Tuesday, 1 May 2018

अनथक रही 

जानें क्यों मन चाह रहा है मैं मंजिल तक पहुँच न पाऊँ
रहूँ भटकता अन्वेषी बन दिशा - हींन  चलता ही जाऊँ
सब कुछ पाया झूठ एक चलना ही सच्चा
लक्ष्य , शोध  की नयी राह का प्रथम चरण है
प्यार , सृजन  की आदि कड़ी ही होता साथी
जन्म , जन्म से लिये मृत्यु का अमिट वरण है
हर वसंत की शाम द्वार पर पतझड़ रोया
हर अभिसार विछोह सिसकियाँ रहा सजाता
सधे पगों से नवदुकुल का छोर सम्हाले
यौवन के ही साथ बुढ़ापा चलता आता
पल भर में ही कली चटक कर पुष्प बन गयी
बूँद बूंद रिस शिला चली जल धार बनानें
एक डूबती किरण भटक कर प्रतिदिन आती
मुझे किसी ढलते रवि का इतिहास सुनानें
पंथ अनगिनत अब तक जग नें खोज बनाये
हर मंजिल पर भटकन का ही नया नाम है
हर दर्शन अज्ञान आवरण का प्रयास है
चलते चलते बस क्षण भर का ही विराम है
हर डुबकी में मूँगा मोती मिलता रहता
किन्तु अतल  की थाह भला मैं कैसे पाऊँ
जानें क्यों मन -------------------------------
मोड़ मोड़ पर दंभ्भी स्वर ललकार भर रहे
यही अन्त है , यही सत्य है , यही पुरातन
चरम बिन्दु है यही मनुज की जय गाथा का
यही तत्व है , यही सत्य है , यही सनातन
विस्मित सा मैं खड़ा देखता रहता प्रतिदिन
इन नकटों की भीड़ सदा बढ़ती ही जाती
दंभ्भ नदी उफनाती कूल किनारे ढहकर
त्वरित वेग से उमड़ घुमड़ चढ़ती ही जाती
किन्तु भीड़ में सभी जानते झूठा सौदा
चिल्लानें की कला बिना कब चल पाता  है
कृत्रिम रूप संवर कर ही भोले ग्राहक को
अन्धकार की चादर ढककर छल पाता है
और राह की थकन मिटानें कोटि कोटि जन
मन्दिर , मस्जिद , गुरूद्वारे में पहुँच रुक गये
वेद ऋचायें , धर्म -आयतेँ , गुरु वाणी सब
किसी मोड़ पर पहुँच सदा के लिये चुक गये
उसी मोड़ पर खड़े उठाकर दोनों बाहें
करूँ सत्य स्वीकार शक्ति मैं कैसे पाऊँ ---
जानें क्यों मन ------------------------------
किन्तु कापुरुष बननें का तो आज अर्थ है
स्वयं छलित मैं छलूँ  विश्व के नव मानव को
तरुण देश की जिज्ञासा की बलि दे दे कर
तृप्त करूँ मैं फिर से युग - भक्षी दानव को
इस छलना से कहीं भला है क्षण भर जीना
और सबल स्वर से जाना उसे बताना
भटकन ही है सत्य धरित्री की राहों  में
स्वर्ग , मोक्ष तो थकन मुक्ति का एक बहाना
चलते जाओ इस माटी  को स्वर्ग बनाओ
एक लक्ष्य फिर किसी लक्ष्य की राह बन सके
सोंधी बास बसे धरती की मन प्राणों में
चिर अन्वेक्षण ही मानव की चाह बन सके
इसी खोज से अमर सत्य यह उभर सकेगा
सारी राहें बस मानव तक ही पहुँचातीं
सभी लक्ष्य मानव आस्था के मार्ग चिन्ह हैं
सारी चाहें सदा मनुज मन से ही आतीं
किसी भटकते अपनें जैसे पथ खोजी को
भटकन के पग  चिन्ह छोड़ता मैं भी जाऊँ
जानें क्यों मन चाह रहा है
मैं मंजिल तक पहुँच न पाऊँ
रहूँ भटकता अन्वेषी बन
दिशाहीन चलता ही जाऊँ






No comments:

Post a Comment