Saturday 13 January 2018

(गतांक से आगे )
                                        
                                               एलोरा की गुफाओं में घूमते समय पथरीले मार्गों के किसी एकान्त कोनें पर नताशा द्वारा कहा हुआ वाक्य मुझे स्मरण हो आया | अंग्रेजी में उसनें कहा था , " Sir,in India love becomes sacred in spiritual context,but why the vitol urges of human body are considered simful."मैं उसके इस प्रश्न का ठीक उत्तर नहीं दे पाया था | जहाँ तक मुझे याद है मैनें यह कहकर प्रश्न को टाल दिया था कि केवल भारत ही नहीं विश्व के प्रत्येक देश में शारीरिक प्यार आत्मिक प्यार से निचले स्तर का माना गया है | Christianity भी तो Adam और Eve के दैहिक आकर्षण को एक Sin ( अपराध ) मानती है और शायद इसीलिये अंग्रेजी का यह वाक्य बार -बार दोहराया जाता है , " Man was born in sin." नताशा मुस्कराकर चुप रह गयी थी पर मैं जानता हूँ कि उसकी आँखें मेरी पौरषीय भीरुता का उपहास कर रही थीं | रविवार की  शाम जब मैं अपर्णां और उसकी माँ के साथ डा ० ऊषा कालिया के घर पहुंचा तो वहां हंसती -खिलखिलाती किशोर -किशोरियों और तरुणियों का जमघट नजर आया | ऊषा की पुत्री अपनी ही यूनिवर्सिटी की एक छात्रा सखी पमेला को साथ ले आयी थी | पमेला टूरिस्ट विजा पर एक पखवारे में उसके साथ रहकर भारत के वैविध्य का आनन्द लेना चाहती थी | ऊषा कालिया की बेटी संयोगिता बचपन से ही मुझे जानती थी और मुझे Great Uncle कहकर पुकारती थी | अपर्णा की माँ उसके लिये बड़ी मम्मी थी और अपर्णां उसकी छोटी बहन | अपर्णां की माँ अपनें संकोच के  बावजूद मेरे अधिक आग्रह करनें पर मेरे साथ चली अवश्य जाती थी पर वह बात -चीत में हिस्सा न लेकर खाने -पीने की चीजों की व्यवस्था में लग जाया करती थी | Winsconsin यूनिवर्सिटी में अपनी थीसिस जमा करने के बाद लौटी संयोगिता  को मैनें काफी कुछ बदला हुआ पाया | उसकी चंचलता गंभीरता में बदल गयी थी और आधुनिक साज- सज्जा में भी मुझे ऐसा लगा कि वह भारतीय संस्कृति की नारी गरिमा को अधिक महत्व देने लगी है | अमेरिका जानें से पहले विश्वविद्यालय की वाद -विवाद प्रतियोगिताओं में वह भारतीय नारी  के जीवन पद्धति पर कड़े व्यंग्य किया करती थी और तलाक लेने वाली अपनी माँ को आदर्श के धरातल पर स्थापित करती थी | वह नारी स्वतन्त्रता की पूर्ण हामीं थी और यह मान कर चलती थी कि सामाजिक विकास के क्रम में भारतीय नीतिशास्त्र मध्य युग से आगे नहीं बढ़ सका है | पर अब मुझे ऐसा लगा कि कहीं बहुत अधिक गहरे में संयोगिता वैचारिक परिवर्तन के दौर में गुजर रही है | मुझे ऐसा लगा कि अमेरिका के प्रवास के दौरान उसके जीवन में शायद ऐसा कुछ घटा है जिसनें उसे नये सिरे से सोचनें के लिये बाध्य किया है | उसकी अमेरिकन सहेली पमेला उन्मुक्त स्वभाव की छरहरे और सुन्दर आकृति की एक मनभावन तरुणीं थी और वह टूटी -फूटी हिन्दी में बोल लेती थी | मेरी बेटी अपर्णां तरुणायी की ओर बढ़ रही थी और संयोगिता से बहुत पहले से ही प्यार पाने के कारण वह निः संकोच उस जमघट में शामिल हो गयी और भारतीय सन्दर्भों में नये उभरते जीवन मूल्यों की परिचर्चा में रस लेने लगी | मुझे इस बात की खुशी थी कि अपर्णां हिन्दी , अंग्रेजी और थोड़ा बहुत पंजाबी में भी अपनी बात सशक्त ढंग से कह सकती थी और उसकी तर्कशैली उसे मंच पर कई सफलतायें दे चुकी थी | संयोगिता उसे किसी भी बहस में बराबर का हकदार माननें लग गयी थी और कई बार मुझसे कह चुकी थी Great Uncle देखना अपर्णां गौरीशंकर की चोटी छुयेगी , मैं मुस्कराकर अपनी मूक स्वीकृति देता रहता था | अपर्णां की माँ कुछ अन्य गृहणियों के साथ खान पान की व्यवस्था में लग गयी | मैनें ऊषा जी से यह जानना चाहा कि संगीता डॉक्टरेट पाने के बाद क्या फिर यू ० एस ० ए ० जानें का विचार कर रही है तो उन्होंने बताया कि अभी इस दिशा में कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया है | हो सकता है कि संयोगिता भारत में ही किसी अच्छे करियर की तलाश करे | डा ० ऊषा कालिया का अपना जीवन आर्थिक द्रष्टि से एक सफल -शिक्षित नारी का जीवन तो था पर प्रेम , विवाह , सन्तानोंत्पत्ति और फिर तलाक इन सबकी चाटक धूमिल रेखायें उनके चेहरे पर प्रतिबिम्बित होनें लगी थीं | निश्चय ही वह यह नहीं चाहती होंगीं कि संयोगिता के जीवन में वह सब घटित हो जो उनके जीवन में हुआ था | अटूट प्रेम की जीवन भर चलने वाली महाकाव्यीय गाथाओं से संयोगिता भली -भांति परिचित थी और उसे यद्यपि अपनें पिता से मिले हुये काफी समय हो गया था | फिर भी शायद वह अपने पिता को अपनें मन में किसी हीन धरातल पर खड़ा नहीं कर पा रही थी | डा ० ऊषा कालिया के तलाक की कहानी और उनके पति के पुनर्विवाह की चर्चा अन्य सन्दर्भों में की जाती रहेगी | यहाँ इतना कहना ही आवश्यक है कि संयोगिता के जीवन मूल्य अपनी माँ के जीवन मूल्यों से सम्पूर्णताः मेल नहीं खाते थे और वह अपने जीवन पथ के लिये मानव संम्बन्धों के आदर्श आयामों को छू रही थी | लगभग दो- ढाई घण्टे बाद जब हम आने के लिये प्रस्तुत हो रहे थे तो बाहर एक गाड़ी रुकी और एक अत्यन्त सुन्दर नवयुवती अंग्रेजी वेशभूषा में सिर पर Felt Cap  लगाये हुये अन्दर आयी | उसनें ऊषा जी से कहा , " Sorry aunty, I am too let . I was busy in the reheasal .और यह कहकर वह संयोगिता की ओर मुड़ी और हाँथ मिलाते हुये बोली , " How do you do  Sonyoo,you had a long stay abroad. संयोगिता नें उससे पूछा कहाँ से आ रही है  यह क्या पहन रखा है | आनें वाली सुन्दरी नें उसे बताया कि विश्वविद्यालय में शैक्सपियर की कमेडी "Twlth Night "मंच पर अभिनीत होनें जा रही है और मैं उसमें Oliya का रोल अदा कर रही हूँ | सीधे रिहर्सल से तुम्हारे पास आयी हूँ | मुझे दरवाजे तक गाडी में बैठानें के लिये डा ० ऊषा कालिया बाहर आयीं और जब अपर्णां की मां गाड़ी में बैठ गयी तो मुझसे धीरे से बोलीं , " प्रोफ़ेसर साहब यह जो लड़की अन्दर आयी है यही प्रियम्वदा है कैप्टन जबर सिंह की पुत्री | आपका बेटा राकेश इसी के साथ हीरो का रोल अदा कर रहा है | आपकी बेटी अपर्णां प्रियम्बदा से परिचित है | सुनकर मैं अपनें भीतर कहीं शंकाओं के गहरे अन्धेरे में डूब गया | हे भगवान् ! यह नाटक ,यह मंच , यह सिनेमायी चित्रण ,यह नारी मुक्ति आन्दोलन , यह सौन्दर्य प्रतियोगितायें और यह वस्त्र प्रदर्शनियाँ क्या हमारे घरों की मर्यादाओं को सुरक्षित रहनें देंगीं | पर क्या किया जाये ? बदलते समय को मुठ्ठी में बांधकर नहीं रखा जा  सकता पर क्या पता कहीं इस उथल -पुथल में समुद्र के अन्तः स्थल में पड़े गहरे मोती भी निकल आयें ? घर वापस आकर भी मेरा मन शंकाओं से घिरा रहा | अपर्णां बड़ी हो गयी है | उसके नख -शिख भी लुभावने हैं , उसकी प्रतिभा भी प्रभावी असर छोड़ती है | युवक उसकी ओर आकर्षित होनें लगे हैं | उसे  अच्छे -बुरे की निर्णय क्षमता कैसे मिल पायेगी | ऐसा कुछ किया जाये  कि Post Graduation के लिये उसे विदेश में जानें की व्यवस्था हो सके | उसे किसी Scholarship के लिये तैय्यार करना होगा अब वह युग नहीं रहा जब माँ -बाप की जिम्मेदारी लड़की की शादी कर देनें के बाद समाप्त हो जाती थी | लड़का भले ही आर्थिक द्रष्टि से सुद्रढ़ न हो पावे | पर लड़की को तो अपनें पैरों पर खड़ा करनें योग्य बनाना ही होगा | पलंग पर लेटे -लेटे न जानें कब झपकी आ गयी  और तन्द्रिल अवस्था में मन कई दशक पहले बचपन में देखे गये उन द्रश्यों को दोहराने लगा जो मेरे स्व ० पिता के अन्तिम प्रयाण के समय के थे | पिताजी के देहान्त के बाद मेरी माँ द्वारा किया हुआ अटूट संघर्ष और उनके अजेय जीवट की कथा मेरे उपचेतन से उभरकर अन्तर चक्षुओं के सामनें झलकने लगी | तीन -तीन अबोध बच्चों को छोड़कर परलोक सिधारे हुये पिता के गौरव को अक्षुण रखनें और बच्चों को पाल -पोषकर समर्थ बनानें की जिस जुझारू जीवन्तता नें माँ का निर्माण किया था उस निर्माण का थोड़ा -बहुत अंश तो उनकी सन्तानों में होना ही चाहिये | | हाँ हाँ मैं अपर्णा को समर्थ बनाऊंगा  ओक के उस वृक्ष की भांति जो पहाड़ों की सीधी खड़ी कटानों पर  भी सिर ऊँचा किये खड़ा रहता है | अन्तर चक्षुओं के आगे घूम गया गाँव के घर बाहरी दालान का वह द्रश्य जहां एक आठ वर्ष की बालिका और उसके दो छोटे भाई रोती सिसकती माँ की छाती में सिर छिपोये पड़े हों और उनका मृत प्राय पिता काष्ठ की पट्टिकाओं पर अन्तिम साँसे ले रहा हो | पर यहीं से तो शुरू होती है उस अदम्य जीवट की कहानी जिसनें एक नया इतिहास रच डाला | इतिहास में वर्णित रानियों की वीरता गाथायें हम सभी पढ़ते रहते हैं पर कुछ ऐसी गाथायें हैं जिन्हें हम कभी नहीं पढ़ते पर जो अपने साहस ,वीरता और अपनें परिवार की आन पर मर मिटनें की संकल्प द्रढ़ता से भरी पुरी है | उन्हीं गाथाओं में से एक है अपर्णा की दादी की कथा | अपने यत्न से आर्थिक स्वतन्त्रता पाकर भारत के नारी संसार के समक्ष नये मूल्यों की स्थापना और उन्हें ठोस व्यवहारिक धरातल पर मूर्तवान  करना | अपर्णा क्या उस विरासत के योग्य बन सकेगी ? वह संघर्षों की आग से नहीं गुजरी है | कंचन में मिला हुआ खोट अभी जलकर नष्ट नहीं हुआ है | बिना तप किये हुये कोई श्रेष्ठ उपलब्धि नहीं हो पाती | पर यह क्या ? यह कैसी स्वप्निल झांकी है ,यह तो स्वामी वृन्दावन पुरी जी हैं जो मेरी माँ के पैर छू रहे हैं | नहीं ,नहीं सन्त तो किसी के पैर नहीं छूते | मेरी माँ बताया करती थीं कि यदि पुत्र भी सन्त या सन्यासी हो जाय तो उसके पैर छुये जाते हैं क्योंकि उसमें ईश्वरत्व का अंश आ जाता है | मानवीय काया के सारे लगाव सन्त होते ही समाप्त हो जाते हैं | फिर वृन्दावन पुरी जी जिनकी यशोगाथा चारो ओर फ़ैली है मेरी माता जी के पैर क्यों छू रहे हैं ? इस रहस्य को तो खोलना ही होगा | तभी अपर्णां की माँ की आवाज सुनायी पड़ी , " उठो सुबह हो गयी ,मैं बेड टी बनाकर ले आयी हूँ | "
                                              आँखें मलते हुये मैं उठ बैठा | दीवाल घड़ी पर नजर पडी तो देखा कि सुबह के छः  बज चुके हैं | अरे भाई , जल्दी ही तैय्यार होना होगा | प्रातः नौ बजे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा ० खण्डेलवाल का व्याख्यान होना है | विषय है " भारत के महाकाव्यों में नारीपात्र " अंग्रेजी का प्रवक्ता होनें पर भी मेरे ऊपर ही मंच संचालन की जिम्मेदरी सौंपी गयी है | मानवकीय संकाय में किसी विभाग में भी Extension लेक्चर होना हो तो मुझे ही मंच संचालन करना पड़ता था | मंच संचालक को कुछ समय पहले पहुँच कर अपनें को आश्वस्त करना पड़ता है कि सबकुछ ठीकठाक है | कि श्रोता समय के पहले बैठ गये हैं | कि शान्ति बनाये रखनें की पूरी व्यवस्था हो गयी है और कि मंच पर किस किस को लाकर बिठाना है | लेक्चर के बाद प्रश्न पूछनें का भी सुअवसर श्रोताओं को दिया जाता था | जिज्ञासु श्रोता अपना कोई एक प्रश्न विद्वान वक्ता से पूछते थे और इस प्रकार विद्वान वक्ता की जीवन द्रष्टि के कुछ सशक्त पहलू उजागर हो जाते थे | हिन्दी साहित्य के फाइनल इयर के दो प्रतिभाशील विद्यार्थी मेरे सम्पर्क में आये थे | एक को मैनें यह प्रश्न पूछनें को कहा था , क्या दशरथ पुत्र राम को अपनी पत्नी जनक पुत्री सीता को परित्याग करने का कोई सामाजिक ,नैतिक या वैधिक अधिकार था ?उनका यह कार्य सामाजिक उन्नयन की दिशा में कितना सार्थक माना जा सकता है ? दूसरे विद्यार्थी को मैनें यह प्रश्न लिखवाया था ,क्या पांचाल के राजा द्रुपद की पुत्री द्रोपदी का पांच पाण्डव पतियों को समान भाव से शरीर समर्पण करनें का विधान एक सोची समझी राजघरानें की कूटनीतिक चाल थी या पाण्डवों द्वारा अपनी माता कुन्ती के आदेश का पालन मात्र ? मैं जनता था कि इन प्रश्नों पर डा ० खण्डेलवाल को काफी गहरायी से सोच -विचारकर उत्तर देना होगा और उन्हें अपनें पाण्डित्य ,अपने भाषाधिकार और अपनी सामाजिक सूझ -बूझ दर्शानें का पूरा समय मिल जायेगा | विद्यार्थियों से यह कह दिया गया था कि डा ० साहब जो भी कहें उसे सुन लेनें के बाद उसपर आगे तर्क -वितर्क करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इन प्रश्नों का उत्तर गणितीय परिधियों में नहीं घेरा जा सकता | यह प्रश्न हजारों वर्षों से अनुत्तरित रहे हैं और प्रत्येक बदलते सामाजिक सन्दर्भों में इनकी नयी -नयी व्याख्यायें होती रहेंगीं | लेक्चर समाप्ति और चाय पान के बाद प्राचार्य कक्ष में बैठकर डा ० खण्डेलवाल नें मुझसे पूछा क्या मैं हिन्दी और अंग्रेजी के महाकाव्यों के तुलनात्मक अध्ययन में कोई  रूचि रखता हूँ और मेरे हाँ कहनें पर उन्होंने मुझे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में आयोजित होनें वाली हिन्दी प्रोफेसरों की गोष्ठी में आनें के लिये आमन्त्रित किया | उन्होंने यह भी जानना चाहा कि क्या हिन्दी में अंग्रेजी महाकाव्य BEUWOLF (वियो उल्फ ) और PARADISE LOSTके मानक हिन्दी अनुवाद प्राप्य हैं और मैनें अपनी जानकारी में आये हुये कुछ नाम उन्हें सुझाये | उन्हें विदा करनें के बाद स्टाफ रूम में उनकी कही हुयी बातों पर गरमागरम चर्चा होनें लगी | हिन्दी की प्राध्यापिका डा ० स्नेह लता बंसल डा ० खण्डेलवाल को पुरुष की पशु शक्ति का प्रचारक कहकर छोटा करनें लगीं जबकि डा ० ए ० सी ० कम्बोज उन्हें स्वस्थ्य जीवन दर्शन के प्रभावी वक्ता के रूप में प्रशंसित करनें लगे | पर यह तो सब होता ही है अकेडमिक सर्किल में | ध्यान आ गया कि अपर्णां की माँ नें आते समय कहा था कि भोला पंसारी से पांच शेर शुद्ध सरसों के तेल के लिये बोल देना | सोचा लौटते समय रास्ते में उसी मार्ग में रहने वाली कपिला बुधराजा से मिलता चलूँगा वे राजनीति शास्त्र में रिसर्च कर रही हैं और कई बार अपनी थीसिस " The political affiliation of scheduled caste voters in shora kothi" पर परिचर्चा के लिये मुझसे मिल चुकी हैं | घर पहुंचने पर पत्नी नें बताया कि गाँव के मुन्ना बाबा का एक पत्र आया है जिसमें उन्होंने खेतों को बेच देनें की बात लिखी है | अरे भाई इस जीवन में कितना झंझट झमेला है | किन किन मोर्चों पर आदमी लड़ने जाय ?  पर जूझना तो होगा ही ,निराला की पंक्तियाँ मन में उभर आयीं | " करना होगा यह समर पार ,झेलना सांस का दुसह भार " पर संघर्ष की शक्ति कहाँ से लाऊँ ? लौटता हूँ फिर अपनेँ बचपन की ओर माँ की गोद में बैठे हुये एक अबोध चार पांच वर्ष के बालक के रूप में ,वही तो है वह स्थान ,वह शक्तिस्थल जहां से पुनर्जीवन देनें  वाली संजीवनी मुझे मिल जाया करती है |
(क्रमशः ) 

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