Tuesday, 30 January 2018

गतांक से आगे -

                                             महान तान्त्रिक अघोर पाद कहा करते थे कि सच्चा साधक जाग्रति और सुसुप्त दोनों के  बीच की अवस्था में रहकर दिव्य अनुभूतियों का अन्तर सुख सहेज सकता है | जिस प्रकार ऊषा और गोधूल दोनों ही बेलायें रात्रि और दिन की मिलन बेलायें हैं और इसीलिये कहीं बहुत गहरे मानव मन के अन्तरतम में छिपे भावों की उद्दीप्त  कर सकती है | इसी प्रकार तन्द्रिल अवस्था में भी अवचेतन कितनें ही अदभुत संसारों की सृष्टि कर डालता है | महान तान्त्रिक अघोर पाद जिसे अलौकक अनुभूतियाँ बताते हैं वह आज के मनोवैज्ञानिकों की भाषा में इस धरती पर पायी हुयी संवेदनाओं ,प्रतिक्रियाओं और अनुभवों का रहस्यमय आत्मजाल ही होता है |
                                       यह क्या हो रहा है ? आकाश गंगा की ओर बढ़ता हुआ राकेट  मुड़कर पीछे की ओर क्यों दौड़ने लगा ? यह क्या धुंधली वायु की परतें उघड़ती चली जाती हैं | | तो क्या समय पीछे की ओर लौट रहा है ? अभी तक का अनुभव तो यही है कि जो बीत गया , जो अतीत है उसे फिर नहीं जिया जा सकता | टाइम ,ट्रैवेल की वैज्ञानिक धारणायें अभी तक व्यवहारिक रूप में फलीभूत नहीं हो सकी हैं | यह दूसरी बात है कि H. G. Wellsऔर  R. Clark की काल्पनिक वैज्ञानिक किस्सा कहानियों में अतीत में जानें वाली मशीनें मिल जांय | धरती पर अब तक जो भी अविष्कार हुये हैं उन्हें देखकर आसमान में बसनें वाली बे सिर पैर की मायावी कल्पनायें भी शर्मा कर सिर झुका लेती हैं | पर यदि वर्तमान से अतीत या वर्तमान से भविष्य में इच्छानुसार आनें जानें की तकनीक ईजाद कर ली गयी तो मानव जाति अब तक के सबसे बड़े विस्मय के रूबरू खड़ी हो जायेगी | पर मैं तो पीछे की ओर चलता ही जा रहा हूँ | आधी शताब्दी और उससे पीछे फिर एक  दशक और फिर उसके पीछे का अर्ध शतक | कौन सा पैराशूट मुझे जमीन पर उतार रहा है | अरे मैं गिरकर कहाँ खड़ा हुआ हूँ ? क्या इस ग्यारह बारह वर्ष के बालक के रूप में मैं ही तो उपस्थित नहीं हूँ ? अरे यह कौन सी जगह है | हाँ लगता है आस -पास चारो ओर खेत फैले हैं | मई -जून का समय होगा तभी तो सारे खेत नंगें दिखायी पड़ रहे हैं कहीं कहीं पौधों की छोटी -मोटी ठूँठें खड़ी हैं | खेतों की मेढ़ों पर से होकर मैं कहाँ आ पहुंचा हूँ ,ध्यान आ गया यह तो असऊ बगिया है | बीच में छोटी सी तलैया और चारो ओर आम के पेंड़ | उत्तर के कोनें में एक कैथे का पेंड़ भी है | इसके पके कैथे कितनें मीठे  कसैले होते हैं | इसी पेंड़ से लगता हुआ तो मेरा खेत है | इस खेत को कौड़िया गाड़ कहते हैं | कुछ दूरी पर दूसरा खेत है जिसे पटिया कहते हैं | पटिया का बीघों लम्बा विस्तार जहां समाप्त होता है वहां एक कुँआं खुदा हुआ है | कुएं की छत पक्की है | कितनी ही बार लोटा- डोर लेकर मैं इस कुयें पर शौच पानी के लिये गया हूँ | बाबा कहते थे कि दूसरे खेत कौड़िया गाड़ का नाम इसलिये पड़ गया कि जब इस बंजर जमीन की जुताई प्रारंम्भ की गयी तो तो यहां कैथे के पेंड़ के पास साँपों की एक बांबीं थी | यह सब कौड़िया सांप थे  जो बहुत जहरीले होते हैं | जुताई बीच में छोड़ दी गयी | एक रात का विश्राम दिया गया अगले दिन सुबह वहां एक भी सांप नहीं था | बाबा कहते थे कि उनके मन में यह बात आयी कि उन्होंने कौड़िया साँपों के घर को गिरा दिया है इसलिये उनके  नाम को खेत के साथ जोड़ दिया जाये और इस प्रकार खेत का नाम कौड़िया काढ़ ,कौड़िया गाढ़ या कौड़िया गढ़ पड़ गया पर इस ग्यारह बारह वर्ष के बालक को कौन बुलानें दौड़ा चला आ रहा है ? अरे यह तो अंगनू है मेरी कक्षा का साथी | हाँ मैं अक्सर भिखारी बाबा के यहां अंगनू को बुलानें जाता रहा हूँ | भिखारी बाबा कपड़े धोनें का काम करते हैं | पर इससे क्या वह हम सबके बाबा ही तो हैं | तो क्या अंगनू खेलनें के लिये मेरे पास आ रहा है ? नहीं वह तो मुझे बुलानें आया है कहता है कि मेरी माँ नें मुझको जल्दी घर आनें को कहा है | कोई बहुत जरूरी काम है | अम्माँ हैं जो प्यार तो बहुत करती हैं पर कोई न कोई झंझट पालती रहती हैं | अब देखो खेतों में मस्ती की चहल कदमी के बीच ये न जानें कैसा बुलावा आ गया | समझ गया कुँयें से एकाध छोटी बाल्टी पानी खींच कर घर पहुंचाना होगा | आजकल पानी ज्यादा लग रहा है | थोड़े पानी से काम नहीं चलता | मेरी बड़ी बहिन्  का फलदान जानें वाला है | घर पर कई लोग आये हुये हैं |
                                  यह सब मैं क्या देख रहा हूँ ? क्या यह स्वप्न है ? नहीं -नहीं यह तो एक वास्तविक घटना है फिर इसमें स्वप्न की क्या बात | जल्दी से मैं घर पहुंचता हूँ | अम्माँ कहती हैं कि मुझे उनके साथ शंकर बजाज के घर चलना होगा | मैं पूछता हूँ की वहां क्या करना है तो उत्तर देती हैं कि मुझे दस्तखत करनें पड़ेंगें | अब पूछो ,बारह वर्षीय बालक के दस्तखतों की क्या  जरूरत आन पड़ी | उस उम्र में भी यह बालक खोजबीन करनें लगता है | किसलिये दस्तखत करनें हैं | माँ मुझे बाहर के बरामदे में प्यार से अपनें पास बिठा लेती है | कहती है बेटे तुम्हारी बड़ी बहिन की शादी है | मैं कहता हूँ यह तो खुशी की बात है | क्या कोई शादी से रोकता है ? माँ कहती है बेटे हम लोग बीस बिस्वा कान्यकुब्ज ब्राम्हण हैं | हमारी लड़की बीस बिस्वा वाले घरों में व्याही जा सकती है | अपनें से छोटे ब्राम्हणों में व्याह देनें से लोक और परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं | बालक कहता है , " तो ठीक तो है हमारी जीजी बीस बिस्वा में ही तो व्याही जा रही है | " माँ कहती है हाँ बेटे पर तेरे दिंवगत पिता के प्राविडेन्ट फण्ड से मिले 500 चांदी के रुपये उसके लिये काफी नहीं हैं | खेतों की उपज से भी कुछ जोड़ जाड़ के जुटाया है | कुछ इधर -उधर से उधार भी लिया है | पर सब पूरा नहीं पड़ता | दूल्हे के पिता एक पैसा छोड़ने को तैय्यार नहीं | वे कहते हैं जो उन्होंने माँगा है उन्हें नकद देना होगा | बाकी बरात का स्वागत , पचहड़ और साज सामान ,सीधा सामान ,मिठाई नमकीन अलग से होगा | अब इस सबके लिये रुपया कहाँ से आये ? वे इतनें जिद्दी हैं कि कहते हैं कि शादी तोड़ देंगें | बालक पूछता है , " माँ तुम तो कहती थीं कि शादी किसी वकील साहब नें करवायी है | वे तो पिताजी के अच्छे दोस्त थे | फिर उन्होंने वर के पिता  को यह क्यों नहीं बताया कि हमारे पिता जी की मृत्यु के बाद अब घर में आमदनी का कोई साधन नहीं है | थोड़े से खेत और चार -पांच आम के पेंड़ ही हमारी पूंजी हैं | इन्हीं से गुजारा चलता है | हम बारात का अच्छा स्वागत सत्कार कर देंगें , कुछ साज -सामान भी दे देंगें | पर  1000 नकद  चांदी के रुपये की राशि कहाँ से बटोरें ?" अम्मा की आँखों में आंसू उमड़ आये बोली लाला दुनिया बड़ी बेरहम है | हमारी इज्जत लुट जायेगी अगर शादी टूट जाती है तो हमारी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी | बालक कहता है , " अम्मा हम तो शादी तोड़ नहीं रहे हैं | तोड़ तो वे रहे हैं | थू -थू तो उनकी होनी चाहिये ,शर्म तो उनको करनी चाहिये |  और फिर बीच में वकील साहब पढ़े -लिखे होकर भी हमें बरबाद करनें के लिये तुले हैं इससे अधिक दुख की बात क्या होगी ?" माँ नें आँसूं पोछते हुये कहा , " बेटा बेसहारों का सहारा भगवान ही होता है | खिल्ली सभी उड़ाते हैं पर मदद कोई नहीं करता | मैनें कहा , " अम्मा अगर दीदी  ऐसे घर में जायेगी जहां ऐसे लोभी इन्सान हैं तो कैसे सुखी रहेगी ? " अम्मा बोलीं तुम्हारे होनें वाले जीजा के बाप नें दूसरी शादी कर ली है वे अलग घर में रहते हैं | तुम्हारे होनें वाले जीजा शहर में नौकरी करते हैं और अपनें मामा के साथ रहते हैं | पर वे सरल स्वभाव के हैं कहते हैं कि शादी व्याह के मामले में वे कुछ नहीं जानते जो कुछ उनके पिता जी करेंगें वही होगा भले ही उनके पिता नें दूसरी शादी कर ली हो और दूसरी शादी से बच्चे भी हो गये हों | अब क्या किया जाय गौरी शंकर तिवारी चट्टू के तिवारी हैं और कहते हैं कि अगर लड़की चट्टू के तिवारियों में देनी है तो 1000 रुपया नकद फलदान में देना होगा , बाकी बारात ,बरतावन,  पचहड़ आदि अलग | बालक जानना चाहता है कि  उसे किस लिये बुलाया गया है | माँ कहती है लाला मैनें खेत शंकर बजाज के यहाँ गिरवीं रख दिये हैं | उन्होंने इसके लिये 700 रुपया नगद देनें की बात कही है और ब्याज में वे खेतों को जोतते -बोते रहेंगें | जब हम उनके रुपये चुका देंगें तो फिर हमारे हो जायेंगें | पांच सौ रुपये तुम्हारे दद्दा के और 700 रुपये खेतों के सब मिलाकर बारह सौ हो जायेंगें | कुछ साज सामान घर में पड़ा है , पचहड़ देनें का वादा तुम्हारे नाना ने किया है | कुछ इधर -उधर से हो जायेगा ,काम चल जायेगा | बालक चुप है फिर वह माँ से पूछता है कि इस सब में उसकी क्या जरूरत है ? माँ कहती है कि शंकर बजाज नें उनके दस्तखत तो ले लिये हैं , पर उनका कहना है कि आपका जो लड़का है हिन्दी पढ़ सकता है | वह पढ़कर समझ ले क्या पता आप कई वर्ष तक खेत न छुड़ा पावें और वह बड़ा होकर कोई झगड़ा खड़ा कर दे | उसके भी दस्तखत होनें चाहिये |
                                 बारह वर्ष का वह बालक उस नासमझी की उम्र में भी एक गहरे न समझ में आनें वाले आघात से पीड़ित हो उठता है | 1942 के आन्दोलन से लेकर 1945 -46 तक उसनें स्वतन्त्रता सेनानियों के गिरफ्तारी के द्रश्य देखें हैं | अपनें गाँव में भी उसनें देखा है कि खद्दर की धोती और बंडी पहनें दो तीन पढ़े लिखे तरुणों नें गांधी जी की पुकार पर अपनें को गिरफ्तार करवाया है | उनके गले में फूल -मालायें डाल दी गयीं थीं और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाये गये थे | गांधी जी तो दहेज़ को एक बहुत बड़ा पाप मानते हैं फिर जिस परिवार का मुखिया किसी अनैतिक कार्य के लिये हेकड़ी दिखा रहा हो और दूल्हा उसके प्रतिरोध की क्षमता न रखता हो उस घर में क्या किसी चरित्रवान लड़की को कभी सुख मिल सकेगा ? पर बालक क्या कर सकता है | उसे तो माँ की आज्ञां माननी है | वह चुपचाप उठकर माँ के साथ चल पड़ता है | कपड़े की गाठों से भरी शंकर बजाज की वह कोठरी जिसमेँ काठ की एक चौकी पर शंकर बजाज बैठे हैं | मुंशी मुसद्दी दूसरी तरफ बिछी दरी पर बैठकर कागज लिखकर तैय्यार कर रहे हैं बालक के आँखों के आगे तैरनें लगती है | उसकी माँ भी दस्तखत करना जानती है | वह स्वयं दस्तखत कर देती है और बालक से भी कहती है कि वह दस्तखत कर दे | बालक की छाती में एक असहनीय पीड़ा उत्पन्न होती है | अपनें बाप ,दादा की जमीन को गिरवीं रखनें के लिये उसे  हिन्दू ब्राम्हण समाज मजबूर कर रहा है | उसकी उँगलियाँ कलम पकड़ने से इन्कार करती हैं | पर क्या करे ? जीना तो उस गाँव के ब्राम्हण समाज में ही है | गांव के  काका , ताऊ , चाचा,  नाना सभी तो इसी प्रथा के समर्थक हैं | घर बिके तो बिक जाये  , खेत गिरवीं रखनें हों तो रख जायें ,गहनें बिकनें हों तो बिक जायें पर यदि घर में लड़की जन्मी है तो दहेज़ तो देना ही होगा और अगर बीस बिस्वा की  मर्यादा का  झूठा आडम्बर भी ओढ़ लिया है तो फिर भिखमंगीं बादशाहत भी करनी पड़ेगी | बालक काँपतीं उँगलियों से दस्तखत कर देता है | दो गवाह छेदी लाल दीक्षित और राम कुमार मिश्र बुला लिये  जाते हैं | उनके भी दस्तखत गवाही पर हो जाते हैं | माँ से आज्ञां लेकर मैं बाहर आ जाता हूँ | अपनें खेत पटिया के बगल में बनें हुये कुयें की जगत पर बैठ जाता हूँ | आधा घण्टे तक क्षुब्ध मन को शान्ति करनें का प्रयास करता हूँ | उस उम्र में कैसे और कब यह वज्र निश्चय मेरे मन में घर कर गया कि बड़ा होनें पर मैं ब्राम्हणत्व के इस मिथ्या अभिमान को एक करारी टक्कर दूंगां मैं नहीं जनता |
(क्रमशः )

No comments:

Post a Comment