Wednesday, 21 February 2018

गतांक से आगे -

                                         ज्यों -ज्यों घनिष्ठता बढ़ती गयी मैं ज्ञान रत्न से उसके परिवार में जहां उसका जन्म हुआ था रूचि दिखानें लगा , ऐसा इसलिये हुआ कि एक बार उसका बड़ा भाई अपनी पत्नी के साथ श्रद्धालु बनकर मुझसे मिलनें आया और मुझसे प्रार्थना की वह उन्हें स्वस्ति वचन सुनावें | जैन धर्मावलम्बी स्वास्तिवचन को मंगली कहकर अभिहित करते हैं | सनातन धर्म में भी मैनें देखा था कि गेरुआ वस्त्र धारण करनें के बाद माँ , बाप , और अन्य ज्येष्ठ सभी गृहत्यागी के आशीर्वाद की आकांक्षा करते हैं | स्वाभाविक था कि मेरे मन में उसके मूल परिवार के जाननें की इच्छा हुयी | वैसे तो मुनियों का परिवार सारा संसार ही हो जाता है और जितेन्द्रिय आत्मायें ही उनकी प्रेरणा बनती हैं | ज्ञानचन्द्र नें बताया कि उसके पिता नरवाना के एक प्रतिष्ठित व्यापारी हैं | आढ़त की दुकान के अतिरिक्त उनकी लोहे की सरिया बनानें की एक फैक्ट्री भी है | दो बड़ी बहनें व्याही जा चुकी हैं | उससे बड़े दो भाई हैं , जो भाई मुझसे मिलनें आया था उसकी पिछले साल ही शादी हुयी थी | मैं आचार्य श्री सुदर्शन जी के साथ बैरागी बन चुका था | पिता जी नें चाहा कि मैं बड़े भाई की शादी में शरीक हूँ क्योंकि मैनें अभी दीक्षा नहीं ली थी | पूज्य गुरू जी नें निर्णय किया कि यदि ज्ञान रत्न जाना चाहे तो वे उसे इजाजत दे देंगें | फैसला मेरे ऊपर छोड़ दिया गया | माता और पिता का बहुत अधिक आग्रह था सारी रात अर्धनिद्रा में भी मेरे भीतर संघर्ष होता रहा पर प्रभात से कुछ पहले  मन में एक द्रढ़ निश्चय उभर आया | मैं बैरागी हो गया हूँ | कुछ समय बाद दीक्षित होकर मुनि बन जाऊंगाँ | मेरा पारिवारिक समारोहों से क्या संम्बन्ध ? वैरागी का अर्थ ही होता है रागों से मुक्ति | मैनें द्रढ़ शब्दों में गुरू जी से कह दिया कि शरीर के सारे संम्बन्ध समाप्त हो चुके अब तो आत्मा के संम्पर्क ही साधनें हैं | आप ही इस साधना के सूत्रधार हैं कृपा करके माता -पिता को अपना आशीर्वाद देकर विदा कर दीजिये | उन्हें ज्ञान दीजिये कि वह मोह से मुक्ति पा सकें | तब से अब तक सभी परिवारजन  मुझसे मुनि के नाते मिलकर आशीर्वाद लेनें ही आते हैं | मैनें ज्ञान रत्न से फिर परिवार के संम्बन्ध  में किसी अधिक जानकारी इकट्ठा करनें की इच्छा व्यक्त नहीं की पर अब मेरे प्रश्नों का सिलसिला उसके अवचेतन में गूंजते हुये संगीत को शब्दों के द्वारा बाहर सुननें के लिये कटिबद्ध हुआ | मैं जानता हूँ  जैसा कि  आप सब जानते हैं कि मनुष्य की कामेच्छा ,उसकी भोगेच्छा , उसकी इन्द्रियाँ सक्ति कहीं न कहीं ,उसकी अवचेतन में मधुर स्वर लहरियां गुंजाती रहती हैं | क्या वैरागी की कठिन साधना और जैन मुनि का कष्ट साध्य जीवन उन आदिम अदम्य संगीत सुरों को सचमुच ही परिवर्तित कर उच्चतम लक्ष्यों की ओर मोड़ सकता है ? संम्भवतः ज्ञान चन्द्र इन प्रश्नों के लिये तैयार नहीं था क्योंकि उसनें जो उत्तर दिये वे अत्यन्त सटीक और विवेचक बुद्धि से निर्णीत हुये थे | जब मैनें उससे पूछा कि ढेर सारी सुन्दर तरुणियों के बीच में जब वह प्रवचन देता है तो क्या उसे अपनें ज्ञान प्रदर्शन की सुखानुभूति नहीं होती | यदि धर्म समागम में मात्र स्त्रियां ही हों और वह भी तरुणियाँ तो क्या उसे वह धर्म समागम उस धर्म समागम से अच्छा नहीं लगता जिसमें पुरुष ही पुरुष हों | ज्ञान रत्न नें हंसकर कहा गुरू जी आप मुझे फिर सांसारिकता की ओर खींच रहे हैं | रहनें दीजिये आप के प्रश्नों की सच्ची मीमांसा करना मेरे लिये एक दुष्कर कार्य है | मैं कैसे कह दूँ कि तरुणियों का उपदेशक बनना मुझे अधिक अच्छा नहीं लगता | मैं एक हाड़ मांस से बना हुआ पुरुष हूँ पर इतना विश्वास आपको दिलाता हूँ कि यह अच्छा लगना मुझे कभी शारीरिक रुप से रोमांचित नहीं करता और न कर पायेगा |आत्म निग्रह अभी अपनी प्रारम्भिक स्थिति में है लेकिन गुरु सुदर्शन महाराज का आशीर्वाद साथ रहा तो  एक दिन मैं जितेन्द्रिय बननें के आदर्श को कम से कम आंशिक रूप में तो प्राप्त कर ही लूंगा | आप साहित्यानुरागी हैं , सांसारिक जीवन जी रहे हैं और आपकी मान्यताओं में गृहस्थ का जीवन भी मुनि के जीवन से कम पवित्र नहीं है | मैं आपके विचारों की शक्ति से परिचित हूँ और मैं जानता हूँ आप जो कह रहे हैं वही सामान्य मानव जीवन का ध्येय होना चाहिये | मेरे परिवार के अन्य सभी लोग उसी ध्येय की पूर्ति में लगे हैं | मैं तीर्थन्करों के  मार्ग पर चल पड़ा हूँ | | मुझे कुछ दूर और चल लेनें दीजिये जब तक मैं निष्ठा पूर्वक अपनें आत्म जय की बात न कह सकूं तब तक मैं आपसे झूठ नहीं बोलूंगा | अभी मैं कई बार सन्देह से भर जाता हूँ कि मैनें मानव जीवन के  उचित मार्ग का चयन किया है या  नहीं | आपके जीवन दर्शन में सन्यासी को भी बाँध लेनें की शक्ति है | आपसे प्रार्थना है कि मुझे मुक्त रहनें दीजिये | तब तक आप शायद बृद्ध हो जायेंगें पर मैं एक दिन किसी मुनि टोली में आकर आपको आश्वस्त कर सकूंगा कि मैं भारत के प्राचीन आदर्श जितेन्द्रिय होनें के निकट पहुँच चुका हूँ | मैनें ज्ञान रत्न के विनम्रता भरे निवेदन को पूरी सहजता से स्वीकार किया | और उसके बाद अन्य जो भी चर्चायें होती रहीं उनमें जैन धर्म के गूढ़ तत्वों का ही विश्लेषण , विवेचन होता रहा | एक दिन बातों ही बातों में मैनें ज्ञान चंद्र से पूछा कि बुद्ध और जैन धर्म में जाति व्यवस्था की कोई योजना तो स्वीकृति नहीं हुयी है फिर भी लगभग सभी जैन धर्मावलम्बी वैश्य समाज से ही जुड़े हैं इसका क्या  कारण है | मेरे अनुभव में था कि व्यापारियों में विष्णी और जैनी दोनों ही समाजों में आपस में शादी व्याह हो रहे थे | अतः मैनें निष्कर्ष निकाला था कि वैश्य समाज का कुछ भाग ही जैन धर्म में शामिल होकर जैन धर्मावलम्बी भी बन गया था | ज्ञान रत्न नें कहा कि मेरा अनुभव पूर्णतः सत्य तो नहीं है पर उसमें निश्चय ही जैन समाज का एक बहुत बड़ा भाग समाहित हो जाता है | दरअसल मैं जिस कालेज में प्राध्यापक था उसमें मेरे साथ तीन जैन प्राध्यापक भी टीचिंग फैकेल्टी में अपनी सेवायें दे रहे थे | इनमें दो के साथ मेरे घनिष्ठ संम्बन्ध थे | एक थे प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम चन्द्र जैन जो बाद में डा पी. सी. जैन के नाम से काफी चर्चित हुये | वे लाहौर के कालेज में Oriental Languages के प्रोफ़ेसर थे | विभाजन के बाद रोहतक आकर वैश्य कालेज में प्रोफ़ेसर हो गये थे | वे एम. ए. ,एम. ओ.एल. थे | रोहतक में आकर उन्होंने पंजाब विश्विद्यालय से स्वीकृत एक शोध कार्य हाँथ में ले लिया था | उनके शोध का विषय था " labour problem in ancient india. "  चूंकि हिन्दी में भी मेरी थोड़ी बहुत पहुँच बन गयी थी इसलिये पी.सी. जैन साहब मेरे से स्नेह करनें लग गये थे | यद्यपि वे संस्कृत और हिन्दी के विशेषज्ञ थे | और उन  दिनों संस्कृत के एम. ए. के लिये भी अंग्रेजी में उत्तर लिखनें होते थे इसलिये उनकी अंग्रेजी भी काफी सशक्त थी | शोध कार्य के दौरान वे अपना शक मिटानें के लिये वे अंग्रेजी में लिखे हुये अपनें अध्यायों को मुझसे रिवाइज करवा लिया करते थे | इस प्रकार हम दोनों नजदीक होते चले गये | मैनें उनसे पूछा था क्या उनके पिता भी जैन धर्मावलम्बी थे या सनातन धर्मी वैश्य थे तो उन्होंने हंसकर बताया था कि वे वैश्य नहीं हैं | वे सारस्वत ब्राम्हण हैं | जैन मत तो उन्होंने स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया है फिर उन्होंने मेरी जानकारी बढ़ाते हुये कहा था कि सारस्वत ब्राम्हणों में भी अवस्थी होते हैं और उनके एक संम्बन्धी अवस्थी हाई कोर्ट में जज हैं | प्रो० पी. सी. जैन की इस महत्व पूर्ण शोध पर उन्हें पंजाब यूनिवर्सिटी नें डाक्टरेट प्रदान की थी और उनकी यह शोध पुस्तक दिल्ली के जानें -मानें प्रशासक मोती लाल बनारसी  दास नें प्रकाशित करवायी थी | प्रो ०  पी. सी. जैन मेरे से काफी बड़े थे और मेरे सेवा काल में ही सेवानिवृत्ति के बाद उनका निधन हुआ था | उस समय मैनें पाया कि जैन समाज का अधिकांश उनके अन्तिम संस्कार में शामिल नहीं हुआ था | इस घटना से मुझे यह नया अनुभव हुआ कि जैन समाज में भी जाति की धारणां जड़ें पकड़ चुकी है और धर्म की समानता के बावजूद जातीय लगाव छूट नहीं सका है | मेरे दूसरे सहकर्मी हिन्दी के प्रोफ़ेसर निर्मल कुमार जैन थे वे मुरादाबाद से थे | और क्षत्रिय परिवार से थे | असमय माता -पिता की मृत्यु हो जानें से उन्हें किसी जैन धर्म संघ नें ऊंची शिक्षा दिलवानें में मदद पहुचायी और उन्होंने जैन मत का अवलंम्बन कर लिया पर मैनें पाया था कि रोहतक का वैश्य समाज जिसका काफी बड़ा भाग जैन धर्म का अनुयायी है उन्हें अपनें समाज का सहज अंग नहीं मानता था | मैनें इस विषय में ज्ञान चन्द्र से चर्चा की तो उसनें अहंकार शून्य मन से स्वीकार किया कि जैन धर्म में यह विकृति आ चुकी है और मूलतः यह वणिकों की पूजा पद्धति का ही एक विशिष्ट भाग बन गया है | अब राजनीति में भी मायनॉरिटी status की बात का यह वणिक समाज अपना विशेषाधिकार बनाये रखना चाहता है | उसनें बताया कि राजस्थान और गुजरात में अलग -अलग प्रादेशिक विभिन्नतायें हैं पर सब मिलाकर जैन समाज की छवि एक संम्पन्न व्यापारी या छोटे बड़े उद्योगपतियों के ऐसे समूह के रूप में ली जाती है जो पैसा पकड़ना जानते हैं और किफायत सारी को कंजूसी के निचले सतह तक पहुंचा देते हैं | मैनें पाया कि ज्ञान रत्न में कहीं भी कोई पूर्वाग्रह नहीं है और वह विवेक से वस्तु स्थिति का निरूपण करनें की क्षमता रखता है |
                               अभी कुछ दिन पहले की बात है कि सायं भ्रमण के समय मेरी एक तरुण से मुलाक़ात हुयी जो सांध्य कर्म के लिये पानी की तलाश में ड्रेन न. 8 तक आ पहुंचा था चूंकि उसके सिर के पिछले हिस्से में लंम्बी चोटी लटक रही थी इसलिये मैं समझ गया कि वह निश्चय ही भारतीय संस्कृति के प्राचीन गौरव से सुपरिचित होगा | बातचीत में उसनें बताया कि वह शास्त्री की परीक्षा पास करनें के लिये गौड़ महाविद्यालय में प्रविष्ट हुआ है कि पिछले पांच वर्ष से वह प्रचार में लगा था , कि  वह उत्तर भारत के बिहार , मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में प्रवचन कर चुका है | पांच वर्ष की सेवा के बाद किसी धर्म संघ नें उसे छूट दी है कि अब वह आगे पढ़े और कोई स्थायी जीविका निर्वाहण का साधन खोजे ताकि गृहस्थ जीवन प्रारंम्भ किया जा सके | मैं उसकी बात सुनकर प्रभावित हुआ और मैनें जानना चाहा कि वह क्या प्रचार -प्रसार करता रहा है | उसनें बताया कि सेन मतावलम्बियों का एक परिसंघ है जिसनें उसे वैदिक आधार पर जाति व्याख्या की नयी सूझ प्रदान की है उसनें कहा वह जन्म से नापिक यानि नाई है फिर उसनें बताया कि संम्भवतः सामवेद में ( या शायद ऋगुवेद ) में कोई एक श्लोक है जिसमें सविता की प्रार्थना की गयी है और उसकी किरणों की तुलना छुरी की धार से की गयी है | इस श्लोक की सच्ची व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि नाई समाज वैदिक ऋषियों की सन्तान है और भारत की श्रेष्ठतम मानव शाखाओं में से है | उसनें बात को आगे बढ़ाते हुये यह भी बताया कि चन्द्रगुप्त मौर्य से पहले के सारे नन्द शासक सविता वंश परंम्परा से ही थे और चन्द्रगुप्त मौर्य स्वयं भी सविता वंश की एक नारी की कोख से जन्मा था | अशोक के बाद मौर्य वंश कमजोर हो गया और पुष्य मित्र नें अन्तिम मौर्य शासक वृहद्रथ को मारकर शुंग वंश की नींव रखी | पुष्य मित्र ब्राम्हण था और मौर्य शासक का सेनापति था उसे सविता वंशीय शासकों से इसलिये नफ़रत हो गयी थी कि वे जैन और बुद्ध  धर्म के समर्थक बन गये थे | पुष्य मित्र नें दमन का चक्र चलाया और सविता वंशीय लाखों नर -नारी डरकर दूर दराज जंगलों में छिप गये | कुछ समय पश्चात वे जंगलों से निकलकर आस -पास के मैदानी इलाके में बसे और उन्होंने अपनें परिश्रम और सहयोग से उन मैदानी इलाकों को नगरों में बदल डाला | उसनें मुझे एक नया ज्ञान यह भी दिया कि लखनऊ का नाम लखनऊ इसीलिये पड़ा कि जंगलों में छिपे लाखों नउवा लोग लखनऊ के आस पास बस गये थे | मैं उसके इस ज्ञान प्रदर्शन के आगे चुप्पी साध गया | मैनें कहीं पढ़ा था कि लखनऊ लक्षमणावती या लक्षमणपुरी से बिगड़कर बना है | पर लाख नाऊ  का भाषा विज्ञान मुझे भयभीत सा करनें लगा | खैर छोड़िये , यह तो हुआ प्रसंगान्तर मैं जो कहना चाह रहा था वह यह है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य अन्त में जैन धर्म स्वीकार कर देह त्याग देनें के लिये कृत संकल्प हुये , आश्चर्य है कि विष्णुगुप्त कौटिल्य जिसका गुरु रहा हो वह सम्राट ब्राम्हण मान्यताओं से हटकर वैशाली के गणतन्त्र में जन्मी -पली और फलीफूली पारलौकिक मान्यताओं का अनुगामी बन गया | स्पष्ट है कि जैन धर्म में भी एक गहरी आकर्षण शक्ति है और भारत के कई अत्यन्त प्रतिभाशाली और समर्थ शासकों को इसनें अपनी ओर खींचा है | उत्कल साम्राज्य के खारवेल का नाम भी इसी श्रेणीं में आता है | बीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास के सबसे बड़े महापुरुष मोहन दास करम चन्द्र गांधी ने भी अपनी आत्मकथा में जैन मुनियों के सिद्धान्तों और आचरण द्वारा अपनें को प्रभावित होनें की बात लिखी है | अहिंसा की संपुष्ट धारणां तो जैन मत का सबसे बड़ा आधार है | कालेज के पास की जैन वाटिका में शीत की सिरहन भरी सुबह सूरज की पहली किरणों के बीच बैठे नग्न मुनि की सहज , शान्त और आश्वस्त कर देनें वाली मुद्रा न जानें कितनी बार मेरे मन पर उभर कर आती रही है | दिशायें ही मेरा अम्बर हैं ,अन्तर्शक्ति ही मेरा आवरण है ,धरित्री नामक इस ग्रह पर मेरी यात्रा एक क्षणिक पड़ाव मात्र है | यह सब मानकर भी एक निर्दोष जीवन जी लेना कितनी बड़ी उपलब्धि है | आज मैं नहीं जानता कि ज्ञान रत्न कहाँ है ? जब मैं अभी अपनें भौतिक रूप में हूँ तो उसका भौतिक रूप में होना तो अनिवार्य सत्य है पर वह कहाँ है उत्तर या दक्षिण भारत के किसी भाग में या विश्व के किसी और कोनें में संम्भवतः यू. एस.ए. में | मेरा कुछ अंश मेरी चिन्तन प्रणाली का कोई न कोई सूत्र उसके माध्यम से विस्तार पा रहा है | यही मेरे सन्तोष का कारण है |
                            अरे मैं कहाँ से कहाँ आ गया | इसे शेख चिल्ली उड़ान कहें या अफलातूनी | रामनगर से नाटकीय टोलियां लौटकर आ चुकी हैं | महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय की विजय पताका रामनगर प्रतियोगिता में फहरा दी गयी है | पर अभी- अभी जो सूचना मिली है उसनें मेरे मन पर एक गहरी चिन्ता का बोझ क्यों लाद दिया है ? यूनिवर्सिटी नें आदेश दिया है कि महाविद्यालयों में छात्रों के चुनाव सितम्बर के द्वितीय सप्ताह तक समाप्त कर लिये जांय | चुनाव अनिवार्य हैं क्योंकि बिना छात्र प्रतिनिधियों के कालेज का प्रबन्धन सफलता पूर्वक नहीं चल पायेगा | अरे भाई डिमोक्रेसी है न ? उसे महाविद्यालयों से ही शुरू करना होगा | कान फोड़ देनें वाला शोर शराबा , हल्ला -गुल्ला , मारपीट , जातीय और क्षेत्रीय गठबन्धन , अपहरण , और अनाचार सभी कुछ तो महाविद्यालय के चुनाव में तो होना ही है  और सेन्ट्रल एसोसिएशन के कनवीनर होनें के नाते मुझे यह सब झेलना ही पड़ेगा | तो कायरता कैसी ? देखनें दो राजनेताओं को कि डिमोक्रेसी किसे कहते हैं और निष्पच्छ चुनाव कैसे होते हैं | क्या हुआ यदि महासेठी दुलीचन्द्र एम. एल. ए. का पोता प्रधान पद प्राप्त करनें के लिये चुनाव के मैदान में है ?
                  क्या हुआ यदि वैश्य महाविद्यालय की प्रंबन्धक  समिति किसी नान वैश्य छात्र को प्रधान के पद पर बैठते देखना नहीं चाहती ? क्या हुआ कि कोई शिक्षक चुनाव के कुछ दिन पहले और कुछ दिन बाद तक धनी छात्र के पैसे के बल पर कालेज कैन्टीन में चरखारे लेते रहते हैं ? यह सब तो चलता ही है | ज्ञान रत्न के धर्म गुरु जो सूक्ष्म शरीर होकर नक्षत्रों में विचरण कर रहे हैं मेरे मन पटल पर उभर आते हैं | एक दिन जब मैं उनके पास बैठा हुआ था वे अपनें विसाधिक शिष्यों को संम्बोधित करके कह रहे हे तीन बातों का ध्यान रखना |
1 - अपनी रसना -इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना |
2 - मन में मान प्रतिष्ठा का कीड़ा नहीं लगनें देना |
3 - संसार को सम भाव से देखना , किसी के प्रति राग द्वेष नहीं करना |
                            इन तीन नकारों का स्मरण मात्र मुझमें नयी स्फूर्ति भर देता है | कौन हारा कौन जीता यह मुझे नहीं सोचना है | हिमालय की भांति अटल , द्रढ़  और निर्भीक रहकर हमें निष्पच्छ चुनाव प्रक्रिया का सम्पादन करना है | एक शेर मन में उभर आती है |
" दरिया को अपनी मौज की तुग़यानियों से काम ,
  कश्ती किसी की पार हो या दरमियां रहे | "
(क्रमशः )

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