चिरन्तन फाग
लड़खड़ाते हैं कदम जब , बाँह देते हो मगर मैं
बाँह लेकर क्या करूँगा
बाँह है करुणां मगर सहमति नहीं है
बाँह मानवता मगर सहगति नहीं है
यदि संभल जाऊँ अकेला छोड़ दोगे
राह का सम्बन्ध भी तो तोड़ दोगे
तड़फड़ाते प्राण हैं जब छाँह देते हो , मगर मैं
छाँह लेकर क्या करूँगा
छाँह संगम तो नहीं भ्रम - मात्र है
छाँह छलती धूप का क्रम -मात्र है
यदि तड़प टूटी , न शीतल छाँह दोगे
यदि कदम संभले , न गोरी बाँह दोगे
घेरता वैराग्य है जब , चाह देते हो , मगर मैं
चाह लेकर क्या करूँगा
चाह तो मन की धधकती आग है
रास का सुख तो चिरन्तन फाग है
तुम बुलाकर दूर हट जाते मगर
कौन चलता प्यार की सूनी डगर ?
टेरता है प्राण - पिक जब , राह देते हो , मगर मैं
राह लेकर क्या करूँगा
राह भटकन जो न तुम तक जा सके
राह निष्फल जो न तुमको पा सके
पर झलक देकर न मिलते तुम कभी
निठुर होते क्या तुम्हीं से प्रिय सभी ?
टेरनें दो प्राण पिक , लड़खड़ाने दो कदम
पर न प्रिय तुम बांह देना
पर न प्रिय तुम छाँह देना
हाँ तनिक ,केवल तनिक सी चाह देना |
सहमार्गी
कैसा आश्चर्य है -------------
कल तक दुर्लध्य गौरीशंकर चोटी पर
पदाघात करनें की मेरी अभीप्सा का
प्रेरक भाव , मात्र तुम्हारी दिल -पोशी थी
और आज चाह कर भी -----------------
बिल्कुल ईमानदारी से कहता हूँ
मनः शक्ति स्फुरित करनें की कामना
तुम तक जा
पीछे सर पटक लौट आती है
तो क्या मेरी चाहना असम्पूर्ण है
याकि तुम काल के उस क्षण को
पीछे छोड़ आयी हो
जब तुम मेरे लिये , पुरुष मात्र के लिये
उत्प्रेरक ऊर्जा का अक्षय दिखने वाला
संचित भण्डार थीं |
आज तुम प्रेरणां नहीं केवल सहगामिनी हो
पर तुम्हें नास्टेलजिया से झटक कर
हटाने का मेरा दुः साहस
शायद खतरनाक है |
इसलिये तुम्हें हक़ है कि तुम सत्य
को झुठला कर विगत में जिओं
और मैं -------------
मैं सत्य को वाणीं देकर अपनी अनुभूति
का सहमार्गी
खोजूँगा |
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