,कृष्ण ,गणेश ,और पशुपति या शिव इन सभी की पूजा करने की जनता को स्वतन्त्रता दी जाय। बिना बाध्यता से जो जिस देवता को चाहे उसकी पूजा करे।
शातिकर्ण :- माता श्री बौद्ध भिक्षुओं के सम्बन्ध में आपका क्या आदेश है ?
गौतमी :- भगवान बुद्ध तो भारतीय आस्तिक धर्मिता को और अधिक सम्पुष्ट कर गयें हैं। वे तो हमारे दशावतारों में हैं। बौद्ध भिक्षओं का पूरा सम्मान होना चाहिये। बोधि वृक्ष ,धर्मचक्र तथा भगवान बुद्ध की मूर्तियों की पूजा भी प्रारम्भ की जाय। स्तूप बनवाये जाँय और गुफाओं का निर्माण किया जाय। सच्चा ब्राम्हण धर्म आत्मशान्ति के लिये हर पूजा पद्धति को स्वीकार करता है। वह सच्चे अर्थों में धर्म निरपेक्ष है। ऊँचाई की ओर ले जाने वाला यह चिन्तन का हर मार्ग राज्य से संवर्धन पायेगा। पर राज्य का प्रशासन पूजा पद्धति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
शातिकर्ण :- धन्य हो माता श्री। शातिकर्ण अपने को गौतमी पुत्र शातिकर्ण कहने में महान गर्व का अनुभव करता है। अच्छा माता श्री अब सम्पूर्ण गुजरात ,आन्ध्र और औरंगाबाद को महान साम्राज्य में मिला लेने के बाद अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन आपकी आज्ञा से किया जायेगा। ( नीचे से सैनिकों की ऊँची आवाज में गौतमी पुत्र शातिकर्ण की जय गूँज)
एक वर्ष के अन्तराल के बाद माता श्री गौतमी के नव निर्मित भवन के सामने विशाल प्रस्तार में कुछ अश्वों के रुकने की खुरभुर। एक विशालकाय योद्धा विद्दुति गति से अश्व से कूंद कर शीघ्रता से सीढियां चढ़ माता श्री के कक्ष के समक्ष पहुँच जाता है। गौतमी की सेवा में रत सुरेखा उसे देखने आती है। योद्धा नमस्कार कर माता श्री से मिलने की इच्छा व्यक्त करता है। कहता है कि वह सातवाहन सेना का सेनापति है उसका नाम व्याघ्र नख है। अश्व मेघ पराक्रमी महाराजा धिराज गौतमी पुत्र शात कर्ण ने उसे माता श्री के पास एक सन्देशा देने के लिये भेजा है। वे कुछ दिन पाटन में रूककर व्यवस्था करने के बाद माता श्री के चरणों में प्रणाम करने के लिये उपस्थित होंगें। व्याघ्र नख कक्ष में बुला लिया जाता है। दण्डवत प्रणाम करता है। माँ उसे आशीर्वाद देती है।। उसका विशालकाय शरीर ,रोबीला चेहरा ,और विनत तथा शालीन व्यवहार ,माता श्री को प्रभावित करता है ।
गौतमी :- व्याघ्र नख उठो ,बताओ कैसे आना हुआ तुम्हारे महाराज किस व्यवस्था में लग गये। तुम्हारी वीरता के विषय में बहुत कुछ सुनने को मिला है। शति कर्ण की महान विजयों का बहुत सारा श्रेय तुम्ही को जाता है।
व्याघ्र नख :- माता श्री देवराज इन्द्र से भी अधिक पराक्रमी आपके पुत्र राजाधिराज शात कर्ण के सामने मेरी वीरता सूर्य के सामने दीपक की भाँति है। विजयों का सारा गौरव महाराज के शौर्य और नेतृत्व को जाता है। मेरे जीवन का सबसे बड़ा गर्व उनका अनुचर बन कर उनकी आज्ञा का पालन करना है। मुझसे और भी न जाने कितने वीर योद्धा सातवाहन सेना में हैं। यह तो महाराज की कृपा है कि उन्होंने महा सेनानी का पद प्रदान किया।
गौतमी :- व्याघ्रनख तुम निश्चय ही सात वाहन साम्राज्य के अमूल्य रत्न हो। बोलो कौन सा सन्देशा ले आये हो ।
व्याघ्रनख :- महाराज नें सूचना भेजी है कि सभी विदेशी क्षत्रप बन्धन में ले लिये गये हैं। गुजरात ,सौराष्ट्र ,मालवा ,बरार ,उत्तरी कोंकण ,पूना और नासिक के आस पास के सभी प्रदेश सातवाहन गौरव की ध्वजा के नीचे आ चुके हैं। अश्व मेघ की आयोजना हो गयी है। माता श्री यदि आज्ञां दें तो मैं महाराज द्वारा इंगित मधुर सम्बन्धों का एक प्रस्ताव आपके सामने रखूँ।
गौतमी :- व्याघ्र नख क्या कोई गुप्त सन्देशा है। क्या मेरा शाति कर्ण किसी सुयोग्य सहचरी की तलाश में सफल हो गया। शीघ्र बोलो व्याघ्र नख उत्सुकता मुझे उत्तेजित कर रही है।
व्याघ्र नख :- ऐसी ही बात है माता श्री। महाकालेश्वर मंदिर के अधिष्ठाता और पीठाधिपति आचार्य वशिष्ठ की पुत्री विशिष्ठी ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने में सफलता पायी है। ऐसे नर रत्न के लिये दक्षिणावर्त की कौन सी तरुण सुन्दरी अपने प्राण निछावर न कर देगी। महाराज ने स्वयं आपके सामने निवेदन करने से पहले मेरे द्वारा यह सन्देशा आपका मन जानने के लिए भिजवाया है। आपकी इच्छा अनिच्छा पर ही महाराज का निर्णय आधारित होगा। माता श्री आपने शायद सुना भी है कि आचार्य वशिष्ठ की पुत्री सौराष्ट्र की न केवल सबसे सुन्दर तरुणी है वरन एक विदुषी ,वीरांगना भी है। हस्ति संचालन और और धनुष कौशल में बड़े -बड़े योद्धा भी उसका सामना नहीं कर सकते। यदि आप आज्ञां दें तो आचार्य वशिष्ठ अपनी पुत्री विशिष्टि के साथ आपके चरणों की धूलि लेने आ जायँ। महाराज इस भेंट के बाद ही आपके पास आने का साहस जुटा पायेंगे।
(गौतमी का मुख हार्दिक सुख की अनुभूति से प्रफुल्लित हो उठता है। अपने विगत यौवन में भी उसकी भब्य छवि और आकृति किसी को भी स्तम्भित कर सकती है )
गौतमी :- अच्छा तो शाती नें महारानी की तलाश कर ली ,माँ के आगे कहने का साहस नहीं होता। तेरे को दूत बना कर भेजा है। अरे व्याघ्र नख कहना अपने महाराज से मैं कितने दिनों से इस बात की प्रतीक्षा कर रही थी कि धरती की कौन सी नारी मेरे पुत्र की सह्भागिनी बनने के योग्य होगी। व्याघ्र नख तू नहीं जानता कि हर माँ अपने पुत्र को अपने से अधिक योग्य तरुणी के हांथों में सौपने के लिये सदैव प्रस्तुत रहती है।
(कक्ष के पीछे के छोटे से सुरक्षित विश्राम स्थल में सेविका सुरेखा बैठी हुयी है। प्रतीक्षा में है की शायद माता श्री को उसकी कोई आवश्यकता पड़ जाय। गौतमी पीछे मुँह कर सुरेखा को अपने पास आने को कहती है। )
सुरेखा :- क्या आज्ञा है माता श्री ?
गौतमी :- सुरेखा .पुत्री ,आज मेरे जीवन का सबसे हर्ष भरा दिन है। आज मैं निश्चिन्त हो गयी हूँ कि मेरा शातिकर्ण अब बड़ा हो गया है। गौतमी के अतिरिक्त भी संसार में और कोई नारी है जो संसार में उसे सम्भाल कर रख सकेगी। हे प्रभु मेरी यह प्रार्थना निर्रथक न जाय कि शातवाहन वंश का गौरव शातिकर्ण की वंश बेल उससे भी अधिक गौरव वांन सिद्ध हो सक। अरे सुरेखा देखना कक्ष के दाहिनी दीवार के कलात्मक आले में हाँथी दांत की एक पिटारी रखी है उसे निकाल कर मेरे पास ला।
(सुरेखा हाँथी दांत की बनी एक अत्यन्त सुन्दर पिटारी माता श्री गौतमी के समक्ष रख देती है। पिटारी को खोल कर गौतमी कुछ क्षण उनमें रखी वस्तुओं को देखती है। फिर रेशम की एक छोटी सी थैली निकाल लेती है साथ ही सिंहंल द्वीपीय मोतियों की एक अत्यन्त सुन्दर माला। आँखों में खुशी के आँसू आ जाते हैं। सुरेखा मूक आश्चर्य का भाव लिये खड़ी है। व्याघ्र नख माता श्री के शब्द सुनने की प्रतीक्षा कर रहा है।
गौतमी :- व्याघ्र नख तुम महाराजा धिराज के महान सेनापति हो मुझे लग रहा है अब सातवाहन वंश का गौरव सुरक्षित रहेगा। विगत रात्रि को स्वप्न में शातिकर्ण के पिता मेरे दिवंगत स्वामी श्री मेरे पास आये थे। कहते थे गौतमी तूने अपना कर्तब्य पूरा कर दिया। अब सातवाहन वंश का गौरव कई पीढ़ियों तक अक्षुण रहेगा। जिस सिन्दूर से मैंने तेरे केश राशि में सुहाग मांग भरी थी और जो मोतियों की माला मैंने तुझे पहनायी थी शातिकर्ण को भिजवा देना। तेरी होने वाली बहू के पास हमारे कुल की यह विरासत सुरक्षित रहेगी। दिवंगत स्वामी और भी न जाने क्या -क्या कहते गये पर जाते -जाते अन्त में उन्होंने जो कहा उसकी याद अभी तक मेरे मस्तिष्क में ताजी है। उन्होंने कहा कि तेरा गौतमी पुत्र शातकर्ण तो दक्षिणावर्त में सच्चे ब्राम्हण धर्म का प्रणेता तो माना ही जायेगा पर उसका पुत्र विशिष्ठी पुत्र श्री पुलमावी और पौत्र यज्ञ श्री शातिकर्ण से भी अधिक गौरव के अधिकारी होंगे। अन्त में उन्होंने कहा धरती पर अपना कर्तब्य पूरा कर चुकी है गौतमी । अब क्या मुझे अकेला ही आकाशगंगाओं में भटकने देगी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ गौतमी।
(यह सब कहते -कहते गौतमी भावुक हो उठती है। सुरेखा रेशम की एक बड़ी थैली लाकर देती है। गौतमी सिन्दूर की थैली और मोतियों की माला उसमे डाल कर उसे व्याघ्र नख की ओर बढाती है। )
गौतमी :- व्याघ्र नख महा सेनापति अपने महाराज को मेरी ओर से यह उपहार देना और मैं जो कह रहीं हूँ वही शब्द उनके आगे दोहरा देना। कहना माता श्री ने कहा है ,"वत्स शातिकर्ण तुम चाहो तो अपने पिता के नाम के साथ अपने नाम को जोड़ लो मेरी यही इच्छा है। पर मैं तुम्हें बाध्य नहीं करती यदि तुम चाहो तो तुम्हारी वंश परम्परा में माता का नाम पहले लगाकर नामकर्ण की पद्धति भी विद्वत ब्राम्हण समाज को स्वीकार करनी होगी। तुमसा पुत्र पाकर गौतमी धन्य हुई। अच्छा व्याघ्र नख अब मुझे विश्राम करने दे।
( व्याघ्र नख की आँखों में आँसू आ जाते हैं। दण्डवत लेटकर माता श्री के चरणों में प्रणाम करता है। सुरेखा की आँखों में आँसुओं की झड लगी है। दूर से शातिकर्ण सातवाहन की विशाल सेना अश्वों ,हाथियों ,और धनुर्धारियों के व्यवस्थित गुल्मों में अभियान करती हुई दिखायी पड़ती है । वातावरण में जयनाद के स्वर गूँज रहे हैं। )
( १०६ ईसवी से लेकर १९५ ईसवी तक विन्ध पर्वत के पार सातवाहन वंश का यशश्वी इतिहास नये -नये कीर्तिमान स्थापित करता रहा । गौतमी पुत्र शातिकर्ण ब्राम्हणों का समर्थक था और उसके मन में राम ,अर्जुन और ,केशव की तरह महान बनने के इच्छा थी। पश्चमी भारत में बसे विदेशी शक ,यवन तथा पहलव इस काल में भारतीय वर्ण व्यवस्था स्वीकार कर क्षत्रिय वरण में शामिल कर लिये गये। )
आर्यावर्त के इतिहास से तो माटी के पाठक परिचित ही हैं। दक्षिणवर्त के महान इतिहास की कुछ झांकियां भी हम प्रस्तुत करते चलेंगे। इस प्रस्तुतीकरण में कल्पना और इतिहास दोनों के कलात्मक संयोजन का प्रयास किया गया है।
आज से लगभग १९ शताब्दी पहले सन १०६ के आस पास दक्षिणी महाराष्ट्र के एक छोटे से नगर में एक टूटी -फूटी अट्टालिका का ऊपरी कक्ष। अठारह -उन्नीस वर्षीय गेहुएं वर्ण का एक तरुण जिसके मुख पर गौरव भरी दीप्ति है अधेड़ वय की स्वरूपवान नारी के समक्ष हाथ जोड़े खड़ा है। नवयुवक का विशाल वक्ष ,उसकी पुष्ट भुजायें ,उसका लम्बा ऊंचा कद और उसका दीप्ति भाल उसके महापराक्रमी होने की सूचना दे रहा है। साड़ी से आवेष्ठित उसकी स्वरूपा माँ उसे सामने रखी काष्ठ पट्टिका पर बैठने को कहती है। वह स्वयं भी एक ऊँची काष्ठ पट्टिका पर बैठी है। पास में दो तीन खाली काष्ठ पट्टिकायें भी रखी हुयीं हैं। नवयुवक बैठ जाता है। उसे शातिकणि के नाम से जाना जाता है। वार्तालाप प्रारम्भ होता है ।
शातकर्णी :- माता श्री आज्ञा दें। बीस सैनिक जुटा लिए गयें हैं। मैंने स्वयं उनका चयन किया है। उनमे शारीरिक पुष्टता और वीरता का प्रशंसनीय संयोग उपस्थित है। इतने ही छिप्र गति अश्व्वों के व्यवस्था भी हो गयी है। आज रात्रि को ही मुझे अभियान करना है। पग धूलि लेने आया हूँ।
माता श्री :- वत्स सातवाहन वंश को तुमसे बहुत बड़ी आशायें हैं। तुम्हारे प्रथम पूर्वज सिमुक श्री महान योद्धा थे। एक विशाल भू भाग उनके अधिकार में था। बाद के उत्तराधिकारी दुर्बल साबित हुये। तुम्हारे दिवंगत पिता श्री से बहुत बड़ी आशायें थीं। इस छोटे से नगर के आस पास का भू भाग उन्होंने ही शक छत्रप को पराजित कर जीता था पर सात वाहन वंश का दुर्भाग्य ही थी जो उन्हें तुम्हारे जन्म के बाद हमसे खींचकर भगवान की गोद में ले गया। वत्स बहुत यत्न से पाल पोस कर मैंने उनकी धरोहर को बड़ा किया है। तुम बिल्कुल उन्हीं की प्रतिकृति हो। हे मेरे दुर्भाग्य तुमने उन्हें छीन कर मुझे अनाथ कर दिया। (आँखों में आंसू आ जाते हैं जिन्हें वह आँचल से पोछने लगती है )
शातकर्णी :- दुखी न हो माता श्री। मैं दिवंगत पिता श्री की स्मृति में श्रद्धा से विनत होकर सिर झुकाता हूँ। मैनें उन्हें नहीं देखा है पर आप मेरे लिये सबसे बड़ा जीवन सिम्बल हैं। अभियान की आज्ञां दें माता श्री और यह भी स्वीकार करें कि आज से मैं अकेले शातकर्णी नहीं बल्कि गौतमी पुत्र शातिकर्ण के नाम से जाना जाऊं। मालवा की ओर मालवा विजय का मेरा अभियान कब तक चलेगा कह नहीं सकता। पर आपका आशीर्वाद निष्फल नहीं होगा। मालवा विजय कर आपके चरणों में फिर प्रणाम करूँगा और तब काठियावाढ़ का अभियान प्रारम्भ करूँगा। आज्ञां दें माता श्री।
गौतमी :- (खड़े होकर पुत्र के सिर पर जिसे वह अधिक लम्बाई के कारण झुका लेता है हाथ रखती है। जाओ वत्स तुम्हारे दिग्विजय की कहानियां युगों -युगों तक सुनायी जायेगी। )
गौतमी पुत्र शातिकर्ण का कक्ष से वाहिर्गमन। सीढयों से उतरते पद चापों की आवाज अश्वों की पीठों पर सैनिकों के बैठने की हलचल और फिर जय शातिकर्ण का ऊँचा गूँजता स्वर।
(शीतकाल की समाप्ति और बसन्त का आगमन मालवा विजय की सूचना गौतमी तक आ गयी है। गौतमी शातिकर्ण की प्रतीक्षा कर रही है। नीचे घोड़ों के रुकने की खलबल । घोड़े से कूंदकर द्रुतिगति से सीढयाँ चढ़ कर शातिकर्ण का माता श्री के कक्ष में प्रवेश। भूमि पर लोटकर चरणों में प्रणाम। आँसू भरी आँखों से पुत्र को देखती है फिर उठाकर गले लगा लेती है। वत्स तुम सातवाहन वंश के गर्व हो। ब्राम्हण धर्म का पुनुरुत्थान करो ,विदेशी शासकों ,यवनों तथा पहलवों को पराजित कर उन्हें भारतीय जीवन शैली अपनाने को प्रेरित करो । )
शातिकर्ण :- माँ कल प्रभात से पहले ही काठियावाढ़ का अभियान प्रारम्भ होगा। शकों के शाशक नह्पान को भारत की वीरता से परिचित कराना है।
गौतमी :- वत्स एक दो दिन तो विश्राम कर लेते। सैनिक भी थक गये होंगे।
शातिकर्ण :- माता श्री मालवा विजय के बाद अपनी सेना में लगभग २०० अश्वारोही ,पचास हस्ति योद्धा और दो सहस्त्र पदाति सैनिक आ गये हैं। काठियावाढ़ अभियान कुछ ही दिन में संपन्न हो जायेगा। माता श्री गौतमी पुत्र शातिकर्ण विदेशी शासकों के मस्तक को भारत माँ की चरण रज लगाने के लिये बाध्य कर देगा।
गौतमी :- जाओ वत्स मैं तुम्हे राष्ट्र को समर्पित करती हूँ। त्रिदेव तुम्हारी रक्षा करेंगे ।
बसन्त ऋतु की समाप्ति होने वाली है। शातकर्णी उस टूटी -फूटी अट्टालिका के ऊपरी कक्ष में फिर से प्रवेश करता है। उसके आने के पूर्व सूचना गौतमी को नहीं मिल पायी है। शातिकर्ण माँ के चरणों में लेटकर प्रणाम करता है।
गौतमी :- वत्स बिना पूर्व सूचना के सहसा कैसे आ गये ? सब कुशल तो है।
शातिकर्ण :- माता श्री आपका आशीर्वाद कभी निष्फल होता है । काठियावाढ़ ध्वस्त हो चुका है। अपना एक प्रतिनिधि शासक के रूप में वहाँ बिठा आया हूँ। सेना पीछे आ रही है। मैं तीब्र गति से आकर मात श्री को सूचना देने आ पहुँचा हूँ पर सूचना के साथ आशीर्वाद मांगने भी आया हूँ क्योंकि अब बरार , कोंकण ,पूना ,नासिक के विजय अभियान प्रारम्भ करने हैं। सम्पूर्ण गुजरात सातवाहनों की प्रतीक्षा कर रहा है। आपके लिये एक नाये भावन के निर्माण की नींव रख दी गयी है। राजधानी का चयन पूरे आन्ध्रप्रदेश प्रदेश के विजय के बाद किया जायेगा।
गौतमी :- वत्स विन्ध्य के पार का इतिहास तुम्हारी गौरव गाथा युगों -युगों तक दोहराता रहेगा। मैं चाहती हूँ कि ब्राम्हण धर्म में स्वीकृत देवताओं की पूजा हर जगह प्रारम्भ करवा दी जाय। इन्द्र ,वासुदेव ,सूर्य ,चन्द्र ,विष्णु ,कृष्ण ,गणेश ,और पशुपति या शिव इन सभी की पूजा करने की जनता को स्वतन्त्रता दी जाय। बिना बाध्यता से जो जिस देवता को चाहे उसकी पूजा करे।
शातिकर्ण :- माता श्री बौद्ध भिक्षुओं के सम्बन्ध में आपका क्या आदेश है ?
गौतमी :- भगवान बुद्ध तो भारतीय आस्तिक धर्मिता को और अधिक सम्पुष्ट कर गयें हैं। वे तो हमारे दशावतारों में हैं। बौद्ध भिक्षओं का पूरा सम्मान होना चाहिये। बोधि वृक्ष ,धर्मचक्र तथा भगवान बुद्ध की मूर्तियों की पूजा भी प्रारम्भ की जाय। स्तूप बनवाये जाँय और गुफाओं का निर्माण किया जाय। सच्चा ब्राम्हण धर्म आत्मशान्ति के लिये हर पूजा पद्धति को स्वीकार करता है। वह सच्चे अर्थों में धर्म निरपेक्ष है। ऊँचाई की ओर ले जाने वाला यह चिन्तन का हर मार्ग राज्य से संवर्धन पायेगा। पर राज्य का प्रशासन पूजा पद्धति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
शातिकर्ण :- धन्य हो माता श्री। शातिकर्ण अपने को गौतमी पुत्र शातिकर्ण कहने में महान गर्व का अनुभव करता है। अच्छा माता श्री अब सम्पूर्ण गुजरात ,आन्ध्र और औरंगाबाद को महान साम्राज्य में मिला लेने के बाद अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन आपकी आज्ञा से किया जायेगा। ( नीचे से सैनिकों की ऊँची आवाज में गौतमी पुत्र शातिकर्ण की जय गूँज)
एक वर्ष के अन्तराल के बाद माता श्री गौतमी के नव निर्मित भवन के सामने विशाल प्रस्तार में कुछ अश्वों के रुकने की खुरभुर। एक विशालकाय योद्धा विद्दुति गति से अश्व से कूंद कर शीघ्रता से सीढियां चढ़ माता श्री के कक्ष के समक्ष पहुँच जाता है। गौतमी की सेवा में रत सुरेखा उसे देखने आती है। योद्धा नमस्कार कर माता श्री से मिलने की इच्छा व्यक्त करता है। कहता है कि वह सातवाहन सेना का सेनापति है उसका नाम व्याघ्र नख है। अश्व मेघ पराक्रमी महाराजा धिराज गौतमी पुत्र शात कर्ण ने उसे माता श्री के पास एक सन्देशा देने के लिये भेजा है। वे कुछ दिन पाटन में रूककर व्यवस्था करने के बाद माता श्री के चरणों में प्रणाम करने के लिये उपस्थित होंगें। व्याघ्र नख कक्ष में बुला लिया जाता है। दण्डवत प्रणाम करता है। माँ उसे आशीर्वाद देती है।। उसका विशालकाय शरीर ,रोबीला चेहरा ,और विनत तथा शालीन व्यवहार ,माता श्री को प्रभावित करता है ।
गौतमी :- व्याघ्र नख उठो ,बताओ कैसे आना हुआ तुम्हारे महाराज किस व्यवस्था में लग गये। तुम्हारी वीरता के विषय में बहुत कुछ सुनने को मिला है। शति कर्ण की महान विजयों का बहुत सारा श्रेय तुम्ही को जाता है।
व्याघ्र नख :- माता श्री देवराज इन्द्र से भी अधिक पराक्रमी आपके पुत्र राजाधिराज शात कर्ण के सामने मेरी वीरता सूर्य के सामने दीपक की भाँति है। विजयों का सारा गौरव महाराज के शौर्य और नेतृत्व को जाता है। मेरे जीवन का सबसे बड़ा गर्व उनका अनुचर बन कर उनकी आज्ञा का पालन करना है। मुझसे और भी न जाने कितने वीर योद्धा सातवाहन सेना में हैं। यह तो महाराज की कृपा है कि उन्होंने महा सेनानी का पद प्रदान किया।
गौतमी :- व्याघ्रनख तुम निश्चय ही सात वाहन साम्राज्य के अमूल्य रत्न हो। बोलो कौन सा सन्देशा ले आये हो ।
व्याघ्रनख :- महाराज नें सूचना भेजी है कि सभी विदेशी क्षत्रप बन्धन में ले लिये गये हैं। गुजरात ,सौराष्ट्र ,मालवा ,बरार ,उत्तरी कोंकण ,पूना और नासिक के आस पास के सभी प्रदेश सातवाहन गौरव की ध्वजा के नीचे आ चुके हैं। अश्व मेघ की आयोजना हो गयी है। माता श्री यदि आज्ञां दें तो मैं महाराज द्वारा इंगित मधुर सम्बन्धों का एक प्रस्ताव आपके सामने रखूँ।
गौतमी :- व्याघ्र नख क्या कोई गुप्त सन्देशा है। क्या मेरा शाति कर्ण किसी सुयोग्य सहचरी की तलाश में सफल हो गया। शीघ्र बोलो व्याघ्र नख उत्सुकता मुझे उत्तेजित कर रही है।
व्याघ्र नख :- ऐसी ही बात है माता श्री। महाकालेश्वर मंदिर के अधिष्ठाता और पीठाधिपति आचार्य वशिष्ठ की पुत्री विशिष्ठी ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने में सफलता पायी है। ऐसे नर रत्न के लिये दक्षिणावर्त की कौन सी तरुण सुन्दरी अपने प्राण निछावर न कर देगी। महाराज ने स्वयं आपके सामने निवेदन करने से पहले मेरे द्वारा यह सन्देशा आपका मन जानने के लिए भिजवाया है। आपकी इच्छा अनिच्छा पर ही महाराज का निर्णय आधारित होगा। माता श्री आपने शायद सुना भी है कि आचार्य वशिष्ठ की पुत्री सौराष्ट्र की न केवल सबसे सुन्दर तरुणी है वरन एक विदुषी ,वीरांगना भी है। हस्ति संचालन और और धनुष कौशल में बड़े -बड़े योद्धा भी उसका सामना नहीं कर सकते। यदि आप आज्ञां दें तो आचार्य वशिष्ठ अपनी पुत्री विशिष्टि के साथ आपके चरणों की धूलि लेने आ जायँ। महाराज इस भेंट के बाद ही आपके पास आने का साहस जुटा पायेंगे।
(गौतमी का मुख हार्दिक सुख की अनुभूति से प्रफुल्लित हो उठता है। अपने विगत यौवन में भी उसकी भब्य छवि और आकृति किसी को भी स्तम्भित कर सकती है )
गौतमी :- अच्छा तो शाती नें महारानी की तलाश कर ली ,माँ के आगे कहने का साहस नहीं होता। तेरे को दूत बना कर भेजा है। अरे व्याघ्र नख कहना अपने महाराज से मैं कितने दिनों से इस बात की प्रतीक्षा कर रही थी कि धरती की कौन सी नारी मेरे पुत्र की सह्भागिनी बनने के योग्य होगी। व्याघ्र नख तू नहीं जानता कि हर माँ अपने पुत्र को अपने से अधिक योग्य तरुणी के हांथों में सौपने के लिये सदैव प्रस्तुत रहती है।
(कक्ष के पीछे के छोटे से सुरक्षित विश्राम स्थल में सेविका सुरेखा बैठी हुयी है। प्रतीक्षा में है की शायद माता श्री को उसकी कोई आवश्यकता पड़ जाय। गौतमी पीछे मुँह कर सुरेखा को अपने पास आने को कहती है। )
सुरेखा :- क्या आज्ञा है माता श्री ?
गौतमी :- सुरेखा .पुत्री ,आज मेरे जीवन का सबसे हर्ष भरा दिन है। आज मैं निश्चिन्त हो गयी हूँ कि मेरा शातिकर्ण अब बड़ा हो गया है। गौतमी के अतिरिक्त भी संसार में और कोई नारी है जो संसार में उसे सम्भाल कर रख सकेगी। हे प्रभु मेरी यह प्रार्थना निर्रथक न जाय कि शातवाहन वंश का गौरव शातिकर्ण की वंश बेल उससे भी अधिक गौरव वांन सिद्ध हो सक। अरे सुरेखा देखना कक्ष के दाहिनी दीवार के कलात्मक आले में हाँथी दांत की एक पिटारी रखी है उसे निकाल कर मेरे पास ला।
(सुरेखा हाँथी दांत की बनी एक अत्यन्त सुन्दर पिटारी माता श्री गौतमी के समक्ष रख देती है। पिटारी को खोल कर गौतमी कुछ क्षण उनमें रखी वस्तुओं को देखती है। फिर रेशम की एक छोटी सी थैली निकाल लेती है साथ ही सिंहंल द्वीपीय मोतियों की एक अत्यन्त सुन्दर माला। आँखों में खुशी के आँसू आ जाते हैं। सुरेखा मूक आश्चर्य का भाव लिये खड़ी है। व्याघ्र नख माता श्री के शब्द सुनने की प्रतीक्षा कर रहा है।
गौतमी :- व्याघ्र नख तुम महाराजा धिराज के महान सेनापति हो मुझे लग रहा है अब सातवाहन वंश का गौरव सुरक्षित रहेगा। विगत रात्रि को स्वप्न में शातिकर्ण के पिता मेरे दिवंगत स्वामी श्री मेरे पास आये थे। कहते थे गौतमी तूने अपना कर्तब्य पूरा कर दिया। अब सातवाहन वंश का गौरव कई पीढ़ियों तक अक्षुण रहेगा। जिस सिन्दूर से मैंने तेरे केश राशि में सुहाग मांग भरी थी और जो मोतियों की माला मैंने तुझे पहनायी थी शातिकर्ण को भिजवा देना। तेरी होने वाली बहू के पास हमारे कुल की यह विरासत सुरक्षित रहेगी। दिवंगत स्वामी और भी न जाने क्या -क्या कहते गये पर जाते -जाते अन्त में उन्होंने जो कहा उसकी याद अभी तक मेरे मस्तिष्क में ताजी है। उन्होंने कहा कि तेरा गौतमी पुत्र शातकर्ण तो दक्षिणावर्त में सच्चे ब्राम्हण धर्म का प्रणेता तो माना ही जायेगा पर उसका पुत्र विशिष्ठी पुत्र श्री पुलमावी और पौत्र यज्ञ श्री शातिकर्ण से भी अधिक गौरव के अधिकारी होंगे। अन्त में उन्होंने कहा धरती पर अपना कर्तब्य पूरा कर चुकी है गौतमी । अब क्या मुझे अकेला ही आकाशगंगाओं में भटकने देगी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ गौतमी।
(यह सब कहते -कहते गौतमी भावुक हो उठती है। सुरेखा रेशम की एक बड़ी थैली लाकर देती है। गौतमी सिन्दूर की थैली और मोतियों की माला उसमे डाल कर उसे व्याघ्र नख की ओर बढाती है। )
गौतमी :- व्याघ्र नख महा सेनापति अपने महाराज को मेरी ओर से यह उपहार देना और मैं जो कह रहीं हूँ वही शब्द उनके आगे दोहरा देना। कहना माता श्री ने कहा है ,"वत्स शातिकर्ण तुम चाहो तो अपने पिता के नाम के साथ अपने नाम को जोड़ लो मेरी यही इच्छा है। पर मैं तुम्हें बाध्य नहीं करती यदि तुम चाहो तो तुम्हारी वंश परम्परा में माता का नाम पहले लगाकर नामकर्ण की पद्धति भी विद्वत ब्राम्हण समाज को स्वीकार करनी होगी। तुमसा पुत्र पाकर गौतमी धन्य हुई। अच्छा व्याघ्र नख अब मुझे विश्राम करने दे।
( व्याघ्र नख की आँखों में आँसू आ जाते हैं। दण्डवत लेटकर माता श्री के चरणों में प्रणाम करता है। सुरेखा की आँखों में आँसुओं की झड लगी है। दूर से शातिकर्ण सातवाहन की विशाल सेना अश्वों ,हाथियों ,और धनुर्धारियों के व्यवस्थित गुल्मों में अभियान करती हुई दिखायी पड़ती है । वातावरण में जयनाद के स्वर गूँज रहे हैं। )
( १०६ ईसवी से लेकर १९५ ईसवी तक विन्ध पर्वत के पार सातवाहन वंश का यशश्वी इतिहास नये -नये कीर्तिमान स्थापित करता रहा । गौतमी पुत्र शातिकर्ण ब्राम्हणों का समर्थक था और उसके मन में राम ,अर्जुन और ,केशव की तरह महान बनने के इच्छा थी। पश्चमी भारत में बसे विदेशी शक ,यवन तथा पहलव इस काल में भारतीय वर्ण व्यवस्था स्वीकार कर क्षत्रिय वरण में शामिल कर लिये गये। )
आर्यावर्त के इतिहास से तो माटी के पाठक परिचित ही हैं। दक्षिणवर्त के महान इतिहास की कुछ झांकियां भी हम प्रस्तुत करते चलेंगे। इस प्रस्तुतीकरण में कल्पना और इतिहास दोनों के कलात्मक संयोजन का प्रयास किया गया है।
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