Tuesday 23 January 2018

गतांक से आगे -

                                                 कब आज कल बन जाता है और कैसे रात में शब्द शून्य पैरों पर चलकर कल  आज बन जाता है इसका पता ही नहीं चलता | विगत और आगत वर्तमान के ही परिवर्तित रूप हैं पर जीना तो वर्तमान में ही होता है | बूढ़ा काल -पुरुष प्रकृति के बदलते रूपों की बैसाखियों पर चलता हुआ यात्रा की थकान मिटाकर क्षण भर रूककर भी कहीं विश्राम नहीं करता उसके चरणों की पदचाप हमें तब तक दिखायी नहीं पड़ती जब तक उसकी स्पष्ट झलक नर -नारी काया में स्पष्ट परिलक्षित नहीं होती | मिलन  और रूठन की पुरानी यादें मन को गुदगुदी से भरती तो अवश्य हैं पर जीवन निर्वहन के लिये प्रणयेतर प्रयासों की आवश्यकता होती है | मेरी कनपटियों के आस -पास चांदी की लकीरें खिंचने लगी थीं और अपर्णा के माँ की केशराशि Saly vksj papper का अनोखा समिश्रण पेश करनें लगी थी | कालेज के अंग्रेजी विभाग के 11 प्राध्यापकों में मैं वरीयता की द्रष्टि से छठे स्थान पर था | आज वार्धक्य की तटस्थता नें मुझे वह द्रष्टि दे दी है जिसके कारण मैं सत्य और सत्य के मिथ्या भाष में थोड़ा बहुत अन्तर करना जान गया हूँ पर उस समय मुझे लगा कि प्रवक्ता होनें के बजाय विभागाध्यक्ष होकर शायद मैं कुछ अतिरिक्त सम्मान का पात्र बन जाऊँगा | पर कालेज में तो मेरे आगे पांच विद्वानों की पंक्ति थी और एन.सी. सी. के अनुशासन नें मुझे यही सिखाया था कि व्यवस्था को लांघ कर तोड़ देना किसी भी संस्था या संगठन के हित में नहीं होता | उस समय तक सभी प्रवक्ता एक ही वेतन क्रम में नियुक्त हुआ करते थे और वरिष्ठतम प्राध्यापक को विभागाध्यक्ष के रूप में सम्मानित किया जाता था | पर अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग नें ( U.G. C. )  नें जो वेतनमान प्रस्तावित किये थे उसमें विभागाध्यक्ष का एक अतिरिक्त कैडर जोड़ा गया था और उसका ग्रेड प्रवक्ता ग्रेड से कुछ अधिक रखा गया था | उस पद के लिये 10  वर्ष के कम  से कम अध्यापन अनुभव की अनिवार्यता  थी | साथ ही वह सभी मान्यतायें पूरी करनी होती थीं जो प्रवक्ता होनें के लिये सुनिश्चित की गयी थीं | मन के भीतर कहीं यह इच्छा जग उठी थी कि पास -पड़ोस के किसी महाविद्यालय  में यदि विभागाध्यक्ष पद के लिये कोई नियुक्ति आमन्त्रित की जाय तो उसके लिये एक अप्लीकेशन डाल देनें में कोई खराबी नहीं है यद्यपि हम सभी हल्की फुल्की बात चीत में यह कहते रहते थे कि हम यह कालेज छोड़कर कहीं नहीं जायेंगें क्योंकि इस कालेज में सभी कुछ है | सम्मान है , समय पर वेतन है ,पुस्तकों से खचाखच भरा पुस्तकालय है , अत्यन्त सुन्दर हाल है , लम्बे -चौड़े क्रीड़ास्थल हैं , तरुण ताल है और आँखों में बस जाने वाली कालेज बिल्डिंग की साज -सज्जा है | पर अन्तर मन में किसके क्या था कौन जानता है | आखिरकार किसी की योग्यता का सही मापदण्ड तभी निर्धारित हो पाता है जब उसे किसी अन्य कालेज से सम्मानजनक नियुक्ति पत्र मिले | यों तो कालेज के स्टाफ रूम में अंग्रेजी और हिन्दी के सभी समाचार पत्र पड़े रहते थे पर अंग्रेजी के दो प्रमुख अखबार में घर पर ही मंगाता था | एक दिन मैनें पाया कि दिल्ली के निकट राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्तर्गत एक कालेज नें अंग्रेजी विभागाध्यक्ष के लिये आवेदन पत्र मांगे हैं | वह स्थान जहां कालेज स्थापित था अपेक्षाकृत छोटा था और वहां पहुंचने के लिये वह सब सुविधायें नहीं थीं जो बड़े राजमार्गों पर होती हैं | दिल्ली सहारनपुर मार्ग पर स्थित अन्तर्राष्ट्रीय बस अड्डे से लगभग 20 किलो मीटर दूर एक छोटे शहर में स्थित यह कालेज अभी तक अपनें में विज्ञान संकाय नहीं जोड़ सका था हाँ उसमें मानवकीय और कॉमर्स की स्नातक कक्षायें चल रही थीं और अंग्रेजी में परास्नातक कक्षाओं को चलने के प्रयत्न चल रहे थे | आशा थी कि अगले सत्र में अनुमति मिल जायेगी और एम. ए. के क्लासेज खोल दिये जांयेंगें | मैनें  हाँथ से अप्लीकेशन लिखी और टाइप करानें की जरूरत नहीं समझी | हम सब जानते ही हैं कि उस समय तक भारत में कम्प्यूटर की चर्चा भी नहीं हुयी थी | अप्लीकेशन डालकर में भूल गया कि मैनें कोई अप्लीकेशन डाली है | मैं जानता था कि न जानें कितनें एप्लीकैंट होंगें और फिर अभी तक मेरी Doctoral थीसिस भी तो कम्प्लीट नहीं हुयी थी हाँ इतना अवश्य था कि अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में परास्नातक स्तर पर मेरे प्राप्तांक आकर्षक थे | और उन्हें यदि चयनकर्ता प्रमाण मान कर चले तो मैं विद्वानों की मण्डली में शामिल किया जा सकता हूँ | कम  से दोनों भाषाओं की मण्डली में | लगभग दो महीने का समय गुजर गया और मुझे लगा कि सत्र की शुरुआत हो जानें के कारण कोई न कोई नियुक्ति कर ली गयी होगी पर एक दोपहर बाद जब मैं घर लौट कर आया तो मैनें हिन्दी में अत्यन्त सुन्दर अक्षरों में लिखा हुआ एक साक्षात्कार पत्र मेज पर रखा पाया | अपर्णां की माँ नें बताया कि डाकिया इसे लेटर बॉक्स में डाल गया था और वहां से निकालकर  पढ़ा है और मेज पर रख दिया है | बोली ,"  साक्षात्कार के लिये बुलाया है जाओगे !" मैनें कहा ,  " जैसा बताओ कहो तो चला जाऊँ नहीं तो ठीक ही चल रहा है | "उन्होंने कहा जैसा ठीक समझो कर लो | वैसे अगर उन्होंने ले लिया तो यहां बच्चों की पढ़ाई लिखाई में कुछ उलट फेर करना पड़ेगा | मैनें कहा अभी हम लोगों नें यहाँ मकान तो बनवाया नहीं है | जैनियों का एक स्थानक जो उनके मुनियों के ठहरनें के लिये सुरक्षित है हमें रहनें के लिये मिल गया है | थोड़ा बहुत किराया हम अहिंसा परमो धर्मा : के प्रचार प्रसार के लिये दे देते हैं | सोचता हूँ इंटरव्यूह में हो ही आऊं | कम  से कम  मुझे अपनी औकात का पता तो लग जायेगा | उन्होंने मेरी ओर हँसते हुये देखा और कहा , " तुम अगर गये तो अवश्य ही ले लिये जाओगे | हाँ ज्वाइन करना या न करना हमारे हाँथ में होगा तब फिर से बातचीत कर लेंगें | और इस प्रकार मेरा साक्षात्कार में जाना सुनिश्चित  हो गया | " हालांकि मैं जानता था कि अपर्णा की माँ मुझपर आवश्यकता से अधिक गर्व कर रही है |
                                            संयोग की ही बात है कि गाड़ी के जिस डिब्बे में मैं बैठा था उसी में  दिल्ली से जाने वाले तीन और प्रत्याशी भी आ उपस्थित हुये | उनमें दो महिलायें थीं और एक पुरुष | कहना न होगा कि मैं ट्रेन के सुपीरियर क्लास में था और संम्भवतः इसी कारण मिलनें का यह संयोग आ बन पड़ा | लगभग पौन घण्टे के सफर में थोड़ी सी ही बातचीत हो सकी | मेरा परिचय पानें के बाद उन्होंने बताया कि वे कहाँ पर अध्यापन कर रहे हैं | और उनकी क्या शैक्षणिक योग्यतायें हैं | मुझे लगा कि सुबोधनी चटर्जी मुझसे अधिक क्वालीफाइड है क्योंकि उनके पास डाक्टरेट है और वह गाजियाबाद के किसी कालेज में प्रवक्ता हैं पर दिल्ली अपनें हसबैण्ड के साथ रहती हैं जहां उनके पति केन्द्रीय विभाग में अण्डर सेक्रेटरी हैं | सौभाग्यवश कहिये या कालेज प्रबन्धकों  की सूझ बूझ कहिये बी. ए.  फ़ाइनल कक्षा के दो विद्यार्थी हम चारो को स्टेशन पर मिल गये जो हमें स्टेशन से लगभग 1 किलोमीटर स्थित कालेज परिसर में पहुंचाकर वापस हो गये | परिसर में पहुंचकर जब मैं उस कक्ष की ओर बढ़ा जहां सभी प्रत्याशियों की व्यवस्था थी तो मैनें पाया कि दस और बारह के आस -पास और भी प्रत्याशी वहां उपस्थित थे पन्द्रह सोलह के इस ग्रुप में किसके हाँथ बाजी लगती है इसका फैसला साक्षात्कार लेने वालों के विवेक पर होना था | मैं अपनी तरफ से यह मान बैठा था कि सुबोधनी चटर्जी ही बाजी मारेंगीं क्योंकि एक तो उनके पास डॉक्टरेट है दूसरे उनके पति Under Secretary हैं | बातचीत में भी उनकी बंगाली अंग्रेजी रसगुल्ले वाली गोलाई का अन्दाज लिये हुये चलती थी | दो मिनट के लिये बाहर निकलकर कालेज बिल्डिंग का जायजा लिया | परिसर तो काफी बड़ा था पर अभी 2 ब्लाक ही बन कर तैयार हो पाये थे | रख रखाव अच्छा था और दीख पड़ता था कि भविष्य में प्रगति की संम्भावनायें हैं | थोड़ी देर बाद एक चपरासी के साथ आफिस सुपरिटेण्डेन्ट साहब कमरे में आये | उनके हाँथ में प्रत्याशियों की एक लिस्ट थी | सभी नाम वर्णमाला क्रम के अनुसार लिखे गये  थे | चूंकि मेरा नाम वी से शुरू होता है इसलिये मैं सबसे नीचे नाम से एक सीढ़ी ऊंचाई पर था | मेरे से नीचे जिन प्राध्यापक महोदय का नाम था वे थे यादवेन्द्र सिंह शायद वे दिल्ली के रामजस कालेज में थे | न जानें क्यों वे इस साक्षात्कार में उपस्थित नहीं हो सके थे | इस प्रकार सबसे निचली सीढ़ी पर मुझे ही बैठनें का अवसर मिल गया था | पंक्ति के  सबसे निचले स्तर पर बैठनें या खड़े होनें के लाभ भी हैं और हानियाँ भी | सबसे बड़ी हानि तो यह है कि इंटरव्यूह लेने वाले सवाल पूछते पूछते और उत्तर सुनते सुनते ऊब जाते हैं और अन्तिम कन्डीडेट को थोड़ा बहुत पूछ पाछ कर रफा दफा कर देना चाहते हैं पर एक लाभ यह भी है कि अन्त में साक्षात्कार पर बुलाये जाने वाले प्रत्याशी को पहले गये प्रत्याशियों से काफी कुछ सुननें को मिल जाता है और वह कुछ प्रश्नों के उत्तर सुनियोजित करनें का मौक़ा पा जाता है | पर छोड़िये इन बातों को यह तो इंटरव्यूह से पहले की शाब्दिक खींचा तानी है | हम प्राध्यापकों की आदत ही यह होती है कि बात से बात निकालते हैं | और हर परिस्थिति या घटना की बुद्धि परक व्याख्या करनें में लग जाते हैं | अब जिसको लगना है उसको तो लगना ही है चाहे वह ऊपर खड़ा हो चाहे बीच में चाहे सबसे नीचे | मैं तो सिर्फ सुबोधनी चटर्जी के बुलावा क्रम से अवगत होना चाहता था | वे नम्बर तीन पर स्थित थीं | मयंक चतुर्वेदी और पंकज चढ्ढा के बाद | मैं सोचता था कि उनका इंटरव्यूह हो जानें के बाद उनकी भावभंगिमा से उनकी सफलता का आभाष मिल जायेगा और तब मेरा अन्त तक बैठे रहना उचित नहीं होगा | स्टेशन से वापसी की गाड़ी 6. 37  पर चलती थी | इसलिये 6  बजे से पहले ही कालेज परिसर से निकलना होगा | आखिर एक किलोमीटर का फासला भी तो पैदल तय करना है |
                              मैं जनता था कि इंटरव्यूह में कम से कम  चार व्यक्ति तो होंगें ही | कालेज मैनेजिंग कमेटी के प्रधान , विश्वविद्यालय का एक सब्जेक्ट एक्सपर्ट ,कालेज के प्राचार्य और कोई एक सरकारी पदाधिकारी | इसके अतिरिक्त एकाध और व्यक्ति जोड़े जा सकते थे | कालेज को सरकारी अनुदान मिल रहा था और इसके लिये आवश्यक था कि जो भी नियुक्त हो वह सर्वसम्मति से की जाय | बातों ही बातों में मुझे पता लग गया था कि श्री डाल चन्द्र शर्मा कालेज मैनेजिंग कमेटी के प्रधान हैं और वे इस क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित राजनीतिक नेता हैं | संम्भवतः किसी भी फैसले में उनकी सम्मति ही अन्तिम मानी जायेगी | कुछ देर बाद मयंक चतुर्वेदी की पुकार हुयी | अन्दर क्या हुआ कौन जानें | कुछ सवाल जवाब तो हुये ही होंगें पर जब चतुर्वेदी जी बाहर आये तो कुछ टूटे -टूटे से लगे | कुछ प्रत्याशियों नें उनसे पूछा कि अन्दर कौन कौन से प्रश्न पूछे गये | तो उन्होंने उखड़े स्वर में जवाब दिया अरे यार कुछ नहीं सिर्फ दिखावा है | उन्होंने  Appointment तो पहले ही कर लिया है | और यह कहकर अपना झोला उठाकर चले गये | अब बारी आयी पंकज चढ्ढा की | लगभग पन्द्रह मिनट तक वे अन्दर रहे मैं बैठा-बैठा सोच रहा था कि यदि इंटरव्यूह में इतना लम्बा  समय लगता रहा तो आज लौटकर वापस जाना नहीं हो सकेगा | बस सुबोधनी चटर्जी के बाद मैं और इन्तजार नहीं करूंगा | पंकज चढ्ढा नें पूछे जानें पर बताया कि डालचन्द्र जी उनसे हिन्दी को उच्च शिक्षा का माध्यम क्यों न बनाया जाय पर बातचीत करना चाहते थे | पर उन्होंने कहा कि वे अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं और उनसे अंग्रेजी साहित्य में प्रश्न किये जानें चाहिये | उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो या अंग्रेजी इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं है | वे अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं और उन्हें अंग्रेजी में ही पढ़ना-- पढ़ाना और लिखना लिखाना है | डाल चन्द्र जी नें उनसे पुछा कि क्या वे घर पर बच्चों से भी अंग्रेजी में ही बात करते हैं तो उन्होंने तैश में आकर जवाब दिया कि इस बात से उन्हें क्या लेना -देना है यह उनका व्यक्तिगत मामला है | डाल चन्द्र जी नें मुस्करा कर कहा , " Well said ."  चढ्ढा जी ने बताया कि उन्हें पूर्ण विश्वास है कि उनका नाम रिकमेन्ड हो जायेगा | मुझे लगा कि क्या सुबोधनी जी बाजी हार जायेंगीं ? नहीं नहीं ऐसा कैसे हो सकता है ? सुबोधनी जी का इंटरव्यूह कमाल का इंटरव्यूह होगा | और उनके नाम की विजय ध्वजा ही लहराती दिखायी पड़ेगी | अब पुकार आयी सुबोधनी चटर्जी | सुबोधनी जी नें मगर की खाल वाला अपना हैण्ड बैग उठाया और विश्वास भरे कदमों से इन्टरव्यूह कक्ष में चली गयीं | अरे यह क्या ? मैनें घड़ी देखी पन्द्रह मिनट बीत गये | बीस मिनट Oh God लगभग बाइस मिनट बाद सुबोधनी जी बाहर आयीं | मेरी तरफ देखकर मुस्करायीं | उन्हें वापस नहीं जाना था क्योंकि उनके पति नें किसी सरकारी गेस्ट हाउस में उनके ठहरनें की व्यवस्था कर दी थी | गाड़ी ,ड्राइवर और उसमें बैठा एक चपरासी उन्हें लेने आ गया था | शायद वह Appointment Letter लेकर ही जानें की सोच रही थीं और Appointment Letter उन्हें इंटरव्यूह समाप्ति के बाद ही मिल सकता था | आखिरकार कागजी कार्यवाही तो पूरी करनी ही होती है भले ही कोई चीज पहले से ही सुनियोजित क्यों न कर ली गयी हो | जाते जाते मैनें सुबोधनी जी से पूछा कि उनसे साहित्य संम्बन्धी क्या प्रश्न किये गये तो उन्होंने बताया कि मुझसे यह पूछा गया कि डा. हरवंश राय बच्चन नें अंग्रेजी कवि W.Yeats  पर जो शोध प्रबन्ध लिखा है उसके संम्बन्ध में आप कुछ जानती हैं | वे बोलीं कि हरवंश राय का नाम तो उन्होंने सुना  है वो भी किसी सिनेमायी सन्दर्भ में पर उनका कोई शोध प्रबन्ध भी है या वे अनुवादक , कवि  और लेखक भी हैं इस विषय पर वह कुछ नहीं जानतीं | हाँ बंगाली लेखक शरद चन्द्र चटर्जी से वे प्रभावित हैं | और जो बंगाली साहित्य में नहीं वह  हिन्दुस्तान के किसी भी साहित्य में नहीं है | हम बंगाली ही अंग्रेजी को भी हिन्दुस्तान में जीवित रखे हैं | बाकी किसी को टूटी फूटी अंग्रेजी आती हो तो आती हो | इतना कहकर वह दंभ्भ भरी मुस्कराहट के साथ वे गाड़ी में बैठ गयीं और खर्र की आवाज के साथ गाड़ी परिसर से बाहर हो गयी | मैं और मेरे साथ बैठे बैठे तीन और लोग स्टेशन की ओर जानें का मन बनाकर उठ चले थे | पता नहीं अन्दर बैठे डाल चन्द्र शर्मा  नें चपरासी को बुलाकर कुछ पूछा और यह जानकर कि कुछ लोग देर हो जानें की वजह से वापस दिल्ली की ओर जा रहे हैं वे बाहर आ गये और कक्ष में बैठे प्रत्याशियों से उन्होनें कहा कि वे जल्दी न करें | कालेज में एक अतिथि गृह है और जो लोग रुकना चाहेंगें उनके खान पान और शयन की पूरी व्यवस्था कालेज में होगी | उन्होंने यह भी कहा कि वे स्वतन्त्रता सेनानी हैं | गांधी जी के आश्रम में रह चुके हैं | इन्टरव्यूह में पूरा न्याय किया जायेगा | उल्टी सीधी अफवाहों से आप लोग विचलित न हों | उनके सौम्य व्यक्तित्व नें अब बारह के करीब बैठे प्रत्याशियों पर गहरा प्रभाव डाला | हम सब अपनें स्थानों पर बैठ गये | डाल चन्द्र जी नें साक्षात्कार लिये जानें वाले कमरे में चेयरमैन की कुर्सी पर जा विराजे | चौथे नम्बर की पुकार हुयी | अबकी बार समय पांच सात मिनट से अधिक नहीं लगा | क्रम चलता रहा | शाम को छै बजनें को आ गये | चौदहवें नम्बर पर थीं शशिबाला वत्स वे मेरठ डिवीजन के ही किसी कालेज में प्राध्यापिका थीं | पहले यह कालेज इण्टर कालेज था | पिछले चार पांच वर्षों में इसे डिग्री कालेज के रूप में ऊंचा उठाया गया था | उन्होंने आवेदन पत्र तो डाल दिया था  पर चूंकि उनका डिग्री क्लासेस का अध्यापन अनुभव दस वर्ष से कम का था इसलिये  वे नियुक्ति की Essential Conditions पूरा नहीं करती थीं | यद्यपि वे योग्य थीं पर मैं जानता था कि मांगें गये अनुभव के अभाव में उन्हें दो चार मिनट के भीतर ही बाहर आना होगा | पर यह दो चार मिनट भी मेरे लिये भारी पड़ रहे थे | परीक्षा कैसी  भी हो छोटी या बड़ी कुछ देर के लिये मन में चिन्ता की लहरें तो उठा ही देती है | तभी तो कुरान  में प्रार्थना की गयी है ," ये खुदा मुझे इम्तहान में मत डाल | " पर इम्तहान से तो गुजरना ही होगा | | भारतीय परम्परा में तो अग्नि परीक्षा के बिना शत -प्रतिशत सोना भी खरा नहीं माना जाता | शायद इसीलिये भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए. जी. पे. अबुल कलाम की जीवनी के हिन्दी अनुवाद को अग्नि परीक्षा शीर्षक से अभिहित किया गया है | आज दशकों के अन्तराल के बाद मैं इस साक्षात्कार में पूछे गये प्रश्नों और दिये गये उत्तरों को पूरी तरह स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ | लगभग सात आठ वर्ष पहले मैनें जेट  पम्प मेँ पानी की निर्वाध निकासी के लिये एक मशीन लगवायी थी | अभी तक वह ठीक ठाक काम देती रही है | पर अब कुछ महीनों से मैं यह देख रहा हूँ कि वह चलते -चलते बीच में रुक जाती है और कुछ देर बाद फिर चल निकलती है | ऐसा पानी की कमी के कारण है या उसके भीतरी कलपुर्जों में बुढ़ापा आ जानें के कारण है इसका फैसला किसी कुशल मिस्त्री को ही बुलाकर करवाना पड़ेगा | कुछ ऐसा ही हाल इन दिनों मेरी मष्तिष्क की तन्त्रिकाओं में चल रहा है | बात करते करते मैं किसी चिर परिचित नाम को भूल जाता हूँ और फिर थोड़ी देर के बाद नाम उभर कर स्मृति पटल पर आ जाता है | घटनाओं का क्रम कई बार सिलसिलेबार मानचित्र प्रस्तुत न करके न जानें व्यक्तिक्रम और विपर्यय उपस्थित कर देता है | संध्या को जो बातें दिमाग से लुप्त हो जाती हैं ऊषा काल में वह अत्यन्त शशक्त रूप में स्मृति के पन्नों पर लिख दी जाती हैं | शायद यह सब स्वाभाविक है | शायद इस प्रक्रिया से जीवन का रक्षा तन्त्र मुझे लम्बे समय तक मानसिक अपंगता से बचाये रखेगा | पर जब स्मृतियों को संजोकर शब्द बद्ध करने  चला हूँ तो उन्हें एक पठनीय सूत्र में तो करना  ही होगा | आज की प्रशासनिक व्यवस्था के अध्यापन कार्य कोई मूल्यवान सामाजिक स्वीकृति नहीं पा रहे हैं पर तीन दशक पहले अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष का पद पढ़े लिखों के बीच थोड़ा -बहुत गौरव प्रदान करता था | मेरे नाम की पुकार आयी तब तक पूरा कक्ष  प्रत्याशियों से खाली हो चुका था | कोई देख भांप न रहा हो तो मनुष्य अपनें सहज स्वभाव में आ जाता है | मैं आश्वस्त हुआ कि जब मैं साक्षात्कार कक्ष से वापस आऊंगा तो मेरी जय-पराजय के विषय में कोई प्रश्न पूछनें वाला नहीं होगा | मैं सामने जा खड़ा हुआ | कुर्सी पर बैठे चेयरमैन डाल चन्द्र शर्मा नें कहा बैठ जाइये | मैनें धन्यबाद किया और सामनें मेज के दूसरी ओर पड़ी कुर्सी पर बैठ गया | प्राचार्य महोदय नें पूछा , " Your Name." मैनें उत्तर दिया , "Sir ,you have my resume in your hand and one copy before the chairman. " प्राचार्य महोदय नें फिर अगला प्रश्न नहीं पूछा | उन्होंने मेरे Bio-data में लिखे गये सभी तथ्यों को इन्टरव्यूह बोर्ड के मेम्बरों को पढ़ कर सुना  दिया | अब सब्जेक्ट एक्सपर्ट डा. ब्रम्हानन्द मोहन्ती नें मुझसे अंग्रेजी साहित्य के कवियों , नाटककारों कथाकारों और निबन्धकारों पर प्रश्न न पूछकर महर्षि अरविन्द द्वारा रचित अंग्रेजी के बहुचर्चित महाकाव्य सावित्री पर प्रश्न करनें शुरू कर दिये संम्भवतः डा. मोहन्ती नें अपनी डॉक्टरेट की उपाधि अरविन्द की काव्य शिल्प पर काम करके ही प्राप्त की होगी | और इसलिये यही सहज लगा कि वे सावित्री महाकाव्य पर मेरे ज्ञान की परीक्षा लें | मैं डा. मोहन्ती को सावित्री ,सत्यवान की अमर कथा के प्रतीतात्मक पहलुओं पर कुछ बताना चाहता था पर इससे पहले ही डालचन्द्र जी नें बीच में एक प्रश्न कर दिया दरअसल उन्होंने मोहन्ती साहब से ही कहा देखिये अभी हमारे यहां बी. ए. के अन्तिम वर्ष के विद्यार्थी अंग्रेजी कविता की व्याख्या हिन्दी के  माध्यम से करवाना चाहते हैं | अंग्रेजी की व्याख्या उनकी पूरी पकड़ में नहीं आती | फिर सावित्री महाकाव्य के प्रतीतात्मक अर्थ अगर यह प्राध्यापक महोदय पूरी तरह से बता भी दें और आप सन्तुष्ट हो जांय तब भी हमें इनकी योग्यता की परख हमारे यहाँ लगने वाली कक्षाओं के औसत विद्यार्थियों के सन्दर्भ में करनी होगी | और यह कहकर उन्होनें जो प्रश्न पूछे मुझे अत्यन्त रुचिकर और ज्ञान वर्धक लगे | उनका पहला प्रश्न था , "  What is your mother Tongue?"मैनें कहा , " मेरी मातृ भाषा हिन्दी है | "उन्होंने पूछा ,  " आपनें अंग्रेजी में जवाब क्यों नहीं दिया ?"मैनें उत्तर दिया अपनी मातृभाषा को मैं अपनी मातृभाषा के माध्यम से ही बताना चाहता था | हाँ यदि आप चाहते हों तो आप प्रश्न पूछिये मैं अंग्रेजी में ही उत्तर दूंगा | वे हंस पड़े | उन्होंने कहा तुमनें तुलसीदास की रामायण पढ़ी है | मैंने हाँ में उत्तर दिया | उन्होंने एक चौपाई सुनायी - " उमा दास जोसित की नाईं ,सबै नचावत राम गुसाईं |" बोले पहले इसका सरल हिन्दी में अर्थ बताओ | फिर उसका अंग्रेजी अनुवाद कर समझाओ | यह मानकर चलना कि तुम्हारे आगे बी. ए. सेकेंडियर का क्लास बैठा है और विद्यार्थियों के पास हिन्दी और अंग्रेजी भाषा दोनों ही विषय हैं | मैं जान गया कि परीक्षा की सच्ची घड़ी आ गयी है | धनुषधारी दशरथ के राम को मन ही मन प्रणाम कर मैनें अपनें आत्मविश्वास को सुद्रढ़ किया अब चूकना नहीं होगा | दिल्ली के महान सम्राठ के शब्दभेदी बाण कौशल के संम्बन्ध में कही गयीं पंक्तियाँ मन में उभर आयीं | " चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण ,ता ऊपर सुल्तान है मत चूको चौहान | "  अब तो लक्ष्य को भेदना ही है | कहाँ बचकर जायेगी अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष की कुर्सी | डा. सुबोधनी चटर्जी सारी कोशिश के बावजूद कोई व्यवधान खड़ा न कर पायेगीं | मैनें हिन्दी में प्रारम्भ किया अध्यक्ष जी कैलाश शिखर पर अवस्थित त्रिकालेश्वर धूजटी त्रिलोचन भगवान् शंकर अपनीं सहधर्मिणीं जगतमाता उमा को संम्बोधित करते हुये कहते हैं--------------
( क्रमशः )

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