Saturday 19 May 2018

पतन 

मेरे विनाश पर क्या रोना
जब टूट रहे गिरि  श्रंग सदा से धरती पर
जब खण्ड खण्ड  हो शिला रेत बन जाती है
जब कठिन तपस्या से रक्षित मन - रन्ध्रों में
ऐन्द्रिक - ऐष्णा की मादकता छन जाती है
जब बज्र- मुष्ठि बजरंग आद्र हो उठते हैं
जब श्रंगी की साधना केश सहलाती है
जब चरम- प्रतिष्ठा पर पहुँचे कवि की कविता
जन  श्री से कटकर पद्म -श्री बन जाती है
फिर मैं भी कुछ क्षण कहीं अगर सुस्ताने को
सौरभ बगिया में जा बैठूँ - तो इसमें क्या विस्मित होना
मेरे विनाश पर क्या रोना |
जब जन नायक धन नायक बनकर भरमाये
जब सेवा का सत्ता से मेल -मिलाप हुआ
जब राह -दीप ही घिरे अमाँ की बाँहों में
वरदान उलटकर मानवता का श्राप हुआ
जब विद्रोही -स्वर गीत -प्रशस्ति लगे रचनें
जब प्रतिभा ठेकेदारों के घर पलती  है
जब मन -ऋजुता का अर्थ अनाड़ी में बदला
जब कविता कुछ प्रचलित साँचों में ढलती है
फिर मेरा मन भी भटक जाय यदि कभी
प्रिया के द्वारे तक , तो इसमें क्या विस्मित होना
मेरे विनाश पर क्या रोना |
जब रूप , देह की कान्ति न हो , श्रंगार बना
जब प्यार सिर्फ सुविधाओं के बल पलता  है
जब मन की धड़कन नाम नजाकत का पाती
जब हर सीता को सोनें का मृग छलता  है
जब मूक हो गये भीष्म पेट की मांगों से
जब सती द्रोपदी पंच - प्रिया बन जाती है
जब धर्म , रक्त की छींटें पाकर बढ़ता है
जब कुल -कन्या अनव्याहे सुत  जन  जाती है
दो बूँद  सुरा के ले यदि मैं भी बैठ गया
तन -मन की थकन मिटानें को - तो इसमें क्या विस्मित होना
मेरे विनाश पर क्या रोना |

एकतानता 

अष्टमार्ग , अनेकान्त क्षणवाद ,अनस्तित्व
समाधान कहीं नहीं -अन्तहीन भटकन
सत्यान्वेषण की दारुण यंत्रणां -------------
रुकना पर काम्य नहीं ---चरैवैति चरैवैति
शुभ्र -श्मश्रु से घिरा स्वर कहता है
बँधना आमंत्रणहै मृत्यु की सड़ांध का
निर्मल स्वर साधु और सलिल सदा बहता है
ब्रम्ह में अहं  का विसर्जन अन्तिम लक्ष्य
पैंट की मोहरी फिर चौड़ी करवानी है
चौड़ी फिर सकरी फिर चौड़ी बेल -बोटम
अहं ब्रम्हास्मि भटक कर फिर से मुझे अपनें
तक आना है |
नियम एकतानता , मोड़ -हींन जीवन मार्ग
झेलना है दुष्कर यह मरुथल का प्रस्तार
इसलिये बदलते मौसम के साथ साथ
कमरे की दीवारों पर रंग बदलवाता हूँ
इसी नयेपन की मरीचका में मोह - ग्रस्त
हर साल  नया टी सेट ले आता हूँ
वस्त्र फर्नीचर सब बदल मैनें डाले हैं
कौन यह कहता है मैं अर्थ - हींन  जीता हूँ
हररोज बोतल की डिजाइन बदलता
हूँ और फिर ------वही मृदुपेय मैं
पीता हूँ |


टटकापन 

कल की उन पंक्तियों में मैं ही था
आज इन पंक्तियों में उससे भिन्न मैं ही हूँ
अन्तर्विरोध जिसे छिद्र -बुद्धि कहती है
मेरी जिजीविषा उसी से सनाथ है ---------
जैविक -स्फुरण से अधुनातन चेतना तक
अपरिहार्य मानव -नियति अन्तर्विरोध है
आग्नेय चट्टान बन नहीं पाया मैं
अन्यथा
बनता अकाल लेख काल की छाती पर |
अन्तर्विरोध पुष्ट भास्वर प्राण दीप्ति है
गिरगिटी चोला मात्र आरोपित त्वचा- भ्रम
इसीलिये बहुसँख्यक गिरगिट समाज -सेवी
या कि पर - चिन्तनोपजीवीं -------------
दाहक दीप्ति चिन्तन अंगारों की न झेल पाते
मेरा आज सच्चा है , गत और आगत कल
सच्चा था , होगा
पर मैं संम्पूर्ण न तो कल में था न आज में
हूँ -------हाँ जितना जो कुछ हूँ
टटका था , ताजा हूँ ------और
हर वासी वास जल में सड़ी मछली सी
मेंरी  जिजीविषा को दूषित कर
जाती है  |


ध्वंस -कारी बिजलियाँ 


सत्य प्राणों का प्रणय ही , तो शुभे !
सच बताना शपथ यौवन - ज्वार की
देह का व्यापार फिर क्या झूठ है ?
संस्कृति की शाल से चेतन ढका है
पर अचेतन देह का भूखा अभी है
पार के इतिहास के जो लहर  आती गन्ध - वही
स्रोत उस सुख -सुरभि का अब तक
भला सूखा कभी है ?
सत्य है पंचाग्नि की ज्वाला मुखी लौ
कौन जानें ------------------
किन्तु बाँहों में बँधीं
अर्पित पिया  के भाल पर
माँग के सीमान्त पर , कम्पित पलक पर
गाल पर
पड़ रही जो अधर की बौछार
 वह क्या झूठ है ?
आज भी कल की तरह
सैकत -तटी  पर खिलखिलाती
शारदीया चन्द्रिका सी
घेरनें लोनी लुनाई
नीन्द में अनजान बाँहें फड़कती हैं
साधना के शून्य में
है आदि मानव जागता जब
ध्वंसकारी बिजलियाँ , अणु के किसी संघर्ष से
तब कड़कती हैं |
प्राण ! प्राणों का प्रणय भी
देह ही तो साधती है
मिलन से संन्यास कैसा
झुकी ग्रीवा , झुकी पलकें
बिखरने दे नींल अलकें
उठ रहा जो वक्ष में तूफ़ान री
वह झूठ है क्या ?



































    

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