Sunday 1 April 2018

रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?

क्या कहा मर्द हूँ मैं , फौलादी छाती है ,
फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?

इसलिये कि  मैनें साथ सत्य का लिया सदा,
पर पाया जग का सत्य सबल की माया है |
नैतिकता ताकत के पिंजड़े में पलती है ,
आदर्श छलावे की सम्मोहक छाया है |

मैं बुद्ध गांधी को पढ़ गलती कर बैठा ,
सोचा दरिद्र नारायण हैं , पग पूजूँगा |
अपनी मछली वाली चट्टानी बाहों में ,
ले खड्ग सत्य का अनाचार से जूझूँगा |

थे कई साथ जो उठा बांह चिल्लाते थे ,
समता का सच्चा स्वर्ग धरा पर लाना है |
सोपान नये जय -यात्रा के रचनें होंगें ,
गांधी दर्शन का लक्ष्य मनुज को पाना है |

पर चिल्ला कर हो गया बन्द उन सब का मुख ,
इसलिये कि उनके मुंह को दूजा काम मिला |
हलवा -पूड़ी के बाद ,पान से शोभित मुख ,
दैनिक पत्रों में छपा झूठ का नाम मिला |

वे कहते अब भारत से हटी गरीबी है ,
रंगीन चित्र अब अन्तरिक्ष से आयेंगें |
अब उदर गुहा में दौड़ न पायेंगें चूहे ,
भू कक्षा में वे लंम्बी दौड़  लगायेंगें |

वे कहते बहुतायत की आज समस्या है ,
भण्डार न मिल पाते भरनें को अब अनाज |
सब भूमि -पुत्र लक्ष्मी- सुत बनकर फूल गये ,
दारिद्र्य अकड़कर बैठ गया है पहन ताज |

छह एकड़ का आवास उन्हें अब भाता है ,
गृह -सज्जा लाखों की लकीर खा जाती है |
हरिजन -उद्धार मंच से अब भी होता है ,
हाँ बीच -बीच में अपच जँभाई आती है |

मैं आसपास गिरते खण्डहर हूँ देख रहा ,
सैय्यद चाचा का कर्जा बढ़ता जाता है |
प्रहलाद सुकुल नें खेत लिख दिये मुखिया को ,
धनवानों का सूरज नित चढ़ता जाता है |

चतुरी की बेटी अभी ब्याहनें को बैठी ,
पोखरमल के घर रोज कोकिला गाती है |
क्या कहा मर्द हूँ मैं फौलादी छाती है ,
 फिर मुझे रुलाई क्यों रह- रह कर आती है |

कल के जो बन्धु -बान्धव थे , थे सहकर्मी ,
सत्ता का देनें साथ द्रोण बन भटक गये |
है उदर -धर्म पर बिका धर्म मानवता का
सच्चायी के स्वर विवश गले में अटक गये |

युग -पार्थ मोह से ग्रस्त खड़ा है धर्म -क्षेत्र ,
है उसका क्या कर्तव्य न अब तक भान हुआ |
गाण्डीव शिथिल सो रहा पार्श्व में अलसाया ,
चुप है विवेक का कृष्ण न गीता -ज्ञान हुआ |

ताली पर देकर ताल थिरकते हैं जनखे ,
सत्ता -कीर्तन अब अमर काव्य कहलाता है |
भाषा -भूषा बन गयी , बीन भैंसें सुनती,
हर क्षीण- वौर्य गजलें गा मन बहलाता है |

व्रण -युक्त देह सतरंगी साड़ी से ढककर ,
कविता कामाक्षी कृमि बटोर कर लाती है |
क्या कहा मर्द हूँ मैं फौलादी छाती है ,
 फिर मुझे रुलाई क्यों रह -रह कर आती है ?


दो नावों पर
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मैं रहस्य खोजूं जीवन का
या रोटी की राह तलाशूँ
दो नावों पर पग धर  चलना क्या मुमकिन है ?
मेरे भीतर मछली ,मेढक
मेरे भीतर सारस ,बगुला ,हंस सुहावन
नहीं छिपाकर कुछ रखूँगा
सच कहता हूँ मेरे अन्दर
खों -खों करके खौंख रहा है
जावा का मरदाना बन्दर |
कनखजूर की कोई पीढ़ी ,तिलचट्टे का
पितर अपावन
मेरे भीतर गरम ग्रीष्म है , शीतल सावन
अथ से अब तक मेरा जीवट
अर्बुद कोटि रूप ले आया
अब से इति तक अनगिन केंचुल
छोड़ेगी माटी की काया
पहली शर्त बनें रहना है -पर तारों की राह
छोड़ना पितृ -घात है
अजब बात है
नश्वर माटी ही तारों के बीज संजोये
ज्योति पिण्ड का हिम बन गलना क्या मुमकिन है ?
मैं रहस्य खोजूं जीवन का
या रोटी की राह तलाशूँ
दो नावों पर पग धर चलना क्या मुमकिन है ?
हर उत्तर अबूझपन में खुद प्रश्न बन गया
एक पहेली ही  में तो दिक् -काल घिरे हैं
प्रश्नों का संम्पुजन ज्योति बन नभ में जगता
नील -परस पा प्रस्तर पर निर्वाध तिरे हैं
चल हो जाये अचल चला चल एक रूप हो
रोटी की चल राह अधर तक जा पावें जन 
देह प्राण की कथा सलोनी छाँह धूप हो
हर दर्शन का सार यही क्या ?
कवियों का संसार यही क्या ?
पर खण्डित है युग जन जीवन की परिपाटी
देव -मूर्ति गढ़नें में असफल आज देश की माटी
तन -मन बंट दो भाग हो गये
इसीलिये तो स्वयं सिद्ध है
महल दुमहले आग हो गये
मन -मुराद न मिली मुरादाबाद जल गया
हाय ! मनुज को मनुज स्वयं ही सदा छल गया
धरे हाँथ पर हाँथ किन्तु मैं कैसे बैठूँ
गलत बात है |
 धुप्प रात है
तमस -गर्भ में प्रभा पल रही
नील निलय का रवि बन गलना क्या मुमकिन है ?
मैं रहस्य खोजूँ जीवन का
या रोटी की राह तलाशूँ
दो नावों पर पग धर चलना क्या मुमकिन है ?




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