Thursday 8 February 2018

गतांक से आगे -

                                जीवन मनुष्य को प्रकृति द्वारा या प्रकृति नियन्ता द्वारा दिया गया सबसे बड़ा वरदान है | पर अनेक बार ऐसा देखा गया है  कि उच्च प्रतिभा के धनी नर -नारी भी जीनें की आसक्ति से मुक्त हो जाते हैं | उन्हें जीवन एक असहनीय दारुण यन्त्रणा के अतिरिक्त और कोई सन्देश नहीं भेजता यह तो समझ में आता है कि एक विशेष आयु प्राप्त कर लेनें के पश्चात शारीरिक और मानसिक शक्तियों के नित प्रति क्षरण का अनुभव कर कोई व्यक्ति संसार के विषम माया जाल से मुक्त होनें की सोचे | प्राचीन हिन्दू आश्रम विधान में संन्यास महिमा मण्डित मृत्यु का ही परिवर्तित रूप  माना जाता था | जैन परम्परा में तो वार्धक्य में स्वेच्छा से उपवास कर शरीर त्याग देनें को एक श्रेयष्कर त्याग के रूप में लिया जाता है | अपनें कई सहयोगी , सहकर्मी और सह -शहरी जैन मित्रों के घरों में उनकी दादियों को सन्थारा द्वारा प्राण त्यागनें की बात सुननें में आती रही है | बहुत से धर्म प्राण नर -नारी उनका दर्शन करनें और आशीर्वाद लेनें के लिये जाते रहते थे | जैन परम्परा तो चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अन्य कई सम्राटों को सन्थारा के द्वारा प्राण छोड़कर जीवन मुक्ति होनें का गौरव देती है | पर जहां तक मैं समझ पाया हूँ विश्व का सामान्य जनमानस मृत्यु का अधिकार प्रकृति या प्रकृति नियन्ता को ही देता है | जब कभी अन्तिम बुलावा आयेगा तो जाना ही होगा | उस समय जाना एक अनिवार्यता है , लाखों प्रतिरोधों के बावजूद ,अनगिनत उपचारों के बावजूद , अनेक शुभ कामनाओं के बावजूद प्राण पक्षी को असीम में उड़ना ही होगा | हिन्दू परम्परा में तो महाकाल यमराज की डोरी में फंसे प्राण यमलोक में जाकर ही अपनें सुकर्मों और कुकर्मों की तफसील से परिचित होते हैं | प्राकृत के कवि विराट दत्त का यह दोहा कितना सार्थक है |
आस -पास जोधा खड़े ,सबै बजावत गाल |
मांझ भवन से ले गयो ,ऐसा काल कराल ||
                                 तो जब जाना होगा तब तो जाना ही है | हाँ कुछ अन्तः शक्ति संम्पन्न प्रतिभायें असीम से आती पुकारें पहले से ही सुन लेते हैं | विक्टोरियन एज के महाकवि टेनिसन की इन पंक्तियों में यही झलक मिलती है |
" The Sun set and Evening Star
   There is a clear call for me. "
                               पर ऐसा क्यों होता है कि बहुत से शिक्षित और सुद्रढ़ आर्थिक स्थिति के नर -नारी तरुणायीं या प्रौढ़ में ही अपनें द्वारा अपना जीवन समाप्त कर देते हैं ? अंग्रेजी में जिसे सुसाइड और हिन्दी में जिसे आत्महत्या कहा जाता है उसे विश्व के कई देशों में अपराध न माना जानें की मुहिम चल रही है पर अभी तक अधिकाँश विश्व के देश जीवन को स्वतः समाप्त कर देनें की कारगुजारी को दण्ड संहिता के अन्दर ही शामिल करते हैं | संसार के प्रमुख धर्म भी अस्वाभाविक ढंग से जीवन समाप्ति को ईश्वर के सन्देश की अवहेलना मानते हैं | भ्रूण ह्त्या से लेकर आत्महत्या दोनों ही आदर्श जीवन की कर्तव्य सूची में घृणा के अतिरिक्त और कुछ भी अपनें खाते में नहीं डाल सकते | सुनन्दा के पिता नें जो रसायन शास्त्र के वरिष्ठ डिमांस्ट्रेटर थे एक वैज्ञानिक की गहरी सूझ -बूझ के साथ इस संसार से अपनें अन्तिम प्रयाण की तैय्यारी की | अपनें अन्तिम प्रयाण के एक दिन पहले वे मेरे घर आये उन्होंने इतनें सहज सरल भाव से हंस हंस कर बातें कीं कि हमें किंचित आभाष भी नहीं हुआ कि वे आनें वाले कल में इस संसार को छोड़ने का अटल निश्चय कर चुके हैं | उन्होंने सुनन्दा की कई मीठी यादें दोहरायीं और रजत की प्रतिभा और सेवाभाव का भी जिकर किया | पर उन्होनें अपनी दूसरी पत्नी यानि  सुनन्दा की मौसी की कोई चर्चा नहीं की | हम पहले ही बता चुकें हैं कि सुनन्दा की मौसी एक राजकीय महाविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर काम करनें लगी थी | एक गहरी बात जिसनें मुझे भीतर तक हिला दिया जीवन के सत्य के विषय में थी | वरिष्ठ डिमांस्ट्रेटर नें चलते -चलते कहा ," बन्धु आप बड़े विद्वान हैं | आपनें बहुत पढ़ा -लिखा है | पर मेरी एक बात गांठ बाँध लेना जब तक चाहा हुआ नहीं मिलता ऐसा लगता है कि उसके मिल जानें पर जीवन सार्थक हो जायेगा | पर जब चाहा हुआ मिल जाता है तब फिर निरर्थकता का आभाष होता है | संसार की कोई भी उपलब्धि मन की लालसा को पूरी तरह शान्त नहीं कर सकती | मित्र , मैं अपनी पुत्री सुनन्दा को जानता हूँ | आज उसे लगता है कि उसे उसकी मन्जिल मिल गयी है | पर आनें वाले कल में क्या पता शायद उसकी भटकन उसे फिर किसी नये अनुभव की ओर लालायित कर दे | और फिर उन्होंने अन्तिम वाक्य कहा | मृत्यु ही मुक्ति की ओर ले जाती है | अपनें इस कुबड़े  अपराध बोध से दबे बड़े भाई को कभी कभी याद कर लिया करना | और वे उठकर द्वार की ओर बढ़े | दरवाजे पर रिक्शे वाला खड़ा था | वह उनका सदैव का रिक्शे वाला था जो उन्हें प्यार से सहारा देकर रिक्शे पर बिठलाता था और गंतव्य पर पहुंचाकर सहारा देकर रिक्शे से उतार देता था | फिर वे धीरे धीरे 100  -50  गज की दूरी चल लेते थे |
                              घटना घट जानें के बाद हम पीछे मुड़कर देखनें की द्रष्टि पा जाते हैं | आज मैं सोचता हूँ कि कि यदि मैनें वरिष्ठ डिमांस्ट्रेटर जिन्होनें अपनें को मेरा बड़ा भाई कहा था उस दिन पूरी तरह समझ लेता तो शायद मैं उनके घर जाकर घण्टे दो घण्टे बैठकर उनसे बात कर ,उनके मन का कुछ बोझ हल्का कर देता क्या पता उनमें जीवन की लालसा फिर जग जाती | पर मेरा ऐसा सोचना क्या बचकानापन नहीं है ? समाचार पत्रों में प्रत्येक दिन आत्महत्या के न जानें कितनें केसेस छपते रहते हैं | इन खबरों में धनें व्यापारियों से लेकर बड़े से बड़े अफसर ,लेखकों और विचारकों के नाम होते हैं | मेडिकल कालेज में मनो जगत पर न जानें कितनें शोध और प्रशिक्षण होते रहे हैं ,हो रहे हैं और होते रहेंगें पर मन का संसार अभी तक कुछ हल्की -फुल्की झांकियां ही मनोविज्ञान के समक्ष पेश कर सका है | अवचेतन का असीम प्रस्तार अभी तक अबूझ पहेलियाँ अपनें में छिपाये है | नये नये नाम आ रहे हैं | कहीं आत्ममोह , कहीं अवसार बोध कहीं अपराध ग्रन्थि और कहीं कामेच्छा आपूर्ति | पर इन नामों की श्रंखला में कहीं कोई ऐसा अचूक निदान देखनें में नहीं आता जो जीवन से निराश व्यक्ति को पुनः जीवन लालसा से संयुक्त कर दे | फिर सहसा मन मुझे सुनन्दा के पिता से दूर खींचकर एक और बहुपठित शोभन व्यक्तित्व की याद तरोताजा कर देता है | कई वर्ष पहले अपनें कमरे में मृत पाये गये यूनिवर्सिटी कालेज के अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर विशाल राठी के घुँघराले बालों से भरा चौड़ा मस्तक मेरी स्मृति में कौंध जाता है | कहा जाता है कि वे भी डिप्रेसन के शिकार थे और मरनें से पहले एकाध वर्ष से निराशा भरी मृत्यु का आवाहन करनें वाली कवितायें पढ़ते ,सुनते थे | विशाल राठी से मेरा संम्पर्क उन दिनों हुआ था जब यूनिवर्सिटी कालेज में यूथ फैस्टिवल के समायोजन के दौरान मैं डिबेट और सिम्पोजियम की प्रतियोगिता में एक निर्णायक के रूप में बुलाया गया था | मुझसे यह भी कहा गया था कि मैं कविता प्रतियोगिता में भी जज की कुर्सी पर बैठ लूँ पर मैनें यह कहकर इन्कार कर दिया था कि चूंकि मेरी पुत्री अपर्णां इस प्रतियोगिता में भाग ले रही है इसलिये मैं कविता प्रतियोगिता के निर्णायकों में शामिल होनां अनैतिक समझता हूँ | विशाल राठी से संम्पर्क बढ़ता गया | और धीरे धीरे मुझे अपनें से बड़ा मानकर वे मेरे प्रशंसक बनते गये | अपर्णां को प्रतियोगिता में इनाम मिला था और उसनें जो कविता पढ़ी थी वह कभी मेरे द्वारा ही लिखी गयी होगी | अपर्णां से यह सब जानकर विशाल राठी मेरे से कविकर्म के संम्बन्ध में भी चर्चा करनें लगे थे | कई बार हम मैथू अर्नाल्ड से लेकर डेरीडा तक की बहस में पड़ जाया करते थे | विशाल राठी एक वर्ष के लिये फ्रेन्च की एक सार्टिफिकेट का कोर्स करने के लिये योरोप हो आये थे और मेरे मुकाबले उनका भौगोलिक एक्सपोजर ज्यादा व्यापक था | पर धीरे धीरे राठी में एक परिवर्तन आ रहा था | उनकी पत्नी न जानें क्यों अपनें दो पुत्रों को साथ लेकर दिल्ली अपनें पिता के घर रहनें लगी थीं | सुननें में आया था कि वह वहां पर एक स्कूल में एक ट्रेन्ड ग्रेजुएट होनें के नाते काम पर गयी थीं | विशाल से उनकी क्यों नहीं पटी इस विषय पर मैनें विशाल से कोई बातचीत नहीं की पर मुझे ऐसा आभाष अवश्य हुआ कि विशाल को कहीं अपमानित होना पड़ा है और वह भीतर ही भीतर किसी मुकाबले की तैय्यारी कर रहा है | 35 -40  के बीच का विशाल शायद किसी नारी मित्र की तलाश में था और अपर्णां की सहेलियों के साथ साहित्यिक चर्चा करनें में उसे रस मिलनें लगा था | उन दिनों महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय के वाइस चान्सलर के रूप में हरद्वारी लाल भी काफी ख्याति अर्जित कर चुके थे | वे कुछ समय के लिये हरियाणा राज्य के मंत्रिमण्डल में भी रहे थे और इन्दिरा गांधी जी के निधन के बाद कांग्रेस के टिकट पर आम चुनाव में रोहतक संसदीय क्षेत्र से विजयी घोषित किये गये थे | हरद्वारी लाल जी क़ानून विशारद तो थे ही पर अंग्रेजी पर भी उनकी गहरी पकड़ थी | कभी कभी वे आत्मश्लघा के अहं भाव से इतनें भर जाते थे कि कुछ हल्की -फुल्की बातें भी कर लेते थे | यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी  अध्यापकों के बीच अपनी छवि को और अधिक चमकानें के लिये वे कुछ चुटकुले सुनाते रहते थे जिन पर बाद में कहकहे लगा करते थे |   वे कहा करते थे कि हरियाणा में केवल डेढ़ आदमी हैं जो अंग्रेजी जानते हैं | एक तो मैं हूँ और आधा स्वरूप सिंह है जो दिल्ली यूनिवर्सिटी का वाइस चान्सलर है | डा ० स्वरूप सिंह जी हरियाणा के सांगी ग्राम से थे  और श्री अजीत सिंह जी के पिता कुछ समय के लिये प्रधानमन्त्री रहे चौधरी चरण सिंह जी से उनके पारिवारिक संम्बन्ध थे | हरद्वारी लाल जी का अंग्रेजी के डेढ़ विद्वानों वाला चुटकुला हर कालेज के स्टाफ रूम में सुनाया जाता था | चूंकि विशाल राठी यूनिवर्सिटी कालेज में था और विदेश में भी एक साल रह आया था इसलिये उसे कभी कभी रात्रि के पहले प्रहर में हरद्वारी लाल जी के साथ एकाध पैग लेनें के लिये भी बुला लिया जाता था | यूनिवर्सिटी क्वार्टर्स में वह तो अकेला रहता ही था | मैं नहीं जांनता कि ऐसा क्यों  हुआ कि जब मैं अपनें नये मकान में शिप्ट करके आ गया तो विशाल वहां हर शनिवार या रविवार को मिलनें आ जाता | एक कारण यह भी हो सकता है कि वह यूनिवर्सिटी कालेज की वार्षिक पत्रिका का मुख्य प्राध्यापक सम्पादक चुना गया था पर चूंकि मैं अपनें कालेज में यह कार्य लम्बे समय से कर रहा था इसलिये उसे मेरी राय की आवश्यकता पड़ती हो | उसे पत्रिका के प्रत्येक पृष्ठ पर ऊपर या नीचे विद्वानों के कुछ कथन छापनें का शौक था और शायद मुझसे उसे अच्छे कुटेशन पा जानें की उम्मीद होती थी | पर विशाल राठी जैसा स्थापित व्यक्ति भी भीतर से कहीं टूट रहा था | पत्नी द्वारा छोड़ दिये जानें के कारण अबूझी मनोग्रन्थियाँ उसे विकार ग्रस्त कर रही थीं | उसे लगनें लगा था कि उसका तूफानी जीवट धीरे -धीरे कम हो रहा है | 40 के आस -पास यों तो सभी के साथ ऐसा होता है पर यदि कुछ गहरा झटका लग जाय तो बड़े से बड़े स्तंम्भ को ढहते देर नहीं लगती |
                                           एक दिन वह मेरे पास शैली की मशहूर कविता " Ode to the west wind." को हिन्दी में कविता के रूप में गुम्फित करके ले आया | 'माटी ' के पाठक जानते ही हैं कि " Ode to the west Wind." संसार की महानतम मुक्तक कविताओं में गौरव का पद पा चुकी  है | उसकी कुछ पंक्तियाँ विशाल राठी को इतनी भा गयीं थीं कि वह उन्हें बार -बार दोहराया करता था | संम्भवत: उन पंक्तियों में उसे अपनें जीवन की असली झलक दिखलायी पड़ती थी | ' माटी  ' के विद्वान पाठकों के लिये रसास्वादन हेतु इन पंक्तियों को उद्धत करना आवश्यक सा लगता है |
" O uncontrollable ! If even
I were is in my boyhood, and could be
The comrade of thy wanderings over Heaven,
As then, when to outstrip thy skiey speed
Scarce seemed  vision, I could never have striven
As thus the thee in prayer in my sore need
Oh,left me as a wave ,leaf, i could!
I fall upon the throns of life !i bleed!
A heavy weight of hours has chained and bowed
one too like thee, tameless, and swift and proud."
                                  हे अदमनीय !  पा जाता यदि मैं अपना कैशोर्य ,
                                  आंधी के हिन्डोलों पर झूलता असीम गगन में दे देता मात मैं
                                 प्रकृति के तीव्रतम धावक को |
                                 काश ऐसा हो पाता !
                                 पर आज मैं विवश पराजित हूँ
                                 धराशाही मित्र मुझे दे दो अपनी अबाधि गति का सहारा
                                 दे दो उछाल मुझे जल की तरंग की भांति
                                 उड़ने दो मुझे अपनें प्रवाह में मूलहीन पत्ते सा
                                 गगन की गोद में उद्वेलित उत्तोलित कर दो मुझे
                                 ऐसे जैसे खेलते हैं श्यामल मेघों के धूमिल धवल शावक
                                 दंशित है मेरी देह शत सहस्त्र कंटकों से
                                 रक्त की बूँदें अब मेरी महावर हैं
                                 जीवन का असहनीय अर्थहीन भारी भार
                                 धनुषाकार देता झुकाव मेरी काया को
                                 आह ! तुम जैसा ही एक दिन मैं भी था
                                अपराजेय ऊर्ध्वपथी अप्रतिहत गतिपूर्ण
                                मानव नियति का अभिमानी निर्णायक सा ! "
                                                                   विशाल राठी का हिन्दी अनुवाद शास्त्रीय छन्दों की परम्परा से अलग हटकर भी काफी प्रभावशाली लगा और तब मैनें उससे पूछ ही लिया कि उसके बीते जीवन में ऐसा क्या था जिसके खो जानें से वह अपनें को इतना असमर्थ पा रहा है | और फिर राठी नें मुझसे जो  बताया उससे मुझे भारतीय समाज की जातीय विषमताओं को समझनें की एक नयी द्रष्टि मिली|
क्रमशः         
   

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