Sunday 18 February 2018

गतांक से आगे -

                                       प्रियम्बदा और राकेश , अपर्णां और ऋतुपर्ण , सुधीर और सुनन्दा सभी को अपना -अपना जीवन जीनें का हक  है | अरे भाई तुमनें भी तो अपना जीवन जिया है | कई निकट संम्बन्धी कहते हैं कि मैनें उल्लेखनीय प्रगति की है | कैसी प्रगति ? आज आर्थिक प्रगति के अतिरिक्त  और किसी प्रगति का क्या अर्थ है ? यह ठीक है कि एक दो अन्य स्थानीय महाविद्वालयों से मेरे लिये प्राचार्य पद का प्रस्ताव आया है | पर प्राचार्य का पद भी शैक्षिक या बौद्धिक क्षमता का मापदण्ड तो नहीं माना  जा सकता | अधिक से अधिक उसे प्रशासकीय जोड़ तोड़ से संम्बन्धित करके प्राध्यापकों के मुकाबले में वरीयता की श्रेणीं दी गयी है | पर अध्यापन की श्रेष्ठता जहां समाप्त हो जाती है वहीं मष्तिष्क का स्तंम्भन प्रारंम्भ हो जाता है | जो निरन्तर सीखता है वही निरन्तर सिखा सकता है | प्राचार्य की कुर्सी कम से कम आज के युग में ,मात्र जोड़ तोड़ का श्रोत बनकर रह गयी है | सरकारी सहायता प्राप्त महाविद्यालय प्रबन्धक कमेटियों की छल -छद्म भरी कुश्तियों के अखाड़े बन कर रह गये हैं | प्राचीन भारत में भी महाद्वार पण्डित प्रशासन तन्त्र के मुकाबले अधिक चर्चित पूजित होता था और अब अस्सी की दशक की समाप्ति पर पाश्चात्य जगत से आये जीवन के  मूल्य बोध शिक्षा को भी बाजारू तन्त्र का एक भाग बना चुके हैं | साहित्य के प्राध्यापक के लिये  तो लगता है शैक्षिक सृजन का युग ही समाप्त होनें वाला है | एकाध दशक से वाणिज्य शिक्षा का बोलबाला रहा है पर लगता है आनें वाले दशकों में विज्ञान की निरन्तर विकसित होती हुयी विपुल शाखायें ही शिक्षा को व्यापक विस्तार दे पायेंगीं | जो बीत चुका है वह कभी कभी मन को कितना लुभावना लगता है | साठ और सत्तर के दशक में कविता के लिये विद्यार्थियों के मन में कितना चाव होता था | सिनेमा के गीत उस समय भूंडी कला वस्तुओं की भांति निकृष्ट समझे जाते थे | कोई भी सुपठित , सुरुचिवान श्रोता सिनेमा के गीतों को रिक्शा वालों , कुलियों और खुमचा लगानें वालों से जोड़कर देखता था | पर देखते ही देखते कितना बड़ा परिवर्तन आ गया | अरे भाई , अब न साठ सत्तर है न अस्सी नब्बे | अस्सी नब्बे का जिक्र करते ही बचपन की एक चौपदी  वार्धक्य की धुंधली स्मृति पट्टिका पर उभर आयी है |
" अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो
  अस्सी नब्बे पूरे सौ
  सौ में लागा तागा
  चोर निकल कर भागा | "
                      कई शोधार्थियों को डाक्ट्रेट दिलवानें का काम कर चुका हूँ पर कितनें ही प्रयासों के बाद इस चौपदी का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया है | सौ में लागा तागा की जगह सौ में लागा ताला होता तो शायद मैं कोई अर्थ निकाल लेता पर लगता है ग्रामीण तुक्कड़ नें लागा की स्वर समानता वाला तागा शब्द चुना है | अरे छोड़ो भी इस माथा पच्ची को | आज दो हजार दस के अन्तिम दौर में जब चारो ओर मुन्नी भई बदनाम और शीला की जवानी की धूम है तो कविता -वविता के विषय में क्या सोचना ? पर मन है जो कहीं रोके रुकता है | 1964 के आस पास की बात है डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी शान्ति निकेतन से पंजाब विश्वविद्यालय के कुलपति ए. सी. जोशी द्वारा व्यक्तिगत प्रार्थना के बल पर पंजाब विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष बननें के लिये राजी कर लिये गये थे | लाइब्रेरी में एक पुस्तक थी " शान्ति निकेतन से शिवालिक तक | " पुस्तक पढ़कर लगा क्यों न हिन्दी में  एम. ए. कर लिया जाय | उन दिनों पंजाब विश्वविद्यालय कालेज के प्रवक्ता को किसी भी दूसरे विषय में एम. ए. करनें की अनुमति का प्रावधान किये हुये था | फ़ार्म भर दिया | प्रथम और द्वितीय वर्ष अच्छे अंक ,अच्छी श्रेणीं ,प्रशंसा का पात्र बना | 1966 में बृहत पंजाब तीन राज्यों में बट गया | पंजाब , हरियाणा और हिमांचल प्रदेश | तरुण था ही | हिन्दी साहित्य के प्रति लगाव एम. ए. की डिग्री पाकर और अधिक सुद्रढ़ हो गया था मन में लहर उठी कि हिन्दी बोले जानें के आधार पर बनें नये राज्य हरियाणा में एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आयोजित किया जाय उस समय कालेज के प्राचार्य वाणिज्य शिक्षा के अधिकारी विद्वान ,डा. मनोहर लाल अग्रवाल थे |एन. सी.सी. की ट्रेनिंग प्राप्त करके एक कमीशन्ड आफीसर के नाते मैं अनुशासन स्थापित करनें में मैं उनका दाहिना हाँथ बन गया था | वे मूलतः उत्तर प्रदेश से थे और वाणिज्य शिक्षा से जुड़े रहकर भी उनमें साहित्य के समझनें और परखनेँ की विशेष क्षमता थी | वे मेरे प्रस्ताव से सहमत हो गये | कालेज के मैनेजमेन्ट में नगर के संम्पन्न व्यापारी इस प्रकार के आयोजनों को बढ़ावा देते रहते थे | अपनें अतिथियों और परिचितों को समारोहों की अग्रिम पंक्ति में बिठाकर उन्हें गर्व का अनुभव होता था | अब क्या था अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के लिये एक संगोष्ठी गठित कर ली गयी | हरियाणा राज्य का आर्थिक द्रष्टि से सबलतम कालेज कवि सम्मेलन की तैय्यारी में पूरे जोर शोर से लग गया | आयोजन कमेटी का कनवीनर होनें के नाते मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी गयी कि मैं उत्तर प्रदेश से श्रेष्ठ कवियों को आमन्त्रित कर लिवा लाऊँ | आयोजन में उनके होनें से हिन्दी जगत में एक अच्छा प्रभाव पड़ेगा और हरियाणा राज्य की छवि और अधिक निखरेगी | हरियाणां , पंजाब , मध्य प्रदेश और राजस्थान से भी कई सम्मानित कवि आमन्त्रित किये गये | प्राचार्य महोदय से विचार विमर्श कर यह तय किया गया कि प्रयाग से सुमित्रा नन्दन पन्त या महादेवी वर्मा को बुलाकर लाया जाय | पन्त जी उन दिनों आकाशवाणीं के सलाहकार थे और हिन्दी कवियों में शीर्ष स्थान पर स्थापित हो चुके थे | महादेवी जी की अपनी निराली छटा थी ही गर्ल्स सेक्शन की स्नातकीय कक्षा में पढ़ने वाली छात्राओं की जिव्हा पर महादेवी जी की कवितायें मचलती ही रहती थीं |
" बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ ,
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ | " आदि आदि.......
                              तय किया गया कि प्रयाग जानें से पहले कानपुर और लखनऊ के कुछ कवियों से सम्पर्क साध लिया जाय | प्राचार्य महोदय नें मुझे इस काम के लिये लम्बे समय तक अध्यापन कार्य से छुट्टी दे दी | दरअसल आज 2018 के प्रारंम्भिक दौर में हिन्दी काव्य साहित्य की उपेक्षा की ख़बरें पढ़कर मन ललक कर अतीत की ओर भटक जाता है | मैं यह सच कहनें का साहस नहीं जुटा पाता कि उस समय भी हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्य सृष्टा उपेक्षा का शिकार ही थे | ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि प्रयाग मेँ हिन्दी के शीर्ष कवियों से मिलनें पर मुझे ऐसा लगा कि वे प्रशासनिक तन्त्र के नियामकों से मिली हुयी उपेक्षा के भुक्तभोगी रह चुके हैं | कानपुर में गोपाल दास नीरज से तो मिलता ही था साथ ही उस समय के चर्चित कवियों में सिन्दूर जी का  भी नाम था | लखनऊ में सुमित्रा कुमारी सिन्हां से मिलनें का सुअवसर मिला उस समय उनकी एक कविता की दो पंक्तियाँ धूम मचाये हुये थीं |
" मैं हर मन्दिर के पथ पर अर्घ चढ़ाती हूँ
  भगवान एक पर मेरा है | " आदि आदि |
                             सुमित्रा कुमारी जी नें जब यह जाना कि पंजाब की भी कुछ कवियत्रियाँ आमन्त्रित की गयी हैं तो वे कुछ असहज सी हो उठीं | उन्होंने कहा कि पंजाब में उनका एकाधबार का अनुभव सुखद नहीं रहा है और वे कुछ दिन के बाद अपनी सहमति या असहमति प्राचार्य के पास लिखकर भेज देंगीं | आमन्त्रण के लिये धन्यवाद पाकर और चाय पान कर मैनें प्रयाग की ओर प्रस्थान किया | इससे पहले भी मैं एक बार प्रयाग हो आया था पर तब मैं कालेज का छात्र था | और कुंम्भ में घटी हुयी एक भयानक त्रासदी के दौरान मेरा वहां जाना हुआ था | संम्भवतः गोविन्द बलभ्भ पन्त उस समय भारत के गृहमन्त्री थे | कौन सा सन था यह मुझे स्पष्ट  ध्यान नहीं आता | कुंम्भ परम्परा से पूर्ण रूप से परिचित ' माटी  ' के पाठक स्वयं ही वर्ष की सही गणना कर लेंगें | मेरी स्वर्गीय दिवंगत माता कुंम्भ स्नान के लिये प्रयाग गयी हुयी थीं और हृदय विदारक त्रासदी के उन सैकड़ों नर -नारियों में जिनकी फोटोज कुंम्भ स्थल पर लगा दी गयी थीं कहीं वह भी न हों यह देखनें के लिये मैं प्रयाग गया था | मन भी क्या अजीब चीज है ? कहाँ से कहाँ जा पहुंचा | प्रयाग पहुंचकर सबसे पहले मैं पन्त जी से मिलनें के लिये अपनें पास रखे हुये पते के आधार पर उनके निवास स्थान की तलाश में गया | अंग्रेजी का प्राध्यापक  होनें के नाते मैं कविता की प्रभावशाली शैली में अभिव्यक्त कई विचारधाराओं से परिचित था | साम्यवादी विचारधारा भी इनमें से एक थी | पन्त जी की कुछ पंक्तियाँ मेरे मन को छू गयी थीं | वैसे तो पन्त जी मूलतः सौन्दर्यवादी कवि हैं पर ' ग्राम्या  ' में उन्होनें कुछ सामाजिक असमानता की मार्मिक तस्वीरें पेश की हैं | ताजमहल पर लिखी उनकी एक कविता की दो पंक्तियाँ आज भी मुझे भीतर से हिला देती हैं |
" हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन
  जब विषषण निर्जीव पड़ा हो नर का जीवन | "
                                     स्मृति पटल पर समय के लम्बे अन्तराल नें छवि चित्र धूमिल कर दिये हैं | पन्त जी तब शायद अपनें किसी संम्बन्धी के साथ किसी आफीसर्स कालोनी में रह रहे थे | पहले बंगले पर मैनें उनके बंगले के नम्बर की पूछ तांछ की वह बँगला संम्भवतः किसी जुडीशियल आफीसर का था  | मैनें लान में काम करते एक माली से पूछा कि क्या हिन्दी के महान कवि सुमित्रा नन्दन  पन्त यहीं कहीं रहते हैं ? उसनें लताओं की एक डाली काटते हुये पूछा क्या नाम लिया आपनें ? मैनें कहा श्री सुमित्रानन्दन जी पन्त | वह बोला इस नाम का  कोई अफसर तो है नहीं | मैनें कहा अरे भाई वह हिन्दी के कवि हैं | बहुत बड़े मनीषी हैं आपनें क्या उनका नाम नहीं सुना ? उसनें कहा, "  अरे हाँ   लम्बे -लम्बे बाल ऊपर की ओर खींचे हुये एक सज्जन जज साहब के बच्चे के मुण्डन पर बुलाये गये थे | उन्होनें कुछ पढ़ा -वढ़ा था | लोगों नें तालियां बजायी थीं | " दो बंगलों के बाद तीसरा बँगला है | अपनी किसी संम्बन्धिन के साथ रहते हैं | आज कल कुछ बीमार चल रहे हैं |
                        मैं आश्वस्त हुआ | चलो मुण्डन में ही सही उनका इन बंगलों में कुछ आना -जाना तो है | उनके बंगले के पास पहुंचकर मैनें पाया कि वहां कोई सर्वेन्ट उपस्थित नहीं है | घण्टी दबायी | स्वयं पन्त जी नें द्वार खोला | मैनें महाकवि के स्वागत में हाँथ जोड़ दिये | परिचय दिया | अभी हाल ही में बनें हिन्दी भाषा -भाषी राज्य हरियाणा के एक प्रमुख कालेज से मैं आ रहा हूँ | फिर मैनें अपना विजिटिंग कार्ड उनकी ओर बढ़ा दिया | वे बोले आओ और अन्दर पड़ी कुछ कुर्सियों की ओर इशारा किया | मैं खड़ा रहा वे स्वयं एक कुर्सी पर बैठ गये | बोले आजकल मैं कुछ अस्वस्थ हूँ | आप का निमन्त्रण स्वीकार नहीं कर सकूंगा | आपनें मुझे सम्मेलन  में प्रसाइड करनें के लिये आमन्त्रित करके हिन्दी कविता को सम्मानित किया है | मेरे चेहरे पर निराशा की झलक आ गयी होगी | क्योंकि उन्होंने कहा आप दुखी न हों | प्रयाग आये हैं तो अन्य किसी को आमन्त्रित कर दें | फिर उन्होंने किन्हीं  बालकृष्ण राव का नाम लिया बोले बड़े विद्वान हैं | आकाशवाणीं के डायरेक्टर हैं | मैनें कहा आप चलते तो बात ही और थी | बोले क्या करें स्वास्थ्य बाधा बन गया है | डाक्टरों नें इधर उधर जानें से मना कर दिया है | मैं शायद एकाध वाक्य अंग्रेजी में बोल गया हूंगां | वे बोले अच्छा अवस्थी तुम अंग्रेजी के प्रवक्ता हो राम कुमार वर्मा जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हैं और पद्म भूषण से सम्मानित हैं उनको आमन्त्रित कर लो और फिर उन्होंने अपनें हाँथ से रामकुमार जी के बंगले का नम्बर मेरे विजिटिंग कार्ड पर लिखकर मुझे दे दिया | फिर उन्होंने अन्दर किसी को आवाज दी और पूछा कि रामकुमार जी प्रयाग में ही हैं या कहीं गये हुये हैं | अन्दर से एक नारी स्वर आया कि अगले दिन सीलोन जानें के लिये उनकी फ्लाइट बुक है | पर आज शायद वे बंगले पर ही होंगें | चलते -चलते मैनें पन्त जी से एक प्रार्थना की कि आप अपनें हाँथ से इस अखिल भारतीय काव्य सम्मेलन की सफलता का आशीर्वाद लिख दें तो आपकी अत्यन्त कृपा होगी | मेरे विनम्र व्यवहार और संम्भवतः अंग्रेजी का प्राध्यापक होकर भी हिन्दी के प्रति मेरे अनुराग को देखकर उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली | दो तीन पंक्तियों का अपना आशी वचन एक पैड पर लिख कर दे दिया | कालेज की उस वर्ष की छपी पत्रिका में संम्भवतः वह आशी वचन अभी तक सुरक्षित होगा | उठते हुये मैनें कहा पन्त जी मैं चाहता हूँ कि डा. राम कुमार वर्मा के मिलनें से पहले मैं महादेवी जी से मिल लूँ और उनसे प्रार्थना करूँ कि वे इस सम्मेलन की अध्यक्ष पीठिका पर विराजमान हों | गर्ल्स कालेज की छात्रायें उन्हें सुनकर धन्य हो जांयेंगीं | पन्त जी बोले हाँ हाँ आप उनसे मिल लें पर वे कहीं आती -जाती नहीं हैं | आप उन्हें राजी कर लें तो आश्चर्य ही होगा | मैनें हाँथ जोड़कर और झुककर उन्हें नमस्कार किया | वे मुझे द्वार तक छोड़नें के लिये उठे पर मैनें उनसे अनुरोध किया कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं और वे बैठे रहें | कृतज्ञता के साथ मैनें उनसे विदायी ली और चल पड़ा | आधुनिक हिन्दी जगत की महानतम कवियत्री महादेवी वर्मा से मिलनें के लिये प्रयाग में उन दिनों रिक्शा ही मध्यम वर्ग के लिये यात्रा संचरण का प्रमुख साधन था | रिक्शे में बैठे बैठे महादेवी जी की यह चार पंक्तियाँ स्मृति में उभर कर आती रहीं |
"चिन्ता क्या है रे निर्मम
 बुझ जाये दीपक मेरा
 हो जायेगा तेरा ही
 पीड़ा का राज्य अन्धेरा | "
                                  और मैं प्रयाग विद्यापीठ के उनके निवास स्थल पर जा पहुंचा | बाहर संम्भवतः विद्यापीठ के कुछ कर्मचारी थे | उनसे अपना विजटिंग कार्ड अन्दर भिजवाया | अन्दर बुला लिया गया | प्रौढ़ि को प्राप्त करती हुयी एक अत्यन्त सुसंस्क़ृत महिला नें आइये प्रोफ़ेसर साहब कहकर मेरा स्वागत किया | मैनें नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया उनके कुर्सी पर बैठ जानें पर मैं भी उनके सामनें वाली कुर्सी पर बैठ गया और फिर मैनें अपना निवेदन उनकी स्वीकृति हेतु उनके सामनें रखा | वे बोलीं आप अंग्रेजी के प्राध्यापक होकर भी हिन्दी में इतनी रूचि ले रहे हैं यह एक अत्यन्त सुखद बात है | टूटी -फूटी अंग्रेजी जाननें वाला दफ्तर का क्लर्क भी हिन्दी के कवि या लेखक को अपनें से घटिया मानता है | चलिये छोड़िये भी इन सब बातों को मैं आपको एक कप चाय पिलाती हूँ | फिर उन्होंने बाहर की ओर आवाज दी | शायद आगन्तुकों को चाय पिलानें का उनका सुनिश्चित कार्यक्रम होता होगा तभी तो दो प्याले बनी बनायी गर्म और सुस्वाद चाय मेज पर आ गयी | उन्होंने कहा वैसे मैं चाय नहीं पीती पर आप ठहरे अंग्रेजी के अध्यापक कहीं कह बैठे Ladies First लीजिये मैं एक घूँट ले लेती हूँ | आप चाय पीजिये | इस बीच मैं आपके लिये और महाविद्यालय के कवि सम्मेलन के लिये एक सन्देश लिख देती हूँ | आप नें मेरे विषय में बड़ी -बड़ी बातें की हैं | पर मैं हूँ क्या ? बांस की एक पोर | स्वर तो किसी और का है | मैं तो माध्यम हूँ | हर सच्चा सृजक मानव की शाश्वत मनोवृत्तियों का चितेरा ही तो होता है | अभियक्ति के माध्यम भिन्न भले ही हों | आपकी अंग्रेजी कविता भी वही सब गाती -गुनगुनाती है जो हमारी हिन्दी कविता | और फिर उन्होनें अपनें पैड पर कुछ वाक्य लिख दिये जिन्हें जिज्ञासु महाविद्यालय की उस वर्ष की पत्रिका में देख -पढ़ सकते हैं | चलते -चलते मैनें उनसे कहा कि मैं डा. रामकुमार वर्मा से प्रासाइड करनें का अनुरोध करना चाहूंगा तो उन्होनें मुझे बढ़ावा देते हुये कहा कि हाँ वे शायद मान जायेंगें | वे विश्वविद्यालीय कार्यों के संम्बन्ध में दिल्ली आते -जाते रहते हैं | आपका कालेज दिल्ली के पास ही तो है | वे तो मेरे से भी बड़े कवि हैं | मैनें सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया उनके अहम् भाव शून्य हृदय की विशालता  मुझे कहीं बहुत गहरे भीतर तक छू गयी | हिन्दी भाषा -भाषी महादेवी जी के सदैव ऋणी रहेंगें |
(क्रमशः )
 

No comments:

Post a Comment