Monday, 22 October 2018

         शब्द -समर

                           उत्तर मध्य भारत का अर्ध विकसित नगर जिसे त्रिविक्रमपुर के नाम से जाना जाता है त्रिपाठी सद्गृहस्थों का एक साफ़ सुथरा गृह । गृह के बाहर गोबर लिपी भित्ति से आवेष्ठित एक खुला प्राँगण ,सुरुचिपूर्ण मिट्टी से बनें ऊँचें धारक घेरों में तुलसी विटपों की सुहानी पंक्ति । गृह के भीतर सबसे पहले बैठका , फिर अगल -बगल के कई कक्ष , बीच में अन्तर आँगन फिर दोनों ओर कक्ष और कक्षों को जोड़ती हुयी एक चौड़ी दालान । गृह के पीछे हरे -भरे वृक्षों से शीतलता पाने वाला खुला मैदान । गृह के पीछे की भित्ति में पीछे निकलने के लिये एक द्वार मुख्यता घर और पड़ोस की महिलाओं के लिये आने -जाने का सुरक्षित मार्ग । चैत्र का महीना समाप्ति की ओर है । दिन के दस बजे हैं । अभी भीषण गर्मी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है । भरे -पुरे घर में स्त्रियों और बच्चों की चहल -पहल , भूषण नाम से अपनी पहचान बनाने वाले युवा कवि का आगमन । गृह में उसके दो बड़ी भाभियाँ ,उसकी माँ और उसके छोटे आँगन में दौड़ने -खेलने वाले भतीजे और भतीजियां । दोनों बड़े भाई बाहर वृक्षों और खेतों की देख -रेख में व्यस्त । भाइयों में सबसे छोटा भूषण अभी तक अविवाहित । मस्त -मौला , फक्कड़ पर अद्वितीय सृजनात्मक प्रतिभा का धनी । मुगल सम्राट अकबर , जहाँगीर और शाहजहाँ के इस्लामी सहिष्णु शासन का काल समाप्त प्राय । औरंगजेब के कट्टर इस्लामी शासन का प्रारम्भ । दाराशिकोह की पराजय और निर्मम ह्त्या । बहु संख्यक हिन्दू जनमानस में आक्रोश । मुसलमान शासकों द्वारा जजिया कर लागू करने की शुरआत । कवि भूषण के छन्दों में अन्याय को जला देने के लिये अग्नि की लपटें । आस -पास के सभी क्षेत्रों में उनका सम्मान । हर जगह से बुलावा । उनका ओजस्वी व्यक्तित्व, कविता पाठ । अतुल सम्मान पर गृह की आर्थिक व्यवस्था में योगदान न के बराबर । सदैव हड़बड़ी में ,शीघ्रता में क्योंकि सभी समूहों ,समितियों और सभाओं में उनकी उपस्थिति अनिवार्य । सिर पर सिर त्राण ( पगड़ी ), कटि से ऊपर एक लम्बा सिला हुआ वस्त्र जो भुजाओं में केवल कुहनियों तक पहुँचता है । कटि के नीचे सुथ्थन ढंग की धोती का पहिनाव । पैरों में पत्राण । आँगन में पहुंचने से पहले पैरों से जूतियाँ निकाल देते हैं । फिर लम्बे -चौड़े नाबदान पर बैठकर पैर धोते हैं । मिट्टी लगाकर हाथ साफ़ करते हैं । फिर मुँह पर भी पानी का हाँथ फेरते हैं । दूर खूंटी पर टंगे एक अंग पोछा से हाँथ और मुँह पोछते हैं । सिर त्राण पहले ही उतारा जा चुका था अब ऊपर का लम्बा वस्त्र भी निकाल देते हैं । भाभी रसोई के बाहर काष्ठ पीठ डाल देती है । कांसे की थाली में कटोरियों में दाल ,सब्जी और थाली में चावल रोटी रखकर सामने रख देती है । यह रोज का सुनिश्चित क्रम है । भाभी जानती हैं कि भोजन की इतनी मात्रा पर्याप्त है फिर भी कटोरदान पास रख कर कह देती हैं कि अगर मन हो तो और रोटियाँ ले ली जायँ , एक छोटी कटोरी में घृत भी है । फिर भाभी रसोई छोड़कर किसी छोटे बच्चे के हाँथ पाँव धोकर बाहर निकल जाती हैं । भूषण अपनी इस छोटी भाभी को बहुत सम्मान की द्रष्टि से देखते हैं । वह उन्हें माँ जैसा प्यार करती है । माँ अब बहुत वृद्ध हो गयी है । अलग कक्ष में पडी या बैठी रहती है । भोजन करने के बाद भूषण कुछ देर के लिये उनके साथ उठ -बैठ लेते हैं । माँ उनसे कविता के अतिरिक्त कोई और ऐसा काम करने को कहती है जो अर्थ उपार्जन की प्रकृति का हो । सुरुचिपूर्वक कवि भूषण भोजन का पहला ग्रास दाल में डुबोकर और सब्जी रखकर मुँह में डालते हैं । उन्हें लगता है कि दाल  सब्जी में नमक ना के बराबर है । कहीं भाभी भूल तो नहीं गयीं ? ग्रीष्म की ऋतु में भूषण शरीर से अधिक परिश्रम करते है क्योंकि लम्बे -चौड़े दिनों में उनका कहीं न कहीं आना -जाना होता रहता है । शरीर में काफी स्वेद स्रवित होता है कुछ अधिक नमक की माँग रहती है । भाभी को पुकार कर रसोई में आकर नमक देने की बात करते हैं । भाभी को समय लग रहा है । छोटे बच्चे को साफ़ -सुथरा करने में समय लगता ही है । भूषण फिर आवाज देते हैं भाभी कहती है आती हूँ लाला ,इतने बेताब क्यों हो रहे हो ?भूषण कौर लिये बैठे हैं । नमक की कमी में स्वाद किरकिरा हो रहा है । फिर तीसरी आवाज देते हैं । जल्दी करो भाभी मैं कौर लिये बैठा हूँ । कहाँ उलझ गयीं । भाभी गुस्से में छोटे बच्चे को पालने पर ही छोड़ देती है । छोटा बच्चा अभी तक शिशु ही है रोने लगता है । भाभी गुस्से से  हाथ धोकर रसोई में घुसती है ,चुटकी से थोड़ा पिसा सेंधा नमक थाली में रख देती है । कहती है ज्यादा नमक खाते हो इसलिये ज्यादा गुस्सा करते हो । । जब किसी को ब्याह कर लाना तो उसपर ऐसी हुकूमत करना । मुझे और भी तो कितने झंझट है ॥ खाते -खाते भूषण कहते हैं कि उन्हें भी बहुत सारे झंझट हैं । और उनके पास समय नहीं होता । बच्चे के रोने की आवाज भाभी  तक आती है । भाभी तैश में आकर कहती है , " लाला तुम तो ऐसे रोब से बातें कर रहे हो जितना कोई हाथी नसीन भी नहीं करता । "
............... भूषण का आत्म अभिमान चोट खाता है कहते हैं ," भाभी मैं क्या किसी हाथी नसीन से काम हूँ ।मेरी प्रशंसा क्या किसी हाथी नसीन से कम  होती है । " भाभी को नहले पर दहला लगाना आता है । आखिर वह मतिराम की पत्नी है । उसके पति स्वयं जाने माने कवि हैं । फिर भी वह घर गृहस्थी चलाने के लिये जायदाद की पूरी देख -भाल करते हैं । अपना समय फिजूल की शेखियों में बरबाद नहीं करते । वह चोट करती है ,"सभी के भाग्य में हाथी नसीन होना नहीं होता । बेकार की शेखी मत बघारो लाला । मैनें तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है । बोलो और नमक तो नहीं चाहिये वह छोटा विभीषण रो रहा है । " न जाने क्या होता है ? अद्धभुत प्रतिभा के धनी ,हिन्दू संस्कृति के प्रति पूर्णताः समर्पित भाभी के शब्दों का प्रहार झेलकर तिलमिला उठते हैं । पर अपने आवेश को नियन्त्रित कर शांत स्वर में कहते हैं ," देखो भाभी तुम मेरी आदरणीया हो ,तुम मेरी माँ तुल्य हो ,क्या जैसा जो कुछ मैं हूँ वह तुम्हारी माप पर खरा नहीं उतरता । यदि मैं हाथी नसीन हो जाऊँ तो क्या मैं कुछ बदल जाऊंगा । भूषण तो भूषण ही रहेगा । भाभी उसे बिकने के लिये बाध्य मत करो । उत्तर भारत में तो मेरा खरीददार दिखता ही  नहीं । हलाहल कूट को  बस त्रिनेत्र शिव ही कंठ में धारण कर सकते हैं । " बच्चे के रोने की आवाज तेज होती  है । ,भाभी उठ खड़ी होती है, उठते -उठते कहती है जब ब्याह कर आयी थी तुम्हारे बड़े भाई भी इसी प्रकार की लम्बी -चौड़ी हाँका करते थे । कहते थे राजसी ठाठ  से घर को मढ़ दूँगा । कहते थे स्वर्ण आभूषणों से मेरे रूप को कई गुना बढ़ा देंगें । अरे लाला तुम सभी भाइयों में अपना बड़प्पन दिखाने का मर्ज लग गया है । मेरे जेठ जी कुछ लिखते -विखते रहते हैं । बड़ी बहना  भी कह रही थी कि इन लफ्फाजी करने वाले भाइयों में सभी केवल प्रशंसा का आसव पीकर मस्त रहते हैं । जीवन की कठोर सच्चायी से इनका कोई परिचय नहीं है । हमारी नसीब में बैलगाड़ी ही बनी रहे यही बहुत है । हमारी गैय्या बछड़े देती रहे तो खेती -बाड़ी चलती रहेगी । रथ हमारे भाग्य में कहाँ है और हाथी क्या हमारी जिन्दगी कभी हमारे दरवाजे पर खड़ा हो सकता है ।
                               भूषण ने अभी तक कुछ ही कौर मुँह में डाले हैं । तीन चौथाई भोजन थाली में अनछुआ  पड़ा है ,भाभी तो खड़ी ही थी खुद भी तमग कर उठ जाते हैं । कहते हैं भाभी मैं  अपना अपमान  तो बर्दाश्त कर सकता हूँ पर आपनें न केवल देवर का अपमान किया है बल्कि अपने पूज्य पति और ज्येष्ठ श्री का भी । हमारे पूज्य पिता आज नहीं हैं पर जो विरासत हमनें उनसे पायी है कि वह इतनी भब्य और ओजपूर्ण है कि वह हमें अमरत्व के द्वार तक पहुँचा सकती है । अच्छा तो सुनों  भाभी मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इस घर के द्वार पर तभी आकर भाइयों को अपना मुँह दिखाऊंगा जब मैं सबसे आगे विशाल गजराज पर बैठा हूँगा और मेरे पीछे हाथियों की लम्बी कतार होगी । तब नमक देने में देरी तो नहीं करोगी भाभी ?
                                   भूषण यह कहकर उठ जाते हैं ,हाथ पैर धोते हैं, मुँह पर जल के  छींटे मारते हैं, सिर पर उष्णीष रखते हैं ,वक्ष वस्त्र पहनते हैं फिर  माँ के कक्ष में जाकर माँ के चरणों में सिर रखकर उसका आशीर्वाद मांगते हैं । माँ की श्रवण शक्ति बहुत कम है ,भाभी और देवर में क्या बातचीत हुयी है इसे वह नहीं जानती । माँ आशीर्वाद का हाँथ भूषण के सिर पर रखती है । कहती है बेटा ," रात्रि को जल्दी आ जाया करो । स्वर्ग जाने से पहले तुम्हारे पिता ने जो मुझसे कहा था सुनना चाहोगे ? उन्होनें कहा था हमारा भूषण हम दोनों को अमर कर देगा । भूषण के आँखों के जलबिन्दु माँ के चरणों पर पड़ते हैं । रुदन को रोककर, आँगन से बाहर आकर पादत्राण पहन लेते हैं और शीघ्रता  से गृह के मुख्य द्वार से बाहर निकल जाते हैं । सोचते जा रहे हैं कि उत्तरावर्त का शौर्य तो मर चुका ,मेरी रणभेरी किस नरसिंह को हिन्दू संस्कृति के सच्चे  उद्धारक के रूप में इतिहास के पटल पर अवतरित होने की प्रेरणा दे पायेगी । चलते हैं ओरछा से होकर महाराष्ट्र की ओर अब तो अन्याय पूर्ण मुल्ला संस्कृति को जड़मूल से उखाड़ ही फेंकना होगा । हिन्दू चिन्तन की सामासिकता कोई कालजयी राष्ट्र पुरुष देश का भविष्य रचने के लिये उभार कर सामने लायेगी । असमर्थ तो यह कर नहीं सकते
 पर सम्भवतः समर्थ रामदास महाराष्ट्र की चेतना में पुनः नवचेतना का संचार कर दें ।
                      पटाक्षेप ......... दूर से गूँजती कविता की पंक्तियाँ, " शिवा जी न हो तो सुन्नत होत सबकी ।"
...... औरंगजेब के कट्टर इस्लामी जनून के कारण हिन्दुस्तान के इस्लाम से इतर अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के अनुयायी दूसरी या तीसरी श्रेणी के नागरिक बन गये हैं । जजिया कर तो उनपर लगा ही है साथ ही ऊँचे पदों पर भी उनकी नियुक्ति रुक गयी है । औरंगजेब कट्टर मुल्लाओं की चपेट में है । शरियत की गलत -शलत व्याख्या की जा रही है । सर क़त्ल किये जा रहे हैं । मन्दिर गिराये जा रहे हैं । गुरु तेगबहादुर के दोनों पुत्रों को दीवार में जीवित चुनवा दिया गया । उन्होंने सर दिया पर सार न दिया ।ऐसे में माँ भवानी के पुजारी समर्थ राम दास से शक्ति प्राप्त करने वाला प्रेरणा पुरुष शिवा जी राजे महाराष्ट्र में स्वतन्त्रता का बिगुल बजा देते हैं । महाराज जै सिंह द्वारा आदर पूर्ण बराबरी के व्यवहार की आशा पर शिवाजी उनके साथ दिल्ली आये थे पर औरंगजेब के दरबार में उन्हें पाँच हजारी पंक्ति में खड़ा कर उनका घोर अपमान किया गया ।
           कवि भूषण ने लिखा है -
       
" सबन के आगे ठाढ़े रहिबे के जोग ,
  ताहि खड़ो कियो जाय प्यादन के नियरे ।"
                        शिवाजी ने भरे दरबार में ही निडर होकर अपना विरोध और क्रोध प्रकट किया । उन्हें महाराज जै सिंह के कहने पर महाराज जै सिंह के महल में ही कैद कर दिया गया । शिवाजी राजे  प्रकार मिठाई के लम्बे -चौड़े झाले में छिपकर नजर कैदी से मुक्त हो गये इसका विस्तृत विवरण "माटी "के पाठकों ने इतिहास के पन्नों में पढ़ा ही होगा । हिन्दू जाति के इस सिरमौर वीर का सँरक्षण पूरी सतर्कता के साथ हिन्दू संस्कृति के चिन्तक ,विचारक और संरक्षक करते रहे । एक लम्बे अर्से के बाद एक छद्म वेश में शिवाजी राजे माँ जीजाबाई के सामने उपस्थित होकर कोई भिक्षा पाने की प्रार्थना करने लगे । उनका वेष परिवर्तन इतनी कुशलता से हुआ था कि स्वयं उनकी माँ ही उन्हें प्रथम दृष्टि में पहचान नहीं पायी । अपनी लम्बी गुप्त यात्रा के दौरान शिवाजी ने भारत की लक्ष -लक्ष जनता के ह्रदय के भावों को पूरी तरह समझ लिया था । वे आश्वस्त थे कि औरंगजेब की कट्टर इस्लामी नीति के खिलाफ उन्हें न केवल हिन्दुओं का व्यापक समर्थन मिलेगा बल्कि सहिष्णु मुसलमान भाई भी उनका पूरा साथ देंगें । हिन्दुस्तान में जन्में ,पले पुसे और अकबरी परम्परा के मुस्लिम वर्ग सहकारिता और सहअस्तित्व को कैसे नकार सकते हैं । शिवाजी राजे का जय रथ माँ जीजाबाई का आशीर्वाद लेकर और समर्थ राम दास से शक्ति पाकर विजय यात्रा पर निकल पड़ा । मुग़ल साम्राज्य की सारी फ़ौज उन्हें पस्त करने में लगा दी गयी स्वयं शाहंशाह औरगजेब वर्षों दक्षिण में टिके रहे ताकि शिवाजी को पकड़ कर कैद कर लिया जाय या मार दिया जाय पर भारत का भविष्य अभी एक नयी गुलामी आने की प्रतीक्षा कर रहा था । शिवाजी द्वारा स्वतन्त्र स्थापित राज्य औरंगजेब के लिये न मिटनें वाला सरदर्द बन गया । काशी में शिवाजी को क्षत्रियत्व  प्रदान कर उन्हें चक्रवर्ती सम्राट के रूप में विभूषित किया गया । वे आज तक छत्रपति  शिवाजी महाराज के नाम से जाने जाते हैं । शिवा राजे तो उनके प्रारम्भिक विजय काल का सम्बोधन था । महाकवि भूषण को पहली बार दक्षिणावर्त की धरती पर पहली बार एक ऐसा जननायक देखने को मिला जिसमें श्री राम की वीरता और श्री कृष्ण की उदारता दोनों आदर्श रूप से समन्वित हुयी थी । इतिहास का सत्य तो इतिहासकार जानें पर जनश्रुतियाँ तो यह कहती हैं कि शिवाजी ने एक के बाद एक बावन विजयें हासिल कीं । "माटी " कोई इतिहास की पत्रिका नहीं है , इतिहास का  धूमिल आधार पाकर शब्द शिल्पियों की कल्पनायें और अधिक रंग -बिरंगी दिखायी पड़ने लगती हैं । " माटी " नहीं जानती कि वे बावन किले कौन -कौन से थे ?पर कुछ प्रसिद्ध विजयों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं जैसे सिंहगढ़  की विजय या पुरन्दर की विजय आदि आदि । कहते है महाकवि भूषण ने इन्हीं बावन विजयों के आधार पर शिवा बावनी लिखी जिसका एक एक सवैया छन्द हिन्दी भाषा का सबसे चमकदार नगीना है ।
   .................... कौन हिन्दी भाषा -भाषी प्रेमी है जो शिवा बावनी पढ़कर वीर काब्य के प्रभाव से अछूता रह जाय। और विजयों से भी अधिक था खुंखार कट्टरपंथियों के लिये शिवाजी का नाम और आतंक । उनके नाम से ही मुसलमान नवाब सेनापति और शासक थर्रा उठते थे । उनके नाम का यह आतंक मुसलमान शासकों के घरों में घुसकर उनकी बेगमों का दिल भी दहला देता था तभी तो भूषण ने शिवाजी के नाम के त्रास को अविस्मरणीय पंक्तियों में चित्रित किया है ।
" ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी,
 ऊंचे घोर मन्दर के अन्दर रहती हैं ।
 कन्द मूल भोग करें ,कन्द मूल भोग करें ,
 तीन बेर खाती वे तीन बेर खाती हैं ।
 सरजा शिवाजी  शिवराज वीर तेरे त्रास ,
 नगन जडाती ते वे नगन जडाती हैं ॥ "
                               छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद भी उनके वीरत्व और  स्वाभिमान की परम्परा मराठा साम्राज्य की शक्ति पेशवाओं के हाथ में आयी तब मराठा साम्राज्य का आतंक ,दिल्ली के सिहांसन पर बैठे नपुंसक सम्राटों को सदैव नतमस्तक किये रहता था । पेशवा बाजी राव प्रथम और द्वितीय की तुलना तो महान विजेता सम्राट स्कन्ध गुप्त से की जाती है । अश्वारूढ़ विशाल मराठा वाहिनी रात -रात भर में सैकड़ों मीलों का सफर कर शत्रु सेनाओं को रौंद कर रख देती थी । हिन्दी कविता प्रेमी सभी उस दोहे से परिचित होंगें जो ओरछा के राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को लिखा था । जनश्रुति है और अधिकतर इतिहासकार इस जनश्रुति से सहमत है कि जब छत्रसाल की सेना चारो ओर मुग़ल सेना से घेर ली गयी और पराजय उनके सामने मुँह बाये खड़ी हो गयी तो उन्होनें एक कुशल अश्वारोही को कविता की दो पंक्तियाँ लिखकर हिन्दू धर्म रक्षक बाजीराव पेशवा के पास लिखकर भेजी । दोहा इस प्रकार था ।
" जो गति ग्राह् गजेंद्र की , सो गति बरनउ आज ,
बाजी जाति बुन्देल की वाजी राखौ लाज ।"
                        जिस समय यह पत्र बाजीराव को मिला उस समय उनकी विशाल सेना ओरछा से सैकड़ों मील दूर थी पर बुन्देल की लाज तो रखनी ही थी । रातों रात घोड़ों के खुरों से सैकड़ों मील धरती की परतें उघड गयीं । मुग़ल सेना दोहरी मार से पिटकर पराजित होकर भागी । न जाने कितने अस्त्र -शस्त्र और भार असवात छोड़ गयी । शव सड़ते रहे ,  घायल तड़पते रहे । भूषण जी ने इन  छत्रसाल की गुणगाथा में भी कुछ अत्यन्त प्रभावशाली वीर छन्द , सवैये लिखे हैं । सभी हिन्दी कविता प्रेमी ऐसी पंक्तियों से परिचित हैं ।
" रैया राव चम्पत के छत्रसाल महाराज
भूषण सकै करि बखान कोऊ बलन को
पक्षी पर  छीने ऐसे परे पर छीने वीर
तेरी वरछी ने वर छीने हैं खलन के ।"
                                                              पर हम बात कर रहे थे महाकवि भूषण और उनकी भाभी द्वारा किये उनके तिरस्कार की । हम फिर से दोहराते हैं कि इतिहास का सत्य साहित्य  का सत्य नहीं होता है , सच पूँछो तो इतिहास का सत्य स्थिर होता है । जबकि साहित्य का सत्य चेतन होता है ,वह फलता -फूलता ,बढ़ता और विस्तारित होता है । जनश्रुति कहती है कि शिवाजी के सुपुत्र साहू जी और अन्य समर्थ मराठा सरदारों ने शिवा बावनी के एक -एक छन्द पर एक -एक हाथी देकर उन्हें पुरस्कृत किया । जनश्रुति यह भी कहती है कि महाराज छत्रसाल ने स्वयं उनकी पालकी उठाने में हाथ लगाया । " माटी " के पाठक साहित्य की ऊँचाइयों और गहराइयों से परिचित हैं जनश्रुति में कल्पना के पँख लग जाते है तो वह गगन बिहारी बन जाती है । वह सुरसा के मुँह का विस्तार पा जाती है और उसमें सभी असंभव संभव हो जाता है । तो जनश्रुति कहती है कि महाकवि भूषण बावन गजों की पंक्ति लेकर आगे के सबसे ऊँचे गजराज की पीठ पर बैठकर त्रिविक्रमपुर पहुँचे कहाँ से और कैसे निर्विघ्न पहुँच गये यह हाथियों के महावत जानते होंगें । पर उनके पहुँचनें की खबर पाकर त्रिविक्रमपुर की बाजार , गलियों और नुक्कड़ों पर भीड़ उमड़ पडी , हाथियों की पँक्ति भीड़ से रास्ता बनाती हुयी मतिराम त्रिपाठी के अगले द्वार पर पहुँच गयी । वृद्धा माँ तो कुछ सुन समझ नहीं पायी पर भाभियां  और बाल- बच्चे घबरा कर कक्ष  में छुपने के लिये भगे । उन्हें भ्रम हुआ कि शायद कोई नवाबी या लुटेरी मुस्लिम सेना का कोई सिपहसालार उनका घर और नगर लूटने आया है । बूढ़ी स्त्रियों , मर्दों और बच्चों को मार दिया जायेगा । नवयुवक यदि बच निकले तो उनका भाग्य नहीं तो कुत्तों और सियारों का भोजन बनेगें और नव युवतियां भेड़िया सिपाहियों के लिये कामेच्छा पूर्ति का साधन बनेंगी । पर मतिराम त्रिपाठी और उनके अग्रज जिनका नाम शायद मैं गलत हूँ कृपा राम था वीर पुत्र और वीर बन्धु थे । उन्होंने छत पर चढ़कर हस्तियों की उस लम्बी पंक्ति को देखा । उन्होंने देखा कि सबसे आगे सबसे ऊँचे गजराज पर उनका सबसे छोटा भाई भूषण बैठा है उसके सिर पर छत्र लहरा रहा है , वह राज कवि के वेष कीमती वस्त्र पहने है ,उसका महावत भी एक विशेष पगड़ी धारण किये हुये है । उन्हें भ्रम हुआ कि कहीं वह कोई सपना तो देख नहीं रहे हैं । उन्होंने फिर आँखें मलीं । हस्ति पंक्ति कुछ और नजदीक आ गयी थी । अरे हाँ यह तो भूषण ही है आश्चर्य से फटती हुयी आँखें लिये वह सीढ़ियों से शीघ्रता से उतर कर नीचे आये । कृपा राम और मतिराम ने अपनी अपनी गृहणियों और बच्चों को कक्ष से बाहर आने को कहा ,चिल्लाते गये कि छुटुवा आ गया है । माँ ने नहीं सुना ,पर उन्होंने जोर से चिल्ला कर कहा ,"अम्मा छुटुवा आ गया , भूषण घर आ गया , धन्य हुये हमारे भाग्य ।"भूषण का गजराज द्वार पर पहुँचा उसने सूंड उठाकर भाइयों का अभिवादन किया । भाइयों ने कुछ देर भूषण के नीचे उतरने की प्रतीक्षा की तब भूषण ने कहा भाभियाँ कहाँ हैं ? छोटी भाभी से कहो कि थाली में थोड़ा सा नमक डाल कर द्वार पर आये और मुझे नीचे उतरने का हुक्म दे । साहित्य्कार यह नहीं बताते कि छोटी भाभी नमक लेकर आयी या नहीं आयी हाँ यह अवश्य बताते हैं कि सिर ढके मुखड़ों को  नीचे झुकाकर सुख के आँसूं द्वार की देहरी पर टप -टप गिर पड़े । महा कवि भूषण महावत द्वारा हाथी को बिठालकर नीचे उतारे गये । उन्होंने ज्येष्ठ भ्राताओं  और भाभियों के चरण स्पर्श किये और वृद्धा माँ के पैरों पर गिरकर काफी देर चुपचाप रोते रहे । "माटी ' नहीं जानती कि वे क्यों रोये ?शायद दिवंगत पिता की याद में ,शायद अपरम्पार भगवत कृपा की कृतज्ञता के रूप में , शायद महा नायक अद्वतीय अश्वारोही हिन्दू धर्म उद्धारक छत्रपति शिवाजी की पावन स्मृति में । "माटी " के पाठक इस बारे में स्वतन्त्र निर्णय लेने के लिये पूर्ण रूप से बन्धन मुक्त हैं ।


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