Wednesday, 2 May 2018

सृजन - आकांक्षा 

हर बार गीत जब लिखा यही मैनें सोचा
है बाँध लिया दुर्दान्त काल को पाटी  में
मेरे चरणों की छाप अमिट हो जायेगी
इस महा देश की महिमा मण्डित माटी में |
फिर कुछ दिन के ही बाद पढ़ा फिर से पाया
वह अमर गीत केवल बचकानी छाया थी
झिलमिल सोनें की चमक रेत  की धूप - मात्र
मन -अहंकार की क्षणिक सुहानी माया थी |
मन टूट  गया सोचा लिखना बेकार रहा
अमरत्व न मेरे गीत कभी पा पायेंगें
हिन्दी भाषी जनता के हर आँगन में
जन  मन की बनकर गूँज न ये छा पायेंगें |
मैं लिखूं शब्द क्यों मरण -शील जो क्षणभंगुर
जो जीतकाल इतिहास नहीं बन सकते हैं
जो चीर  चेतना पर छाया चिर अन्धकार
आने वाली युग क्रान्ति नहीं जन सकते हैं |
यह सोच कलम रख दी मैनें चुप हो बैठा
सोचा शब्दों की बाढ़ न व्यर्थ जगाऊँगा
श्रम की बूंदों से सींच सींच मुरझाये कुछ
अँकुओं में फिर से जीवन आग लगाऊँगा |
चुप बैठ न पाया मेरे मन का सृजनकार
ले तर्क नया आया अपनें को समझानें
है चाह अमर होने की केवल दर्प मात्र
होनें को अमर नहीं जाती  बुलबुल गानें |
तू लिख इसलिये कि लिखना मन का सुख साथी
तू लिख जो कुछ इस जग में देखा जाना है
तू लिख इसलिये कि धरती की वीरानी में
रस  - वास  लिये फिर से वसंत को आना है |
मिटनें के डर से कभी सिहर तुमनें देखा
मधु लहर  बीच में क्या चल कर रुक जाती है
गिरनें के डर  से कभी झिझक तुमनें देखा
तरु की फुनगी क्या बिना उठे झुक जाती है |
हर एक मिलन अमरत्व नहीं होता फिर भी
दो आतुर हृदय कहीं जग में रुक पाये  हैं
हर एक जवानी बाढ़ नहीं होती फिर भी
उठनें वालों के नेत्र कहीं झुक पाये हैं |
है शब्द अमर या नहीं , छोड़ मन का वितर्क
तू लहरा जैसे नील - जलधि लहराता है
उन्मुक्त पंख दे छोड़ गगन की गोदी में
भुट्टा ज्वार का फहर फहर फहराता है |
धरती को फोड़ उभरते अंकुर सा तू बढ़
छा दे आतप की दुनियाँ में शीतल वितान
कल तेरे गीत रहें  न  रहें कुछ बात नहीं
कर ले तू अपनें मुक्त आज उल्लसित प्राण |
तेरा अनुभव जो कुछ भी है तेरा ही है
इसलिये की धरती पर तू स्वयं निराला है
तुझ से बढ़कर है बहुत बहुत घट कर भी है
पर इस निसर्ग ने तुझ से अन्य न ढाला है |
तू गा  अपना वैशिष्ट्य , निरालापन  तू गा
क्या हुआ कि  तेरे गीत ज़रा रूखे होंगें
सजला धरती भी तभी आँख को भायेगी
जब बीच बीच में कुछ हिस्से सूखे होंगें |
यौवन , विलास के गीत बहुत गाये जग नें
श्रम का बोझा ढो थकी बहुत कविता रानी
नारी की काया , साम्यवाद  , चुक  गए विषय
बह चुका युगों से इसी द्वार कितना पानी |
अब तो हर क्षण की व्यथा -कथा हर भाव -उर्मि
हर प्रसव वेदना को भास्वर स्वर गाना है
छै घोड़ों की बग्घी से कविता को उतार
नव शुक्र -यान पर जोर शोर ले जाना है |
यह परिवर्तन चल रहा सब जगह आज मगर
कुछ शुतुरमुर्ग बैठे आँखों को मीचे हैं
जो ठूंठ हो गए विषय , शब्द पल्लव विहीन
उनको तृष्णा के मृग जल से वे सींचे हैं |
मन के हजार दरवाजों से छन छन आता
तेरा अपना व्यक्तित्व स्वयं मस्ताना है
कविता के दर्पण में अपनें को ख़ुद निहार
तूनें अपनें को आप कभी क्या जाना है |
तू लिख इसलिये कि लिखना होता स्वयं -ज्ञान
तू लिख इसलिये कि तेरी एक इकाई है
इतिहास बनें बिगड़े अनेक इस धरती पर
तेरी नरता पर नहीं धारा पर आयी है |





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