Sunday 18 February 2018

गतांक से आगे -

                                    स्मृतियाँ उभरती हैं तो उनको और अधिक उभर लेने दो | खगोल शास्त्री मानते हैं कि सुदूर किसी कालातीत काल में एक ऐसा काल भी था जब काल ही नहीं था | अंग्रेजी में जिसे Time कहते हैं उसकी शुरुआत भी ( Big Bang) बिग बैंग के बाद ही हुयी | अब जब टाइम नहीं था तो घटनाओं का टंकन भी नहीं था और जब टाइम शुरू हुआ तो घटनायें भी अंकित होती गयीं | बीते कल में जो घटित हुआ है वह काल के प्रस्तार पर टंकित है | हमारे जीवन काल में आगे आनें वाली घटनाओं से हम परिचित नहीं होते | , भले ही कुछ आभाष पा लें पर पीछे घटी घटनायें हमें याद रहती हैं | कई बार स्मृति का विक्षेप होनें पर हम घटनायें भूल जाते हैं | फिर किसी मनोवैज्ञानिक आवेग में हम उन स्मृतियों की झलक फिर से पा लेते हैं | Time Travel की तकनीकें Space Travel की तकनीक की भांति काफी समय से विज्ञान और तकनालोजी के सामनें चुनौती पेश कर रही थी | Space Travel की कुंजी एक चक्कर लगाकर कुछ द्वार हमारे सामनें खोल रही है | पर Time Travel की कुंजी अभी तक घूम नहीं पायी है | जब घूम पायेगी तब दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा मानव जाति को देखनें को मिलेगा | विश्व सुन्दरी यूनान के महाकाव्य की नायिका हेलन अपनें स्वर्ण केश राशि फैलाये अट्टालिका पीठिकाओं पर खड़ी दिखायी देगी | भारतीय सन्दर्भ में जो द्रश्य भयानक रूप में हमारी रूह कंपा देगा वह होगा दुःशासन के द्वारा द्रोपदी का निर्वस्त्रीकरण | पर छोड़िये इन बे  सिर पैर की बातों को | मन का अश्व बूढ़ा हो जानें पर भी अपनी ऐंठ नहीं छोड़ता | लगाम तो कसना ही होगा | महादेवी जी यदि बांस की पोर हैं तो मैं क्या हूँ गूंगा शंख या ढपोल शंख | सोचता हूँ एक बार जब जगजीवन राम जी को किसी समारोह में प्रसाइड करनें के लिये कहा तो थोड़ी आना -कानी के बाद उन्होंने स्वीकृति दे दी | हुआ यूं था कि उनका एक चाटुकार बलराज उनसे पहले ही मिलकर date और टाइम सुनिश्चित कर चुका था | मुझे तो मात्र एक औपचारिकता पूरा करनें के लिये कालेज के प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया था | बाबू जी से बातचीत के दौरान ही बलराज आ टपका था और मेरे ऊपर अतिरिक्त अहसान लादने के लिये उसनें बाबू जी से कालेज के बिहाफ पर विशेष अनुरोध करनें का नाटक किया था | नेताओं और साहित्यकारों में ,उनकी भीतरी बनावट में , मुझे एक उल्लेखनीय अन्तर नजर आता है | सच्चा साहित्यकार मंचीय चाक्य -चिक्य से दूर रहकर आत्म निमज्जन में सुख पाता  है | अधिकाँश नेतागण मंच के बीच में सुशोभित होनें के लिये अपनें पीछे चाटुकारों की भारी भीड़ लगाये रहते हैं | स्वतन्त्रता के प्रारंम्भिक दौर में भारतीय नेता केवल नेता ही नहीं थे | वे साहित्य श्रष्टा थे , वे विचारक थे , वे त्यागी थे , वे गरिमा मण्डित व्यक्तित्व के धनी थे | किसी समारोह में उनकी उपस्थिति पवित्रता और महानता का आभाष देती थी | सत्तर अस्सी के दौरान भी उस गौरव की हल्की -फुल्की झांकियां प्रस्तुत थीं | फिर आया गिरावट का दौर | इक्कीसवीं सदी के प्रारंम्भ के साथ ही हजारों नेताओं में कुछ अपवादों को छोड़कर ऐसा कुछ देखनें में नहीं आता जो आदर्शों के प्रति समर्पित होनें के लिये तरुण पीढ़ी को प्रेरित कर सके | विश्वविद्यालय और कालेज में अध्यापनरत या प्रशासनिक कार्य से जुड़े हुये कुछ अति शिक्षित लोग कुछ समय के लिये मन को प्रभावित तो करते हैं पर उन्हें नजदीक से देखनें पर ऐसा नहीं लगता कि उनकी बनावट में कोई निराली धातुयें इस्तेमाल हुयी हैं | किन्हीं प्रारंम्भिक दिनों में एक अतुकबाजी या तुक्केबाजी की थी और न जानें क्यों वह अकविता अभी तक मेरे मन को छू जाती है |
" मंच के धुर मध्य बैठे तुम प्रतिष्ठा पा रहे हो
  पर न कहना चाह कर भी कह रहा हूँ
  जब कभी मिल कर प्रतिष्ठित व्यक्तियों से लौटता हूँ
  तो
अशुचिता की वास नासा रन्ध्र मेरे छेदती है|
लिजलिजे स्पर्श का आभाष
मेरी चेतना को संक्रमित कर
ऊर्ध्वगामी वृत्तियों को रौंदता है |
इसलिये मैनें चुना है साथ
तरु की छाँह में सुस्ता रहे गोपाल का
ताकि ,उसके साथ में भी आंक लूँ मनचित्र
सामनें के झिलमिलाते ताल का
धो सके जो अशुचिता स्पर्श जिसे
अगुआ बनें जन नें दिया है |
                                               पर मेरी तुक्कड़बाजी से समाज तो बदलता नहीं | समर्थ कवि भी छटपटा कर पंख फड़फड़ाते  रहते हैं | अपनें भाषायी पंख और ठहरी दूषित वायु में कोई आन्दोलन नहीं होता | अरे भाई , स्वयं Auden ही कह गये हैं | " Poetry makes Nothing Happen .' तो फिर कविता के प्रति इतना आग्रह क्यों ? देव भाषा संस्कृत का कवि क्यों लिख गया , " काव्य शास्त्र विहारेण , काले गच्छति धीमताम | " विवेकी व्यक्ति काव्य के माध्यम से उच्च कोटि का मनोविनोद पाता है |  अविवेकी पशुक्रियाओं में निमग्न रहते हैं | ' माटी  ' के पाठक भारत के अनेक केन्द्रीय वित्त मन्त्रियों के भाषण सुन चुके हैं | कभी अंग्रेजी , कभी हिन्दी , कभी तमिल , कभी उर्दू और कभी किसी अन्य भाषा की कविताओं और शेरों की लाइनें जोड़ -जोड़ कर वे चतुरायी से टैक्स के सिकंजे कसते रहते हैं | जो भी बात हो मैं यह माननें पर विवश हो गया हूँ कि जब तक मानव जीवन है , जब तक मानव सभ्यता है , तब तक कोई भी आर्थिक आत्म -जाल , कोई भी तकनीकी प्रगति , कोई भी वैज्ञानिक उड़ान , या कोई भी वैधानिक जोड़ -तोड़ कविता को सम्पूर्णतः समाप्त नहीं कर सकता | गद्य की पठारी शिराओं में छिपे कोनें , कंगूरों में हरी पत्तियां या नन्हें फूल खिलते ही रहेंगें | भौतिक प्रकृति की यह अनिवार्यता मानव प्रकृति में भी निहित है | राग का रहस्य बस कविता नें जाना है |
                            डा. रामकुमार वर्मा का बँगला काफी बड़ा लगा | बाहर पेंड़ पौधों और लता गुल्मों का एक लंम्बा चौड़ा प्रस्तार था जिसके बीच से होकर उनके बैठके के द्वार पर पहुंचा जा सका | सौभाग्य ही था कि वे घर पर ही थे | संम्भवतः सपरिवार अगले दिन सीलोन की फ्लाइट पकड़नी थी और इसलिये कुछ छोटा -मोटा सामान पैक किया जा रहा था | वह विश्वविद्यालय में थे और मैं कालेज में था | पर प्राध्यापक होनें के नाते वे मुझे अकेडमिक भाई चारे के रूप में सहर्ष स्वागत के लिये तैयार थे | उनके साहित्य पर विशेषतः उनके एकांकियों पर मेरी कुछ नजर पड़ी थी और मैं उनकी प्रतिभा का कायल था | पर कवि के रूप में मैं उन्हें उस कोटि में नहीं बिठा पा रहा था जिस कोटि में निराला ,पन्त या महादेवी जी का स्थान था | पर उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिये उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया गया था और मैं समझता हूँ कि उन दिनों की पद्म उपाधियाँ आज की उपाधियों के मुकाबले अपेक्षाकृत अधिक ठोस तथ्यों पर आधारित थीं | राम कुमार जी नें जानना चाहा कि आयोजन की तिथियां सुनिश्चित हो चुकी हैं या नहीं | मैनें बताया कि फरवरी माह के अन्तिम सप्ताह में सम्मेलन आयोजित करनें का विचार है | पर यदि उनके उस समय आनें में असुविधा हो तो तिथियों में फेरबदल किया जा सकता है | मैं जानता था कि किसी भी प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति को इस बात से खुशी होती है कि उसे उसके द्वारा सुझायी गयी समय सारिणीं के अनुसार ही बुलाया जाय | वर्मा जी नें बताया कि वे मार्च के प्रथम सप्ताह में दिल्ली जायेंगें | जहां उन्हें किसी प्रवासी साहित्यकार सम्मेलन में भाग लेना है और कालेज यदि चाहे तो वे उस सप्ताह में किसी भी दिन एक रात का समय कवि सम्मेलन के लिये दे देंगें |साथ में उनकी पत्नी भी होंगीं | दिल्ली के कुछ कवि भी उनके साथ आ  जायेंगें | मुझे उनका यह प्रस्ताव रुचिकर लगा | मैनें उनसे जानना चाहा वे मार्च के प्रथम सप्ताह में दिल्ली पहुंचने पर कहाँ रुकेंगें | और किस फोन न. पर उनसे संम्पर्क किया जा सकेगा | उन्होनें चाहा कि उन्हें लेनें के लिये मैं या कोई अन्य कालेज का प्रतिनिधि प्रोफ़ेसर दिल्ली में उनके दिये गये पते पर पहुँच जाय और वे उसके साथ विद्यालय पहुँच जायेंगें | उनकी अपनी गाड़ी है पर यदि कुछ अधिक लोग हो गये तो कालेज से आये हुये प्रोफ़ेसर साहब की गाड़ी में भी बिठा  दिये जांयेंगें | मैनें डरते डरते उनसे पूछा कि क्या वे किसी सम्मान राशि की मांग की पूर्ति कालेज के द्वारा कराना चाहेंगें | तो उन्होंने मुस्करा कर कहा कि हम कुछ माँगते नहीं पर जो मिल जाय उसे ले लेना हमें अरुचिकर नहीं लगता | हम दोनों ही कुछ देर के लिये हल्की हंसी में लिप्त हो गये | मैनें बताया कि मैं कालेज जाकर प्राचार्य जी से सारी बातें डिस्कस कर लूंगा और फिर उनसे संम्पर्क साध लूंगा | फिर मैनें जानना चाहा कि दिल्ली के कौन- कौन से कवि उनके साथ आयेंगें क्योंकि हम लोग भी कुछ कवियों से संम्पर्क साधे हुये थे | मुझसे उन्होनें पूछा कि उनके पास आनें के पहले मैं प्रयाग में किन -किन कवियोँ से पहले मिल चुका हूँ | मैनें पन्त और महादेवी जी से मिलनें की बात उन्हें बतायी | वे बोले वे दोनों तो सम्मान के पात्र तो हैं हीं , चाय की बात चली तो मैनें बताया महादेवी जी के यहां एक प्याला पी आया हूँ और कहा कि उनके साथ पूरी एक रात्रि बिताना मेरे लिये एक स्मरणीय उपलब्धि रहेगी | इतनी देर तक रिक्शा बाहर खड़ा था | मुझे स्टेशन की ओर ले जाते हुये उसनें अधिक समय लग जानें के विषय में कुछ कहना चाहा | मैनें उसे शान्त करते हुये कुछ अधिक पैसे देने की बात कही | कवि सम्मेलन के संम्बन्ध में प्रयाग की यह मेरी यात्रा मेरे बीते जीवन की एक स्मरणीय स्मृति के रूप में शेष है | कहना न होगा कि यह कवि सम्मेलन एक अत्यन्त सफल सम्मेलन सिद्ध हुआ | डा. राम कुमार वर्मा जी तो थे ही और मंच पर थे गोपालदास नीरज , देवराज दिनेश , रमानाथ अवस्थी , ओम प्रकाश आदित्य , हास्य सम्राठ काका हाथरसी , सिन्दूर , पंजाब कवियत्री सुमन जीत कौर , और कितनें ही अन्य लब्ध प्रतिष्ठ स्वर -शिल्पी उपस्थित थे | कविता पाठन प्रारंम्भ होनें के एक सवा घण्टे बाद मुझे हाल के द्वार पर नियुक्त किये गये छात्र वालन्टियर द्वारा यह  सूचना मिली कि दो आमन्त्रित कवि गोपाल प्रसाद व्यास  और राज कवि हंस और उनके साथ एक कवियत्री श्यामला रस्तोगी जी द्वार पर खड़े हैं | उन्हें आनें  में बस की खराबी के कारण कुछ देर हो गयी है | मंच संचालन का कार्य अपनें एक सहयोगी डा. सुरेश सिंगला को सौंप कर मैं आमन्त्रित स्वर -कारों को मंच पर लानें के लिये हाल के पिछले दरवाजे से बाहर आ गया | इसे मैं अपनें प्रति विद्यार्थियों और श्रोताओं का अतिरिक्त लगाव ही कहूंगा कि मेरे मंच से हटते ही हाल में हा -हू होनें लगा | रमानाथ अवस्थी अपनी बहुचर्चित कविता " भीड़ में भी रहता हूँ , मैं भीतर के सहारे ,जैसे कोई मन्दिर किसी गाँव के किनारे | " गा  कर सुना रहे थे पर छात्रों का एक वर्ग हूटिंग करनें लगा था | अत्यन्त शीघ्रता के साथ व्यास जी , हंस जी और श्यामला जी को पिछले दरवाजे से लाकर मैनें मंच पर बिठाया और इसके पहले कि रमानाथ जी क्षुब्ध होकर माइक से हट जाते मैनें छात्रों को एक प्यार भरी लताड़ लगायी | , आज परिस्थितियां बिल्कुल बदली हुयी हैं | छात्रों और अध्यापकों में केवल वणिक वृत्ति के संम्बन्ध शेष रह गये हैं | पर उस समय यह मेरा सौभाग्य ही था कि कालेज का उदण्ड से उदण्ड छात्र मुझे अपना सच्चा हितैषी मानकर मुझसे अनुशाषित होनें में अपनें को गौरवान्वित अनुभव करता था | मैनें रमाकान्त जी को हिन्दी के अत्यन्त समर्थ गीतकार के रूप में पेश करते हुये छात्रों से उनकी सुनायी गयी पंक्तियों में छिपे आत्मतत्व को खोजनें के लिये कहा | संम्पूर्ण हाल में फिर से वही शान्ति और व्यवस्था स्थापित हो गयी | गोपालदास को आमन्त्रित करनें से पहले मैं व्यास जी के पास गया और उनसे पूछा कि  वह अपनी कौन सी हास्य कविता प्रस्तुत करना चाहेंगें | उन्होंने मुझे बताया कि वे वणिक समाज से जुड़े शोषण व्यवस्था को बढ़ावा देनें वाले लाला लोगों पर लिखी एक व्यंग्यात्मक कविता सुनाना चाहेंगें | उन्होंने कविता की कुछ पंक्तियाँ धीरे से सुनायीं |
" है तन इनका गुटका
मगर पेट मटका
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं
ये ओढ़े दुशाला चले आ रहे हैं | "
                      मैनें व्यास जी से आग्रह किया कि वे इस कविता को न सुनायें क्योंकि कालेज का अग्रवाल मैनेजमेन्ट शायद इस कविता के व्यंग्य को अपनें सम्पूर्ण समाज के भर्त्सना के रूप में ले ले | व्यास जी सहमत हो गये और उन्होंने किन्नरों पर लिखी एक मशहूर कविता सुनायी |
" हम वृहन्नला के वंशज हैं
लंम्बा इतिहास हमारा है
हमनें ही पिछले भारत में
वो भीष्म पितामह मारा है | '
                          हाथरसी जी नें तो एक अत्यन्त नाटकीय मुद्रा  में अपनी ईश प्रार्थना को गाकर सुनाया |
" हे प्रभो आनन्ददाता वर मुझे यह दीजिये |
  एक मैं जिन्दा रहूँ और मार सबको दीजिये ||"
                           पहली पंक्ति कहकर वह कुछ देर रुके रहे | श्रोता उत्सुकता से वर सुननें की प्रतीक्षा कर रहे थे पर दूसरी पंक्ति समाप्त होते ही लोग हंसी से लोट -पोट हो गये | वर्मा जी नें मुझे अपनें पास बुलाकर चुपके से कहा कि हास्य कवियों को बहुत देर तक माइक पर न रखें अन्यथा गंभ्भीर कवितायें तन्मयता के साथ नहीं सुनीं जा सकेंगीं | उनके सुझाव में काफी दम था क्योंकि हल्की -फुल्की मनोवृत्ति कई बार गंम्भीर चिन्तन पर हावी हो जाती है | नीरज जी के गीतों में चिन्तन और गायन दोनों का मनमोहक समागम दिखायी पड़ा और फिर वहां से गंम्भीर आत्म चिन्तन की कवितायें लोगों का मन मोहनें लगीं | आधी रात होते -होते मार्च के उस प्रथम सप्ताह में भी हल्की ठण्ड पड़नी शुरू हो गयी थी | तीन बजे रात तक हाल खचाखच भरा रहा | अन्त में डा. रामकुमार वर्मा की कविताओं नें रहस्यवादी चिन्तन का एक रोमांचक समां बाँध दिया | बहुत प्रयास करनें पर भी मुझे उनकी सुनायी गयी पंक्तियाँ याद में नहीं आ रही हैं पर इतना याद अवश्य आ रहा है कि श्रोताओं में उपस्थित महिलायें आनन्दविभोर होकर झूमनें लगी थीं | आह ! कैसे सुखद थे वे  दिन | रक्त में न तो वह तरुणायी है और न मष्तिष्क में  बेधक आत्मविश्लेषण की क्षमता | बीता हुआ कल एक सुखद स्वप्न बनकर ही तो रह गया है | सम्मेलन के अन्त में श्रोताओं के जानें के बाद इस बात पर कालेज मैनेजमेन्ट , प्राचार्य और मैं विचार करनें लगे कि सम्मान राशि के रूप में किस कवि को कितनी राशि प्रदान की जाय | हमनें अपनें आमन्त्रण में केवल यही लिखा था कि आनें -जानें के व्यय के अतिरिक्त महाविद्यालय अपनी सामर्थ्य के अनुसार आदर के रूप में एक सम्मान राशि भी देगा पर उसमें किसी संख्या का उल्लेख नहीं था | मैनें मैनेजमेन्ट के प्रधान जी से अनुमति लेकर डा. रामकुमार वर्मा से बात करनी चाही | मुझे उस समय अत्यन्त हर्ष हुआ जब डा. रामकुमार वर्मा नें कुछ भी लेनें से इन्कार किया और मुझे सुझाव दिया कि मार्ग व्यय के अतिरिक्त हर कवि को 251 रुपये दे दिये जांय | साठ -सत्तर के दशक में 251 /- रुपये की राशि हंसी के योग्य नहीं थी , मेरे बहुत आग्रह करनें पर भेंट के रूप  में वर्मा जी नें एक सील बन्द लिफाफा लेकर हमें अनुग्रहीत किया | उस लिफ़ाफ़े में आदर और कृतज्ञता के अतिरिक्त और क्या था यह कालेज के प्राचार्य डा. मनोहर लाल अग्रवाल , कालेज मैनेजमेन्ट के प्रधान सुप्रीमकोर्ट के एडवोकेट मिठ्ठन लाल गुप्ता और मेरे अतिरिक्त कोई भी कुछ नहीं जानता | ' माटी ' के पाठक यदि जानना ही चाहें -जो मेरी समझ में एक अनुचित चाह होगी तो इस राज को खोल देनें की बात सोची जा सकती है | बीते कल की यह कहानी कुछ देर के लिये मुझे वास्तविकता से दूर लिये जा रही है पर आज का जो सत्य है उसे कैसे झुठलाया जा सकेगा | अब राकेश और प्रियम्बदा मंच की शोभा हैं | अब अपर्णां और ऋतुपर्ण आकर्षण के आवर्तों में उलझे पड़े हैं | अब सुधीर और सुनन्दा तरुणायी की चुनौती भरी राहों से गुजर रहे हैं | जो मेरा अतीत था वह इन सबका भविष्य बननें जा रहा है पर जो घटित होगा उसे अपनें अनुरूप ढाल लेनें का दंम्भ एक वंचना के अतिरिक्त और क्या है | छोड़ दो जीवन नैय्या को समय की लहरों पर , मजधार तो पार ही कर चुका हूँ | किनारा दिखायी पड़ रहा है पर पुरुषत्व का अभिमान हाँथ पर हाँथ धरकर बैठनें नहीं देता नहीं मुझे अन्तिम सांस तक दो -दो हाँथ करनें हैं | अपनी असमर्थता से अपनें आत्मजों और आत्मजा के जीवन भविष्य से ,अपनें  आस -पास के ढोंगीं समाज से और शब्दों के खिलवाड़ के द्वारा नारी अस्मिता के लुटेरों से | पर इस संघर्ष के लिये वार्धक्य में भी नयी जीवन शक्ति जुटानी होगी | बहादुर चिन्तकों का साथ खोजना होगा | श्रगालों की भीड़ से निकलकर सिंह गर्जना का आश्रय लेना होगा | पर यह सब असंम्भव सा लगता है | क्या असंम्भव को संम्भव किया जा सकता है ? चलो देखते हैं यवनिका के पीछे क्या घाट रहा है |
( क्रमशः )


 

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