Tuesday, 20 February 2018

गतांक से आगे ------------------

                               काल के जिस बिन्दु पर हम खड़े हैं या जी रहे हैं वह अतीत और भविष्य का सन्धि -बिन्दु है | यह दूसरी बात है कि सन्धि -बिन्दु पर हमारा जीना पेंड़ -पौधों के जीनें से भिन्न है और शायद श्रष्टि के मानवेतर चेतन प्राणियों से भी अवचेतन की गहन कुहाओं में छिपी कौन सी आदिम मनोवृत्ति कब और कहाँ कोई नयी परिवेश पाकर सक्रिय हो उठती है इसे हम या तो जान ही नहीं पाते या बहुत देर से जान पाते हैं | विकास के क्रम में मानव चेतना में जब भविष्य का जायजा लेना शुरू किया तो उसके साथ चिन्ताओं का अपार अम्बार भी जुड़ गया आगत की आशंका उसकी जिजीविषा की दीप्ति को राहु बनकर ग्रस बैठी | भविष्य का लेखा -जोखा अपनें पाँव पसारता हुआ मृत्यु की परिधि पार कर परलोक तक पहुँच गया | मरनें के बाद क्या होगा ? क्या मुझमें जो कुछ है सभी मरणशील है ? ऐसा कैसे हो सकता है ? विचार , भावनायें , संकल्प , प्रेरणायें -क्या सभी नश्वर हैं ? कहीं कुछ तो होगा जो शरीर के भष्म बन जानें के बाद धरित्री पर मेरे अस्तित्व की यात्रा स्मृति सहेज कर रखेगी ? अहं ब्रम्हास्मि | मैं ही ब्रम्ह हूँ , मैं ही श्रष्टा हूँ , मैं ही नियन्ता हूँ , मैं ही आदि कारण हूँ पर यदि मैं ही आदि कारण हूँ तो मेरा स्वरूप क्यों परिवर्तित होता है | जीवन काल में ही रूपाकृति बदलती रहती है , केश की काली नागिनें धुंधली केंचुल बनकर रह जाती हैं | चमकते आँखों के सितारे मलिन कांच खण्ड  से  दीप्तिहीन लगनें लगते हैं ,वक्ष की पसलियाँ पिंजड़ा बन जाती हैं | पर इससे क्या ? मैं तो वही हूँ | नहीं भाई ? स्मृति भी तो साथ छोड़ रही है | अमुक का क्या नाम है ? अमुक वस्तु कहाँ रखी है ? तो क्या रूपाकृति का परिवर्तन अन्तस चेतना का भी परिवर्तन है ? नहीं नहीं | अन्तस चेतना तो मष्तिष्क से कहीं बहुत अधिक ऊंचाई पर निवास करती है | वह तो परम उज्वल है , सतत है ,सनातन है , आदि प्रकृति है , रूप बदल कर अमर बनती रहती है | पत्ते झड़नें पर ही नये पत्ते निकलते हैं | बीज गिरा कर ही तो वृक्ष नया जीवन पाते हैं | आत्म तत्व भी इसी प्रकार पुनः पुनः सज संवर कर नव जीवन पाकर परम तत्व बनता है | इस प्रकार के न जानें कितनें चल -चित्र अनमनी निद्रा की झलकियों में मन में बननें बिगड़ने लगे हैं | रात्रि का प्रारंम्भ और दिवस का प्रारंम्भ दोनों के पहले अभिसन्धि बेलायें आती हैं | उन बेलाओं में जिस प्रकार मन में रहस्यमयी लहरियां दौड़ती रहती हैं | उसी प्रकार जीवन के प्रारम्भ और जीवन के अन्तिम दिनों में मन में कितनें अबूझ प्रश्न उठते रहते हैं | भारतीय मनीषा सहस्त्रों वर्षों तक परम तत्व की खोज करती रही है | सुना जाता है कि बहुतों नें उसे खोज कर पा भी लिया था | यह भी कहा जाता है कि बहुत सी सिद्ध आत्मायें बार -बार मानव जीवन के उच्चतम सोपान पर अवतरित होती रहती हैं और इस प्रकार एक लंम्बी उर्ध्वगामी मंजिल तय कर परम लक्ष्य तक पहुँच जाती हैं | बोधिसत्व की धारणां शायद इसी परम्परा की एक जीवन्त कड़ी है और भगवान् महावीर के दर्शन में भी जिन या जिनेन्द्रिय होना इसी दार्शनिक उपपत्ति की ओर इंगित करता है | अरे मैं कहाँ भटक गया ? जीवन यात्रा के अगले पड़ाव पहुंचने से पहले मैं पिछली कुछ स्मृतियों में क्यों उलझा जा रहा हूँ ? पर उलझना या न उलझना क्या मेरे वश मैं है ? मैं जो हूँ वह क्यों हूँ ? आज तक यह प्रश्न अनुत्तरित ही तो रहा है | शक्ति भर सभी धार्मिक और दार्शनिक उपपत्ति और अवधारणाओं का अध्ययन किया पर क्या कुछ ठोस ज्ञान हाँथ लग सका ? तर्क -वितर्क , कुतर्क और हठधर्मिता इन सबसे गुजरकर अन्ततः अज्ञान के ही शरणागत तो होना पड़ा है | ब्राम्हण परिवार में जन्म होनें के कारण सनातनी पूजा पद्धतियाँ और विचार धारणायें तो रक्त का स्पन्दन बनकर चेतन ही करती रही हैं | बड़े होकर दयानन्द जी से भी कुछ सीखा ,जाना फिर बंगाल का ब्रम्ह समाज भी कुछ दिन तक अटकाये रहा | 
                                         एकेश्वर वाद की धारणां नें पैगम्बर मुहम्मद के मूल सिद्धान्तों को भी जाननें ,समझनें की प्रेरणां दी | महामानव व ईसामसीह नें करूणां और त्याग की महिमा से परिचित कराया | गुरु नानक का मानव समानता सिद्धान्त मन पर लंम्बे अरसे तक छाया रहा | प्राचीन यूनान के Stoic दर्शन ने भी काफी समय तक मन को प्रभावित रखा | नीत्से के माध्यम से ज़रा त्रुष्ट से भी परिचय प्राप्त किया | सिना गाग तो जाना नहीं हुआ पर यहूदी दर्शन की कुछ झलक दर्शन ग्रन्थों में पाता रहा | अमिताभ गौतम तो हिन्दू दशावतारों में से ही एक हैं पर बुद्ध दर्शन पर कुछ अध्ययन दलाईलामा के भारत आगमन के साथ प्रारंम्भ हुआ फिर सोचा इतिहास में कहीं कहीं वह वर्णित हुआ है कि भारत के प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म की दीक्षा लेकर शरीर त्याग किया था | मन में लहर उठी जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों पर प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन किया जाय | अध्ययन के प्रारंम्भ में ही संयोग वश व्यवहारिक धरातल पर जैन मुनियों से संम्पर्क साधनें का सुअवसर मिल गया | जैनियों के चौबीसवें तीर्थन्कर भगवान् महावीर नें वैशाली के गणराज्य में वैचारिक क्रान्ति फैलायी थी पर मुझ तक उस क्रान्ति की चमक हरियाणा में मेरे प्रवास के दौरान पहुंचीं | हुआ कुछ यों महाविद्यालय में अंग्रेजी का प्रवक्ता लगनें के प्रथम वर्ष ही मैनें जिस आवास को अपनाया यानि जो मकान किराये पर लिया वह जैनियों का था | केन्द्रीय उ. प्र. के रामाबाई जिले में स्थित एक ब्राम्हण बाहुल ग्राम  में मेरा जन्म हुआ था | मेरे प्रारंम्भिक अनुभव में कोई भी जैन परिवार गाँव में उभरता नहीं दिखायी पड़ता वह शायद इसलिये है कि जैन धर्मावलम्बियों की पूरी आबादी भारतीय आबादी का .003 प्रतिशत है | इसलिये जहां है वह सघन रूप में है इसलिये भारत भूमि के एक बड़े हिस्से में जैन धर्मावलम्बी बसे हुये नहीं दिखायी पड़ते | जब मैं किशोर था तब मुझे मेरी माँ एक पटवा परिवार के यहां भेजकर अनन्ता मंगाया करती थीं | उस समय मैं पटवा को जैन धर्मावलंम्बी के रूप में नहीं जानता था | अनन्ता अनन्त चौदस के दिन लड़कों की भुजाओं पर बांधा जाता था और अनन्ता बांधनें पर मातायें सुनिश्चित हो जाती थीं कि दुष्ट आत्मायें उनके पुत्रों को नहीं सता पायेंगीं | बड़ा होनें पर जब मैनें म. प्र. में सुन्दर लाल पटवा आदि के राजनीतिक हलचलों की ख़बरें पढ़ीं तब मैं जान पाया कि पटवा वणिक लोग हैं और मुख्यतः जैन धर्मावलंम्बी हैं | हाँ कानपुर नगर में आनें पर मैं एक दो बार कांच मन्दिर देखनें अवश्य गया था पर उस समय तक मैं यह नहीं जानता था कि वह दिगम्बर जैन मन्दिर है या श्वेताम्बर जैन मन्दिर | तो मैं जिस जैन मकान में किरायेदार बनकर रहा उसमें और कोई नहीं रहता था | हुआ यूं कि मैं महाविद्यालय के छात्रावास में अतिथि अध्यापकों के लिये रिजर्व एक दो कमरों में रह रहा था | मुझे रिहाइश के लिये मकान की आवश्यकता थी | मेरा एक छात्र बी. काम. सेकेण्ड इयर का विद्यार्थी सुरेन्द्र कुमार जैन एक संम्पन्न जैन घरानें से संम्बन्धित था | उसनें मेरी समस्या का हल निकाल दिया | उसके चाचा एक जैन धर्मादा ट्रस्ट के मैनेजर थे | जैन मुनियों के ठहरनें के लिये रोहतक नगर में कई स्थानक बने हुये हैं | कुछ स्थानक श्वेताम्बर मुनियों के लिये हैं कुछ दिगम्बर मुनियों के लिये | श्वेताम्बरों में भी कई विभाजन हैं जैसे तेरा पन्थी , बाइस टोला आदि | जब मुनि नहीं होते या मुनि दूसरे स्थानकों में ठहरे होते तो खाली स्थानक श्रद्धालुओं को रहनें के लिये दे दिये जाते थे | उनसे उचित किराया लेकर धर्मादा ट्रस्ट में जमा कर दिया जाता था | जैन धर्म परंम्परा से परिचित लोग जानते ही हैं कि जैन मुनि वर्षा ऋतु के तीन चार महीनें किसी एक नगर में टिक जाते हैं और वर्ष के अन्य महीनों में सदैव भ्रमण करते रहते हैं | जैन साधुओं या जैन मुनियों को ढूढिया भी कहा जाता है क्योंकि वह निरन्तर जीवन अनुभव को ढूढ़ा करते हैं एक सच्चे शोधक की भांति | इस स्थानक में तीन मंजिल थीं और सारी सुविधायें उपलब्ध थीं | इसी स्थानक में मैनें एक लंम्बे काल तक टिकाव किया और अपनें परिवार को संरक्षण दिया | अपना घर बन जानें के बाद ही मुझे इस स्थानक को छोड़ना पड़ा और उस स्थानक से जुड़ी स्मृतियाँ अभी मुझे कितनी ही बार संम्वेदन शील बना जाती हैं | शायद बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के आस पास की बात है किसी डायरी में लेखांकन न होनें के कारण समय का ठीक निर्धारण मैं नहीं कर पा रहा हूँ | उस वर्ष की बरसात रह रह कर भिगा देनें वाली बरसात थी | आचार्य सुदर्शन मुनि जिन्हें  गुरु सुदर्शन देवः नमः के नाम से जाना जाता था पास के ही एक नये  बनें सर्व सुविधा संम्पन्न स्थानक में अपनें शिष्यों के साथ ठहरे थे | जैन मुनियों की परम्परा में मुनि बननें से पहले काफी दिनों तक मुनि बननें की इच्छा रखनें वाले किशोरों को दीक्षा के योग्य तैयार करनें के लिये मुनियों की सेवा में रहना होता है | संम्भ्रान्त और समृद्ध परिवारों के कई व्यक्ति अपनें कई बेटों में से अपनें एक बेटे को मुनि बननें की इजाजत देकर परमार्थ लाभ करते हैं | ऐसा विश्वास किया जाता है कि जिस परिवार से एक बच्चा मुनि बन जायेगा वह परिवार सदैव के लिये धन्य हो जायेगा | वह धन -धान्य से पूर्ण होगा | सदाचारी होगा और भगवान् महावीर की छत्र छाया का अधिकारी होगा | एक लंम्बी तैयारी के बाद पूरे प्रचार और गाजे बाजों के बीच दीक्षा समारोह होता है | जिसमें केश लुंचन करके बैरागी को मुनि बना दिया जाता है | फिर वह सबकी पूजा का पात्र हो जाता है | मुंह पर श्वेत कपड़े की पट्टी बांधकर श्वेत वस्त्र धारण कर और हाँथ में चंवर लेकर जैन मुनि रोहतक की सड़कों पर एक निराली छटा बिखेरते हैं | सैकड़ों श्रद्धालु उनकी चरण वन्दना कर उन्हें घर पर भोजन करानें का आग्रह करते हैं | कुछ भाग्यशाली ही उन्हें घर पर बुलाकर आशीर्वाद पानें में सफल हो जाते हैं | वैसे जैन मुनि कुछेक घरों में भिक्षा में जो कुछ मिल जाय मीठा , कड़ुआ , खट्टा , तीता सबको एक ही पात्र में मिलाकर ले लेते हैं | और सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते | भारतीय साधु परंम्परा में जैन मुनियों की कठिन साधना निःसंदेह ही बार बार प्रशंसित होती रहती है | उनके भ्रष्ट आचरण की कहानियां भी लगभग न के बराबर ही हैं | जैन मुनियों में भारतीय ऋषि मुनियों की त्याग परंम्परा अब भी अपनें जीवन्त रूप में विद्यमान है | दिगम्बर मुनि तो निर्वस्त्र रहते हैं | जिस कालेज में मैं प्राध्यापक था उसके बांयें पार्श्व में कालेज की सीमा भित्ति से सटी एक जैन बगीची थी जिसमें एक सुन्दर दिगम्बर स्थानक था | उस स्थानक के बाहर चबूतरे पर शीतकाल के दौरान मैनें एक दिगम्बर साधु को कई बार पन्थी मारे बैठे देखा था और उसके आस -पास बैठकर अत्यन्त सम्पन्न जैन परिवार की महिलायें उसका उपदेश सुना करती थीं | बगीची के चारो ओर ऊंची परिधि का घेरा था इसलिये सड़क पर चलनें वाले लोग उस धर्म समागम को देख सुन नहीं पाते थे | 
                             तो बात चल रही थी गुरु सुदर्शन मुनि जी की | उनके बहुत सारे शिष्य थे पर एक अत्यन्त समृद्ध परिवार के श्रद्धालु नें उन्हें अपना बेटा वैरागी के रूप में भेंट किया था | इस वैरागी को मुनि बननें की दीक्षा कई महीनें बाद होनी थी | वैरागी जब  मुनि बननें के लिये प्रस्तुत हुआ उस समय वह बारहवीं का विद्यार्थी था | उसकी बुद्धि अत्यन्त प्रखर थी और उसका भाषा ज्ञान स्नातक स्तर का था | पाली और संस्कृत का ज्ञान तो उसे था ही साथ ही उसे हिन्दी और अंग्रेजी पर भी अच्छा अधिकार था | गुरु सुदर्शन जी नें संम्भवतः मेरे अच्छे अध्यापक होनें की चर्चा सुन रखी होगी इसलिये उन्होंने धर्मादा ट्रस्ट के मैनेजर मनसुमरन जैन को मेरे पास इस आग्रह के साथ भेजा कि मैं उनके चहेते वैरागी को अंग्रेजी का और अधिक गहरा ज्ञान प्रदान करूँ ताकि वह अमेरिकन पोयट व्हिट मैन की कवितायें समझ सके और थोरो का दार्शनिक ज्ञान उसकी पकड़ में आ जाय | उन्होंने यह भी कहा कि वैरागी को मेरे ही कमरे में पढनें के लिये भेज देंगें क्योंकि वह अभी तक दीक्षा लेकर मुनि नहीं बना है | और विषयों के अध्यापक तो उसे पढ़ानें जहाँ वह टिका है वहीं आते थे पर मेरे लिये यह विशेष व्यवस्था कर दी जायेगी कि वैरागी मेरे पास आ जाय उस वैरागी को  हम अब ज्ञान रत्न के नाम से संम्बोधित करेंगें | तो फिर अब मेरे लिये बच निकलनें का कोई रास्ता ही नहीं था | जिस नगर में मैं था वहां गुरु सुदर्शन के अत्यन्त प्रतिभाशाली वैरागी सेवक का शिक्षक होना एक विरल सम्मान की बात मानी जाती थी | मैनें भी उस वैरागी की चमत्कारिक बुद्धि की बातें सुनीं थीं और मैनें सोचा कि इस प्रकार मैं जैन धर्म के व्यवहारिक रूप से रूबरू हो सकूगाँ | अब क्या था ज्ञान रत्न नें मेरे पास आना प्रारंम्भ किया | मैनें पाया कि उसका ज्ञान मेरी कक्षा में बी. ए. के अन्तिम वर्ष के छात्रों के समतुल्य ही होगा | पर चूंकि उसके पास एकाग्रता के लिये नियम और साधन थे इसलिये उसनें बहुत शीघ्र ही अंग्रेजी भाषा पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली | थोरो और व्हिट मैन से आगे चलकर इमर्सन और व्हाइट हेड सभी उसकी पकड़ में आ गये | मैं उसका भाषा गुरू था और श्री सुदर्शन जी उसके धर्म गुरू थे | मेरे जीवन की कुछ सकारात्मक बातें वह गुरु सुदर्शन तक पहुंचाता और उनके जीवन की कुछ सकारात्मक छवियाँ मुझ तक पहुंचाता | इस प्रकार गुरु सुदर्शन जी और मैं एक दूसरे के प्रति सहयोगी विद्वान बन्धुओं सा व्यवहार करनें लगे | मैं सुदर्शन जी के प्रति आदर से नमस्कार करता और वे अत्यन्त प्रेम भाव और आग्रह के साथ अपनें समीप बिठाते | उनके सामीप्य में आनें से रोहतक में बसे जैन समुदाय का एक बड़ा वर्ग मुझे नजदीकी भाव से देखनें लगा | अब ज्ञान रत्न नें मुझसे अंग्रेजी में भाषण देनें की कुशलता सिखा देनें का अनुरोध किया | उसनें कहा कि शीघ्र ही वह दीक्षित होनें  वाला है और तब उसे उच्चतर विद्यालयों और महाविद्यालयों में मानव जीवन को सुखद बनानें के लिये जैन परम्परा से जुड़े भाषण देनें पड़ेंगें | मैनें उसके आग्रह को स्वीकार किया और एक योजना बनायी जिसके तहत उसे धर्म गुरु की Mock Acting करके अंग्रेजी में प्रवचन देनें की प्रक्रिया प्रारम्भ की गयी | कुछ दिनों की प्रारम्भिक असफलता के बाद ज्ञान रत्न का विश्वास बढ़ा और फिर बढ़ता ही गया | अब वह अंग्रेजी का एक कुशल वक्ता बन गया | दीक्षा का समय आ रहा था | केश लुंचन का दिन निर्धारित कर दिया गया | तय हो गया था कि केश लुंचन के बाद सुदर्शन हरियाणा छोड़कर पंजाब के अबोहर नगर में अपनें शिष्यों के साथ जाकर रुकेंगें | ज्ञान रत्न की अन्तिम परीक्षा केश लुंचन के बाद मुनि वेश धारण कर अंग्रेजी में दिये गये प्रवचन की सफलता पर निर्भर थी | कहना न होगा कि मुझे जब ज्ञान रत्न के शिक्षक बननें के लिये आग्रह किया गया होगा तब गुरु सुदर्शन जी के पास इस बात की चर्चा पहुँच गयी होगी कि मैं अंग्रेजी का एक अच्छा वक्ता हूँ और शायद यह भी एक कारण रहा होगा कि उन्हें ज्ञान चन्द्र को मेरे पास शिष्य बननें के लिये भेजा | आमन्त्रित होनें पर भी संम्भवतः उस दिन विद्यालय में अवकाश न होनें के कारण मैं अपनें को भव्य दीक्षा समारोह में उपस्थित न कर पाया | बाद में सुना कि सहस्त्रों की भीड़ थी | और अंग्रेजी में ज्ञान चन्द्र का दिया गया भाषण जिसका हिन्दी अनुवाद गुरु सुदर्शन के वरिष्ठ शिष्य प्रकाश मुनि साथ -साथ कर रहे थे अत्यन्त प्रभावशाली रहा | रोहतक में जैन मुनियों के बीच पहला इतना सुयोग्य शिष्य सुदर्शन जी की टोली में शामिल हुआ जो शुद्ध अंग्रेजी में 40 -50 मिनट तक जैन धर्म के मूलभूत विश्वासों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर सकता था | ज्ञान रत्न का सम्मान ,प्रकारान्तर से मुझे भी प्रकाश में ले आया क्योंकि ज्ञान रत्न मुनि नें अपनें भाषण के अन्त में भाषा गुरु के रूप में मेरे खुले दिल से प्रशंसा की बाद में अगले दिन जब वह मुझसे मिलनें आया तो मैनें उससे पूछा कि उसनें अपनें भाषण में ऐसी कौन सी विशेष बातें बतायीं जिनकी वजह से उसका भाषण इतना प्रभावशाली बन सका | उसनें विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया कि उसनें कुछ विशेष नहीं कहा मात्र इस बात पर जोर दिया कि कर्म के बल पर ही मनुष्य का भविष्य निर्धारित होता है | पाप और पुण्य दोनों ही समय पाकर अपनें अपनें परिणाम दिखाते हैं | जो जैसा बोयेगा वैसा काटेगा | कबीर की प्रसिद्ध पंक्ति , ' बोया पेंड़ बबूल का ,आम कहाँ से खाय | " का अंग्रेजी भाव उसनें इस प्रकार की पंक्तियों में व्यक्त किया | 
"  The one who has strewn good or bad seeds 
    In the earth of destiny 
    will also reap good or bad fruits 
   when they become ripe. " 
                               मुझे यह सुनकर सच्ची भीतरी खुशी हासिल हुयी क्योंकि मैनें यही चाहा था कि ज्ञान रत्न जैन धर्म के व्यवहारिक स्वरूप पर अधिक ध्यान दे वनस्पति उसके सैद्धान्तिक पक्ष के | मैनें उसके अनेकान्तवाद पर अनेक बार चर्चा की थी और निश्चय ही वह संकीर्ण मानसिकता से मुक्त होकर धर्म के मानव कल्याणकारी सामसिक रूप से आत्मिक परिचय पा चुका था | उस दिन मैं ज्ञान रत्न से यह कहकर सांध्य भ्रमण पर निकला कि मैं उसके जानें के बाद भी उसे निरन्तर याद करता रहूँगा और चाहूंगा कि अध्यापक के नाते वह मुझे अपनी खोज -खबर देता रहे | ज्ञान रत्न ने उठते उठते कहा कि उसकी एक प्रार्थना है मैनेँ सुननें की अनुमति दी | तो उसनें बताया कि वह गुरु सुदर्शन जी से प्रार्थना कर रहा है कि वे उसे इसी स्थानक में कुछ और महीनें रहनें की अनुमति दे दें | कुछ महीनें उन्हें अबोहर में अपनें शिष्यों के साथ ठहरना है वह यहीं  बना रहे तो अंग्रेजी भाषा और साहित्य का उसका अध्ययन चलता रहेगा | पर इसमें एक समस्या है कि मुनि होनें के बाद वह मेरे घर नहीं आ सकेगा | स्थानक में उसके साथ केवल एक दो कर्मचारी देखभाल के लिये रहेंगें , यदि मैं स्थानक में जाना स्वीकार कर लूँ तो आचार्य श्री उसे रोहतक में रहनें की अनुमति दे देंगें | कुछ क्षणों का सोच विचार मेरे मष्तिष्क के किसी कोनें में चला | फिर सहसा मुझे लगा कि मुझे एक आडम्बरहीन ज्ञान पिपासु मुनि के लिये मुझे अपना अहंकार त्याग देना चाहिये | मैनें कहा ठीक है | मैं सांध्य भ्रमण से पहले लगभग एक सवा घण्टे के लिये तुम्हारे स्थानक आ जाया करूँगां उस समय श्रद्धालुओं की भीड़ से मुक्त रहना | अबोहर प्रयाण के समय आचार्य सुदर्शन गुरू जी नें मुझे बुलवा भेजा | हजारों की भीड़ के बीच उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें इस बात का गर्व रहेगा कि उनका चहेता शिष्य ज्ञान रत्न मेरे पास बैठकर जीवन के ऊंचे आदर्शों की सीख ले रहा है | मैनें सिर झुकाकर उनके शब्दों की मुनि जैसी सरलता और सच्चायी पर आदर व्यक्त किया | उनके हजारों प्रशंसक नगर के बाहर  तक उन्हें और उनकी शिष्य टोली को पैदल चलकर छोड़नें गये | ज्ञान रत्न कुछ और महीनों के लिये रोहतक के उस नवनिर्मित स्थानक में रुका रहा और गुरु शिष्य का हमारा संम्बन्ध क्रमशः इतना गहरा होता चला गया कि हम मित्रवत हो गये | मैं काफी बड़ा था पर आचरण की द्रष्टि से वह मुझसे अधिक ऊंचाई पर खड़ा था | अगले दिन जब मैं सांध्य भ्रमण से पहले ज्ञान रत्न के पास पहुंचा और उससे पूछा कि उसनें रोहतक नवनिर्मित स्थानक में कुछ महीनें और ठहर कर मुझसे शिक्षा लेनें के लिये इतना आग्रह क्यों दिखाया | आचार्य श्री सुदर्शन अबोहर में भी उसके लिये न जानें कितनी ऊंची डिगरियों से विभूषित शिक्षक बुला देते तो उसनें विनम्रता पूर्वक हरी भद्र की जानी मानीं चार पंक्तियाँ दोहरायीं | 
" I did not  choose  Mahavira as my friend 
  and Kapila my enemy and others like him ,
  Listen to him only and follow him,
  whose teachings reveal the genuine truth."  
( क्रमशः )
 

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