Tuesday, 6 March 2018

गतांक से आगे -

                                         हिन्दी भाषा -भाषी राज्यों में नामावली में लाल , ललुआ या लल्ला का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है | राम लाल , कृष्ण लाल , शिव लाल , देवी लाल ,वंशी लाल और मुरारी लाल जैसे लक्ष्य -लक्ष्य नाम तो हमारे सुननें में आते ही हैं पर स्थानीय परिवेश से जुड़े हुये अनेक नाम भी हमें चौकाते नहीं  पिशौरी /पैशावरी लाल या लाहौरी लाल स्थानीय संम्बन्धों को सकारात्मक रूप देते हैं | तो कल्लू लाल और फुल्लू लाल काया से जुड़े संकेतों की ओर इंगित करते हैं | मदन लाल तक आते -आते हम काम चेतना के रूबरू खड़े होनें लगते हैं और फिर जब शादी लाल पर आते हैं तो हमारी मुस्कुराहट खिलखिलाहट में बदल जाती है |  किसी एक हल्के -फुल्के मंचीय भाषण में मैनें कुछ ऐसी ही बात कह डाली होगी और शायद इसीलिये उस समय के रोहतक से चयनित हरियाणा विधान सभा के सदस्य शादी लाल बतरा नें हिन्दू संस्कृति में नाम करण संस्कार को लेकर एक सार्थक बहस कर डाली थी | शादी लाल जी अब राज्य सभा के मेम्बर हैं और पूरे प्रयास से इस पवित्र कार्य में लगे हैं कि अमीरी और गरीबी के बीच शादी हो जाये यानि सहजीवन और सहभागिता का गांधीवादी आदर्श स्थापित कर दिया जाय | पूरे विश्वास के साथ अभी भारत में ऊंच -नींच के बीच सहज सुलभ शादी की परम्परा प्रारंम्भ नहीं हुयी है और हरियाणा राज्य में जहां लड़कियों का अनुपात लड़कों की तुलना में काफी कम है | कई घरों में लड़की का मिलना एक दुष्कर कार्य होता जा रहा है | भारतीय संस्कारों में शादी समारोह कब गंम्भीर पवित्रता से निकलकर प्रदर्शन प्रियता की गोद में आ बैठा इसका निर्णय सामाजिक इतिहासकार कर पायेंगें हाँ इतना अवश्य है कि पाणिग्रहण संस्कार या दाम्पत्य सूत्र बन्धन कब सांस्कृतिक गलियों के निराले मोड़ से होता हुआ शादी पर आकर ठहर गया है इसकी छान -बीन करनें में हम भाषा विज्ञान की कई मंजिलें तो तय करते ही हैं पर साथ ही भारत के मध्य युगीन इतिहास की रंगीली झांकियों से भी गुजरते रहते हैं निशाने पाकिस्तान के खिताब से नवाजे गये जानें -मांनें अभिनेता यूसुफ खां यानि दिलीप कुमार द्वारा गाये हुये एक एक गानें की पंक्ति मन में उभर कर आ रही है |
                                          शायद यह पंक्ति उनके लीडर फिल्म में रही होगी | कोई मेरी भी शादी करा दे , तो फिर मेरी चाल देख ले | तो शादी आज के युवा और युवती के जीवन का सबसे सुनहरा स्वप्न बन कर रह गया है और शादी के समय अपनी चाल में मस्ती भरनें के लिये न जानें कितनें बाहरी और भीतरी अलंकरणों और भोज्य पदार्थों का आयोजन सामाजिक स्तर पर डंके की चोट पर लगनें लगा है | पिछले दो -तीन दशकों से चल -चित्रों और टी. वी. के छाया चित्रों तथा गायन और प्रहसनीय प्रतिस्पर्धाओं में परदे पर छानें वाले हीरो और हीरोइन शादी को भी कारपोरेट जगत के लिये एक कैश काऊ के रूप में पेश कर रहे हैं | वो हीरोइन ही क्या जो एक तलाक लेकर किसी दूसरे कुबेर पति की बाहों में न बंधें और वह हीरो ही क्या जो रूप की एक गगरी से थोड़ा बहुत रस पीकर दूसरी गगरी को अपनी गोद में उठाकर नाच -गान भरी उछल -कूंद शुरू न करे | विदेशों से चलकर आनें वाला यह लाखों -करोडो डालर का खेल अब हिन्दुस्तान के ऊपरी एक -दो प्रतिशत तबके में नशे की भांति सहज स्वीकृति के रूप में स्वीकार कर लिया गया है | पर मैं तो अभी मध्य वर्गीय सामाजिक अवरोधों के बीच में भटकन भरी राहों पर ही घूम रहा था | मेरी मध्यवर्गीय चेतना वस्तुतः निम्न मध्यवर्ग का परिष्कृत रूप ही थी और अभी तक उन बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकी थी जो बन्धन आर्थिक अभाव से ग्रस्त मानव जीवन के कुलीन परिवारों नें अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनें के लिये अपनें आस -पास बाँध रखे थे | मेरे कुछेक मित्र अमरीका में बस जानें का सौभाग्य पा गये थे | उनके बच्चे अब वयस्क हो रहे थे | उनमें से कोई एकाधबार शौकिया जब भारत भ्रमण के लिये आता तो मुझे भी अपनी गर्व भरी भेंट से प्रभावित करनें की कोशिश करता था | जब वे मेरे परिवार के वयस्क हो रहे लड़के और लड़कियों के संम्बन्ध में कुछ पूछते तो मैं उन्हें भारत की सामजिक विषमताओं से परिचित कराता | वे हंसकर बताते की उनकी लड़की नें तो स्वयं ही अपनें तीन चहेतों को उनके आगे पेश कर दिया था और चाहा था कि वे उन तीनों में से किसी एक को चुन लें | मुझे यह सब सुनकर हर्ष भी होता था और विषाद भी | मेरा भारतीय मन अभी तक न जानें क्यों इस बात को माननें को तैय्यार नहीं है कि लड़के या लड़की के जीवन साथी के चयन में उसकी कोई भूमिका नहीं होनी चाहिये | इसका एक कारण शायद यह भी है कि संस्कारी घरों के पुत्र और पुत्रियां अभी तक इतनें उदण्ड रूप से स्वतन्त्र नहीं हुये हैं कि वे छाती खोलकर अपनें लिये सेक्स की स्वतन्त्रता की मांग करें | कारण जो भी हो मुझे अपनी बड़ी होती हुयी पुत्री के लिये वर की तलाश में जो झेलना पड़ा उसे एक स्वतन्त्र चेता बुद्धिजीवी होनें के नाते मैं एक सुखद अनुभव नहीं मानता पर पुत्री के संम्बन्ध की चर्चा अभी आनी शेष है अभी तो प्रश्न है बड़े पुत्र राकेश को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करनें के लिये उपयुक्त साधनों की तलाश का | कई बार मेरे देखनें में आया है कि पढ़ने -लिखनें के बाद तरुणायी की दहलीज पर खड़े होकर किसी नवयुवक को यदि कोई आर्थिक सुद्रढ़ आधार नहीं मिल पाता  तो भटकन की राहों पर चल निकलता है | मैं समझता हूँ कि किसी बड़ी तलाश में हाँथ आनें वाली किसी छोटी उपलब्धि को छोड़ देना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं कही जा सकती | मेरे अपनें स्वयं के जीवन का अनुभव है  कि यदि मैनें हाई स्कूल पास करनें के बाद अर्थोपार्जन का कोई छोटा -मोटा आधार न पा लिया होता तो मेरा जीवन भी भटकन की एक निरर्थक कहानी बनकर रह जाता | भटकन की कहानी बनकर तो अब भी रह गया है पर अब इस भटकन भरी राह में कुछ हरे -भरे सार्थक मोड़ भी दिखाई पड़ते हैं |
                                तो राकेश को जब रायबरेली जिले में अपनें पैरों पर खड़ा होनें की कच्ची -पक्की जमीन मिल गयी तो अब उसे उस जमीन पर एक छोटा -मोटा घरौंदा खड़ा कर लेनें की आवश्यकता भी महसूस हुयी | हरियाणा राज्य के जिस भू क्षेत्र में मैं कार्यरत था वहां उस समय तक कान्यकुब्ज ब्राम्हणों का कोई एकाध विरल परिवार ही हो तो हो पर कम से कम मेरे संम्पर्क में अभी तक कोई ऐसा परिवार नहीं आ पाया था | हाँ गौड़ ब्राम्हणों के परिवार से या पंजाबी ब्राम्हणों के परिवार से या जांगड़ ब्राम्हणों के परिवार से कोई लड़की ली जा सकती थी | पर जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि अभी तक मैं अपनी प्रारंम्भिक जीवन की ठीक समझी जानें वाली मान्यताओं से जुड़ा हुआ था और मेरे मन में किसी कान्यकुब्ज परिवार से ही संम्बन्ध जोड़नें की अन्तर इच्छा छिपी हुयी थी और  शायद कुछ ऐसी ही इच्छा रायबरेली की डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में नियुक्त इन्जीनियर केशव प्रसाद शुक्ल के मन में भी छिपी रही होगी | ईश्वर नें उन्हें छै लड़कियों और एक पुत्र का पिता बनाया था | अपनी पहली लड़की वे टेलीकम्युनिकेशन के एक तरुण इन्जीनियर को व्याह चुके थे | अब अपनी दूसरी लड़की के लिये वे एक ऐसे वर की तलाश में   थे जो उनकी लड़की से कद में लंम्बा हो और किसी अच्छी नौकरी में लगा हो पांच फ़ीट सात -आठ इंच की अपनी पोस्ट ग्रेजुएट लड़की एक लिये उन्हें अपनें क्षेत्र में राकेश के आ जानें पर एक मनचाहे जामाता को पानें की इच्छा जाग उठी | बैंक से उन्होंने राकेश के संम्बन्ध में सारी जानकारी इकठ्ठी की और फिर मुझसे मिलनें के लिये अपनें एकाउन्टेन्ट और दिल्ली में कार्यरत अपनें एक सम्बन्धी को साथ लेकर एक योजना बना डाली | राकेश को शायद इसका आभाष हो गया होगा | वह दो विषयों में पोस्ट ग्रेजुएट था , नाटकों में हीरो रहा था ,रेडियो स्टेशन पर एनाउन्सर रह चुका था , कालेज और विश्वविद्यालय में युवा महोत्सवों में घूमा फिरा था | उसनें निश्चय ही इन्जीनियर साहब की इस लम्बी सुन्दर लड़की को कहीं न कहीं देख लिया होगा और शायद वह इस संम्बन्ध के विषय में बिना कुछ कहे प्रवेश भूमि तलाश कर रहा था | मैं अभी तक अपनें किराये के मकान में रह रहा था यद्यपि मेरा अपना मकान अब लगभग बनकर तैय्यार हो चुका था | सच पूछो तो अपनी पोस्टिंग से पहले राकेश नें ही उस नये मकान में एक कमरे में सुबह से शाम तक उपस्थित रहकर उसे पूरा करवानें में उल्लेखनीय योगदान किया था | तो उस किराये के मकान में अपनें दो साथियों और काफी कुछ मेवा व मिष्ठान लेकर केशव प्रसाद जी  नें अपनें आगमन से मुझे गौरव मण्डित किया | अपनें गाँव व अपनें परिवार से परिचित कराकर बताया कि उनके बड़े भाई अटौरा के सरपंच हैं कि उनके पास इतनी कास्त जमीन और इतनें बाग़ है कि वे स्वयं एक इन्जीनियर हैं कि बड़ी बेटी एक इन्जीनियर को व्याही है की वे कान्यकुब्ज ब्राम्हण हैं कि वे सुकुल हैं आदि आदि | मैनें उनसे पूछा कि वे शुक्ला हैं या सुकुल हैं तो वे हँसनें लगे बोले अवस्थी जी एक ही बात है | बहुत से लोग अंग्रेजी में शुक्ला लिखनें लगे हैं पर ठीक शब्द तो सुकुल  ही है | सुकुल यानि सुन्दर कुल वाला या श्रेष्ठ कुल वाला , मुझे बातचीत में वे एक शालीन और भद्र पुरुष लगे | रंग -रूप और काठी में भी वे खरे उतरते दिखायी पड़ते थे उन्होंनें लड़की का जो फोटो चित्र राकेश की माँ  के आगे पेश किया वह अस्वीकार योग्य नहीं था | मैं नारी  सौन्दर्य का अच्छा पारखी नहीं हूँ पर मैनें सोचा कि राकेश की माँ भी जब फोटो की अस्वीकृत नहीं कर रही है तो लड़की को सुन्दर ही मानना होगा | हाँ तुलीदास की एक पंक्ति न जानें मन में उभर आयी - "  मोह न नारि नारि के रूपा ,पन्नगारि यह चरित अनूपा | "
                                    खैर जब राकेश की माँ जो स्वयं अपनें को विधाता की निराली कृति समझती थी फोटो से अप्रभावित नहीं रही | तो मुझे लगा कि संम्बन्ध  स्वीकार  करने योग्य है पर अन्तिम फैसला राकेश की राय पर ही निर्भर होगा | उसे स्वयं लड़की को देखना होगा | बाकी मुझे कुछ तय करना ही नहीं था | केशव प्रसाद जी सड़कों की इन्जीनियरिंग करते- करते मानव मन के भी इन्जीनियर बन गए थे | शायद उन्होंने बहुत पहले ही चुपके -चुपके किसी संम्पर्क के द्वारा राकेश की राय जान ली हो | पर जो भी हो उन्होंने कहा कि वे राकेश को घर पर बुला लेंगें पर अधिक अच्छा यह होता यदि राकेश की माँ लड़की को आकर देख लेती | मैं जानता था राकेश पहले आना -कानी करेगा , देखनें से इन्कार करेगा पर मैं जानता था अन्त में वह मेरे निर्देश को मान लेगा और यदि उसनें हाँ कर दी तो यह संम्बन्ध सुनिश्चित हो जायेगा | पर अभी इसमेँ एक और अड़चन खड़ी हो गयी राकेश का छोटा भाई कमीशन लेकर लेफ्टीनेन्ट बन चुका था और जब वह घर आया और उसे इस संम्बन्ध का पता चला तो उसनें कहा कि वह भाभी को स्वयं देखेगा और जब वह उसे पसन्द आयेगी तभी यह संम्बन्ध तय किया जा सकेगा |अब सारा मामला लेफ्टीनेन्ट साहब की पसन्द पर निर्भर हो गया | किया भी क्या जाय देवर भाभी के पवित्र रिश्ते को भारतीय संस्कृति के प्रगाढ़तम रिश्ते के रूप में स्वीकार किया जाता है और फिर राकेश ने यदि कोई चुनाव किया है तो उसे खरा सोना तो होना ही चाहिये | तय हो गया लेफ्टीनेन्ट साहब अगले कुछ दिनों में अपनें एक सेना मित्र से मिलनें लखनऊ जायेंगें और वहां से शुकुलजी गाड़ी से रायबरेली ले जाकर अपनी लड़की से मिला देंगें | मुझे विश्वास था कि अन्तिम निर्णय शुकुल जी के पक्ष में ही जायेगा और हुआ भी ऐसा ही | लेफ्टीनेन्ट साहब नें वापस आकर अपनी माँ के सामनें उस समय के मशहूर गीत की दो लाइनें दोहरायीं -
" दमादम मस्त कलन्दर
  फरीदा औव्वल नम्बर | "
                                                    आप सब यहां फरीदा के नाम की जगह मधू का नाम जोड़ लें |
(क्रमशः )

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