Friday 19 January 2018

गतांक से आगे -
                                       ट्रेन की गति धीमी होनें लगी थी | पहिये पटरियां बदल रहे हैं | इससे यह आभाष हो रहा था कि स्टेशन आने वाला है | दस पन्द्रह मिनट का यह सानिध्य कुछ और स्मरणीयं कैसे बन गया इसे शब्द बद्ध करना कठिन सा लग रहा है | सोचता हूँ कि जीवन की ढलान की राह पर चल पड़ने के बाद भी नारी की सम्मोहक शक्ति यदि सजक से सजक व्यक्ति को यदि अपनें में बाँध लेती है तो फिर तरुणायी की ओर बढ़ते हुये उन नवयुवकों को दोष कैसे दिया जाय जो नारी सहचर्य का सुख पाने के लिये सिंहासन छोड़ने को तत्पर हो जाते हैं | उमर की बढ़ती हुयी तरंगों पर मानव शरीर की किन ग्रन्थियों से कौन -कौन से जैविक श्राव निकलकर लम्बी उछालें लगाते हैं | इस पर न जानें कितनी खोजें हो चुकी हैं और होती रहेंगीं | काम ग्रन्थियों की सक्रियता को लेकर आज अधिकारी शोध कर्ताओं में यह मान्यता होती जा रही है कि हम सबका चिन्तन कहीं न कहीं हारमोनल सिकरेशन से प्रभावित होता है | वंश परम्परा से पाये गये जीन्स भी मन की वृत्तियों को शशक्त रूप से प्रभावित करती हैं | हठ योगियों की साधना का समय तो अब रहा नहीं और तर्क के तीरों नें सयंम की सार्थकता को भी छेद -छेद कर निष्प्राण कर दिया है | फिर भला उभरती तरुणायी पर अभियोग लगाकर उसे मध्य कालीन सन्त परम्परा के कठघरे में कैसे खड़ा किया जाये ? कबीर जैसा महाज्ञानी जब नारी के संम्बन्ध में जब यह लिखते हैं , " नारी की झाई परत ,अन्धा होत भुजंग | कबिरा तिनकी कहा गति नित नारी संग || "
                               तो हारवर्ड , स्टेनफोर्ड , दिल्ली या बम्बई विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाला नवयुवक भौचक्का रह जाता है | उसनें जो पढ़ा है उसमें तो नारी सुख जीवन उपलब्धि का एक पैमाना है और सहवास की वर्जना एक बेतुकी अवैज्ञानिक धारणां है | विचारों का यह विरोधाभाष हमारे पारिवारिक जीवन को कितनी विभाजक टक्करें दे रहा है इसका आंकलन समर्थ साहित्यकारों के लिये भी संम्भव नहीं हो पाया है | और इससे कि पहले गाड़ी स्टेशन पहुँचती ब्रिगेडियर हरमेन्दर सिंह की स्वरूपा पत्नी की आकृति मेरे विचारों को कितनी शीघ्रता से समय की पटरियों पर खींच कर पीछे ले जा रही है | कुछ ऐसी ही आकृति या इससे भी अधिक प्रभावशाली छवि ही तो थी शकुन्तला का रोल अदा करनें वाली छात्रा अभिनेत्री प्रियम्बदा की | मोनिका की माँ सच्ची तरुणायी से आगे बढ़ चुकी है  पर प्रियम्बदा तो अभी उससे पहले दौर में ही थी | और फिर बेचारा दुष्यन्त चाह कर भी उसके मायक जाल से कैसे निकल सकता था | सोचता हूँ जब राकेश को इस बात का पूरा ज्ञान था कि उसके पिता की आर्थिक स्थिति इतनी सबल नहीं है कि वह किसी के जन्म दिन पर उपहार में कोई स्वर्णाभूषण प्रदान कर दे तो फिर उसनें ऐसा क्यों किया ? और इसके लिये उसे और उसके परिवार को कितनी मानसिक यन्त्रणा से गुजरना पड़ा | मैं नहीं जानता कि मेरे कालेज के अंग्रेजी विभागाध्यक्ष प्रो ० खैराती लाल बजाज अब कहाँ और कैसे हैं यदि बैकुण्ठ लोक में उनका निर्गमन नही हुआ है तो निश्चय ही वो मानव जीवन की अन्तिम अनुमानित सीमा को छूने वाले होंगें पर यह उन्हीं का स्नेह और उन्हीं का जीवन ज्ञान था जिसनें मुझे सन्तुलित ढंग से मुझे घटना पर विचार करने के लिये प्रेरित किया था | कैप्टन जबर सिंह की पुत्री राज्य की अन्तर्विश्वविद्यालीय नाटक प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाली युवा अभिनेत्री अपनें जीवन के 18 वर्ष पूरे कर उन्नीसवीं में प्रवेश कर रही थी | राकेश मंच पर हंसी -हंसी में उससे कहता रहता था कि वह कभी उन्नीस की तो होगी ही  नहीं क्योंकि वह तो सदैव ही सबसे बीस रही है | और वह खिलखिलाकर हंस देती थी जैसे रजत घण्टियों का मन्द द्रुत सधा हुआ गुंजन | सभी युवा कलाकारों नें प्रियम्बदा के जन्मदिवस पर कौन सी निराली भेंट दी जाय इस पर सोच -विचार करनें में कई रातों की नींदें गँवा दीं | कुछ ऐसा दिया जाये जो औरों से इतना अलग हो और इतना विशिष्ट हो कि प्रियम्बदा के मन पर उसकी अमिट छाप पड़ जाय | अब मंच का बहुचर्चित नायक चिन्तन के भंवर जाल से कैसे बच पाता | बाइस के आस -पास का राकेश अपनी लम्बी काया और , गौर वर्ण और नुकीली मूछ लेकर जब दुष्यन्त के रोल में उतरा था तो शकुन्तला की सारी सहेलियों के दिल बल्लियों उछलने लगे थे | पर उपहार देना मंच पर किया जाने वाला अभिनय तो था नहीं जो दे दिया सो दे दिया | और राकेश के पास अपनी पूंजी थी ही क्या ? रेडियो स्टेशन पर  नाटकों में यदा -कदा बुलाये जाने पर उसे कुछ मानदेय मिल जाता होगा | और इसे ही उसनें संग्रहित करके रख छोड़ा होगा | उस रात भीषण गर्मी थी और ग्यारह बजनें वाले थे | मैं मकान की छत पर मसहरी लगाकर अकेला सोने चला जाता  था | नीचे के कमरों और खुले बरामदे में कब , कौन और कहाँ सोया इसकी व्यवस्था और देख रेख राकेश की माँ के हाँथ  में थी | ग्यारह बजे के करीब मुझे प्यास लगी और मैं सुराही से पानी लेने के लिये उठा तभी मुझे नीचे से कुछ आवाज सुनायी पड़ी जीने के दरवाजे पर मैनें खड़े होकर पूछा कि कौन आया है तो अपर्णा की माँ नें बताया कि राकेश को प्रियम्बदा अपनी गाड़ी से अभी -अभी छोड़कर गयी है | कल प्रियम्बदा का जन्म दिवस है और शाम को पार्टी है | राकेश को इसी संम्बन्ध में आनें में देर हो गयी है | मैनें फिर से अपनें को तखत पर बिछी दरी पर डाल दिया और कब नींद नें आकर मुझे अपनें घेरे में ले लिया इसका पता न कर पाया | अभ्यास के अनुसार प्रातः ही मेरी नींद खुली | नीचे आया तो देखा कि कहीं कोई गड़बड़ है | अपर्णा माँ के बगल में बैठी थी और उसकी माँ उसके भाइयों से कुछ पूंछतांछ कर रही थी | मैनें पूछा कि क्या बात है तो उसनें कहा कि कोई बात नहीं तुम तैय्यार हो जाओ मैं नाश्ता बनाती हूँ | बच्चों को भी पढ़ने जाना है | राकेश आज कुछ देर से जायेगा क्योंकि शाम को पार्टी है और उसे लौटकर आनें में काफी रात हो जायेगी | अपर्णा भी जाना चाहती है पर वह कहता है कि अपर्णा और किसी के साथ जाय | नहा धोकर और तैय्यार होकर जब मैं नाश्ते के लिये मेज पर बैठा तो अपर्णा और उससे छोटा और उससे बड़ा भाई तीनों ही कालेज जा चुके थे | राकेश शायद पार्टी के कारण आज शायद यूनिवर्सिटी नहीं जा रहा था और घर पर ही था | मेरे नाश्ता करनें तक राकेश की माँ नें मुझे कोई बात नहीं बतायी जब मैं उठने को हुआ तो उसने कहा देखो गुस्सा मत करना मुझे लगता है कि राकेश नें एक बड़ी गलती की है | मैनें कहा-" खुलकर बताओ क्या बात है ?" उसनें कहा , मेरे सिर की कसम खाओ गुस्सा तो नहीं करोगे | मैनें कहा ,बात तो बताओ  ठीक है गुस्सा नहीं हूँगा |
                                           उसने कहा अपर्णा बोली कि मैं प्रियम्बदा के बर्थडे पार्टी में जाऊँगी मुझे उपहार के लिये कुछ खरीदना है कुछ रुपये मेरे पास हैं कुछ तुम दे दो | मैनें कहा मेरे पास एक नकली मोतियों की माला पड़ी है जिसे जब  मैं तेरे पापा के साथ रामेश्वरम गयी थी तब खरीदा था | देखनें में असली मोती लगते हैं | यह कहकर मैनें अपना बाक्स के भीतर रखा हुआ जेवरों वाला बिब्बा निकाला और माला निकालकर अपर्णां को दे दी | अपर्णा चली गयी | मुझे लगा कि डिब्बे में रखे हुये जेवरों में एक बार पुनः ठीक से देखकर फिर से रख दूँ पर मुझे लगा कि कहीं कुछ  गड़बड़ी है | ध्यान से सोचा तो लगा कि एक अंगूठी जिसमें तुम कहते थे कि हीरे का नग लगा  है और जिसे तुमनें राकेश के जन्म के बाद गिफ्ट में दिया था डिब्बे से नदारत है बड़ा ताज्जुब है कि अंगूठी कहाँ गयी | कीमती तो वह थी ही पर तुम्हारे प्यार की निशानी के रूप में वह मेरे लिये अमूल्य थी | वे तीनों तो कालेज चले गये मैनें राकेश से पूछा तो उसका चेहरा फक्क हो गया पर वह कहता है कि उसे अंगूठी के बारे में कुछ पता नहीं | वह कहता है कि उसे हीरे के बनी कनी की अंगूठी के बारे में कैसे पता होता | उसके सामनेँ कभी जेवरों का डिब्बा तो खोला ही नहीं गया | अपर्णां से पूछो वही जानती होगी जेवरों की बातें | मेरा मन कहता है कि मेरी बेटी अपर्णां मुझे बिना बताये कोई भी जेवर छू  नहीं सकती | यह काम राकेश का लगता है | पर उसनें ऐसा क्यों किया ?
                                           यह  सब सुनकर मैं अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा | मुझे विश्वास हो गया कि प्रियम्बदा को भेंट देनें के लिये राकेश नें ही चुपके से माँ के जेवर के बक्से से अंगूठी को निकाला है | राकेश जानें को तैय्यार हो चुका था और मुझे भी देर हो रही थी | पर मैनें सोचा  सच्चायी तक पहुँच ही लेना चाहिये | मैनें कहा राकेश इधर आओ सकपकाया सा राकेश मेरे कमरे में आया और सामनें बैठी माँ को देखकर घबरा सा गया | मैनें कहा राकेश क्या तुमनें अपनी माँ की अंगूठी निकाली है | उसनें कहा  पिताजी अपर्णां से पूछो मुझे पता नहीं | मैनें कहा मैं अपर्णां को जानता हूँ और तुमको भी जानता हूँ ,तुमको और भी अच्छी तरह कि तुम भी पुरुष हो | सच बोलनें का साहस नहीं कर पाये | मुझे तुम पर शर्म आती है | जाओ घर से निकल जाओ मुझे अपना मुंह मत दिखाना | बिना कुछ कहे अपनी माँ के पैर छूकर राकेश घर से निकल गया | जाते -जाते सीढ़ियों पर जब उसकी माँ नें पूछा कहाँ जा रहे हो तो उसनें रोती आवाज में कहा स्टेशन से दिल्ली और फिर वहां से बम्बई | अब इस घर में मेरा क्या यह कहकर वह चला गया | अपर्णा की माँ रोने लगी और बोली क्या पता अंगूठी अपर्णां नें ही कभी ले ली हो | तुम तो आग बबूला हो जाते हो ज़रा सी बात पर जवान लड़के को घर से निकाल दिया | हाय  मैनें यह क्या किया ? तुम्हें तो बताना ही नहीं चाहिये था ,वह फूट -फूट कर रोने लगी और दौड़कर छज्जे पर खड़ी होकर सड़क पर जाते राकेश को देखनें लगी पर तब तक राकेश काफी आगे बढ़ गया था | मैं चुपचाप अपनें अध्यापन कार्य के लिये चल पड़ा | बी. ए. के अन्तिम वर्ष में शैक्सपियर का नाटक Twelth Night पाठ्यक्रम में था उस दिन कोर्ट रूम का वह द्रश्य मुझे पढ़ाना था जिसमें नाटक की हीरोइन Olivia अपनी मानवीय कृपा और करुणा सम्बन्धी विश्व चर्चित पंक्तिया कहती है , " The quality of mercy is not strained." मन को गहरी शान्ति प्रदान करने वाली मानवीय संवेदना से भरी ये पंक्तियाँ  भी मेरे उत्तेजित  मन को शान्त न कर सकीं | अगला पीरियड  Vacant था | मैं अपनें आदरणीय अग्रज विभागाध्यक्ष प्रो ० खैराती लाल बजाज के बगल में जा बैठा वे मुझसे आयु में लगभग पन्द्रह वर्ष बड़े थे और सेवा निवृत्ति की ओर बढ़ रहे थे | मैं गुमसुम बैठा था | उन्होंने कहा अवस्थी क्या बात है उदास क्यों हो ? "Is something wrong with you? "क्या कोई फेमिली प्राबलम है | प्रो ० बजाज को मैं अपनें गुरुतुल्य समझता था और उनसे  मैनें कभी कुछ छिपाया न था | मैनें उन्हें सब कुछ बता दिया | उन्होंने कहा अवस्थी ," You should have  not lost your temper ." जिन्दगी में अंगूठियां आती -जाती रहती हैं | बच्चे फिर नहीं आते | मेरी बात मानों तो स्टेशन जाओ दो तीन मिनट का ही तो रास्ता है | दिल्ली जानें वाली गाड़ी अक्सर लेट आती है और अभी तक राकेश स्टेशन पर ही बैठा होगा | जाओ उससे कहो कि उसके घर न जानें पर उसकी माँ जीवित न रह पायेगी | उनके आग्रह नें और मेरे सन्तुलित मष्तिष्क नें मुझे नये सिरे से सोचनें पर विवश किया मैं झपट कर पुल पर से होता हुआ स्टेशन जा पहुंचा | मैं कहा करता था कि कालेज का स्टेशन के नजदीक होना अच्छा नहीं होता पर उस दिन मुझे लगा कि यह भगवान का शुक्र ही है कि मेरा कालेज स्टेशन के नजदीक ही है | राकेश एक बेन्च पर न जानें किस विचार लोक में खोया हुआ बैठा हुआ था | और भी ढेर सारे यात्री इधर -उधर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे पर अपनी बेन्च पर वह अकेला ही बैठा था | मुझे पास आता देखकर वह उठखड़ा हुआ उसनें मेरे पैर छूकर अपनी जेब से एक छोटी डिबिया निकाली और उसे मेरी ओर बढ़ाते हुये कहा पिताजी , यह अंगूठी है माँ को दे दीजियेगा पर अब मैं घर वापस नहीं जाऊँगा | मैनें कहा बेटे मुझे जल्दी बूढ़ा करना चाहते हो ? Go home and tell your mother  कि पिताजी नें कहा है कि यह अंगूठी उनकी तरफ से प्रियम्बदा को उसके जन्म दिवस पर भेंट में दी जायेगी | वह अपर्णा की तरह उनकी बेटी भी तो है | यह कहकर तुरन्त मुड़कर मैं कालेज की ओर चल पड़ा यह कहते हुये कि मुझे पीरियड मीट करना है | मैं जानता था कि यदि मैं अधिक रुका तो हम दोनों भावुक हो उठेंगें और प्लेटफार्म पर बैठे यात्रियों के लिये यह एक अजीब नजारा होगा | मुझे विश्वास था कि जब मैं लौटकर घर जाऊँगा तो राकेश घर पर ही होगा और ऐसा ही हुआ पर अंगूठी के कहानी अभी यहीं पर समाप्त नहीं होती है उससे संम्बन्धित अत्यन्त रोचक प्रसंग को वर्णित करना अभी शेष है |
                                    मैनें सोचा घर जाकर मैं राकेश को बोलूंगा कि वह प्रियम्बदा को यह कहकर अंगूठी भेंट करे कि यह उसकी अपनी खरीद है | और यदि प्रियम्बदा अंगूठी की कलात्मक बनावट की तारीफ़ करती है तो वह लौटकर अपनी माँ को बतावे ताकि उसकी माँ दो एक दशक पीछे लौटकर अपनी युवा स्मृतियों को फिर से दुलार ,पुचकार सके | मुझे गिरजा शंकर माथुर की कुछ काव्य पंक्तियाँ झकझोरनें लगीं | हम साहित्य के प्राध्यापकों की यही तो मुसीबत है | मेरा मन अंगूठी से हटकर चूड़ी के टुकड़े पर जा टिका -
                                        " दूज कोर से उस टुकड़े पर
                                           तिरने लगी तुम्हारी सज्जित तस्वीरें,
                                            सेज सुनहली ,
                                           कसे हुये बन्धन में चूड़ी का झर  जाना ,
                                            निकल गयी सपनें जैसी वे मीठी रातें
                                            याद दिलानें रहा ,
                                            यह -छोटा सा टुकड़ा | "
(क्रमशः )

                                       

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