Monday, 26 February 2018

गतांक से आगे -

                                        Career Making के Larger Context में महाविद्यालय में मेरी उपलब्धि को नगण्य ही माना जाना चाहिये | यह ठीक  है कि मैं अंग्रेजी का विभागाध्यक्ष और राष्ट्रीय कैडिट कोर का वरिष्ठतम अधिकारी मेजर बन चुका था पर इससे ऊपर उठनें की मेरी क्षमतायें मेरे अन्तर्मन में एक संघर्ष को जन्म दे रही थीं | मैं जानता था और यह जानना मूलतः मेरे अनुभव के बल पर संम्भव हुआ था कि कालेज के प्राचार्य का पद किसी की विद्वता का सूचक नहीं होता पर वेतनमान और Status की द्रष्टि से महाविद्यालय में प्राचार्य को सर्वोपरि स्थान पर रखकर ही प्रशासनिक व्यवस्था को अतिरिक्त गौरव का अधिकारी बनाया जाता है | कई बार मैं सोचता हूँ कि शायद एक अत्यन्त प्रखर मेधा का Academic एक सफल प्राचार्य के रूप में अपनें को स्थापित करनें के लिये मिथ्याभिमान के दौर  में लगकर कहीं भीतर से अपनें को खोखला ही करता रहता है | ज्ञान के आदान -प्रदान से वंचित होकर केवल व्यवस्था के रख रखाव में अपनी शक्ति को खपा देना प्रकृति द्वारा प्रदत्त नैसर्गिक प्रतिभा का सार्थक उपयोग नहीं माना जाना चाहिये | पर हमारे परिवेश की मान्यतायें और सिंहासन की कहानियां न जानें कितनें सच्चे  महात्माओं को भी धर्मपीठों का अधिपति बननें के लिये प्रेरित करती रहती थीं | प्राचार्य को दी गयी कुछ अतिरिक्त सुविधायें हमारे अभिमान को इतना पुष्ट करनें लगती हैं कि हममें से अनेक सफल व्याख्याता अपनें को उनका हकदार माननें लगते हैं | मेरे अन्तर्मन में शायद कहीं यह बात रही होगी कि मुझमें प्राचार्य बननें की सारी खामियां या खूबियां मौजूद हैं पर ऊपर से मैनें कभी भी अपनी इस अन्तर इच्छा को वाणीं नहीं दी थी | मैं जानता था कि जिस महाविद्यालय में मैं कार्यरत हूँ वहां प्राचार्य पद के लिये सबसे पहली और सबसे प्रमुख विशेषता है जाति रत्न होना और यह विशेषता मुझमें इसलिये नहीं थी क्योंकि इस विशेषता के लिये हमारे जन्म की सीमायें हमारे आड़े आ जाती हैं | यह सीमायें अनुकूल परिस्थितियों में शक्ति पाकर किसी को ऊँचा भी उठा सकती हैं पर विपरीत परिस्थितियों में यह सीमायें एक अभेद्य बन्धन बनकर खड़ी हो जाती है | मुझे यह लिखनें में हर्ष ही होता है कि जिस महाविद्यालय मेँ  मैं कार्यरत था वहां अभी तक प्रगट रूप से मेरे प्रति कोई पक्षपात नहीं किया गया था | यद्यपि कुछ ऐसी घटनायें अवश्य घटी थीं जो अपरोक्ष रूप से इस बात की ओर इंगित करती थीं कि अग्रवाल जाति से संम्बन्धित न होनें के कारण मैं शीर्ष वरीयता से कई मौकों पर वंचित रखा गया था | N.C.C. आफीसर्स के चयन के लिये भी महाविद्यालय नें मेरे नाम का प्रस्ताव दूसरे स्थान पर ही किया था | यह दूसरी  बात है कि तत्कालीन पंजाब की राजधानी चण्डीगढ़ में सेना के वरिष्ठ अधिकारी चयनकर्ताओं नें मुझे प्रथम स्थान पर खड़ा कर राष्ट्रपति के  कमीशन लेनें की ट्रेनिंग के लिये भेजा | इसी प्रकार जब मैनें उ.प्र. के एक कालेज में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष पद को हासिल कर अपना इस्तीफा सौंपा तो मुझे ग्रेड देनें की जो योजना बनायी गयी उसमें कई अग्रवाल प्रवक्ताओं का स्वार्थ भी निहित था | पर अभी तक  ऐसा कुछ नहीं हुआ था जिससे मुझे न भुला देने वाली चोंट लगी हो | पर अब जब कि परिवार बड़ा हो रहा था और बच्चे वयस्क होनें लगे थे मुझे अपनें सामाजिक और आर्थिक स्तर के प्रति भी सोचनें पर विवश होना पड़ रहा था | शायद मैं पहले किसी परिवेशीय परिच्छेद में कहीं लिख चुका हूँ कि नये वेतनमान लागू करनें के सिलसिले में जो राज्य व्यापी हड़ताल हुयी थी मैं भी उसके अगुवाकारों में से एक था | हरियाणा के निर्माता मानें जानें वाले चौधरी वंशी लाल के मुख्य मंत्रित्वकाल में मुझे भी राज्य की मेहमानबाजी करनें के लिये रोहतक के नवनिर्मित जेल में कुछ दिनों के लिये बी -कैटागरी में रखा गया था | उस समय वहां आनें वाले महानुभावों में हरियाणा ब्राम्हण समाज के जानें -मानें नेता पण्डित चिरन्जी लाल , जो उस समय या तो मन्त्रिमण्डल के सदस्य थे या एम. पी. प्रोफेसरों से मुलाक़ात करनें केन्द्रीय जेल आये थे | अध्यापकों की ओर से पक्ष रखनें वालों में मैं एक प्रमुख प्रवक्ता था और संम्भवतः प.  चिरंजी लाल उसी समय से मुझे जाननें लगे थे | गौड़ ब्राम्हण कालेज की स्थापना मेरे वैश्य कालेज में आ जानें के काफी लंम्बे अरसे के बाद हुयी थे | उसके प्रथम प्राचार्य गिरिराज स्वामी अंग्रेजी के जानें मानें प्रवक्ता थे और एक अच्छे प्रशासक के रूप में भी उनकी काफी ख्याति थी पर वे मेरे से उम्र में काफी बड़े थे और सेवा निवृत्त होनें जा रहे थे | विश्वविद्यालय की अन्तर महाविद्यालीय ललित कला प्रतियोगिताओं में वे जज के रुप   में अधिष्ठित किये जाते थे और चूंकि मेरे सभी बच्चे किसी न किसी प्रतियोगिता में प्रतिभागी बनकर विजेता बनते थे इसलिये शायद उनके मन में भी मेरे लिये उदार -प्यार का भाव रहा होगा | इधर मेरे कुछ विद्यार्थी जो ब्राम्हण समाज से थे , वैश्य कालेज से स्नातक बनकर अच्छे पदों पर जा पहुंचे थे | उनमें से कई अखिल भारतीय गौड़ ब्राम्हण विद्या प्रचारणीं गौड़ सभा के सदस्य थे | गौड़ कालेज के कुछ तरुण प्रोफ़ेसर जो एम.फिल. या पी. एच.डी. के शोध कार्य में लगे थे -भी मुझसे अपनी लिखी हुयी अंग्रेजी ठीक करवानें के लिये प्रायः मिलते रहते थे | इन सब बातों नें मिलकर मेरे व्यक्तित्व और अंग्रेजी ज्ञान पर मेरी पकड़ के विषय में एक अच्छा प्रभाव रोहतक के ब्राम्हण वर्ग पर डाल रखा था | शायद यही कारण है कि जब गिरिराज स्वामी सेवा निवृत्त हुये तो नये प्राचार्य की तलाश में गौड़ कालेज मैनेजमेन्ट नें मेरे में एक उपयुक्त पात्र की तलाश प्रारंम्भ कर दी | दरअसल स्वामी जी यदि चाहते तो उन्हें शायद कुछ वर्षों का Extension भी मैनेजमेन्ट की अनुशंसा पर विश्वविद्यालय  से मिल जाता पर चूंकि उन्हें भिवानी की टैक्सटाइल कालेज में रजिस्ट्रार का पद मिल रहा था जहां की सेवा निवृत्ति की आयु 65 वर्ष की होती थी इसलिये उन्होनें गौड़ कालेज को छोड़ने का ही मन बना लिया | समाचार पत्रों में नियमानुसार नये प्राचार्य के नियुक्ति के लिये विज्ञापन दे दिये गये | ढेर सारे लोगों नें इस प्रतिष्ठित पद की प्राप्ति के लिये न केवल आवेदन -पत्र भेजे बल्कि हर संम्भव शिफारिशों की तलाश में अपनी शक्ति का व्यय करनें लगे | मुझसे कुछ प्रवक्ता बन्धुओं नें अप्लीकेशन डालनें की बात कही पर जैसा कि मैं लिख चुका हूँ मैं अभी तक अपनें को एक सफल प्राध्यापक के रूप में ही मान्यता पानें का हकदार मानकर सन्तुष्ट था |स्वाभाविक था कि मैं गौड़ कालेज के एप्लीकेंट्स में नहीं था | मुझे यह भी नहीं मालूम था कि कहां -कहां से  और किस -किस नें अप्लीकेशन लगायी है | अंग्रेजी के अखबार तो भारत के कोनें- कोनें में जाते हैं और कालेज के प्राचार्य का पद इतना छोटा तो होता नहीं कि कोई क्वालीफाइड व्यक्ति उसकी ओर आकर्षित न हो |  मुझे उस समय तक यह भी पता नहीं था कि मेरे अपनें कालेज के प्राचार्य डा. पाठक नें भी गौड़ कालेज के प्राचार्य बननें के लिये एक अप्लीकेशन डाल रखी है | शायद ऐसा इसलिये हो कि उस समय वैश्य कालेज के मैनेजिंग कमेटी के कुछ सदस्यों से उनकी अनबन चल रही थी और इसलिये वे ब्राम्हण होनें के नाते गौड़ कालेज के प्राचार्य पद के लिये इच्छुक बने हों | कहना न होगा चूंकि वैश्य कालेज में तीनों फैकल्टी होनें के साथ ही विशालता , वैभव , और पुरानेपन का गौरव जुड़ा हुआ है इसलिये वे गौड़ ब्राम्हण कालेज में तो सुनिश्चित रूप से ही  प्राचार्य पद के लिये चयनित कर लिये जायेंगें | शायद होता भी ऐसा ही | यदि मुझे अप्लीकेशन डालनें के लिये भी राजी न कर लिया गया होता | दरअसल यदि मुझे मालूम होता कि प्राचार्य डा. पाठक जिनसे मेरे अत्यन्त मधुर संम्बन्ध थे इस पद के प्रत्याशी हैं तो मैं किसी भी हालत में अपनी अप्लीकेशन न डालता | डा. पाठक नें अपनी सिफारिश में कई बड़े -बड़े लोगों का सहयोग मांग रखा था | और सबनें उन्हें निश्चय दिलाया था कि वे जिन  शर्तों पर चाहेंगें उन पर उन्हें नियुक्ति पत्र मिल  जायेगा |
                                              एक दिन मैं दो बजे के करीब कालेज के अध्यापक कक्ष में कक्षायें ले चुकनें के बाद विश्राम कर रहा था | पुरानी बातें हैं , स्मृतियाँ धुंधली पड़ चुकी हैं न दिन याद है न तारीख न सन  , मौसम सर्दी का था या सर्दी -गर्मी की सन्धिबेला थी | ठीक याद नहीं आता पर क्या करना है इन यादों को उजागर करके | अब गोधूलि बेला में चारो ओर धुंधलका ही धुंधलका है | दूर नील गगन पर निकलनें वाला पहला तारा हर रोज मुझे अपने पास आनें का सन्देश भेजता रहता है | उस सन्देश की पूरी भाषा अभी मुझे पूरी समझ में नहीं आयी है | अभी डिकोट करनें में लगा हूँ | तो मैं बात कर रहा था दो बजे अध्यापक कक्ष में अपनें विश्राम करनें की | अचानक बसन्त कुमार नाम का मेरा एक पूर्व छात्र जो अब स्नातक होकर दिल्ली सरकार के आडिट डिपार्टमेन्ट में लग गया था | मेरे पास आया | उसनें मुझसे कहा कि मैं उसके साथ रेलवे स्टेशन पर चलूँ जहाँ स्टेशन के Ist. class  के वोटिंग रूम में पण्डित चतुर्भुज शर्मा मेरा इन्तजार कर रहे हैं | यहाँ यह बता देना उचित जान पड़ता है कि पण्डित चतुर्भुज शर्मा पण्डित भगवत दयाल जी के समधी थे | सभी विज्ञ जन जानते हैं कि पण्डित भगवत दयाल शर्मा हरियाणा राज्य के प्रथम कांग्रेसी मुख्यमन्त्री थे | पण्डित चतुर्भुज शर्मा के लड़के को उनकी लड़की व्याही थी | हरियाणा गौड़ ब्राम्हण विद्या प्रचारणीं सभा के निर्वाचित सभापति स्टेशन पर मेरा इन्तजार कर रहे हैं यह जानकार मुझे विस्मय हुआ पर साथ ही ऐसा आभाष भी हुआ कि शायद वे मुझे गौड़ ब्राम्हण कालेज के प्राचार्य पद के लिये अप्लीकेशन दे देनें की बात कहेंगें | दरअसल मैं बसन्त कुमार जो ब्राम्हण समाज का एक प्रतिष्ठित कार्यकर्ता था मुझे इस दिशा में कुछ सोचनें के लिये प्रेरित किया था | स्टेशन के फस्ट क्लास के वोटिंग रूम मेँ चतुर्भुज नें मुझसे कहा कि ब्राम्हण समाज में मेरी विद्वता की काफी चर्चा है  और मुझे हर द्रष्टि कोण से गौड़ कालेज के प्राचार्य पद के लिये योग्य देखा जा रहा है उन्होंने कहा कि वे चाहेंगें कि मैं एक अप्लीकेशन लिखकर बसन्त कुमार को दे दूँ और बसन्त उसे कालेज दफ्तर में बड़े बाबू के पास सूचीबद्ध करवा देगा | साक्षात्कार की तिथि निश्चित होते ही सूचना मिल जायेगी  और मैं कालेज में साक्षात्कार के लिये निर्धारित समय पर पहुँच जाऊँ | वह इतना कहकर स्टेशन के बाहर खड़ी अपनी मोटर गाड़ी की ओर चल पड़े | मैनें संकोच भरे स्वर में उन्हें बताया कि उनके विश्वास से मुझे बल मिला है और मैं प्रयास करूंगा कि मैं गिरिराज किशोर जी का प्राचार्य पद वाला गौरव अगर बढ़ा न पाऊँ तो भी कम से कम उसे अक्षुण और अक्षत बनाये रखूँ | घर आकर मैंने प्राचार्य पद के लिये एक सामान्य सी अप्लीकेशन लिख दी अपनें बीस वर्ष का अध्यापन अनुभव , शिक्षा संम्बन्धी अपनें प्राप्ताँक और प्रशंसायें , शिक्षेत्तर कार्यक्रमों में अपनी सहभागिता और चर्चायें तथा राष्ट्रीय कैडिट कोर में अपनें पद के दायित्व वहन  सभी का संक्षिप्त विवरण दे दिया | बसन्त मेरे साथ ही घर पर आया था और मेरी अप्लीकेशन उसी दिन बड़े बाबू के पास कालेज के दफ्तर में प्राप्ति रसीद के साथ स्वीकृति कर ली गयी | जहा तक मुझे याद आता है शायद वह अप्लीकेशन सबमिट करनें की अन्तिम डेट थी और शायद इसीलिये पण्डित चतुर्भुज जी नें मुझसे व्यक्तिगत रूप से मिलकर मुझे अप्लीकेशन डालनें के लिये प्रोत्साहित किया था | यहां तक तो ठीक था पर मुझे अभी भी इस बात का पूरा यकीन नहीं  था कि मैं चुन लिया जाऊंगाँ | कारण ये था कि गौड़ ब्राम्हणों की हरियाणा राज्य की इस संस्था के प्राचार्य पद पर देश के अन्य राज्यों के कई शीर्षस्थ विद्वान ब्राम्हण प्रयासरत थे | संम्भवतः सारे भारतवर्ष में गौड़ ब्राम्हण समाज का यही एक मात्र शिक्षा संस्थान है | अब तो एक आयुर्वैदिक कालेज , एक डेन्टल कालेज और कुछ और तकनीकी संस्थायें स्थापित हो चुकी हैं पर उस समय गौड़ ब्राम्हण कालेज ही गौड़ ब्राम्हण स्कूल के बाद ब्राम्हण गौरव का अधिकारी था | पर अब जब अप्लीकेशन डाल ही दी तो अपनें विश्वास को सुद्रढ़ करके कड़े मुकाबले में विजयी होकर निकलना मेरे लिये एक चुनौती के रूप में आ खड़ी हुयी | इंटरव्यूह में पण्डित चतुर्भुज शर्मा तो एक्सपर्ट होंगें नहीं , साक्षात्कार की अन्तिम तारीख तक यूनिवर्सिटी से भेजे गये Expert का पता नहीं चल पाता था | साथ ही एक वाइस चान्सलर का नामनी भी होता था | उधर  चण्डीगढ़ से डायरेक्टर आफ पब्लिक इन्स्ट्रक्शन का एक प्रतिनिधि भी शामिल किया जाता था | इन सब की सुविधानुसार साक्षात्कार की तिथि नियत होती थी  और तब फिर अभ्यार्थियों को डेट और समय की सूचना भेजी जाती थी | कुछ सप्ताहों की प्रतीक्षा के बाद इंटरव्यूह का दिन आ गया | मैनें उस दिन के लिये कालेज से पहले ही छुट्टी ले ली थी | इन्टरव्यूह के लिये जब गौड़ कालेज पहुंचा तो पाया कि पन्द्रह या सोलह अप्लीकैंट्स कुर्सियों पर जमें हैं | सभी एक से एक सुघढ़ व्यक्तित्व के धनी और ऊंची डिगरियों के दिग्गज अधिकारी | अभी मैं बैठ ही पाया था कि मैनें देखा कि मेरे कालेज के प्राचार्य डा. पाठक भी वहां आ पहुंचे हैं | मैनें उठकर उन्हें नमस्कार किया और पूछा कि वे वहां कैसे आ पहुंचे हैं | तो उन्होंने बताया कि कुछ काम था कि उन्हें बुलाया गया है | फिर उन्होंने जानना चाहा कि मैं वहां क्यों हूँ तो मैनें उन्हें बताया की मैनेँ भी वहां एक अप्लीकेशन डाली है | उन्होंने कुछ हँसते -हँसते पूछा कि अप्लीकेशन डालनें से पहले मैनें उनसे स्वीकृति क्यों नहीं ली | उन्होंने बताया कि सर्विस Rules के मुताबिक़ नौकरी के लिये दूसरी जगह अप्लीकेशन डालनें से पहले अनुमति की आवश्यकता होती है | हम बात ही कर रहे थे कि इंटरव्यूह शुरू हो गया | मैनें पण्डित चिरन्जीलाल जी को आते हुये देखकर ही जान लिया था कि  वह इंटरव्यूह में प्रमुख निर्णायक की भूमिका निभायेंगें | पहला बुलावा मेरे प्राचार्य डा. पाठक का ही था | मुझे ऐसा भ्रम था कि शायद उन्हें यूनिवर्सिटी ने Expert के नाते भेजा हो पर जब वे इन्टरव्यूह के लिये बुलाये गये  तो मुझे सच्चायी का पता लग गया | लगभग 20 मिनट तक डा.  पाठक  से बातचीत होती रही बाहर निकल कर अपनें साथ आये चपरासी से रिक्शा मंगवाकर वे वापस कालेज चले गये | मैं मन ही मन चिन्तित हो उठा कि कहीं प्राचार्य महोदय प्रधान जी से कहकर मुझसे यह Explanation न मांग लें कि मैनें बिना उनके अनुमति के अप्लीकेशन कैसे डाल दी | पर अब जो होना था वह हो गया | अब तो इन्टरव्यूह Attend ही करना होगा | हर प्रश्न का उत्तर विश्वास और निर्भीकता से देना होगा | यदि मेरे उत्तरों से ब्राम्हण समाज के प्रतिनिधियों को चोट भी लगती है तो भी मुझे अपनें विचारों पर डटे रहनें का विश्वास होना चाहिये | मांग कर नौकरी लेना तो गुलामी है | अपनें व्यक्तित्व और योग्यता के बल पर नौकरी पाना समाज की सेवा है | न जानें क्यों सबसे बाद में मेरा नम्बर आया क्योंकि शायद सबसे बाद में मेरी अप्लीकेशन नथ्थी हुयी थी | साक्षात्कार कक्ष में पहुंचकर कुछ क्षण के लिये मैं भीतर से हिल उठा क्योंकि मैनें पाया कि मेरे सामनें दिग्गज विद्वानों और ब्राम्हण नेताओं की वर्तुलाकार पंक्ति बैठी हुयी  है | अन्दर पहुंचकर मैनें हाँथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में अपना आदर व्यक्त किया और फिर पण्डित चिरन्जीलाल की अनुमति पाकर वृत्त के बीच मेज के  दूसरी ओर पड़ी खाली कुर्सी पर बैठ गया | पण्डित चिरंजीलाल जी के सामनें मेरी अप्लीकेशन रख दी गयी | उन्होंने अप्लीकेशन पर एक निगाह डालकर मेरी ओर देखा और पूछा कि क्या मैं गौड़ ब्राम्हण के इतिहास से परिचित हूँ | मैनें कहा कि कई विस्तृत विवरण तो मेरे देखनें में नहीं आया है पर प्राध्यापक बन्धुओं से सुन -सुन कर संस्थाओं की स्थापना और विकास की कुछ बातें मेरी स्मृति में इकठ्ठी हो गयी हैं | अब गवर्नमेन्ट कालेज की प्राचार्या रश्मि अनेजा नें पहला गंम्भीर प्रश्न मेरी ओर फेंका Well, Mr. Awasthi , You have been a sucessful lecturer . Do you think you have the ability to be a sucessful Principal both jobs are different .
(क्रमशः ) 

No comments:

Post a Comment