अभिषेक
एक दशक बाद आज आयीं तुम
बैठो
मात्र उत्सुकता ही लायी तुम्हें होगी यहाँ
अन्यथा , वैभव हिंडोला छोड़ पातीं क्या ?
या फिर मुझे मेरी लघुता का भान देने
नारी मनोविज्ञान खींच लाया मेरे द्वार
जो भी हो
आगत का स्वागत ही अपनी परम्परा
आसन स्वीकारो देवि -------
ऐसा विशिष्ट भी क्या मुझमें जो देख रही
वैसा ही निरीह लघुकाय
आज भी तो मैं
एक असफलता पुंज , एक तप्त अभिशाप
जिसे मात्र छूकर ही
दीप्ति हो जाती मन्द
वही क्षीण बाहें जो न घेर सकीं
प्लवन - कारी नारी उरोजों का आन्दोलन
निरा साधारण मैं
याकि
अतिशयता साधारण होनें की
कर रही पैदा असाधारणता विभ्रम |
जो भी हो बैठो तो
ऐसी क्या नाराजी , याकि
खड़ा होना भी मात्र एक अदा है
देह -यष्टि -सौष्ठव को
करनें मन अंकित
मैं तो पर पहले ही रूप - अभिभूत हूँ |
इसीलिये सीमित मैं
साहस न कर पाया
स्वीकारूँ इतनी असीमित रूप - राशि को |
तब भी कहा था
और आज फिर कहता हूँ
वह नहीं उपेक्षा थी -वह नहीं इनकार
वह तो आदर था
प्यार की पराकाष्ठा
पर्ण कुटी कभी क्या सँभाल भला पाती है
राशि राशि स्वर्गीय सुषुमा का प्रस्तार |
मैनें जो जाना वह सुन्दर था सुन्दरतम
उससे भी आगे जो अनुभूति
कर न सका साहस उसे जानूँ मैं
मरण - धर्मा हाड़ माँस उसे झेल पाता भला |
साँस साँस पूजा है तुम्हारी छवि गरिमा को
मेरी नरता ने वहां पाया चिर नारीत्व
अरे मैं भूल गया तुम तो खड़ी हो अभी
ऐसे हाँ , बाहों को सहेज लो हाँथों पर |
आज स्वीकारता हूँ मेरी उपेक्षा
मेरी पराजय थी
विजित हुआ था मैं
विजेता का भेष डाल
लोगों ने समझा था अन्तः दीप्ति मण्डित मैं
त्याग की पराकाष्ठा मैनें ही जानी है |
और आत्म - वंचना के भ्रामक क्षण में
मैनें भी मान लिया
सचमुच क्या ?
मैं कुछ असाधारण हूँ
रूप जयी , काम जयी
किन्तु उस मौन अस्वीकृत के क्षण में
कर न सका साहस
मैं देखूँ तुम्हारी ओर
चुभती कटार सी
अचंचल उस द्रष्टि को
तल दर्शी नेत्रों में झलका था तिरस्कार
उद्वेलित वक्ष की उभरी थीं रेखायें
नासा - पुट फड़के
और लघु- विनत
खड़ा था मैं प्रस्तुत
करनें वहन भार
जीवन भर रोष का
किन्तु था अदभुत तुम्हारा वह सयंम
मात्र एक क्षण ही
तीव्र हुआ रक्त -चाप
और फिर सन्तुलन के लौहे परकोटे से
बद्ध हुआ
क्षुधित रोष
चांदी के पोरों से विद्रोही अलकों को
तुमनें हटाया था
और फिर
क्रुद्ध फणियर की फुत्कार सा
एक शब्द
आया था कानों में
' कापुरुष '
क्षण का सहस्त्रांश
कोटि -कल्प , लक्ष काल
जाना था मैनें
तेल के उबलते कड़ाहों में
जलनें का अनुभव
सर्वाग दग्ध हुआ
आत्मिक यन्त्रणां के उस दारुण क्षण में
मेरा अस्तित्व बोध
मेरी नकारता पर , मेरी नपुंसकता पर
चीख पड़ा
अहं फुत्कारा
वीर्य नें ललकारा
प्रत्याभिमुख थीं किन्तु तुम तब तक
गर्व से तनी देह
साड़ी से आवृत कसाव -पूर्ण पिंडलियाँ
उठते गिरते -नितम्ब
गिरि श्रंग ग्रीवा -यष्टि
मेरा कापुरुष फिर न साहस बटोर सका
प्राण रुद्ध , कंठ रुद्ध
अपलक मैं देखता रहा था
उस चाल को
और फिर
अन्तर्मन मुझसे यों बोला था
देह अधिकार तो प्यार की पराजय है
साधक बन
कर दे निजत्व का विसर्जन
अन्य का पाना भी तेरा ही पाना है |
और इसी भाँति चल
बीत गये दस साल
आशा अवश्य थी
आओगी एक दिन
कुंकुम -मण्डित प्रदीप्त भाल लेकर
चरण अलक्तक से करनें रज -पावन
मेरे लघु गेह की |
धन्य पुरुषत्व हुआ मेरा संस्कारित हो
अभिशप्त यौवन आज रससिक्त हो गया
क्षमा -प्रसूनों से तुम्हारे
हद -मन्दिर के |
एक दशक बाद आज आयीं तुम
बैठो
मात्र उत्सुकता ही लायी तुम्हें होगी यहाँ
अन्यथा , वैभव हिंडोला छोड़ पातीं क्या ?
या फिर मुझे मेरी लघुता का भान देने
नारी मनोविज्ञान खींच लाया मेरे द्वार
जो भी हो
आगत का स्वागत ही अपनी परम्परा
आसन स्वीकारो देवि -------
ऐसा विशिष्ट भी क्या मुझमें जो देख रही
वैसा ही निरीह लघुकाय
आज भी तो मैं
एक असफलता पुंज , एक तप्त अभिशाप
जिसे मात्र छूकर ही
दीप्ति हो जाती मन्द
वही क्षीण बाहें जो न घेर सकीं
प्लवन - कारी नारी उरोजों का आन्दोलन
निरा साधारण मैं
याकि
अतिशयता साधारण होनें की
कर रही पैदा असाधारणता विभ्रम |
जो भी हो बैठो तो
ऐसी क्या नाराजी , याकि
खड़ा होना भी मात्र एक अदा है
देह -यष्टि -सौष्ठव को
करनें मन अंकित
मैं तो पर पहले ही रूप - अभिभूत हूँ |
इसीलिये सीमित मैं
साहस न कर पाया
स्वीकारूँ इतनी असीमित रूप - राशि को |
तब भी कहा था
और आज फिर कहता हूँ
वह नहीं उपेक्षा थी -वह नहीं इनकार
वह तो आदर था
प्यार की पराकाष्ठा
पर्ण कुटी कभी क्या सँभाल भला पाती है
राशि राशि स्वर्गीय सुषुमा का प्रस्तार |
मैनें जो जाना वह सुन्दर था सुन्दरतम
उससे भी आगे जो अनुभूति
कर न सका साहस उसे जानूँ मैं
मरण - धर्मा हाड़ माँस उसे झेल पाता भला |
साँस साँस पूजा है तुम्हारी छवि गरिमा को
मेरी नरता ने वहां पाया चिर नारीत्व
अरे मैं भूल गया तुम तो खड़ी हो अभी
ऐसे हाँ , बाहों को सहेज लो हाँथों पर |
आज स्वीकारता हूँ मेरी उपेक्षा
मेरी पराजय थी
विजित हुआ था मैं
विजेता का भेष डाल
लोगों ने समझा था अन्तः दीप्ति मण्डित मैं
त्याग की पराकाष्ठा मैनें ही जानी है |
और आत्म - वंचना के भ्रामक क्षण में
मैनें भी मान लिया
सचमुच क्या ?
मैं कुछ असाधारण हूँ
रूप जयी , काम जयी
किन्तु उस मौन अस्वीकृत के क्षण में
कर न सका साहस
मैं देखूँ तुम्हारी ओर
चुभती कटार सी
अचंचल उस द्रष्टि को
तल दर्शी नेत्रों में झलका था तिरस्कार
उद्वेलित वक्ष की उभरी थीं रेखायें
नासा - पुट फड़के
और लघु- विनत
खड़ा था मैं प्रस्तुत
करनें वहन भार
जीवन भर रोष का
किन्तु था अदभुत तुम्हारा वह सयंम
मात्र एक क्षण ही
तीव्र हुआ रक्त -चाप
और फिर सन्तुलन के लौहे परकोटे से
बद्ध हुआ
क्षुधित रोष
चांदी के पोरों से विद्रोही अलकों को
तुमनें हटाया था
और फिर
क्रुद्ध फणियर की फुत्कार सा
एक शब्द
आया था कानों में
' कापुरुष '
क्षण का सहस्त्रांश
कोटि -कल्प , लक्ष काल
जाना था मैनें
तेल के उबलते कड़ाहों में
जलनें का अनुभव
सर्वाग दग्ध हुआ
आत्मिक यन्त्रणां के उस दारुण क्षण में
मेरा अस्तित्व बोध
मेरी नकारता पर , मेरी नपुंसकता पर
चीख पड़ा
अहं फुत्कारा
वीर्य नें ललकारा
प्रत्याभिमुख थीं किन्तु तुम तब तक
गर्व से तनी देह
साड़ी से आवृत कसाव -पूर्ण पिंडलियाँ
उठते गिरते -नितम्ब
गिरि श्रंग ग्रीवा -यष्टि
मेरा कापुरुष फिर न साहस बटोर सका
प्राण रुद्ध , कंठ रुद्ध
अपलक मैं देखता रहा था
उस चाल को
और फिर
अन्तर्मन मुझसे यों बोला था
देह अधिकार तो प्यार की पराजय है
साधक बन
कर दे निजत्व का विसर्जन
अन्य का पाना भी तेरा ही पाना है |
और इसी भाँति चल
बीत गये दस साल
आशा अवश्य थी
आओगी एक दिन
कुंकुम -मण्डित प्रदीप्त भाल लेकर
चरण अलक्तक से करनें रज -पावन
मेरे लघु गेह की |
धन्य पुरुषत्व हुआ मेरा संस्कारित हो
अभिशप्त यौवन आज रससिक्त हो गया
क्षमा -प्रसूनों से तुम्हारे
हद -मन्दिर के |
No comments:
Post a Comment