Wednesday, 7 March 2018

गतांक से आगे -

                                   ब्याह से पहले और व्याह के बाद कौन -कौन से पूजा विधान , लेन -देन ,नेग -निछावर ,और नोंक -झोंक अनिवार्य होते हैं | इन पारंम्परिक ज्ञान के क्षेत्र में कान्यकुब्ज घरों की पुरखिनें पूरी तरह पारंगत होती हैं | राकेश के ब्याह के संम्बन्ध में क्षेत्रीय विभाजन नें भी कुछ अड़चनें खड़ी कर दीं , पंजाब से काफी अरसे तक जुड़ा रहनें  के कारण हरियाणा का एक संम्पन्न वर्ग भी शादी , समारोहों को लेकर एक व्यवहारिक द्रष्टिकोण अपनानें लगा था | जब पुत्र वधू को रोहतक आना ही है तो क्यों न शादी की रस्म  भी रोहतक में ही किसी अतिथि गृह में संम्पन्न करा दी जाय | महाविद्यालय से संम्बन्धित कई नगर सेठों के भव्य बारात घर शहर के  विकसित क्षेत्रों में अपनें गर्वीले सर उठाये खड़े थे | इन्हीं में से किसी एक में रायबरेली के कुछ निकट संम्बन्धी मातृ और पितृजन पुत्री को लेकर बारात घर को दो -एक दिन रात के लिये अपना निवास स्थान बना लें और वहीं पर बारात का आगमन होकर उसके स्वागत सत्कार के बाद वर -वधू की जयमाल रस्म अदा कर दी जाय | पवित्र अग्नि के सात फेरे लेकर वर -वधू एक दूसरे के प्रति आजीवन निष्ठा का प्रण लें | अग्नि , धरती और अम्बर को साक्षी मानकर प्रण करें कि वे दोनों रोम -रोम से , स्वांस -स्वांस से एक दूसरे का वरण कर रहे हैं और उनके मिलन की ये  गाथा काल के अत्यन्त विस्तार में अमृत्व का सृजन करेगी | व्यवहारिकता के धरातल पर यह प्रस्ताव समीचीन लग रहा था पर केशव प्रसाद जी की  मर्यादा इसमें आड़े आ रही थी | उन्हें अपनें द्वार पर बारात के स्वागत  करनें का सुअवसर मिलना ही चाहिये | रायबरेली जिले के सभी लब्ध प्रतिष्ठ व्यक्ति और आफ़ीसरान तथा उनके परिवार आमन्त्रित होनें हैं | रोहतक में उनका  आना संम्भव नहीं हो पायेगा | वर पक्ष को थोड़ी -बहुत असुविधा अवश्य होगी | पर रेल की यात्रा में लखनऊ से ही स्वागत सत्कार का प्रारंम्भ कर दिया जायेगा | न जानें क्यों मैं सदैव भीड़ -भाड़ से दूर रहना चाहता रहा हूँ | तभी तो कभी मैनें लिखा था -जनाकीर्ण मार्गों से मैं भी दूर रहा हूँ , राह कठिन एकान्त सदा मैनें अपनायी | आँखों में इतिहास बनानें के सपनें हैं , दूर सितारे भी तो मेरे ही अपनें हैं | आखिर इस बात पर सहमति बनी कि बारात में केवल अत्यन्त नजदीकी व्यक्ति ही आ पायेंगें | और इसमें संख्या बल का प्रदर्शन नहीं होगा | चलो यह सब तो सुनिश्चित हो गया पर अब एक और समस्या खड़ी हो गयी जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ विद्यार्थी चुनाव की विघ्न रहित संम्पन्नता मेरे लिये एक नयी मुसीबत बनकर उठ खड़ी हुयी | विद्यार्थियों के आन्तरिक दबाव के कारण और मैनेजमेन्ट के सामनें अपनी विफलता उजागर होनें के कारण प्राचार्य निर्मल कुमार जैन एक मानसिक सन्ताप के दौर से गुजरनें लगे | उन्हें लगा कि उनका स्वास्थ्य उनका पूरा साथ नहीं दे रहा है और वे प्राचार्य के  पद का भार नहीं संम्भाल सकेंगें | चूंकि मैनेजमेन्ट का एक वर्ग उन्हें महाविद्यालय से पूरी तरह मुक्त नहीं  करना चाहता था इसलिये इस वर्ग नें यह सुझाव रखा कि वे एक वर्ष के लिये प्राचार्य का पद भार अंग्रेजी विभागाध्यक्ष प्रो ० अवस्थी को सौंप दें | और स्वयं हिन्दी या संस्कृत पद के अध्यक्ष पद पर काम करते रहें | ऐसा करनें में प्राचार्य निर्मल कुमार जैन को कोई अधिक आर्थिक क्षति नहीं पहुँचती थी हाँ थोड़ा बहुत रुतबे का फर्क तो पड़ता ही था | व्यवहारिक होनें के नाते प्राचार्य निर्मल कुमार जैन नें दार्शनिकता का सहारा लिया और कहा कि प्रो० अवस्थी को तो वे अपनें बराबर ही मानते रहे हैं अतः उनके प्राचार्य पद का भार संम्भाल लेनें पर भी वे छोटे नहीं हो जायेंगें पर मैं इस प्रस्ताव के लिये सहमत नहीं था | मैनेजमेन्ट के उस प्रभावशाली वर्ग नें अत्यन्त चतुरायी के साथ प्राचार्य निर्मल कुमार जैन को ही इस बात की जिम्मेवारी सौंप दी कि वे प्रो ० अवस्थी को इसके लिये राजी कर लें | कहना न चाहकर भी कहना पड़ रहा है कि जैनी लोग अपनी छद्म विनम्रता के द्वारा अपनी चतुरायी को अलंकृत करनें का स्वांग किया करते हैं आखिरकार उनके अतिरिक्त आग्रह और विद्यार्थी  प्रतिनिधियों की संम्पूर्ण निष्ठा के वादे नें मुझे अपनी सहमति देनें पर मजबूर ही कर दिया | प्राचार्य निर्मल कुमार जैन नें एक वर्ष के लिये प्राचार्य पद से छुट्टी ले ली और मुझे पदेन प्राचार्य का  कार्यभार संम्भालना पड़ा | दो हजार छात्रों वाले कालेज और सत्तर से अधिक स्टाफ वाले त्रिसंकायीय महाविद्यालय के प्राचार्य का ज्येष्ठ पुत्र व्याह की तैय्यारी कर रहा हो और स्टाफ को बारात में शामिल होनें का निमन्त्रण न दिया जाय ऐसा करना व्यवहारिकता , कालेज संचालन ,प्रशासन क्षमता और सामान्य सामाजिक द्रष्टि से किसी भी कोण से तर्क संगत नहीं माना जा सकता था | कालेज के प्रबन्धक महोदय भी हमारे बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और वे निश्चय ही चाहते रहे होंगें कि मैं उन्हें भी इस शुभ कार्य में सम्मिलित होनें के लिये आमन्त्रित करूँ | अब ये लाला लोगों की बारात तो थी नहीं जहां किन्हीं अज्ञात सोर्सों से अनाप -शनाप धन आता रहता है | प्राचार्य होना कोई धन्ना सेठ होना तो नहीं है | ईमानदार प्राचार्य के लिये उतनी कमायी भी कठिन हो जाती है जितनी कमायी कालेज का एक प्राध्यापक कर सकता है | फू -फ़ाँ के अतिरिक्त और कुछ तो मुझे प्राचार्य पद में अनुभव के रूप में मिला ही नहीं और सहज मानवता के नाते मैनें उस एक वर्ष के लिये फू -फ़ाँ भी छोड़ दी थी | यह सोचकर कि आगे चलकर यदि नियमित प्राचार्य लगा तो फू -फ़ाँ का आडंम्बर झेलना ही होगा | श्री रामकृष्ण परमहंस नें गंम्भीर जीवन मर्म को सरल और मनोरंजक द्रष्टान्तों द्वारा समझानें का प्रयास किया था | एक ऐसे ही  द्रष्टान्त में उन्होंने एक ऐसे नाग का जिक्र किया है जिसकी विष भरी फुत्कार से जंगल की उस पगडण्डी पर लोगों नें चलना छोड़ दिया था | जिस पगडन्डी के पास उसकी बांबीं थी एक पहुंचे हुये महात्मा को आस पास के लोगों नें अपनी व्यथा बतायी तो महात्मा जी उस पगडन्डी पर चल पड़े | बांबी के बाहर बैठे नाग नें एक विष भरी फुत्कार मारी और दौड़ना चाहा | महात्मा नें एक हथेली उठाकर अपनी आत्मशक्ति की दूर मारक प्रहारिका से आघात किया | नाग का शरीर लकवा ग्रस्त होकर छटपटानें लगा | महात्मा जी पास आये | नाग नें दया भरी आँखों से उनकी और देखा | महात्मा नें कहा वत्स मैं महात्मा हूँ संसार के सभी जीव जन्तुओं में मैं परमात्मा का अंश देखता हूँ | मैं तुम्हारा अहित नहीं चाहता वचन दो कि आगे इस पगडण्डी पर चलनें वाले किसी भी नर -नारी को विष भरी फुत्कार मार कर काटनें को नहीं दौड़ोगे | नाग नें सहमति में दयनीय भाव से सिर हिलाया | महात्मा जी उठकर पगडन्डी पर चले गये | वहां से फिर उन्होंने अपनी हंथेली फिर नाग की ओर की आत्मशक्ति से प्रहारिका को वापस लिया | नाग का शरीर चलायमान हो गया | बिना फुत्कार किये वह दौड़कर आया | महात्मा के चरणों में वह लोट -पोट हो गया | महात्मा नें आशीर्वाद दिया जाओ वत्स अपनी बांबीं में सुखपूर्वक अपना जीवन यापन करो और यह कहकर वह अपनें मार्ग पर चले गये | सृष्टि में सभी कुछ गिरता , बनता , बिगड़ता और थकता है | केवल काल की गति ही नहीं थकती | वर्ष पर वर्ष बीतते गये | काफी अन्तराल के बाद एक दिन वह सिद्ध महात्मा उसी मार्ग से गुजरे | उन्होनें देखा कि बांबी के पास एक क्षत -विक्षत नाग पड़ा हुआ है और उसके शरीर पर कई जगह चोंटें हैं | वे थोड़ा और नजदीक गये तो नाग नें उन्हें पहचान कर असहाय भाव से घिसट कर उन्हें प्रणाम करनें की कोशिश की | महात्मा जी नें उससे उसकी दुर्दशा का कारण जानना चाहा उसनें बताया कि महात्मा जी के आदेश के अनुसार वह चुपचाप पड़ा रहता था और रास्ते पर चलनें वाले चले जाते थे | कुछ समय बाद कुछ मनचले छोकरों की टोली उस राह  से गुजरी उन्होंने देखा कि एक नाग चुपचाप पड़ा है तो उनमें से सभी ने एक दो पत्थर उठाकर उस पर फेंक कर मार दिये | वे सब तो अपनी राह चले गये पर मैं तब से न जानें कितनें घाव लिये हुये पड़ा रहा हूँ | यह तो अद्रश्य की लीला है कि मैं अब तक जीवित हूँ | शायद आपके दर्शनों का सौभाग्य बदा था | महात्मा नें कहा अरे नागराज मैनें तो तुमसे सिर्फ यह कहा था कि किसी को दौड़कर काटना नहीं पर यह तो नहीं कहा था कि आत्मरक्षा के लिये फुत्कार भी मत मारना | अरे नागराज बिना फूं -फ़ां के उपद्रवी तत्व कभी भी सुधारे नहीं जा सकते | यह कहकर सिद्ध महात्मा नें नागराज के शरीर पर अपनी अभय मुद्रा वाली हथेली की शक्ति प्रेरित की | नागराज स्वस्थ्य हो गये , प्रणाम किया और अपनी फुत्कार की सच्ची कीमत पहचान ली | तो प्रिंसिपली की फू -फ़ां भी नागराज की फुत्कार वाली आत्मरक्षात्मक प्रक्रिया ही है उसे एक अमोघ शक्ति के रूप में स्वीकारनें की भूल नहीं करनी चाहिये | स्टाफ के सभी सदस्यों को और अपनें निकट संम्बन्धियों को रायबरेली ले जानें और वापस लानें का रेलभाड़ा ही इतना हो जाता कि उससे उबरनें में ही एकाध साल लग जाता | केशव प्रसाद पर भी इस भार को डालना मेरी आदर्श प्रियता के लिये एक चुनौती थी अतः मैनें सभी स्टाफ मेम्बर्स की मीटिंग बुलाकर उनपर अपनी असमर्थता जाहिर की और कहा कि राकेश उन्हीं का पढ़ाया हुआ विद्यार्थी है और अपनी जीवन संगनी को लेकर लौटकर उनके साथ चाय का एक  प्याला पीनें का गौरव प्राप्त करेगा | चलो स्टाफ से तो बच निकलनें का एक मार्ग निकाल लिया पर राकेश के दोस्तों से बच निकलनें का क्या मार्ग निकाला जाय और राकेश के मित्रों में उसके नाटकों में हीरोइन का पार्ट करनें वाली दो तरुणियाँ भी थीं जो इस बात पर आग्रहशील थीं कि उनके बिना बारात का जाना न हो सकेगा और राकेश की छोटी बहन भी उन तरुणियों के पक्ष में खड़ी थी | रेडियो स्टेशन के चीफ एनाउन्सर और उनकी कलाकार पुत्री को तो  शामिल होना ही था चलो तो चलनें दो इस बारात को त्रिशूलधारी भगवान् शंकर की बारात जैसा विपुल वैभव तो यहां देखनें को नहीं मिलेगा पर भारतीय विविधता की छोटी -मोटी झलक तो इसमें मिल ही सकेगी | दिल्ली से काशी विश्वनाथ में रिजर्वेशन करवा लिया जाय और दिल्ली तक टैक्सियों में चला जाय |  मन के किसी कोनें में यह प्रश्न  खड़ा हुआ इतनें सब झंझट की क्या जरूरत है सामाजिकता का इतना सब आडम्बर कुछ दिनों के बाद वर -वधू के व्यक्तिगत जीवन से बिल्कुल असम्बन्ध हो जायेगा | मानव कितना लाचार है | परंम्पराओं की श्रंखलायें उसे कितनी मजबूती से जकड़े हुये हैं | मन के किसी कोनें में मन की दीप्ति उभर आयी अरे पुत्र व्याहनें जा रहे हो तो यह तो सामर्थ्य का प्रतीक है लाचारी का नहीं | कवि हृदय है कविवर सुमित्रानन्दन पन्त की पंक्तिया मन में गूंजने लगीं , " शैवालिनी जाओ मिलो तुम गंग से , पवन तुम चूमों तरंगों ,के अधर , हा हृदय सब भांति तू लाचार है | "
(क्रमशः ) 

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