Thursday, 10 May 2018

आलोचक का जन्म 

मन के किसी स्तर  पर
मैनें अपने से कहा
कविता लिखो |
अन्य किसी स्तर  पर
मैनें अपनें को ही तर्क दिया
कविता तो कच्ची उम्र का उफान है
तुम तो चांदी के चंबर सिर बाँधे हो
अनुभव वैविध्य को कथा का जामा दो
निर्मित की अनगिनत परतों से
मेरा अपना ही कोई मुझसे यों बोला
किस्सा - गोई अलंकृत मिथ्या का नाम है
केवल चौपाली हुनर , तुम बहु श्रुत हो
और फिर लाख -२ जीवन के रूप तुमनें जिये हैं
कागज़ के पन्नों पर ---उन्हीं कुछ रूपों को
नाटकीय रंग दो
विस्मय प्रसंग दो
पर यदि मैं नायक हूँ
जीवन - चरित्र ही क्यों न लिख डालूं
और आगत को छोड़ दूँ धरोहर निजत्व की
स्वरहीन स्वर उठा
शताधिक स्तरों  पर एक साथ जीकर तुम
पन्नों पर कैसे सहज जी पाओगे
जीवन -चरित्र तो मात्र आत्म - रति है
व्यापक हो , भूरि भूरि सृष्टि के
ध्वजा धारी मापक हो
अतः निर्णायक हूँ
गूंगा होकर भी मैं
दण्ड -धारी गायक हूँ | 

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