Tuesday, 1 May 2018

गुलाब की कलम 

जब कभी सृजन के गीत पिरोने बैठा हूँ
जब कभी तूलिका से आकाश उतारा है
सौ धूम केतु घिर घिर आये हैं आँखों में
हर बार तड़प कर गीत गद्य से हारा है |
जब जब गुलाब की कलम लगाने बैठा हूँ
बन्ध्या युग धरती प्रश्न चिन्ह बन आयी है
जब मलय बयार चली है मन की दुनिया में
चिन्ता दोपहरी तप्त बगूले लाई है
जब कभी भाव की टेक उभर उठ आती है
मन की चट्टानें ही सीमा बन जाती हैं
कुछ सरस पनपने से पहले मन आँगन में
शंका की काली छायायें तन जाती हैं
यह साँझ सुबह का अन्तहीन अविनासी क्रम
माटी की धरती को प्राणों से प्यारा है
जब कभी ---------------------------------
काली रातों के अँधियारे में बार बार
द्वितिमान पिंड रह रह कर राह दिखाते हैं
अभिभूत नहीं होना मावस की छाहों में
कुछ ऐसा ही सन्देश गगन से लाते हैं
हर बार असाढ़ी मेघों के पंखों पर चढ़
चाहा विस्तार गगन का मुझको मिल जाये
 जो विश्व भावना दबी पड़ी मन ऊसर में
रस की छींटें पा विहँस मुक्त हो खिल जायें
मैं एक नवल संसार बसा दूँ धरती पर
जिसमें न घुटन हो , क्षुधा न मानव पीड़ा हो
जिसमें न देह का दर्शन निगले प्राणों को
जीवन निसर्ग की निश्छल मादक क्रीड़ा हो
पर मेरे मन का सृष्टिकार निष्क्रिय हो बैठा वात - ग्रस्त
यह क्षुधा , घुटन का विश्व अभी वैसा सारा का सारा है
जब कभी -------------------------------------------
मेरी नाजुक कल्पना सितारों में इठलाती रही सदा
धरती की  जलती राह न वह चल पायी है
समता की दुनिया सजा सजा कर सपनों में
अपनें को ही बस आज तलक  छल  पायी है
अन्याय , अन्धेरा , पाप पल रहा राहों पर
उनसे भगकर कल्पना कहाँ तक जायेगी
टकरा कर क्षितिज किनारों से असहाय विवश
आखिर माटी की ठोस धरा  पर  आयेगी
उठनें को आकुल  नयी सृष्टि का हर अंकुर
रौंदते पगों की निठुर चाप से हारा है
जब कभी -------------------------------


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