गतांक से आगे -
अब जब घटनाओं के विचित्र किन्तु सुनियोजित समुच्चय से यह सुनिश्चित ही हो गया कि गौड़ ब्राम्हण कालेज रोहतक का प्राचार्य पद मेरा अभीष्ट नहीं है तो फिर अब पारिवारिक प्रगति की संम्भावनीय योजनायें क्यों न सोची जांय | विभागाध्यक्ष तो हूँ ही और कहीं कुछ मिलना होगा तो कालचक्र यथा समय संम्भावित राहें दिखा देगा | चारो बच्चे कैश्योर्य पार कर तरुणायी में प्रवेश कर गये हैं | कालेज और विश्वविद्यालय की सहशिक्षा झूठे -सच्चे रोमान्स के छलावे तो रचती ही रहती है | नाटकों की नायिकायें और नायक वास्तविक जीवन के नायक और नायिका किसी विरल संयोग से ही बन पाते हैं | चलते रहेंगें ये रोमान्टिक सपनों के दौर | आनें दो तरुणायी की मौज भरी बसन्ती बयारें | जब समय मेरे हस्तक्षेप की मांग करेगा तो मैं सार्थक या निरर्थक वात्सल्य भरे हस्तक्षेप का प्रयास करूंगा | पर अब तो समस्या है आर्थिक धरातल पर सुद्रढ़ रूप से खड़ा होकर सिर ऊँचा रखनें की | मनुष्य का सोचना ही तो सब कुछ नहीं है | मैनें भी तो सोचा था कि बड़ा बेटा राकेश अंग्रेजी या हिन्दी में एम. ए. करके किसी कालेज में प्रवक्ता लग जायेगा | एक अध्यापक होनें के नाते मैं अपनें अध्यापन कार्य को हीन भाव से देखनें का आदी नहीं बना था जैसा कि मेरे कई साथियों का सहज स्वभाव बन गया था | उन्हें अध्यापन में अतिरिक्त आय के कोई श्रोत नहीं दिखायी पड़ते थे और कोई भी कार्य जिसमें अतिरिक्त आय या अतिरिक्त सुविधायें न हों उनकी नजर में उपेक्षा के योग्य था | प्रवेश का और कोई द्वार न खोल पानें के कारण वे किसी तरह जोड़ -तोड़ कर कालेज में प्रवेश पा सके थे | पर न जानें क्यों ,मुझे ऐसा लगनें लगा था कि अध्यापन मेरे साँसों का संगीत भरा सरगम है और जब मेरे क्लास के विद्यार्थी अतृप्त नयनों से मेरा लेक्चर सुननें के बाद मेरी ओर देखते तो मुझे एक वर्णानातीत आनन्द का अनुभव होता था पर पिता नें जिस कार्य में सफलता पायी हो वही कार्य सन्तान की सफलता का क्षेत्र बनें ऐसा कोई अनिवार्य नियम प्रकृति नें नहीं रचा है | मुझे नहीं लगता कि साहित्य के सृजक महारथियों के पुत्र साहित्य रचना के साधारण रथी भी बन पाये हों | हाँ यह दूसरी बात है कि उन्होंने अन्य मार्गों से उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की हो | हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा की सृजनात्मक झलक हमें उनकी वंश परंम्परा में दिखायी नहीं पड़ती | हरिवंश राय बच्चन का काव्य वैभव उनके पुत्रों में नहीं है यद्यपि अभिताभ नें प्रसिद्ध , अभिनय और प्रभाव की द्रष्टि से उन्हें मीलों पीछे छोड़ दिया है | मुझे याद आता है कि अंग्रेजी के एक अच्छे जर्नलिस्ट जो एक बड़े अखबार से जुड़े थे इस बात से परेशान रहते थे कि उनका बेटा अंग्रेजी में फिसड्डी था | तो फिर अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में ही परास्नातक स्तर पर राकेश द्वितीय श्रेणीं ही प्राप्त कर सका तो इसके लिये मैं उसे दोषी कैसे ठहराऊँ | महाविद्यालयों में प्रवक्ता पद की प्रविष्टि अब सेकेण्ड क्लास से संम्भव नहीं थी कम से कम फर्स्ट क्लास तो चाहिये ही और ऊपर से डाक्ट्रेट हो तो और भी अच्छा | अब अगर मैं राकेश को किसी से कह सुनकर रिसर्च में लगा भी दूँ तो इसके लिये कई वर्ष का समय अपेक्षित होगा और यदि डिवीजन इम्प्रूवमेन्ट की बात कहूँ तो तो वह भी एक अन्धकार में लगायी हुयी छलांग ही होगी | सोचा क्यों न उसे सरकारी नौकरी या बैंक की लिपकीय परीक्षाओं में बैठनें की बात कहूँ | आखिर सभी I.A.S.आफीसर तो बनते नहीं और ना ही सभी प्रथम श्रेणीं की राज्य नौकरियाँ पाते हैं | बैंक का प्रोवेशनरी आफीसर का टेस्ट भी पास करना कोई सरल बात नहीं है | मन में सोचा आफ़ीसरी का टेस्ट यदि क्लियर नहीं होता तो लिपिक का ही क्लियर कर ले | किसी राष्ट्रीयकृत बैंक में इन्ट्री हो जायेगी तो समय के साथ -साथ कठिन परिश्रम के द्वारा समय से पहले प्रमोशन भी अर्जित किये जा सकते हैं | उन दिनों बैंक में घुसनें के लिये जिन परीक्षाओं का आयोजन किया जा रहा था उनके प्रश्न पत्र गोल -गोल घेरों और बिन्दुओं से भरे होते थे | प्रश्न पत्र और उत्तर पुस्तिकायें अलग न होकर एक साथ ही होते थे यानि वही प्रश्न पत्र और वही उत्तर पुस्तिका | कहीं टिक करना ,कहीं खाली खानों को काला करना | सामान्य ज्ञान , अंक गणित , लिपकीय क्षमता और सामान्य अंग्रेजी ज्ञान , इनका टेस्ट खाली स्क्वायरों को काला करके या शायद टिक लगाकर लिया जाता था | पर इनके अलावा अंग्रेजी का एक Descriptive टेस्ट भी होता था जिसमें किसी विषय पर 200 शब्दों का एक निबन्ध लिखना होता था | यह टेस्ट 25 या 50 ठीक याद नहीं आता का था | मैं समझता हूँ कि शायद कुछ बैंकों नें मिल जुल कर किसी अच्छी साख प्राप्त Examination एजेन्सी को भिन्न -भिन्न राज्यों में परीक्षा लेनें की जिम्मेवारी सौंप रखी थी | कुछ बैंक शायद अपनें इम्तहान की अलग से भी व्यवस्था करते थे | बी. काम. में पढ़ने वाले मेरे कई विद्यार्थी इन परीक्षाओं में सफल हो चुके थे | पर राकेश का बैक ग्राउन्ड मानवकीय का था और मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि वो इस प्रकार के अजीबो -गरीब लगनें वाले प्रश्न पत्रों को हल कर पायेगा | आर्ट्स के विद्यार्थी उन दिनों लंम्बे -लंम्बे लेख लिख कर प्रश्नों के उत्तर देते थे | सभी उत्तर वर्णानात्मक होते थे | चार संम्भावित उत्तरों में से कौन सा उत्तर सही है इसके लिये उसी उत्तर के नम्बर वाले खानें को काला करना या टिक लगाना हम लोगों के लिये कुछ अजीब सा लग रहा था | आज तो यह एक सामान्य बात हो गयी है अब तो 80 प्रतिशत से ऊपर नम्बर लेनें वाला विद्यार्थी भी समग्र रूप से दो सौ शब्दों का एक निबन्ध भी लिख दे ऐसा संम्भव नहीं दिखायी पड़ता | हाँ कई संम्भावित उत्तरों में से ठीक उत्तर खोज लेनें की कला वे न जानें कैसे सीख जाते हैं | यह टिक मार्क परीक्षा प्रणाली तकनीकी दिमाग तो निकाल रही है पर मुझे नहीं लगता कि मौलिक प्रतिभा का विकास भी इस प्रणाली से उसी प्रकार से संम्भव हो पायेगा जैसी संम्भावना हमारी पुरानी यूनिवर्सिटी शिक्षा प्रणाली में थी |
राकेश की दिली इच्छा तो यही थी कि उसे डिवीजन इम्प्रूवमेन्ट का एक मौक़ा दिया जाय | शायद उसे अपनें भीतर यह लग रहा था कि उसनें अपनें पिता को निराश किया है | कई बार मैं सोचता हूँ कि साहित्य के विद्यार्थी काफी लंम्बे समय तक कल्पना लोक में विचरण किया करते हैं | उन्हें लगता है कि साहित्य रचना और साहित्य आस्वादन ही मानव जीवन जीनें का परम सुख है पर मेरे अनुभव नें मुझे बताया था कि केवल शाब्दिक समृद्धता पारिवारिक जीवन का सुखद संचालन नहीं कर सकती | अतः मैनें उसपर मनोवैज्ञानिक दबाव डालकर बैंकिंग परीक्षाओं बैठनें के लिये बाध्य सा कर दिया | ऐसा करनें के लिये हो सकता है कभी कुछ ऐसा भी कह दिया हो जो अनुचित रहा हो पर उसके छोटे दो भाई और बहन तभी पूरी तरह सुशिक्षित और सुस्थापित किये जा सकते थे | जब राकेश स्वतन्त्र रूप से अपनी जीविका अर्जित करनें में समर्थ हो जाय | अभी उस दिन अखबार में पढ़ा कि राजदरबारी के लेखक श्री लाल शुक्ल को उनके अन्तिम दिनों में उ. प्र. के राज्यपाल नें अस्पताल में जाकर पांच लाख का चेक भेंट किया मन में दुःख और सुख का मिला-जुला अजीब दौर चल पड़ा | समाज में पाया जाने वाला गौरव ही एक श्रेष्ठ लेखक के लिये सबसे बड़ा सम्मान होता है | अंग्रेजी और अन्य योरोपीय भाषाओं के लेखक आर्थिक द्रष्टि से भी इसलिये संम्पन्न और समर्थ हो जाते हैं क्योंकि उन भाषाओं को बोलनें वाले लोग नयी रचनाओं को खरीदकर पढ़ने में वैसा ही गर्व महसूस करते हैं जैसा नयी कार या नया आई पैड ख़रीदनें में | कितनी बड़ी विडंम्बना है कि लगभग आधी अरब आबादी वाला हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र अपनें श्रेष्ठतम लेखकों को भी आर्थिक हासिये पर जीनें के लिये मजबूर कर देता है | वह कौन सा दिन आयेगा जब सृजनात्मक प्रतिभा तिकड़मी प्रतिभा को अपनें समकक्ष बैठनें की इजाजत नहीं देगी | और कौन जानें ऐसा दिन कभी आ भी पायेगा या नहीं ? डा. जानसन और बर्नाड शाह अभी हमारे लिये कहानी मात्र हैं |
दिल्ली में आयोजित पहली लिपिक परीक्षा राकेश के लिये केवल नये प्रश्न पत्रों की रूप रेखा और उत्तर प्रणाली जाननें का अनुभव दे सकी | दूसरी परीक्षा इस अनुभव को कुछ और गहराकर समझ के स्तर तक ले आयी | लगभग आठ -नौ महीनें बाद शायद गाजियाबाद में आयोजित एक परीक्षा के बाद उसनें घर आकर माँ को विश्वास भरे स्वर में बताया कि वह लिखित परीक्षा पास हो जायेगा पर उसके बाद इन्टरव्यूह भी है | इन्टरव्यूह के नम्बर जुड़ जानें के बाद ही मेरिट लिस्ट बनती है और जितनी रिक्तियां होती हैं मेरिट लिस्ट के ऊपर से उतनें ही सफलार्थियों को नियुक्ति पत्र भेजा जाता है | स्पष्ट याद नहीं पर शायद कुछ महीनें बाद राकेश का रोल न. और नाम परीक्षा उत्तीर्ण करनें वाले सूची में सम्मिलित पाया गया | कुछ अरसे के बाद साक्षात्कार का पत्र आया और उसे दिल्ली के किसी बैंकिग संस्थान में आनें के लिये कहा गया | साक्षात्कार में जानें से पहले जब वह मेरे चरणस्पर्श करनें आया तो मैनें उसकी पीठ तो थपथपा दी पर कुछ कह न सका | चारो तरफ सुननें में आ रहा था कि इन्टरव्यूह हेराफेरी करनें का सबसे सफल माध्यम है कि जो परीक्षार्थी लिखित परीक्षा में 80 प्रतिशत नम्बर लेता है उसे कई बार साक्षात्कार में केवल 40 प्रतिशत नम्बर मिलते हैं और जो परीक्षार्थी लिखित परीक्षा में केवल 40 प्रतिशत नम्बर लेता है उसे साक्षात्कार में कई बार 80 प्रतिशत नम्बर मिल जाते हैं | इधर -उधर अखबारों में विशेषज्ञों की राय भी पढ़ी थी | कहा गया था कि लिखित परीक्षा से पर्सनाल्टी टेस्ट बिल्कुल भिन्न होता है | दूसरों के साथ आपकी बात -चीत और उन पर पड़ने वाला प्रभाव केवल परसनाल्टी टेस्ट से ही संम्भव है | लिखित परीक्षा से इसका कोई संम्बन्ध नहीं है | कई बार कई घोंचू परीक्षार्थी लिखित परीक्षा अच्छे -खासे अंक अर्जित कर लेते हैं पर व्यवहारिक जीवन में वे जिस संस्था से जुड़ते हैं उसे आगे बढ़ानें के बजाय पीछे धकियाते रहते हैं | मुझे याद आता है कि इन्टरव्यूह को लेकर यह चर्चा काफी लंम्बे समय तक चली थी क्योंकि भारत सरकार की नौकरियों में भी इन्टरव्यूह के माध्यम से कई घपले प्रकाश में आये थे | अन्त में इन्टरव्यूह के लिये निर्धारित अंकों को 100 और फिर शायद 100 को फिर 50 में बदल दिया गया था | बैंकिंग सर्विस के इन्टरव्यूह में भी संम्भवतः उस समय 50 अंक ही रहे हों |
(क्रमशः )
अब जब घटनाओं के विचित्र किन्तु सुनियोजित समुच्चय से यह सुनिश्चित ही हो गया कि गौड़ ब्राम्हण कालेज रोहतक का प्राचार्य पद मेरा अभीष्ट नहीं है तो फिर अब पारिवारिक प्रगति की संम्भावनीय योजनायें क्यों न सोची जांय | विभागाध्यक्ष तो हूँ ही और कहीं कुछ मिलना होगा तो कालचक्र यथा समय संम्भावित राहें दिखा देगा | चारो बच्चे कैश्योर्य पार कर तरुणायी में प्रवेश कर गये हैं | कालेज और विश्वविद्यालय की सहशिक्षा झूठे -सच्चे रोमान्स के छलावे तो रचती ही रहती है | नाटकों की नायिकायें और नायक वास्तविक जीवन के नायक और नायिका किसी विरल संयोग से ही बन पाते हैं | चलते रहेंगें ये रोमान्टिक सपनों के दौर | आनें दो तरुणायी की मौज भरी बसन्ती बयारें | जब समय मेरे हस्तक्षेप की मांग करेगा तो मैं सार्थक या निरर्थक वात्सल्य भरे हस्तक्षेप का प्रयास करूंगा | पर अब तो समस्या है आर्थिक धरातल पर सुद्रढ़ रूप से खड़ा होकर सिर ऊँचा रखनें की | मनुष्य का सोचना ही तो सब कुछ नहीं है | मैनें भी तो सोचा था कि बड़ा बेटा राकेश अंग्रेजी या हिन्दी में एम. ए. करके किसी कालेज में प्रवक्ता लग जायेगा | एक अध्यापक होनें के नाते मैं अपनें अध्यापन कार्य को हीन भाव से देखनें का आदी नहीं बना था जैसा कि मेरे कई साथियों का सहज स्वभाव बन गया था | उन्हें अध्यापन में अतिरिक्त आय के कोई श्रोत नहीं दिखायी पड़ते थे और कोई भी कार्य जिसमें अतिरिक्त आय या अतिरिक्त सुविधायें न हों उनकी नजर में उपेक्षा के योग्य था | प्रवेश का और कोई द्वार न खोल पानें के कारण वे किसी तरह जोड़ -तोड़ कर कालेज में प्रवेश पा सके थे | पर न जानें क्यों ,मुझे ऐसा लगनें लगा था कि अध्यापन मेरे साँसों का संगीत भरा सरगम है और जब मेरे क्लास के विद्यार्थी अतृप्त नयनों से मेरा लेक्चर सुननें के बाद मेरी ओर देखते तो मुझे एक वर्णानातीत आनन्द का अनुभव होता था पर पिता नें जिस कार्य में सफलता पायी हो वही कार्य सन्तान की सफलता का क्षेत्र बनें ऐसा कोई अनिवार्य नियम प्रकृति नें नहीं रचा है | मुझे नहीं लगता कि साहित्य के सृजक महारथियों के पुत्र साहित्य रचना के साधारण रथी भी बन पाये हों | हाँ यह दूसरी बात है कि उन्होंने अन्य मार्गों से उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की हो | हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा की सृजनात्मक झलक हमें उनकी वंश परंम्परा में दिखायी नहीं पड़ती | हरिवंश राय बच्चन का काव्य वैभव उनके पुत्रों में नहीं है यद्यपि अभिताभ नें प्रसिद्ध , अभिनय और प्रभाव की द्रष्टि से उन्हें मीलों पीछे छोड़ दिया है | मुझे याद आता है कि अंग्रेजी के एक अच्छे जर्नलिस्ट जो एक बड़े अखबार से जुड़े थे इस बात से परेशान रहते थे कि उनका बेटा अंग्रेजी में फिसड्डी था | तो फिर अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में ही परास्नातक स्तर पर राकेश द्वितीय श्रेणीं ही प्राप्त कर सका तो इसके लिये मैं उसे दोषी कैसे ठहराऊँ | महाविद्यालयों में प्रवक्ता पद की प्रविष्टि अब सेकेण्ड क्लास से संम्भव नहीं थी कम से कम फर्स्ट क्लास तो चाहिये ही और ऊपर से डाक्ट्रेट हो तो और भी अच्छा | अब अगर मैं राकेश को किसी से कह सुनकर रिसर्च में लगा भी दूँ तो इसके लिये कई वर्ष का समय अपेक्षित होगा और यदि डिवीजन इम्प्रूवमेन्ट की बात कहूँ तो तो वह भी एक अन्धकार में लगायी हुयी छलांग ही होगी | सोचा क्यों न उसे सरकारी नौकरी या बैंक की लिपकीय परीक्षाओं में बैठनें की बात कहूँ | आखिर सभी I.A.S.आफीसर तो बनते नहीं और ना ही सभी प्रथम श्रेणीं की राज्य नौकरियाँ पाते हैं | बैंक का प्रोवेशनरी आफीसर का टेस्ट भी पास करना कोई सरल बात नहीं है | मन में सोचा आफ़ीसरी का टेस्ट यदि क्लियर नहीं होता तो लिपिक का ही क्लियर कर ले | किसी राष्ट्रीयकृत बैंक में इन्ट्री हो जायेगी तो समय के साथ -साथ कठिन परिश्रम के द्वारा समय से पहले प्रमोशन भी अर्जित किये जा सकते हैं | उन दिनों बैंक में घुसनें के लिये जिन परीक्षाओं का आयोजन किया जा रहा था उनके प्रश्न पत्र गोल -गोल घेरों और बिन्दुओं से भरे होते थे | प्रश्न पत्र और उत्तर पुस्तिकायें अलग न होकर एक साथ ही होते थे यानि वही प्रश्न पत्र और वही उत्तर पुस्तिका | कहीं टिक करना ,कहीं खाली खानों को काला करना | सामान्य ज्ञान , अंक गणित , लिपकीय क्षमता और सामान्य अंग्रेजी ज्ञान , इनका टेस्ट खाली स्क्वायरों को काला करके या शायद टिक लगाकर लिया जाता था | पर इनके अलावा अंग्रेजी का एक Descriptive टेस्ट भी होता था जिसमें किसी विषय पर 200 शब्दों का एक निबन्ध लिखना होता था | यह टेस्ट 25 या 50 ठीक याद नहीं आता का था | मैं समझता हूँ कि शायद कुछ बैंकों नें मिल जुल कर किसी अच्छी साख प्राप्त Examination एजेन्सी को भिन्न -भिन्न राज्यों में परीक्षा लेनें की जिम्मेवारी सौंप रखी थी | कुछ बैंक शायद अपनें इम्तहान की अलग से भी व्यवस्था करते थे | बी. काम. में पढ़ने वाले मेरे कई विद्यार्थी इन परीक्षाओं में सफल हो चुके थे | पर राकेश का बैक ग्राउन्ड मानवकीय का था और मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि वो इस प्रकार के अजीबो -गरीब लगनें वाले प्रश्न पत्रों को हल कर पायेगा | आर्ट्स के विद्यार्थी उन दिनों लंम्बे -लंम्बे लेख लिख कर प्रश्नों के उत्तर देते थे | सभी उत्तर वर्णानात्मक होते थे | चार संम्भावित उत्तरों में से कौन सा उत्तर सही है इसके लिये उसी उत्तर के नम्बर वाले खानें को काला करना या टिक लगाना हम लोगों के लिये कुछ अजीब सा लग रहा था | आज तो यह एक सामान्य बात हो गयी है अब तो 80 प्रतिशत से ऊपर नम्बर लेनें वाला विद्यार्थी भी समग्र रूप से दो सौ शब्दों का एक निबन्ध भी लिख दे ऐसा संम्भव नहीं दिखायी पड़ता | हाँ कई संम्भावित उत्तरों में से ठीक उत्तर खोज लेनें की कला वे न जानें कैसे सीख जाते हैं | यह टिक मार्क परीक्षा प्रणाली तकनीकी दिमाग तो निकाल रही है पर मुझे नहीं लगता कि मौलिक प्रतिभा का विकास भी इस प्रणाली से उसी प्रकार से संम्भव हो पायेगा जैसी संम्भावना हमारी पुरानी यूनिवर्सिटी शिक्षा प्रणाली में थी |
राकेश की दिली इच्छा तो यही थी कि उसे डिवीजन इम्प्रूवमेन्ट का एक मौक़ा दिया जाय | शायद उसे अपनें भीतर यह लग रहा था कि उसनें अपनें पिता को निराश किया है | कई बार मैं सोचता हूँ कि साहित्य के विद्यार्थी काफी लंम्बे समय तक कल्पना लोक में विचरण किया करते हैं | उन्हें लगता है कि साहित्य रचना और साहित्य आस्वादन ही मानव जीवन जीनें का परम सुख है पर मेरे अनुभव नें मुझे बताया था कि केवल शाब्दिक समृद्धता पारिवारिक जीवन का सुखद संचालन नहीं कर सकती | अतः मैनें उसपर मनोवैज्ञानिक दबाव डालकर बैंकिंग परीक्षाओं बैठनें के लिये बाध्य सा कर दिया | ऐसा करनें के लिये हो सकता है कभी कुछ ऐसा भी कह दिया हो जो अनुचित रहा हो पर उसके छोटे दो भाई और बहन तभी पूरी तरह सुशिक्षित और सुस्थापित किये जा सकते थे | जब राकेश स्वतन्त्र रूप से अपनी जीविका अर्जित करनें में समर्थ हो जाय | अभी उस दिन अखबार में पढ़ा कि राजदरबारी के लेखक श्री लाल शुक्ल को उनके अन्तिम दिनों में उ. प्र. के राज्यपाल नें अस्पताल में जाकर पांच लाख का चेक भेंट किया मन में दुःख और सुख का मिला-जुला अजीब दौर चल पड़ा | समाज में पाया जाने वाला गौरव ही एक श्रेष्ठ लेखक के लिये सबसे बड़ा सम्मान होता है | अंग्रेजी और अन्य योरोपीय भाषाओं के लेखक आर्थिक द्रष्टि से भी इसलिये संम्पन्न और समर्थ हो जाते हैं क्योंकि उन भाषाओं को बोलनें वाले लोग नयी रचनाओं को खरीदकर पढ़ने में वैसा ही गर्व महसूस करते हैं जैसा नयी कार या नया आई पैड ख़रीदनें में | कितनी बड़ी विडंम्बना है कि लगभग आधी अरब आबादी वाला हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र अपनें श्रेष्ठतम लेखकों को भी आर्थिक हासिये पर जीनें के लिये मजबूर कर देता है | वह कौन सा दिन आयेगा जब सृजनात्मक प्रतिभा तिकड़मी प्रतिभा को अपनें समकक्ष बैठनें की इजाजत नहीं देगी | और कौन जानें ऐसा दिन कभी आ भी पायेगा या नहीं ? डा. जानसन और बर्नाड शाह अभी हमारे लिये कहानी मात्र हैं |
दिल्ली में आयोजित पहली लिपिक परीक्षा राकेश के लिये केवल नये प्रश्न पत्रों की रूप रेखा और उत्तर प्रणाली जाननें का अनुभव दे सकी | दूसरी परीक्षा इस अनुभव को कुछ और गहराकर समझ के स्तर तक ले आयी | लगभग आठ -नौ महीनें बाद शायद गाजियाबाद में आयोजित एक परीक्षा के बाद उसनें घर आकर माँ को विश्वास भरे स्वर में बताया कि वह लिखित परीक्षा पास हो जायेगा पर उसके बाद इन्टरव्यूह भी है | इन्टरव्यूह के नम्बर जुड़ जानें के बाद ही मेरिट लिस्ट बनती है और जितनी रिक्तियां होती हैं मेरिट लिस्ट के ऊपर से उतनें ही सफलार्थियों को नियुक्ति पत्र भेजा जाता है | स्पष्ट याद नहीं पर शायद कुछ महीनें बाद राकेश का रोल न. और नाम परीक्षा उत्तीर्ण करनें वाले सूची में सम्मिलित पाया गया | कुछ अरसे के बाद साक्षात्कार का पत्र आया और उसे दिल्ली के किसी बैंकिग संस्थान में आनें के लिये कहा गया | साक्षात्कार में जानें से पहले जब वह मेरे चरणस्पर्श करनें आया तो मैनें उसकी पीठ तो थपथपा दी पर कुछ कह न सका | चारो तरफ सुननें में आ रहा था कि इन्टरव्यूह हेराफेरी करनें का सबसे सफल माध्यम है कि जो परीक्षार्थी लिखित परीक्षा में 80 प्रतिशत नम्बर लेता है उसे कई बार साक्षात्कार में केवल 40 प्रतिशत नम्बर मिलते हैं और जो परीक्षार्थी लिखित परीक्षा में केवल 40 प्रतिशत नम्बर लेता है उसे साक्षात्कार में कई बार 80 प्रतिशत नम्बर मिल जाते हैं | इधर -उधर अखबारों में विशेषज्ञों की राय भी पढ़ी थी | कहा गया था कि लिखित परीक्षा से पर्सनाल्टी टेस्ट बिल्कुल भिन्न होता है | दूसरों के साथ आपकी बात -चीत और उन पर पड़ने वाला प्रभाव केवल परसनाल्टी टेस्ट से ही संम्भव है | लिखित परीक्षा से इसका कोई संम्बन्ध नहीं है | कई बार कई घोंचू परीक्षार्थी लिखित परीक्षा अच्छे -खासे अंक अर्जित कर लेते हैं पर व्यवहारिक जीवन में वे जिस संस्था से जुड़ते हैं उसे आगे बढ़ानें के बजाय पीछे धकियाते रहते हैं | मुझे याद आता है कि इन्टरव्यूह को लेकर यह चर्चा काफी लंम्बे समय तक चली थी क्योंकि भारत सरकार की नौकरियों में भी इन्टरव्यूह के माध्यम से कई घपले प्रकाश में आये थे | अन्त में इन्टरव्यूह के लिये निर्धारित अंकों को 100 और फिर शायद 100 को फिर 50 में बदल दिया गया था | बैंकिंग सर्विस के इन्टरव्यूह में भी संम्भवतः उस समय 50 अंक ही रहे हों |
(क्रमशः )
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