Sunday, 4 February 2018

गतांक से आगे -

                              शरत बाबू के उपन्यास ' शेषेर प्रश्न ' की कमल गतिमयता को ही जीवन सार्थकता मानती है | तीव्र से तीव्रतर , तीव्रतर से तीव्रतम , और फिर अनस्तित्व की ओर परिणाम शून्यता से भरा जीवन संचालन  | जहां ठहराव है , स्थैर्य है , गतिहीनता है या यथावत दार्शनिकता है वहाँ उसे जीवन शून्यता का अहसास होता है | अत्यधिक विवेकशीलता के लिये वार्धक्य का सन्देश वाहक है और जोखिम का रोमांच उसे यौवन की उष्मा प्रदान करता है | शरत बाबू अपनें इस अन्तिम उपन्यास में पश्चिम से आनें वाली आंधी का प्रारंम्भिक स्वरूप निरूपित करनें की चेष्टा कर रहे थे | आज वह आँधीं अपनी समग्र भीषणता के साथ सभी स्थापित मान्यताओं को उखाड़ कर क्या रचनें जा रही है इसे कोई नहीं जानता | शायद कुछ रचना ही न हो विनिष्ट करना ही उसे आता हो | मानव इतिहास लावा की न जानें कितनी मोटी परतों पर नयी रचनायें देखनें का साक्षी रहा है और अंधड़ में उखड़े अनगिनत वृक्षों की  बची खुची जड़ों से वन प्रान्तरों की नयी श्रष्टियाँ होती चलती हैं | आज गूगल और याहू ,ट्वीटर और ट्वीट , ब्लागिंग और ब्लॉग , नेट , इन्टरनेट और सुपर नेट की चर्चाओं  के बीच हम भूलते जा रहे हैं कि लगभग 1980 -85  का हिन्दुस्तान केवल रेडियो और ब्लैक एण्ड व्हाइट टी. वी. तक पहुँच पाया था | पिछले लगभग 30 वर्षों में इन्फोर्मेशन टेक्नालॉजी ने जो छलांगें लगायी हैं उनसे मानव सभ्यता का एक युगान्तरकारी परिवर्तन संम्भव हो गया है | राकेश और प्रियम्बदा का रेडियो स्टेशन पर एनाउन्सर के पद पर सेलेक्ट होना 70 -80  के दशक के बीच एक उल्लेखनीय उपलब्धि मानी जाती थी | छोटे शहरों में भी रेडियो स्टेशन खुल रहे थे |  शब्द और स्वर के धनी युवा इन रेडियो स्टेशनों पर आर्थिक उपार्जन के साथ छोटी मोटी ख्याति भी अर्जित कर रहे थे | राकेश से पूछनें पर उसनें बताया कि जनरल नालेज के टेस्ट के बाद वायस टेस्ट हुआ था और उसमें पांच युवाओं का सेलेक्शन हो पाया है | तीन युवतियाँ हैं और दो युवक | सबसे टाप पर सुनन्दा थी उसके बाद मुग्धा , वह स्वयं तीसरे नम्बर पर था | उसके बाद प्रियम्बदा और फिर हरि ओंम | सुनन्दा को मैं जानता था क्योंकि वह मेरे पास कुछ दिनों अंग्रेजी बी. ए. आनर्स में लगे लेखकों के विषय में कुछ जानकारी इकठ्ठा करनें के विषय में आयी थी | वह एक प्रतिभाशाली छात्रा थी और उसके पिता उसी कालेज में जिसमें मैं अंग्रेजी पढ़ाता था कैमेस्ट्री के डिमांस्ट्रेटर थे | प्रथम श्रेणीं में वे बी. एस. सी. पास करके वे डिमांस्ट्रेटर लग गये थे और फिर उन्होंने रसायन शास्त्र में एम.एस. सी.भी कर लिया था पर अभी तक वे प्रवक्ता पद के लिये सेलेक्ट नहीं हो पाये थे | इसका एक कारण यह भी था कि वे जन्मजात हंचबैक  ( कुबड़ा ) थे | वैसे वे उर्दू के अच्छे शायर भी थे और उनके स्वरचित शेरों की एक किताब छप चुकी थी | सुनन्दा उनकी पुत्री थी पर इस समय उसकी माँ का स्थान उसकी मौसी में ले रखा था | सुनन्दा बोलनें -चालनें, रख -रखाव , और मिलन सारिता में औरों से सर्वथा अलग एक निराले व्यक्तित्व की धनी थी और मैं जानता था कि वह एक दिन किसी ऊँचे पद पर चयनित कर ली जायेगी | रेडियो का एडहॉक एनाउन्सर चुना जाना उसके प्रगति की सबसे  पहली सीढ़ी थी |कहना न होगा कि उसकी मौसी जो इस समय उसके पिता की दूसरी पत्नी के रूप में सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुकी थी एक विदुषी महिला थी और राजकीय विद्यालय में भूगोल के प्रवक्ता के रूप में काम कर रही थी | सुनन्दा की मौसी सुनन्दा की माँ कैसे बनी इसकी भी एक कहानी है | बड़े -बूढ़े कहते हैं कि हर जीवन में एक कहानी होती है | छोटी -मोटी न कही जानें वाली कहानियां तो बहुतायत के साथ हर एक जीवन में मिल जाती हैं | पर कही जानें वाली एक कहानी भी तलाश करनें पर हर एक के जीवन में मिल सकती है | कम  से कम हर एक पढ़े -लिखे नवयुवक और नवयुवती के जीवन में | क्या कहूँ इसे मेरा भाग्य ही कहिये कि पहला एम. ए. करके मैं शिक्षा जगत से जुड़ गया और एक ऐसे शिक्षा जगत से जिसका परिवेश मेरी प्रारंम्भिक शिक्षा -दीक्षा के परिवेश से सर्वथा भिन्न था | कई बार भाग्य की बात सोचते -सोचते मुझे लगता है कि मेरे सन्दर्भ में भाग्य को यदि चान्स में बदल दिया जाय तो ज्यादा सार्थक होगा | कई बार लगता है कि जन साधारण से संम्बन्धित प्रशासनिक सेवाओं में शायद मैं ज्यादा उपयोगी हो पाता पर फिर कहीं भीतर से मुझे यह अहसास होता है कि जो मुझे अनायास ही मिल गया उसी के लिये मैं प्रकृति से Oriented था | जब मैनें प्रवक्ता के रूप में कालेज को ज्वाइन किया उस समय सुनन्दा के पिता तीन चार साल की सर्विस कर चुके थे | चूंकि वे डिमॉन्सट्रेटर थे इसलिये समग्र वरीयता सूची में उनका स्थान नीचे पड़ता था | सरकारी मान्यता और सहायता प्राप्त पंजाब के कालेज उस समय इस संघर्ष में लगे थे कि जो डिमांस्ट्रेटर लेक्चरर की क़्वालीफिकेशन रखते हों उन्हें लेक्चरर का ग्रेड दे दिया जाय | सुनन्दा की माँ हाई स्कूल पास एक सरल सीधी गृहणीं थीं | उनके दो बच्चे थे एक सुनन्दा दूसरा रजत | सुनन्दा की माँ की छोटी बहन सुनन्दा के साथ रहकर बी. ए. में पढ़ रही थी | वह पढनें में काफी तेज थी शायद वह सुनन्दा से दो तीन साल  बड़ी भी थी | किसी संभ्रान्त घर की अन्दरूनी  बातों का ज्ञान या तो उस घर के लोग जानते हैं या श्रष्टि की नियामक कोई ऐसी सत्ता जो सभी क्रिया कलापों का रिकार्ड रखती हो | पर हर समाज में इधर -उधर की बातें तो चलती ही रहती हैं और कालेज के शिक्षकों के समाज में भी परिवार की बातें चर्चा में आती जाती रहती थीं | कुछ वर्षों बाद सुनन्दा की मौसी नें एम. ए. कर लिया | और उसे 52 -53 प्रतिशत अंक हासिल हो गये | उन दिनों लेक्चरर होनें के लिये 50 प्रतिशत की सीमा रेखा निर्धारित थी क्योंकि पंजाब यूनिवर्सिटी में 50 प्रतिशत से ही द्वितीय क्लास की शुरुआत होती थी | उस समय सेकेण्ड क्लास एम. ए. ही प्रवक्ता के लिये प्रार्थना पत्र लगा सकता था | अब यह सीमा रेखा 55 प्रतिशत हो गयी है और उसके साथ ही नेट या सेट का इम्तहान पास करना पड़ता है | एम. फिल.और पी.एच. डी.बाद में किये जा सकते हैं | हाँ उन्होंने 2005 से पहले पी.एच. डी. कर रखी हो उनके ऊपर नेट या सेट की कन्डीशन लागू नहीं है | चूंकि सुनन्दा के पिता हन्च बैक थे इसलिये उनकी चाल -ढाल अध्यापकों के बीच हंसी -मजाक का विषय बनी रहती थी | उनके कुछ साथी तो इतना फूहड़ मजाक भी करते थे कि उसे सुनकर मन खिन्न हो उठता था | वे कहते थे कि पिता बननें की ताकत इन डिमांस्ट्रेटर साहब में कहाँ से आ गयी ? पर हंसी हंसी में सुनन्दा के पिता इस आक्षेप को सहज भाव से स्वीकार कर लेते थे और कहते थे कि आजमा कर देख लो तब पता चलेगा | क्यों और कैसे यह सब हुआ मैं नहीं जानता पर एक दिन मैनें सुना कि सुनन्दा की माँ का शरीर नीला पड़  गया है , कि उसनें जहर खा लिया है , कि वह अस्पताल में है ,कि उसनें यह लिखकर छोड़ दिया है कि उसनें स्वयं इच्छा से संसार छोड़ने का फैसला किया है | कि उसनें अपनी छोटी बहिन से अनुरोध किया है कि वह बच्चों की माँ का स्थान ले और उन्हें ऊंची शिक्षा दिलाकर सम्मानजनक पदों पर पहुँचाये | कहते हैं कुछ पुलिस इन्कवायरी भी हुयी पर सब रफा -दफा हो गया और सुनन्दा की मौसी नें सुनन्दा की माँ की इच्छा के अनुसार उसकी नयी माँ के रूप में अपनें को स्थापित कर लिया अब चूंकि वह प्रवक्ता पद के  लिये क्वालीफाईड तो थी ही इसलिये दौड़ -धूप या जोड़ तोड़ कर उसनें अपनें को सरकारी कालेज में प्रवक्ता के रूप में चयनित भी करवा लिया | सुननें में यह भी आता है कि इस चयन प्रक्रिया के पीछे उसकी स्वच्छंद जीवन शैली और कुछ राजनीतिज्ञों के साथ उसकी मित्रता भी थी | जो भी रहा हो पद पाकर उसका गौरव और बढ़ गया | सुनन्दा और रजत अब बड़े हो रहे थे | सुनन्दा नें  बी.ए.आनर्स में प्रथम श्रेणीं प्राप्त की और अंग्रेजी एम. ए. में दाखिला ले लिया | कहा जाता है कि भीतर ही भीतर यह प्रतिभाशाली  लड़की अपनी मौसी को अपनें माँ के पद पर स्वीकारनें के लिये तैय्यार नहीं थी | वह अपनी शिक्षा को एक चुनौती के रूप में ले रही थी और इस चुनौती को पूरी तरह स्वीकार कर और उसे विजित कर वह अपनी नयी माँ से अधिक ऊँचें पद की तलाश में लगी थी |
क्रमशः 

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