Wednesday, 9 May 2018

सृजन का एक क्षण 

क्यों लिखूँ ?
लिखना नहीं अनिवार्यता
अस्तित्व की
लिखना नहीं जब बाध्यता
व्यक्तित्व की
तो लिखूँ क्या ?
दर्प की अभिव्यक्ति ही क्या
साध्य मेरा
मैं स्वयं ही क्या बना
आराध्य मेरा
जी चुका हूँ जो
उसे फिर जी सकूँगा
पी चुका हूँ जो गरल
फिर पी सकूँगा
और है -- कुछ आत्मा
अंश मेरा
तिमिर आँचल में झलकता
ज्यों सवेरा
हृदय सँचित कृपण की सी
सम्पदा जो
आ गयी ऐसी भला क्या
आपदा , जो
आत्मा के अंश में
मृदु भावना के वंश में
साझी बनाऊँ विश्व को |
नव वधू की लाज खोलूँ
साँस की संगीत
मेरे प्राण का जो गीत
वह सबको सुनाऊँ
कवि कहाऊँ
मुग्ध - कलिका का दरस
हाथ का पा कर परस
लाज के बन्धन उड़े
अधर  - अधरों से जुड़े
उस मिलन  की वह व्यथा
प्राण की मीठी कथा
विश्व का इतिहास जिससे है अपरचित
सूर , तुलसी , व्यास जिससे हैं अपरचित
खोल दूँ मैं
बोल दूँ मैं
जग मुझे सृष्टा कहेगा
दूर का द्रष्टा कहेगा
पर
कहीं दो ओठ
 धीरे से कहेंगें
 ' ओ ' अरे विश्वासघाती |

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