Friday 11 May 2018

प्रत्यावलोकन 

श्याम हो गयी सुरमई शाम
निपट तो गया आज का काम ?
बैठ प्रिय सुख दुःख की हो बात
बड़ी लम्बी जाड़े की रात
सो रहे तीनों बाल -गोपाल
पूछ लो मेरा भी कुछ हाल
झाँक लो फिर अतीत में आज
प्रेम -विश्लेषण में क्या लाज
नहीं होते दस वर्ष अपार
चलो चल बैठें फिर उस पार
कौन यह छुई मुई सी बाल
सिहर सकुचित होती तत्काल
पुरुष के अनुभव से अनजान
चन्द्रिका  सी पावन अम्लान
अधखिली कालिका सी सुकुमार
खड़ी उत्सुक यौवन के द्वार
खींच धीरे से रेशम कोर
समर्पण का दे सारा जोर
तुम्हें लाया था अपने पास
हाय  कितनी मीठी निश्वास
विवश उद्वेलित यौवन ज्वार
संभल क्या पाया तुमसे भार ?
चहक खिल पडी कली अनजान
कहा मित्रों ने मुझे जवान
रक्त में स्पन्दित था गीत
कान में झरता था संगीत
अधर  धर  प्रिये  श्रवण के पास
प्यार का दे सारा विश्वास
वर्ष पहले की हर एक रात
रहीं दुहराती तुम यह बात
बड़ा लम्बा दिन का व्यवधान
पुरानी  हो जाती पहचान
एक क्षण प्रियतम तुमसे दूर
नहीं रह सकती मैं मजबूर
बीतनें आया था जब वर्ष
लिये अपनें तन मन में हर्ष
विकल स्वर और प्रकम्पित गात
प्रिये , बतलाई थी वह बात
फूल से फल का चिर सम्बन्ध
बदलते हैं कविता के बन्ध
सरकते रहे दिवस और रात
शीत , आतप ,  बरसात
देह की लौ तो जली अमन्द
किन्तु अन्तर में था कुछ मन्द
देह का बजता था जब साज
एक नन्हीं धीमी आवाज
छेड़ती कहीं बेसुरी तान
रिक्तता से भर उठते प्रान
एक से दो ,दो से फिर चार
और भी बढ़ा सृष्टि व्यापार
प्रीति मर गयी , कामना- शेष
गद्य आया कविता के वेष
और बीते यों  ही दस साल
तन गया चिर माया का जाल
अर्ध - वसना होकर भी आज
नहीं प्रिय तुमको लगती लाज
अधर  पर अब न छलकता हास
नयन से वंचित बंकिम लास
चहक विद्युत गति से तत्काल
नसों में व्याप्त अतीन्द्रिय ताल
गात -स्पर्शन का संगीत
बना वीणां कल , आज व्यतीत
कुचाग्रों की धीमी है सान
हृदय में अब न झूलते बान
कनक की छरी समय के द्वार
चढ़ा लाई कितना ही भार
हंसिनी सजा पंख का साज
बनी गज - गामिनि सचमुच आज
बिखरते बाल , सरकता छोर
न चलता आज लाज का जोर
आज प्रिय मुझसे भी गृह -काज
उसी में सजते सुख के साज
नहीं रसकाव्य आज , प्रिय ,श्रव्य
बना परिरभ्भड़ भी कर्तव्य
उफनता अब न आग का ज्वार
कामना अब करती मनुहार ?
बगूलों का लेकर अम्बार
ध्वंस कर पुष्पों का संसार
छिन्न कर लता खिन्न कर डाल
मरुत चल तूफानों की चाल
रुद्ध कर धरती गगन पहाड़
अभ्र - खण्डों से कर खिलवाड़
छोड़ता उड़ती तीव्र फुहार
गुजर जाता है सीमा -पार
शान्ति छा  जाती है सब ओर
निशा के बाद सुनहला भोर
कहीं कुछ ऐसा ही घटनीय
तिक्त कुछ , मृदु कुछ ,कुछ कमनीय
घटा अपनें जीवन में , प्राण ,
चाहकर भी इससे क्या त्राण |
गया जो वह तो था अनिवार्य
नहीं कुछ उसमेँ प्रिये , विचार्य
सत्य वह भी था पर सच आज
तुम्हारी लाजहीन   यह लाज
प्रेयसी का जो रूप -निखार
नहीं बनता गृह का आधार
स्वयं को देकर ही नव सृष्टि
इसी से चलती सदा समष्टि
तुम्हारे स्वर की यह झंकार
वहन करती कितना अधिकार
मृगेक्षणिं तब नयनोँ का तीर
आज कितना अथाह गंम्भीर
वासना की छिछली जल -कीच
त्याग के गुरु -कर्षण से खींच
कर दिये निर्मल नयन - तड़ाग
जहां प्रतिबिम्बित मन अनुराग
अरे , तुम कब से बैठीं पास
छोड़कर कविता का आकाश
उतर मन मेरे , देख संम्भाल
गर्व से दीप्त किसी का भाल |




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