गतांक से आगे -
मिस्र , बेबोलीन ,चीन और भारत मानव सभ्यता के सबसे प्राचीनतम भू क्षेत्रों के रूप में विश्व के मानचित्र पर उभर आये हैं | पर इन सभ्यताओं से पहले भी न जानें कितनी सहस्त्राब्दियों तक मानव जाति अपनें अस्तित्व के संघर्ष में न जानें कितनें विधि -विधान रचती रही होगी | प्रारंम्भ में यह विधि विधान अधिकाँश में नकारात्मक प्रयोग ही रहे होंगें पर क्रमशः उनकी नकारात्मकता में ही कहीं कुछ सार्थक भी दिखाई पड़ने लगा होगा और तब उस तात्कालिक सार्थकता के आस -पास कुछ नये सामाजिक तानें -बानें बुनकर टिकाऊ विधि -विधानों की योजना बनायी गयी होगी | नर और नारी के मुक्त संम्बन्ध को वैवाहिक बन्धन में परिवर्तित करनें वाले कारक तत्व निश्चय ही प्रारंम्भ में एक प्रायोगिक व्यवस्था के रूप में ही उभर रहे होंगें पर फिर उनमें मानव जाति की सुरक्षा और निजता की पहचान के ऐसे सुअवसर दिखायी दिये जो सनातन स्थायित्व की रचना कर सकते थे और शायद इसीलिये वैवाहिक जीवन की परंम्परा हर देश में कुछ छोटे -मोटे अन्तर के साथ स्वीकार कर ली गयी है | महाभारत में ऋषि श्वेत केतु के माध्यम से एक कथा की श्रष्टि करके नर -नारी के स्थायी संम्बन्ध को संस्कार का रूप देनें का प्रयास काफी चर्चित हो चुका है पर यूनान , रोम और मिस्र की प्राचीन जनकथाओं में भी ऐसे तमाम प्रसंग पाये जाते हैं जहां मुक्त यौन संम्बन्ध को मर्यादित करनें का रोचक इतिहास मौजूद है | विवाह संम्बन्ध के स्थायित्व के पीछे संम्पत्ति के उत्तराधिकार की सुनिश्चितता तो रही ही होगी पर शायद उससे भी बड़ा एक कारण यह हो कि उसमें मानव जाति को मृत्यु को जीत लेनें की आशा झलकती हुयी दिखायी पड़ी | नर और नारी की अपनी निराली निजता दोनों के संयोग से उत्पन्न सन्तान में सुरक्षित रहकर आगे आनें वाली पीढ़ियों में अवतरित और प्रसारित होती रहती हैं | अपना शरीर नष्ट हो जानें पर भी अपना ही कुछ अत्यन्त गहरा आत्मबोध अपनी सन्तान के माध्यम से निरन्तर गतिमान रहेगा | इस सोच नें वैवाहिक संम्बन्ध को गहरी जड़ें प्रदान कर दीं और जैसा कि राहुल सांकृत्यायन जी ने कहा है कि पुत्र या पुत्री में ही माता -पिता का अमृत्व निहित होता है और इस अमृत्व के अतिरिक्त स्वर्ग और मोक्ष की धारणायें केवल कल्पना का विलास मात्र है | कामायनी में भी महामानव मनु के मन में जब अनन्त के गानों में सदैव गूंजने की कामना उठती है तो उन्हें श्रद्धा के सहचर्य में ही इसकी संम्भावना दिखायी पड़ती है | संम्भवतः यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के अनेकानेक संस्कारों में पुत्र या पुत्री का पाणिग्रहण संस्कार सबसे महत्वपूर्ण संस्कार बन कर उभरा है | मेरे मन में एक हल्के गर्व का भाव उदय हुआ | एक सुन्दर , सुशील पुत्रवधू का श्वसुर होना क्या कोई कम गर्व की बात है ? राकेश के माध्यम से ही क्या इस धरित्री पर मेरे आगमन की कथा निरन्तरता की ओर बढ़ती रहेगी ? पर मैनें तो अपनें महाविद्यालीय अध्ययन के दिनों में किसी और अमृत्व की की कल्पना की थी | उन दिनों साहित्य के विद्यार्थी अपनें को मानव मूल्यों के सबसे समर्थ प्रतीकों के रूप में संकेतिक करते रहते थे | कामर्स शिक्षा को तो वह बाजारू शिक्षा कहकर उपहास का पात्र बनाते थे और विज्ञान की शिक्षा को पदार्थवाद का नाम देकर अध्यात्म विरोधी बताया करते थे | आज इस लंम्बे जीवन काल में मेरे देखते -देखते वस्तुस्थिति बिल्कुल बदल गयी है | अब साहित्य की शिक्षा उपलब्धि के सबसे नीचे पायदान पर आ खड़ी हुयी है | अब साहित्य के नाम पर जो कुछ भी है , वह सब बाजारू है और जो बाजार में बिक सके वही सफल शब्द चितेरा है | किसी विश्वविद्यालय की एक गोष्ठी में एक विद्वान प्रोफ़ेसर नें ठीक ही कहा था कि यदि आप बिक नहीं सकते तो आधुनिक उपयोगितावाद की संस्कृति आप को लकवाग्रस्त कर देगी |अपनें प्रधानमंत्रित्व काल में अटल जी की कवितायें बिकाऊपन के नये ग्राफ रच रही थीं और तब वे स्वयं कहते सुनें जाते थे कि मैं बिक रहा हूँ | सफलता मेरे चरण चूम रही है | पर हम जिन दिनों अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन कर रहे थे , उस समय हमारी आँखों में सिनेमा के गीत लिखनें वाले घटिया स्तर के लोग थे और सिनेमायी सितारे और तारिकायें काल के जल प्रवाह में बबूले मात्र मानें जाते थे | हम श्रेष्ठ साहित्य को ही जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि मानते थे और यह मानकर चलते थे कि महान साहित्यकार ही संसार के महानतम व्यक्ति हैं | कि एक शैक्सपियर पर न जानें कितनें ब्रिटिश प्राईमिनिस्टर निछावर किये जा सकते हैं , कि एक कालिदास पर न जानें कितनें राजा -महाराजा भेंट चढ़ाये जा सकते हैं कि एक तुलसी पर अकबर की सारी महानता निछावर की जा सकती है | स्वान वृत्ति और साहित्यकार ऐसा सोचना भी मानसिक दिवालियेपन का सूचक था | पर अब सभी कुछ उलट गया है | लगता हैं मैं भी किसी मानसिक अपंगता के दौर से गुजर रहा हूँ | तभी तो कल स्वप्न में मुझे दिखा था कि मैं सिर के बल चल रहा हूँ | और मेरे दोनों पैर नभगामी मुद्रा में खड़े हैं | यह तो हुयी अब की बात , तब की बात यह है कि मैं भी कालजयी साहित्यकार होनें का स्वप्न देख रहा था | जब भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू स्वयं कई फर्लांग चलकर अपार भीड़ से गुजरकर अर्नाल्ड ट्वायनबी के स्वागत के लिये चले आते हों तब विचारों की पूंजी ही श्रेष्ठता में सबसे ऊंचा स्थान पाती थी | कहते हैं कि कविता का युग अब समाप्त हो चुका है | शायद यह ठीक भी हो | अब मानव जाति बहुत समझदार हो गयी है | हम सब वयस्क हो गये हैं | बालपन में कितना गाते -गुनगुनाते थे | प्रकृति से कितना लगाव था | चाँद- सितारे , जल धारायें ,पर्वत -शिखर , वृक्षावलियाँ , झूमते खेत , चहचहाते पक्षी , दौड़ते गौ वत्स , आदि सभी कितनें प्यारे लगते थे | बड़े हो जानें पर इन सबकी कीमत उपयोगिता बाद में आंकड़ों में लगनें लगती है | हिसाब -किताब के लिये भावना रहित भाषा भी सफल होती है और शायद इसीलिये अब गद्य का युग आ गया है | पर फिर भी न जानें क्यों हमारे भीतर छिपा बालपन हमें कविता की ओर मोड़ता रहता है | अंग्रेजी साहित्य के अध्य्यन के समय कीट्स के ओड्स की नक़ल पर कुछ बन्द पैबन्द बांधे थे | फिर लगा कि अंग्रेजी में लिखना शायद मेरे लिये इसलिये सहज सुलभ न हो क्योंकि मेरा सारा प्रारंम्भिक जीवन अवधी कन्नौजी से परिचारित होता रहा है | आफीसियल चिठ्ठी -पत्री लिखना और ललित साहित्य लिखना यह दोनों अलग -अलग अन्तर प्रेरणायें हैं और एक का कुशल चितेरा दूसरे का कुशल चितेरा बन सके , ऐसा बहुत कठिनाई से ही संम्भव हो पाता है फिर हिन्दी में ही कुछ काव्य रचना क्यों न की जाय ? कुछ बहुत अच्छा न भी लिखा जा सकेगा तो थोड़ा -बहुत पढ़नें लायक लिख ही जायेगा | एक हाबी के रूप में हिन्दी कविता को क्यों न स्वीकार कर लिया जाय ? तरुणायी के पहले दौर में गीतों की साधारण पंक्तियाँ भी मन पर कितना उद्वेलित करनें वाला प्रभाव डालती हैं | मुझे याद आता है कि शायद रमानाथ अवस्थी जी की यह दो लाइनें मुझे बहुत प्यारी लगनें लगी थीं , " सो न सका कल याद तुम्हारी आयी सारी रात , और दूर पर कहीं बजी शहनाई सारी रात | " आज इन पंक्तियों में मुझे एक असमर्थ छटपटाहट के अलावा और कुछ दिखायी नहीं पड़ता पर उन दिनों न जानें कैसी अज्ञात पीड़ा मन में भर जाती थी | इसी प्रकार मुक्त मिलन की ओर इशारा करती हुयी किसी अधभूले गीत की यह पंक्ति भी मुझे बड़ा प्रभावित करती थी , " पूछ लूँ मैं नाम तेरा , मिलन रजनी हो चुकी विच्छेद का है अब सबेरा | " आज मैं जानता हूँ कि इस पंक्ति में उस अमेरिकन कल्चर की झलक है जिसे War Mothers के रूप में जाना जाता है | देश की रक्षा के लिये द्वितीय महायुद्ध में जब देश के नवजवान युद्ध के लिये मोर्चे पर प्रस्थान करते थे तो प्रस्थान के पहले की रात में बहुत सी तरुणियाँ उनसे शारीरिक मिलन का संयोग रचाती थीं ऐसा करना वे देश पर न्यौछावर होनें वाली तरुणायी के उत्साह वर्धन के लिये करती थीं | इस संयोग से कुछ तरुणियाँ माँ भी बन जाती थीं जिन्हें War Mothers के नाम से जाना जाता था | संम्भवतः पूछ लूँ मैं नाम तेरा , मिलन रजनी हो चुकी विच्छेद का है अब सबेरा शायद इसी घटनाक्रम की ओर इंगित करता है | पर यह तो हुयी बौद्धिक विवेचना | मुक्त मिलन का अपना एक अलग आनन्द भी तो है | संतोषानन्द की इस पंक्ति में शायद यही भाव तो झलकता है , " न उम्र की सीमां हो , न धर्म का हो बन्धन |" तो तरुणायी का उफान मन में भावनाओं की एक नयी श्रष्टि कर जाता है | तरुण नारी देह अचानक अत्यन्त सुन्दर लगनें लगती है | जीव विज्ञानी इसे हारमोनल लहर क्रीड़ा के रूप में लेते हैं पर हम साहित्यकार तो इसे मन की तरंगों के रंग में ही व्याख्यायित कर पाते हैं |
तो फिर हिन्दी कविता में कुछ तुकबन्दी शुरू की | रोजी -रोटी के लिये अंग्रेजी अध्यापन का कार्य शुरू हुआ पर बीच -बीच में सनक आ जानें पर हिन्दी कविता की कसरत भी होती रही | काफी लंम्बे अन्तराल के बाद जब फोनेटिक्स के एक कोर्स के संम्बन्ध में चण्डीगढ़ जाना हुआ तो पंजाब विश्वविद्यालय के कुछेक मित्रों के बीच काव्य चर्चा हुयी | उन्होंने मेरी कविताओं को सुना -पढ़ा और राय दी कि इन्हें छपवा दिया जाय | अब प्रश्न यह था कि स्थापित कवियों की रचनायें छपना भी प्रकाशकों की कृपा पर निर्भर होता है फिर एक अचर्चित तुक्कड़बाज की रचना को कौन छापे ? इस समय सौभाग्य से सामाजिक शास्त्र के एक प्राध्यापक जो पी. एच. डी. के लिये शोध कार्य कर रहे थे , मेरे संम्पर्क में आये | अंग्रेजी में लिखे जा रहे उनके शोध प्रबन्ध को परिनिष्ठित अंग्रेजी में सजानें -संवारनें का मेरा सहयोग उन्हें प्रभावित कर गया और चूंकि वे स्वयं अपना शोध प्रबन्ध प्रकाशित करनें जा रहे थे इसलिये उन्होंने मेरी कविताओं के संग्रह को भी छाप देनें का प्रस्ताव किया | अब तक महाविद्यालय में अध्यापन कार्य में रत होनें के कारण न जानें क्यों मेरे मन में यह बात आयी कि मैं अपनी कविताओं पर एक -दो विद्वान आलोचकों की राय जान लूँ और इस प्रकार " वासुकि वीणां "के प्रकाशन की योजना सम्पूर्णता की ओर बढ़ चली | जो दो विद्वान आलोचक मैनें चुनें उनमें पहले थे जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग के डीन डा. नामवर सिंह और दूसरे थे पंजाब विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष इन्द्र नाथ मदान इन दोनों लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों की सम्मतियों ने मुझे प्रोत्साहित किया और गुंजलक मारकर बैठे फन उठाये ' वासुकि वीणां ' का आवरण पृष्ठ अवतरित हो गया | आप शायद जानना चाहें कि डा. नामवर सिंह और डा. इन्द्रनाथ मदान नें मेरे बेतुके तुक्कड़ों पर क्या कुछ कहा तो मैं आपकी जिज्ञासा की सन्तुष्टि के लिये उद्धत कर रहा हूँ |
सम्मतियाँ
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श्री विष्णु नारायण अवस्थी की कविताओं की राह से गुजरकर यह अहसास होता है कि इनके संवेदन शील मन को समकालीन वास्तव में गहरी ठेस लगी है | इनकी कविताओं में नैतिक , राजनैतिक और सामाजिक बोध बार -बार उबलकर बैठ जाता है | आस -पास इतना विकृत हो चुका है कि कवि इसे सह नहीं पा रहा है | | कभी वैश्या युग सभ्यता यानि तिजारती सभ्यता पर चोट की गयी है | ( वैश्या युग सभ्यता ) कभी जीवन के पतन पर ( पतन ) ,कभी आजादी के तीस सालों पर (नागफनी ) , तो कभी जनता की दशा पर ( जनता -पांचाली ) | इस तरह इनकी रचनाओं में अकुलाहट और छटपटाहट है , लेकिन कवि नें आशा का दामन पूरी तरह छोड़ा नहीं है | अवस्थी जी की कविताओं का विम्ब -विधान देहात की देन है | जिसमें एक तरह की सरलता और सहजता है | जो आधुनिकता की जटिलता से परहेज करती है | अवस्थी जी व्यंग्य कई स्थलों पर बड़ा सशक्त बन पड़ा है :- "जब चरम प्रतिष्ठा पर पहुँचें कवि की कविता जन श्री से हटकर पद्म श्री बन जाती है | " पद्म श्री का युग तो बीत गया है , लेकिन पुरुष्कारों का अभी कायम है |
Inder Nath Madan
Retd. Head , Hindi Department
Punjab University , Chandigarh
17-01-79
श्री विष्णु नारायण अवस्थी की कविताओं को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि वे किसी के प्रोत्साहन के मोहताज नहीं हैं | उनकी वाणीं में बड़ा आत्मविश्वास और ओज है | अपनी कविताओं के इस संग्रह को उन्होनें ' वासुकि वीणां ' नाम इसलिये दिया है कि वे इस ' जहर बुझी पीढ़ी के उद्घोषक ' हैं | अपनें समाज से उन्हें इतना असन्तोष है कि उनका वश चले तो '' हर कूपवापिका सरिता में जहर घोल दें | "उनकी वाणीं में विध्वंस का कुछ वैसा ही स्वर सुनायी पड़ता है जैसा सन 40 के आसपास दिनकर , अंचल आदि की विपथगा क्रान्ति वाली कविताओं में सुना गया था | किन्तु इस कारण उनकी अद्वितीयता में सन्देह नहीं होना चाहिये | वे जन की सर्वोपरि सत्ता को स्वीकारते हुये भी यह मानते हैं कि " मेरा व्यक्तित्व न पंक्ति -बद्धता को अर्पित "| यही नहीं बल्कि अवस्थी जी " अरविन्द कल्पना के पावन उन्नयक " भी हैं | निःसन्देह " वासुकि वीणां " में कुछ और ढंग की भी कवितायें हैं | कुछ नितान्त निजी और एकान्त अनुभवों की | किन्तु ऐसी निजी कविताओं में भी कवि का सार्वजनिक बोध सतत जाग्रत है और वहां भी स्वर में वही ललकार है | मुझे पूरी आशा है कि स्रह्रदय समाज ऐसे उद्दात्त और विप्लवी स्वर का यथोचित सम्मान करेगा |
Namwar Singh 12-02-79
Dean , faculity of Languages
Jawaharlal Nehru University, New Delhi
(क्रमशः )
मिस्र , बेबोलीन ,चीन और भारत मानव सभ्यता के सबसे प्राचीनतम भू क्षेत्रों के रूप में विश्व के मानचित्र पर उभर आये हैं | पर इन सभ्यताओं से पहले भी न जानें कितनी सहस्त्राब्दियों तक मानव जाति अपनें अस्तित्व के संघर्ष में न जानें कितनें विधि -विधान रचती रही होगी | प्रारंम्भ में यह विधि विधान अधिकाँश में नकारात्मक प्रयोग ही रहे होंगें पर क्रमशः उनकी नकारात्मकता में ही कहीं कुछ सार्थक भी दिखाई पड़ने लगा होगा और तब उस तात्कालिक सार्थकता के आस -पास कुछ नये सामाजिक तानें -बानें बुनकर टिकाऊ विधि -विधानों की योजना बनायी गयी होगी | नर और नारी के मुक्त संम्बन्ध को वैवाहिक बन्धन में परिवर्तित करनें वाले कारक तत्व निश्चय ही प्रारंम्भ में एक प्रायोगिक व्यवस्था के रूप में ही उभर रहे होंगें पर फिर उनमें मानव जाति की सुरक्षा और निजता की पहचान के ऐसे सुअवसर दिखायी दिये जो सनातन स्थायित्व की रचना कर सकते थे और शायद इसीलिये वैवाहिक जीवन की परंम्परा हर देश में कुछ छोटे -मोटे अन्तर के साथ स्वीकार कर ली गयी है | महाभारत में ऋषि श्वेत केतु के माध्यम से एक कथा की श्रष्टि करके नर -नारी के स्थायी संम्बन्ध को संस्कार का रूप देनें का प्रयास काफी चर्चित हो चुका है पर यूनान , रोम और मिस्र की प्राचीन जनकथाओं में भी ऐसे तमाम प्रसंग पाये जाते हैं जहां मुक्त यौन संम्बन्ध को मर्यादित करनें का रोचक इतिहास मौजूद है | विवाह संम्बन्ध के स्थायित्व के पीछे संम्पत्ति के उत्तराधिकार की सुनिश्चितता तो रही ही होगी पर शायद उससे भी बड़ा एक कारण यह हो कि उसमें मानव जाति को मृत्यु को जीत लेनें की आशा झलकती हुयी दिखायी पड़ी | नर और नारी की अपनी निराली निजता दोनों के संयोग से उत्पन्न सन्तान में सुरक्षित रहकर आगे आनें वाली पीढ़ियों में अवतरित और प्रसारित होती रहती हैं | अपना शरीर नष्ट हो जानें पर भी अपना ही कुछ अत्यन्त गहरा आत्मबोध अपनी सन्तान के माध्यम से निरन्तर गतिमान रहेगा | इस सोच नें वैवाहिक संम्बन्ध को गहरी जड़ें प्रदान कर दीं और जैसा कि राहुल सांकृत्यायन जी ने कहा है कि पुत्र या पुत्री में ही माता -पिता का अमृत्व निहित होता है और इस अमृत्व के अतिरिक्त स्वर्ग और मोक्ष की धारणायें केवल कल्पना का विलास मात्र है | कामायनी में भी महामानव मनु के मन में जब अनन्त के गानों में सदैव गूंजने की कामना उठती है तो उन्हें श्रद्धा के सहचर्य में ही इसकी संम्भावना दिखायी पड़ती है | संम्भवतः यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के अनेकानेक संस्कारों में पुत्र या पुत्री का पाणिग्रहण संस्कार सबसे महत्वपूर्ण संस्कार बन कर उभरा है | मेरे मन में एक हल्के गर्व का भाव उदय हुआ | एक सुन्दर , सुशील पुत्रवधू का श्वसुर होना क्या कोई कम गर्व की बात है ? राकेश के माध्यम से ही क्या इस धरित्री पर मेरे आगमन की कथा निरन्तरता की ओर बढ़ती रहेगी ? पर मैनें तो अपनें महाविद्यालीय अध्ययन के दिनों में किसी और अमृत्व की की कल्पना की थी | उन दिनों साहित्य के विद्यार्थी अपनें को मानव मूल्यों के सबसे समर्थ प्रतीकों के रूप में संकेतिक करते रहते थे | कामर्स शिक्षा को तो वह बाजारू शिक्षा कहकर उपहास का पात्र बनाते थे और विज्ञान की शिक्षा को पदार्थवाद का नाम देकर अध्यात्म विरोधी बताया करते थे | आज इस लंम्बे जीवन काल में मेरे देखते -देखते वस्तुस्थिति बिल्कुल बदल गयी है | अब साहित्य की शिक्षा उपलब्धि के सबसे नीचे पायदान पर आ खड़ी हुयी है | अब साहित्य के नाम पर जो कुछ भी है , वह सब बाजारू है और जो बाजार में बिक सके वही सफल शब्द चितेरा है | किसी विश्वविद्यालय की एक गोष्ठी में एक विद्वान प्रोफ़ेसर नें ठीक ही कहा था कि यदि आप बिक नहीं सकते तो आधुनिक उपयोगितावाद की संस्कृति आप को लकवाग्रस्त कर देगी |अपनें प्रधानमंत्रित्व काल में अटल जी की कवितायें बिकाऊपन के नये ग्राफ रच रही थीं और तब वे स्वयं कहते सुनें जाते थे कि मैं बिक रहा हूँ | सफलता मेरे चरण चूम रही है | पर हम जिन दिनों अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन कर रहे थे , उस समय हमारी आँखों में सिनेमा के गीत लिखनें वाले घटिया स्तर के लोग थे और सिनेमायी सितारे और तारिकायें काल के जल प्रवाह में बबूले मात्र मानें जाते थे | हम श्रेष्ठ साहित्य को ही जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि मानते थे और यह मानकर चलते थे कि महान साहित्यकार ही संसार के महानतम व्यक्ति हैं | कि एक शैक्सपियर पर न जानें कितनें ब्रिटिश प्राईमिनिस्टर निछावर किये जा सकते हैं , कि एक कालिदास पर न जानें कितनें राजा -महाराजा भेंट चढ़ाये जा सकते हैं कि एक तुलसी पर अकबर की सारी महानता निछावर की जा सकती है | स्वान वृत्ति और साहित्यकार ऐसा सोचना भी मानसिक दिवालियेपन का सूचक था | पर अब सभी कुछ उलट गया है | लगता हैं मैं भी किसी मानसिक अपंगता के दौर से गुजर रहा हूँ | तभी तो कल स्वप्न में मुझे दिखा था कि मैं सिर के बल चल रहा हूँ | और मेरे दोनों पैर नभगामी मुद्रा में खड़े हैं | यह तो हुयी अब की बात , तब की बात यह है कि मैं भी कालजयी साहित्यकार होनें का स्वप्न देख रहा था | जब भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू स्वयं कई फर्लांग चलकर अपार भीड़ से गुजरकर अर्नाल्ड ट्वायनबी के स्वागत के लिये चले आते हों तब विचारों की पूंजी ही श्रेष्ठता में सबसे ऊंचा स्थान पाती थी | कहते हैं कि कविता का युग अब समाप्त हो चुका है | शायद यह ठीक भी हो | अब मानव जाति बहुत समझदार हो गयी है | हम सब वयस्क हो गये हैं | बालपन में कितना गाते -गुनगुनाते थे | प्रकृति से कितना लगाव था | चाँद- सितारे , जल धारायें ,पर्वत -शिखर , वृक्षावलियाँ , झूमते खेत , चहचहाते पक्षी , दौड़ते गौ वत्स , आदि सभी कितनें प्यारे लगते थे | बड़े हो जानें पर इन सबकी कीमत उपयोगिता बाद में आंकड़ों में लगनें लगती है | हिसाब -किताब के लिये भावना रहित भाषा भी सफल होती है और शायद इसीलिये अब गद्य का युग आ गया है | पर फिर भी न जानें क्यों हमारे भीतर छिपा बालपन हमें कविता की ओर मोड़ता रहता है | अंग्रेजी साहित्य के अध्य्यन के समय कीट्स के ओड्स की नक़ल पर कुछ बन्द पैबन्द बांधे थे | फिर लगा कि अंग्रेजी में लिखना शायद मेरे लिये इसलिये सहज सुलभ न हो क्योंकि मेरा सारा प्रारंम्भिक जीवन अवधी कन्नौजी से परिचारित होता रहा है | आफीसियल चिठ्ठी -पत्री लिखना और ललित साहित्य लिखना यह दोनों अलग -अलग अन्तर प्रेरणायें हैं और एक का कुशल चितेरा दूसरे का कुशल चितेरा बन सके , ऐसा बहुत कठिनाई से ही संम्भव हो पाता है फिर हिन्दी में ही कुछ काव्य रचना क्यों न की जाय ? कुछ बहुत अच्छा न भी लिखा जा सकेगा तो थोड़ा -बहुत पढ़नें लायक लिख ही जायेगा | एक हाबी के रूप में हिन्दी कविता को क्यों न स्वीकार कर लिया जाय ? तरुणायी के पहले दौर में गीतों की साधारण पंक्तियाँ भी मन पर कितना उद्वेलित करनें वाला प्रभाव डालती हैं | मुझे याद आता है कि शायद रमानाथ अवस्थी जी की यह दो लाइनें मुझे बहुत प्यारी लगनें लगी थीं , " सो न सका कल याद तुम्हारी आयी सारी रात , और दूर पर कहीं बजी शहनाई सारी रात | " आज इन पंक्तियों में मुझे एक असमर्थ छटपटाहट के अलावा और कुछ दिखायी नहीं पड़ता पर उन दिनों न जानें कैसी अज्ञात पीड़ा मन में भर जाती थी | इसी प्रकार मुक्त मिलन की ओर इशारा करती हुयी किसी अधभूले गीत की यह पंक्ति भी मुझे बड़ा प्रभावित करती थी , " पूछ लूँ मैं नाम तेरा , मिलन रजनी हो चुकी विच्छेद का है अब सबेरा | " आज मैं जानता हूँ कि इस पंक्ति में उस अमेरिकन कल्चर की झलक है जिसे War Mothers के रूप में जाना जाता है | देश की रक्षा के लिये द्वितीय महायुद्ध में जब देश के नवजवान युद्ध के लिये मोर्चे पर प्रस्थान करते थे तो प्रस्थान के पहले की रात में बहुत सी तरुणियाँ उनसे शारीरिक मिलन का संयोग रचाती थीं ऐसा करना वे देश पर न्यौछावर होनें वाली तरुणायी के उत्साह वर्धन के लिये करती थीं | इस संयोग से कुछ तरुणियाँ माँ भी बन जाती थीं जिन्हें War Mothers के नाम से जाना जाता था | संम्भवतः पूछ लूँ मैं नाम तेरा , मिलन रजनी हो चुकी विच्छेद का है अब सबेरा शायद इसी घटनाक्रम की ओर इंगित करता है | पर यह तो हुयी बौद्धिक विवेचना | मुक्त मिलन का अपना एक अलग आनन्द भी तो है | संतोषानन्द की इस पंक्ति में शायद यही भाव तो झलकता है , " न उम्र की सीमां हो , न धर्म का हो बन्धन |" तो तरुणायी का उफान मन में भावनाओं की एक नयी श्रष्टि कर जाता है | तरुण नारी देह अचानक अत्यन्त सुन्दर लगनें लगती है | जीव विज्ञानी इसे हारमोनल लहर क्रीड़ा के रूप में लेते हैं पर हम साहित्यकार तो इसे मन की तरंगों के रंग में ही व्याख्यायित कर पाते हैं |
तो फिर हिन्दी कविता में कुछ तुकबन्दी शुरू की | रोजी -रोटी के लिये अंग्रेजी अध्यापन का कार्य शुरू हुआ पर बीच -बीच में सनक आ जानें पर हिन्दी कविता की कसरत भी होती रही | काफी लंम्बे अन्तराल के बाद जब फोनेटिक्स के एक कोर्स के संम्बन्ध में चण्डीगढ़ जाना हुआ तो पंजाब विश्वविद्यालय के कुछेक मित्रों के बीच काव्य चर्चा हुयी | उन्होंने मेरी कविताओं को सुना -पढ़ा और राय दी कि इन्हें छपवा दिया जाय | अब प्रश्न यह था कि स्थापित कवियों की रचनायें छपना भी प्रकाशकों की कृपा पर निर्भर होता है फिर एक अचर्चित तुक्कड़बाज की रचना को कौन छापे ? इस समय सौभाग्य से सामाजिक शास्त्र के एक प्राध्यापक जो पी. एच. डी. के लिये शोध कार्य कर रहे थे , मेरे संम्पर्क में आये | अंग्रेजी में लिखे जा रहे उनके शोध प्रबन्ध को परिनिष्ठित अंग्रेजी में सजानें -संवारनें का मेरा सहयोग उन्हें प्रभावित कर गया और चूंकि वे स्वयं अपना शोध प्रबन्ध प्रकाशित करनें जा रहे थे इसलिये उन्होंने मेरी कविताओं के संग्रह को भी छाप देनें का प्रस्ताव किया | अब तक महाविद्यालय में अध्यापन कार्य में रत होनें के कारण न जानें क्यों मेरे मन में यह बात आयी कि मैं अपनी कविताओं पर एक -दो विद्वान आलोचकों की राय जान लूँ और इस प्रकार " वासुकि वीणां "के प्रकाशन की योजना सम्पूर्णता की ओर बढ़ चली | जो दो विद्वान आलोचक मैनें चुनें उनमें पहले थे जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग के डीन डा. नामवर सिंह और दूसरे थे पंजाब विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष इन्द्र नाथ मदान इन दोनों लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों की सम्मतियों ने मुझे प्रोत्साहित किया और गुंजलक मारकर बैठे फन उठाये ' वासुकि वीणां ' का आवरण पृष्ठ अवतरित हो गया | आप शायद जानना चाहें कि डा. नामवर सिंह और डा. इन्द्रनाथ मदान नें मेरे बेतुके तुक्कड़ों पर क्या कुछ कहा तो मैं आपकी जिज्ञासा की सन्तुष्टि के लिये उद्धत कर रहा हूँ |
सम्मतियाँ
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श्री विष्णु नारायण अवस्थी की कविताओं की राह से गुजरकर यह अहसास होता है कि इनके संवेदन शील मन को समकालीन वास्तव में गहरी ठेस लगी है | इनकी कविताओं में नैतिक , राजनैतिक और सामाजिक बोध बार -बार उबलकर बैठ जाता है | आस -पास इतना विकृत हो चुका है कि कवि इसे सह नहीं पा रहा है | | कभी वैश्या युग सभ्यता यानि तिजारती सभ्यता पर चोट की गयी है | ( वैश्या युग सभ्यता ) कभी जीवन के पतन पर ( पतन ) ,कभी आजादी के तीस सालों पर (नागफनी ) , तो कभी जनता की दशा पर ( जनता -पांचाली ) | इस तरह इनकी रचनाओं में अकुलाहट और छटपटाहट है , लेकिन कवि नें आशा का दामन पूरी तरह छोड़ा नहीं है | अवस्थी जी की कविताओं का विम्ब -विधान देहात की देन है | जिसमें एक तरह की सरलता और सहजता है | जो आधुनिकता की जटिलता से परहेज करती है | अवस्थी जी व्यंग्य कई स्थलों पर बड़ा सशक्त बन पड़ा है :- "जब चरम प्रतिष्ठा पर पहुँचें कवि की कविता जन श्री से हटकर पद्म श्री बन जाती है | " पद्म श्री का युग तो बीत गया है , लेकिन पुरुष्कारों का अभी कायम है |
Inder Nath Madan
Retd. Head , Hindi Department
Punjab University , Chandigarh
17-01-79
श्री विष्णु नारायण अवस्थी की कविताओं को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि वे किसी के प्रोत्साहन के मोहताज नहीं हैं | उनकी वाणीं में बड़ा आत्मविश्वास और ओज है | अपनी कविताओं के इस संग्रह को उन्होनें ' वासुकि वीणां ' नाम इसलिये दिया है कि वे इस ' जहर बुझी पीढ़ी के उद्घोषक ' हैं | अपनें समाज से उन्हें इतना असन्तोष है कि उनका वश चले तो '' हर कूपवापिका सरिता में जहर घोल दें | "उनकी वाणीं में विध्वंस का कुछ वैसा ही स्वर सुनायी पड़ता है जैसा सन 40 के आसपास दिनकर , अंचल आदि की विपथगा क्रान्ति वाली कविताओं में सुना गया था | किन्तु इस कारण उनकी अद्वितीयता में सन्देह नहीं होना चाहिये | वे जन की सर्वोपरि सत्ता को स्वीकारते हुये भी यह मानते हैं कि " मेरा व्यक्तित्व न पंक्ति -बद्धता को अर्पित "| यही नहीं बल्कि अवस्थी जी " अरविन्द कल्पना के पावन उन्नयक " भी हैं | निःसन्देह " वासुकि वीणां " में कुछ और ढंग की भी कवितायें हैं | कुछ नितान्त निजी और एकान्त अनुभवों की | किन्तु ऐसी निजी कविताओं में भी कवि का सार्वजनिक बोध सतत जाग्रत है और वहां भी स्वर में वही ललकार है | मुझे पूरी आशा है कि स्रह्रदय समाज ऐसे उद्दात्त और विप्लवी स्वर का यथोचित सम्मान करेगा |
Namwar Singh 12-02-79
Dean , faculity of Languages
Jawaharlal Nehru University, New Delhi
(क्रमशः )
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