Friday 12 January 2018

(गतांक से आगे )
                                  
                                      दक्षिण भारत भ्रमण पर निकली नताशा नें अपनें मोहक व्यक्तित्व से मेरे साथ चल रहे सभी तरुण विद्यार्थियों का मन मोह लिया और वे सब उसे अपनें मित्र के रूप में स्वीकारनें लगे | नताशा ने उनसे पूछा कि वे सब अब आगे किस टूरिस्ट स्पॉट की ओर  जायेंगें तो उन्होंने बताया कि वे औरंगाबाद होते हुये अजंता और एलोरा की गुफाओं का चित्रांकन और गुफा संभरण देखेंगें | ऐसा ही प्रोफ़ेसर साहब का पूर्ण नियोजित प्लान है | उसनें विद्यार्थियों से आग्रह किया कि वह भी उनके साथ अजंता एलोरा चलना चाहेगी | मैं इसके लिये सहमत नहीं था पर विद्यार्थियों के सामूहिक अनुरोध प्रक्रिया में बार -बार मेरे विरोध को संयमित करने का काम किया और अन्ततः मुझे इस बात के लिये सहमत हो जाना पड़ा कि वह हम लोगों के साथ औरंगाबाद होते हुये अजंता, एलोरा तक चले | आगे की व्यवस्था जिसमेँ मीनाक्षी और रामेश्वरम की विजिट शामिल थी बाद में देखी जायेगी | उस रूसी तरुणीं में जिसे हम नताशा के नाम से जानते हैं गजब का जीवट था | उसनें जर्मन लेडी टूरिस्ट से याचना  की और उन्हें बताया कि वह उनका साथ छोड़कर अब हम सबके साथ अजंता एलोरा देखनें जायेगी | जर्मन लेडी टूरिस्ट का आग्रह नकारकर वह हमारे साथ औरंगाबाद के लिये चल पड़ी | रूस से अकेले चलनें का साहस जुटा पानें वाली यह तरुणीं एक क्वालीफाइड आर्कीटेक्ट थी | अपनी अर्जित कमायी से ही वह दक्षिण भारत भ्रमण पर निकली थी | अपनें माता -पिता की सहमति लेकर वह दक्षिण भारत की गुफाओं , मन्दिरों और शिल्प आकृतियों का कलात्मक अध्ययन करना चाहती थी | आर्कीटेक्ट होनें के नाते उसे दक्षिण भारत के मन्दिर और बलीपुरम के रथ टंकन आकर्षित कर रहे थे | अजंता और एलोरा की गुफायें तो विदेशी पर्यटकों के लिये सदैव अटूट आकर्षण का सोर्स रही है | दरअसल मैं नहीं चाहता था कि नताशा हमारे साथ चले क्योंकि मैं भीतर से आशंकित था कि मेरे विद्यार्थियों में से  कहीं कोई अभद्र व्यवहार न कर बैठे | यद्यपि मैं जानता था  वे विद्यार्थी अत्यन्त सुसंस्कृत परिवारों से हैं | और उनका व्यवहार कभी भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता फिर भी एक विदेशी सुन्दरी तरुणीं का सामीप्य मुझसे अतिरिक्त सावधानी की मांग करता था | कहना न होगा कि मेरे साथ के विद्यार्थी रिजर्वेशन चार्ट में बिल्कुल पास -पास बिठाये गये थे जबकि मैं उसी डिब्बे में उनसे कुछ दूर हटकर रिजर्वेशन पा सका था | महाविद्यालय के नियमों के मुताबिक़ मैं इस रेल यात्रा में उच्चतम श्रेणीं का हकदार था पर मैनें जानबूझकर इस स्लीपर क्लास में ही अपनी बर्थ रिजर्व करवायी थी | ऐसा अनुशासन और व्यक्तिगत देख -रेख के लिये आवश्यक भी था | और ऐसा करने से मैं उन विद्यार्थियों के और नजदीक आ गया था|  एलफेण्टा केव से औरंगाबाद की यात्रा अधिक लम्बी नहीं है और नताशा कभी विद्यार्थियों के पास और कभी मेरे पास सहज भाव से आकर बैठती रही | औरंगाबाद में उसनें अपनें रात्रि विश्राम के लिये हम जिस टूरिस्ट रिजॉर्ट्स में ठहर रहे थे उससे सटे हुये एक दूसरे टूरिस्ट रिजॉर्ट्स में एकल कक्ष का प्रबन्ध किया था | आज दो हजार अठारह में भारत की तरुण नारियां काफी कुछ स्वतन्त्र जीवन जीनें में स्वतन्त्र हैं पर आज से पचपन साठ वर्ष पहले भारत की कोई शिक्षित तरुण सुन्दरी अकेले अपरिचित युवकों के साथ पर्यटन पर निकलनें का साहस जुटा पाती ऐसा मानना मेरे लिये संम्भव नहीं हो पाता | पर रूस के स्त्री -पुरुष समानतावादी संस्कृति नें नताशा को सशक्त जीवन मूल्य प्रदान किये थे | और उसमें इतना आत्म बल था कि उसका निर्णय अपनी स्वतन्त्र मान्यताओं पर आधारित होकर किसी पारम्परिक नीति शास्त्र से बंधा नहीं था | उसका हमारे साथ चलने का एक कारण सम्भवतः यह भी रहा होगा कि भारत की ललित कलाओं की मेरी थोड़ी बहुत जानकारी उसे थोड़ी बहुत प्रभावित कर गयी होगी | प्रस्तर मूर्तियों के निर्माण में प्राचीन भारतीय शिल्पियों की त्रिकालजयी प्रतिमा सारे विश्व में सराही गयी है | गुफा भित्त -चित्र के रूप में अजन्ता के चित्र आज भी विश्व में आश्चर्य का विषय बनें हैं और इन सब विस्मयों से बड़ा विस्मय है विशाल भारत की हैरतगंज विविधता | खान -पान ,पहनाव , भेष -भूषा , भौगोलिक परिवेश ,रंग ,कद और कटान की आश्चर्यजनक विविधता भारत को विश्व के सभी देशों से अलग खड़ा कर देती है | विदेशी टूरिस्टों के लिये तो इसका एक निराला आकर्षण ही होता है | पूजा -पाठ , धार्मिक मान्यतायें और मजहबी अनुष्ठानों के अनगिनत स्वरुप भी विदेशी टूरिस्टों को गहन दार्शनिक उलझनों में डाल देते हैं | क्वालीफाइड आर्कीटेक्ट होनें के नाते नताशा को आकृतियों के कटाव और स्थापत्य कला के जटिल आयामों का पूरा ज्ञान था और वह उन्हें अत्यन्त गहराई से खोजती मापती थी | साथ ही वह यह चाहती थी कि आकृतियों , मन्दिरों और चित्र वीथियों से जुड़े हुये पौराणिक और धार्मिक प्रसंगों से वह पूरी तरह अवगत हो जाये ताकि ललित कला को समूचे सन्दर्भों में व्याख्यायित किया जा सके | अब यदि सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के जीवन की महत जीवन घटनाओं का ज्ञान ही न हो या जातक या बोधिसत्व परम्परा से कोई कभी न जुड़ा हो तो उसे अजन्ता के भित्त चित्रों का पूरा आनन्द मिल ही नहीं पायेगा | इसी प्रकार एलोरा गुफाओं में पहाड़ों पर काट कर बनाये गये रथ और दशानन की बाहु शक्ति का प्रदर्शन तभी पूरी तरह समझ में आ पायेगा जबकि भारत की महाकाव्यीय परम्परा से पर्यटक को थोड़ा -बहुत परिचित करा दिया जाये | सामान्य गाइड्स के मुकाबले नताशा नें मुझमें  शायद ऐसी ही कोई संम्भावना देखी होगी इसीलिये उसने मनोवैज्ञानिक ढंग से विद्यार्थियों को अपना मित्र बनाकर उनके सामूहिक आग्रह द्वारा मेरे सम्पर्क में रहनें का मार्ग खोज लिया था | निश्चय ही इसमें नताशा की विशुद्ध जिज्ञासावृत्ति और ज्ञान पिपासा ही थी पर गहरे कलात्मक ज्ञान से अनिभिज्ञ विद्यार्थी उसके साथ को एक विदेशी नारी के रोमांचक सामीप्य के रूप में ले रहे थे | मेरे पास बैठने  पर और औरंगाबाद में पर्यटन कक्ष में मेरे साथ कुछ देर बैठकर उसनें विश्व के महान मूर्तिकारों और चित्रकारों जैसे माइकल एंजोलो ,लियो - लार्डो व विन्सी तथा आधुनिक काल के बहुचर्चित चित्रकार पिकासो के सम्बन्ध में जो बात -चीत की उसनें मुझे उसका प्रशंसक बना दिया उसका अंग्रेजी ज्ञान बहुत अधिक सुद्रढ़ नहीं था पर कला की गहरायी में पैठनें की उसकी शक्ति निश्चय ही प्रशंसा के योग्य थी | पर वह सुन्दरी तो थी ही और तरुण भी तथा मुक्त जीवन शैली की पथगामी | स्वाभाविक था कि उसका सहचर्य मुझे भी सुखद लगनें लगा और मुझे लगा कि निश्चय ही नताशा का साथ प्रेरणादायक और उन्नयनकारी हो सकता है | शाम को पहुंचकर हम सबनें औरंगाबाद के किले को उसके प्रकाशमान और अँधेरी चक्रव्यूही वीथियों में गुजरकर देखा और हमें लगा कि मुगलकाल में भी युद्ध और सुरक्षा के जिन प्रकारों को हिन्दुस्तान नें तलाशा था वे अपनें युग में निश्चय ही अद्वितीय रहे होंगें | प्रातः  औरंगाबाद से चलकर टूरिस्ट बसों में अजन्ता ,एलोरा तक पहुंचने की व्यवस्था थी | रात को गुड नाइट कहकर नताशा जब समीप के पर्यटन कक्ष में जानें लगी तो मुझे ऐसा लगा कि उसकी आँखों में कोई मूक निमन्त्रण है | आज मैं जानता हूँ कि शायद ,यह एक भ्रम ही था पर उमर के उस दौर में मैं काफी देर तक मानसिक रोमान्स की पैंगें लगाता रहा | उन दिनों U.S.S.R.विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्रों में से एक था और United States  Of America को सीधी टक्कर देने की हिम्मत केवल वही कर सकता था | साम्यवादी व्यवस्था का सबसे सुद्रढ़ गढ़ होने के नाते और अन्तरिक्ष अनुसन्धान का प्रथम पहरुआ होनें के नाते उसकी धाक प्रत्येक देश में मानी जाती थी | भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री प ० जवाहर लाल नेहरू कम्युनिष्ट व्यवस्था को सर्वथा न स्वीकार करते हुये भी समाजवादी व्यवस्था के पोषक थे | भारत और रूस की मित्रता एक आदर्श के रूप में ली जाती थी | और संकट की प्रत्येक घड़ी में सोवियत संघ भारत के साथ खड़ा होता था | शीत युद्ध के उस दौरान में नेहरू जी ,मिश्र के नासिर जी और युगोस्लाविया के टीटो जी नान एलाइन्स मूवमेन्ट के प्रबल समर्थक थे और उसके संस्थापक भी | भारत के पढ़े लिखे अधिकाँश लोगों का मत था कि सोवियत संघ की नारी ही आज विश्व में सच्ची स्वतन्त्रता की अधिकारिणीं है और वह तन सुख को भी नीति विरोधी या हेय क्रियाओं में नहीं मानती | हो सकता है सोवियत संघ की यह विचारधारा अति शिक्षित और अति स्वतन्त्र तथा आर्थिक द्रष्टि से आत्मनिर्भर नताशा के विचार तन्त्र को प्रभावित कर रही हो पर मुझे तो भारत  का सहस्त्रों वर्ष पुराना नीति  विधान जकड़े हुये था और मैं देहरी पर खड़ा होकर भी उसको पार करनें की हिम्मत नहीं कर सकता था | पर आज मैं सोचता हूँ कि ऐसा होना ही शायद उचित था | यही तो मार्ग हैं जिसनें भारतीय संस्कृति को आज भी एक पावन सुहावन आरक्षण दे रखा है | पर उस रात के कुछ घण्टे मुझे महर्षि पाराशर और विश्वामित्र की याद दिलाते रहे और इन पौराणिक कथाओं का रहस्य भी तभी मेरी समझ में आया | मैनें मन ही मन इन ऋषियों को उनकी हिम्मत पर दाद दी और अपनी कायरता के सुखद -दुखद अनुभव का अहसास भी किया | एकाध बार मुझे लगा कि कुछ विद्यार्थी अपनें विश्राम कक्षों से बाहर आकर यह देख रहे हैं कि उनके प्रोफ़ेसर साहब अपनें कमरे में हैं या नहीं | और हल्की खांसी के साथ मैनें उन्हें यह अहसास कराया कि मैं इन्द्रियजयी हूँ और स्थित प्रज्ञ मुद्रा मेँ विश्राम कर रहा हूँ | हल्के धुंधलके में ही नताशा तैय्यार होकर मेरे कक्ष के द्वार पर आ गयी | और उसकी उनीदीं आँखें उसके रात भर जगने का अहसास करा रही थीं पर अभी तो हमारा साथ शेष ही था | अजन्ता और एलोरा की उन गुफाओं में भी तो हम अपनें हावभाव और मूक संवाद से आपनें आत्मिक लगाव को व्यक्त कर सकते थे और एलोरा की गुफाओं की ओर बढ़ते हुये एक सूनसान पगडण्डी के वर्तुल कोनें पर कुछ ऐसा हुआ भी | पर छोड़ो विगत की उन बातों को | त्रिपुरारी शिव नें तीसरी आँख खोलकर कामदेव को सदेह भष्म कर दिया पर उसका सूक्ष्म रूप  तो अब  भी संसार की मानवता को पीड़ित कर रहा है | मुझे यदि कुछ क्षणों के लिये उसनें अपनी दबोच में ले लिया तो इसमें इतनें विस्मय की कौन बात ? और फिर वीथिका के उस सूनसान कोनें का वह क्षणिक संवाद और दैहिक सानिध्य क्या किसी मानें में स्वर्गीय अनुभूति से कम था ? अरे ,यह क्या क्षण के सतांश में मैं कितनी लम्बी मानसिक यात्रा पर निकल पड़ा | हरवंश राय बच्चन ने ठीक ही तो गाया है , " जो बीत गयी सो बात गयी | " न तो आज वह सोवियत संघ है और न ही शायद नताशा का वह रूप रंग रहा हो पर मेरे मन में तो Keats के Grecian Urn की तरह निरन्तर उसकी वही सौन्दर्य मूर्ति मानस में अंकित रहेगी और मेरी चाहत भरी निगाहें उसे अपनें आलिंगन में घेरती रहेंगीं | पर अरे यह तो घर आ गया था | डा०  उषा कालिया ने कहा , " प्रोफ़ेसर साहब कहाँ खो गये थे ? मैं कुछ कहती रही पर आपनें सुन कर भी अनसुना कर दिया | " आप जानते ही हैं कि अनिल तिर्खा नें एक ड्रैमेटिक क्लब की स्थापना की है और उसके सचिव के रूप में आपका बड़ा बेटा राकेश मनोनीत किया गया है और कैप्टन जबर सिंह की बेटी प्रियम्बदा उसकी ज्वाइन्ट सेक्रेटरी है | गाड़ी द्वार पर रोक  कर मेरे कुछ देर ठहरने के आग्रह को नकारते हुये उन्होंने Good Bye की और आगे बढ़ गयीं | जाते -जाते बोलीं आपनें प्रियंबदा को देखा है उसे आने वाली फिल्म हरियाणा की छोरी में नायिका के रूप में चुना गया है | तो क्या मुझे कैप्टन जबर सिंह से टकराना होगा  या अपनेँ बेटे राकेश से  ,या अपनी समाज व्यवस्था से , पर अब न तो मन प्राण में वह शक्ति है और न सामाजिक अमूल चूल परिवर्तन की वह दुर्दम्य अभिलाषा परास्त मन यह विचार  करने पर मजबूर हो रहा है कि मनुष्य के सारे प्रयत्न निरर्थक हैं | घटनाओं पर किसी का एकाधिकार नहीं हैं | अपनी सारी मित्रता के बाद भी और अपनें सारे प्रभाव को इस्तेमाल करने के बाद भी पण्डितजी रक्षा मन्त्री कृष्णा मेनन को बचा नहीं पाये | अरे अभी कुछ महीनें पहले की ही बात है जब हम डा ० गोपाल सिंह के माध्यम से कृष्णा मेनन से मिले थे और हमें उनके हाथों से बनी हरी चाय की पत्तियों से बनी छनकर आने वाली चाय का आनन्द मिला था | भाषा का इतना समर्थ व्यक्तित्व रक्षा प्रबन्धन के मामले में कितना निक्कमा साबित हुआ यह सोचकर मैं विस्मित रह गया | मेरा सारा भाषा ज्ञान और तर्क क्षमता परिवार प्रबन्धन को संम्भालनें में असमर्थ हो रही है | नहीं मुझे अपनें मूल्य निर्धारित करने हैं | | यदि जाति व्यवस्था निरर्थक है और समाज का बोझ है तो उसको तोड़ देने की हिम्मत मैं क्यों नहीं कर पा रहा हूँ | पर हर जाति की अपनी कुछ पारम्परिक जीवन यापन शैलियाँ हैं उस जीवन शैली में विजातीय सम्बन्ध कुछ अटपटापन तो नहीं ला देंगें | मान लो मैं हिम्मत करता और नताशा दैहिक रूप से मेरे सम्पर्क में आ जाती तो क्या यह मिलन अपावन होता | स्वेच्छा से किया हुआ मिलन किन सन्दर्भों में पावन है और कब अपावन बन जाता है इस पर एक ठोस निर्णय तक तो पहुंचना ही होगा | पर इन पारिवारिक झमेलों से ऊपर का भी तो एक संसार है | हम अपनें राष्ट्रीय हर्ष और उल्लास को अपनें व्यक्तिगत सुख दुख से ऊपर मानकर एक वृहद मानव समाज से सम्बन्धित हो सकते हैं | चीन के हांथों मिली हुयी हमारी सामरिक पराजय स्वतन्त्र भारत के माथे पर एक कलंक है | सहस्त्रों वर्ग मील भारतीय भूमि पर अपना दावा बताकर कब्जा कर लेना विश्वासघात का सबसे घृणित दांव -पेंच है | पर क्या किया जाय ? दस हजार भारत के शूर वीर सैनिकों का ब्रिगेडियर होशियार सिंह के नेतृत्व में बलिदान होनें की रोमांचक गाथा क्या हमें Heroic ऊंचाइयों तक नहीं ले जाती | धन्य हैं माँ भारती के इन शूरवीरों को | फाहियान और ह्वेनसांग स्वतन्त्र ने जिस भारत के स्वर्णिंम अतीत का चित्रण किया हो और जहां से गौतम बुद्ध का दर्शन शिष्य बनकर लिया गया हो उसी मित्र देश के साथ इतना जघन्य विश्वासघात | भारत को इसका प्रतिकार करना ही होगा | पर क्या हमारे राजनेता इतनी दूर द्रष्टि से सम्पन्न हैं कि वे  हमें  विजय शिखर पर पहुंचा सकेंगें | इन समस्याओं में अपनें परिवार का छोटा -मोटा सुख --दुःख ही यदि हमें बांधकर रखे तो क्या यह प्रबुद्ध नागरिक के लिये उचित होगा | अभी कुछ ही महीनें पहले तो कृष्णा मेनन नें कहा था कि चीन पर उनका अटूट विश्वास है और हिन्दी -चीनी भाई -भाई का नारा इतिहास के पन्नों पर अमिट सत्य के रूप में उभरेगा | कितनें बड़े भ्रम के जाल में फंसा था यह मनीषी मार्क्सवादी चिन्तक ? चीन के विश्वासघात ने ही युग पुरुष नेहरू को भी एकाध वर्ष बाद हमसे विलग कर दिया | तो क्या किसी राष्ट्र द्वारा घोषित की जाने वाली बातें केवल शब्द जाल ही होती हैं | व्यक्तिगत जीवन में भी तो ऐसा ही दिखायी पड़ रहा है | राकेश कहता है कि प्रियम्बदा उसकी बहन है और मंच की हर नारी कलाकार उसकी बहन बनकर उभर रही है | पर एक तरुण युवक कहीं इस बहनापे के भाव के पीछे रोमांचक अनुभूतियों की क्यारी तो नहीं सजा रहा है | पर होने दो जो कुछ भी हो रहा है | डा ० ऊषा कालिया की लड़की Winsconsin विश्वविद्यालय में अपनी थीसिस सबमिट कर कुछ दिनों के लिये भारत वापस आ रही है  | बड़े आग्रह से उन्होंने अगले रविवार मुझे और राकेश की माँ को घर पर बुलाया है | पर राकेश की मां तो जानें को तैय्यार नहीं | कहती है अंग्रेजीदां औरतों से मेरी नहीं बनती | तुम्हीं जाओ इन बलकटी जनानियों के बीच | नहीं नहीं समय के साथ -साथ राकेश की माँ को बदलना होगा | नारी सौन्दर्य तो उसका किसी से काम नहीं पर अंग्रेजी भाषा के ज्ञान का अभाव उसमें क्यों हीन ग्रन्थि पैदा कर रहा है | समाज में फ़ैली इस मानसिक दासता से भी दो दो हाँथ करने पड़ेंगें | पर मैं स्वयं भी तो अंग्रेजी लिखनें बोलनें को हिन्दी लिखनें बोलनें से श्रेष्ठ कार्य समझता हूँ | अपनी मातृ भाषा की उपेक्षा और पराये देश की मातृ भाषा की उपासना | प्रतिश्रुत होता हूँ आज से मैं हिन्दी में लिखनें बोलनें के लिये | अभ्यास में थोड़ा समय तो अवश्य लगेगा पर द्रढ़ निश्चय ही तो लक्ष्य प्राप्ति का कारगर हथियार है | भारतेन्दु जी की पंक्ति मन में उभर आयी , " निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कर मूल ,बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय का शूल , "
                                 पर अगले रविवार की शाम डा ० ऊषा कालिया के घर अमरीका से आयी उनकी पुत्री और उसकी सहेली और सहेलियां क्या मातृ भाषा में किये गये मेरे वार्तालाप का पूरा आनन्द ले पायेंगी ?
( क्रमशः )

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