Wednesday, 2 May 2018

जेठ की दोपहरी 

उस दिन कालिज  से घर जाते
ज्येष्ठ मास  की
जलती दोपहरी में देखा
सड़क किनारे
एक नीम की सुखद छाँह में
बैठी वृत्ताकार  एक पशुओं की रेखा |
पूँछ उठा मक्खियाँ उड़ाती
भैंसें करतीं  बैठ जुगाली
वृत्त बीच बैठे दो बालक
खाते रोटी
बना हाँथ को अपनी थाली |
प्याज गांठियाँ  मोटी मोटी
नमक मिर्च की भाजी
हाथ -पई मोटी सी रोटी
सोंध उठ रही ताजी |
फटे पुरानें निक्कर कुरता
पग्गड़ मैल  कुचैले
गई रात के काजल - कतरे
अभी आँख में फैले |
मुझे देख कर रामजुहारू
युग युग की परिपाटी
पशुओं के मर्दन को रक्खी
सात हाँथ की लाठी
बाँट खा रहे दोनों भाई
जो कुछ सहज सुलभ है
लेने से देने को तत्पर
यह कितना दुर्लभ है |
खड़ा देखता रहा देर तक
यह अभाव की समता
जगा सकेगी कभी भरे पेटों में
क्या कुछ ममता ?



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