तीस के पार
जीवन रथ पर पैंतीस वर्ष चढ़ हुये पार
आँधी अंधड़ चुक गए शेष रह गया सार
अब क्षण भर को ठहर निगाहें बढ़ती हैं
अब किसी रूप का शिल्प न आँखें गढ़ती हैं
हर कंठ बंसरी अब न प्राण पर छाती है
आप्लावनकारी लहर ठहर कर आती है |
अब आँखों का संसार अधूरा लगता है
अब कल वाला अभिसार न पूरा लगता है
मादक गालों पर जो रह रह लहराती है
वह अलक सर्पिणी अब न दंश दे पाती है |
स्वर की झंकार बताती है सारे जग को
है शिथिल हुये मन -वीणा के कुछ एक तार
जीवन रथ पर पैंतीस वर्ष चढ़ हुये पार
आंधी अंधड़ चुक गये शेष रह गया सार |
कुछ भूलें अब भी मन को प्यारी लगती हैं
कुछ स्मृतियाँ औरों से न्यारी लगती हैं
सन्यास कठिन , मन बड़ा पुराना पापी है
अब भी उसको प्रिय लगती आपाधापी है |
फिर अधर - वारुणी पीनें को मन करता है
मीठा सा कोई दर्द उभरनें लगता है
पहचानी आँखें कभी- कभी भरमाती हैं
झुरमुट वाले संदेश मुखर कर जाती है |
पर यौवन बाढ़ न कूल ढहाती चलती है
हहराता नद तट की गरिमा से गया हार
जीवन रथ पर पैंतीस वर्ष चढ़ हुये पार
आंधी अंधड़ चुक गये शेष रह गया सार |
अब सत्य , पुष्प का रूप न होकर गन्ध बना
अनुराग संवर कर प्राणों का संम्बन्ध बना
अब गीत न केवल छलने वाली भाषा है
अन्तर की उठती हुयी अमर अभिलाषा है |
अब प्रीति रीति से मुक्त सत्य की राह बनी
श्रृंगार सिमट कर शुचिता का परिधान बना
आवेग सहज हो जीवन का वरदान बना
भटकन सिमटी बन राह सन्धि की बेला में
पहचान गया मैं आज प्रिया - स्नेह द्वार
जीवन रथ पर पैंतीस वर्ष चढ़ हुए पार
आंधी अंधड़ चुक गये शेष रह गया सार ||
जीवन रथ पर पैंतीस वर्ष चढ़ हुये पार
आँधी अंधड़ चुक गए शेष रह गया सार
अब क्षण भर को ठहर निगाहें बढ़ती हैं
अब किसी रूप का शिल्प न आँखें गढ़ती हैं
हर कंठ बंसरी अब न प्राण पर छाती है
आप्लावनकारी लहर ठहर कर आती है |
अब आँखों का संसार अधूरा लगता है
अब कल वाला अभिसार न पूरा लगता है
मादक गालों पर जो रह रह लहराती है
वह अलक सर्पिणी अब न दंश दे पाती है |
स्वर की झंकार बताती है सारे जग को
है शिथिल हुये मन -वीणा के कुछ एक तार
जीवन रथ पर पैंतीस वर्ष चढ़ हुये पार
आंधी अंधड़ चुक गये शेष रह गया सार |
कुछ भूलें अब भी मन को प्यारी लगती हैं
कुछ स्मृतियाँ औरों से न्यारी लगती हैं
सन्यास कठिन , मन बड़ा पुराना पापी है
अब भी उसको प्रिय लगती आपाधापी है |
फिर अधर - वारुणी पीनें को मन करता है
मीठा सा कोई दर्द उभरनें लगता है
पहचानी आँखें कभी- कभी भरमाती हैं
झुरमुट वाले संदेश मुखर कर जाती है |
पर यौवन बाढ़ न कूल ढहाती चलती है
हहराता नद तट की गरिमा से गया हार
जीवन रथ पर पैंतीस वर्ष चढ़ हुये पार
आंधी अंधड़ चुक गये शेष रह गया सार |
अब सत्य , पुष्प का रूप न होकर गन्ध बना
अनुराग संवर कर प्राणों का संम्बन्ध बना
अब गीत न केवल छलने वाली भाषा है
अन्तर की उठती हुयी अमर अभिलाषा है |
अब प्रीति रीति से मुक्त सत्य की राह बनी
श्रृंगार सिमट कर शुचिता का परिधान बना
आवेग सहज हो जीवन का वरदान बना
भटकन सिमटी बन राह सन्धि की बेला में
पहचान गया मैं आज प्रिया - स्नेह द्वार
जीवन रथ पर पैंतीस वर्ष चढ़ हुए पार
आंधी अंधड़ चुक गये शेष रह गया सार ||
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