Thursday, 1 February 2018

गतांक से आगे -

                                              अरे यह  क्या ? यह फिर से नीचे तैर कर आता हुआ पैराशूट क्या मुझे ऊपर ले जानें के लिये आया है | 65  वर्ष पहले की यह घटनायें फिर धुंधली हो रही हैं |  मेरी भाषा की समझ बढ़ती दिखायी पड़ रही है | हाँ यह क्या ,अब मैं बी. ए. में पढ़ने वाला मेधावी छात्र हूँ | प्रेमचन्द्र , निराला और रेणुं की रचनायें मेरी चेतना को झकझोरनें लगीं हैं | समय के कुछ और पन्नें पलटे | निराला की सरोज स्मृति अब मेरे हृदय पर गहरी मार क्यों करती है ? मेरे से अधिक इन पंक्तियों की मार्मिकता को और कौन समझ सकता है |
" धिक् कान्यकुब्ज कुल कुलंगार
खाकर पत्तल में करें छेद
इनके हित कन्या अर्थ भेद |"
                                             स्मृति का वायुयान फिर सीधी राह पर चल पड़ा तो क्या मैं जीवन के आठवें दशक के अन्तिम छोर की ओर पहुँच रहा हूँ पर यहां तक पहुँचनें के पहले मैनें भी तो अपनें पुत्रों और एक मात्र पुत्री के संम्बन्ध किये हैं | ये कौन स्वर है जो मुझसे पूछ रहा है कि  क्या मैनें उस आदर्श मार्ग का अनुसरण किया है जिस पर मैं बचपन में इतना आग्रहशील था ? इसका सर्वथा सकारात्मक उत्तर देनें का गर्व तो मैं नहीं पालता पर मैं समझता हूँ कि मैं  परीक्षा की घड़ियों में अपनें बलबूते पर भी कुछ ऐसा करता रहा हूँ जो मुझे समाज सुधारकों की परीक्षा अग्नि से गुजर जानें दे | ऐसा मैं कैसे कर पाया हूँ इसका भी लेखा -जोखा विज्ञ समाज के समक्ष प्रस्तुत तो करना ही होगा | मैं इसके लिये प्रस्तुत हूँ | दोषी पाये जानें पर जूरी द्वारा निर्धारित किसी भी दण्ड के लिये मैं अविरोध स्वीकृति दे पानें का सहस जुटाऊंगाँ |
                                          पर ये क्या हो रहा है वायु का सांय -सांय स्वर | क्या मैं झंझावादों के बीच से गुजर रहा हूँ | लगता है स्मृति का बोइंग जेट लैण्डिंग की तय्यारी कर रहा है | शायद Clearance नहीं मिला है और विमान एयरपोर्ट के ऊपर हावरिंग कर रहा है | हाँ धुंधलका छट रहा है | यह लो पहिये रन वे पर आ गये , तेज दौड़ प्रारंम्भ हो गयी | एक चक्कर फिर मोड़ ,गति धीमी हुयी फिर एक चक्कर गति का गहराता धीमापन | और अब विमान रुक गया | एक अलस भरी करवट | पलकें भारी क्यों लग रही हैं ? क्या मैं स्वप्नारूढ़ था ? धत्त तेरे की , तीन घण्टे की झपकी में साठ साल से अधिक पिछले वर्षों की सैर | महाकवियों ने ठीक ही कहा है , " मन की गति प्रकाश की गति से कहीं अधिक द्रुतिगामी है | जय और पराजय भी तो मन में होती है | ये दोनों तो संघर्ष की निरन्तरता के ही बदले हुये पड़ाव विन्दु हैं | यौवन और प्रौढ़ि में मनुष्य की उपलब्धियां  बहुत कुछ उसके प्रारंम्भिक वर्षों के लालन -पालन से निकल कर आती हैं | इसीलिये मन न जानें कितनी बार आगे -पीछे की दौड़ लगाता रहता है | मन की स्थिरता तो स्थविर ही पा सकते हैं | ऊषा पूर्व शायद निशि विगत हो रही है पर अरुण शिखर की ध्वनि तो कांन में नहीं आयी | अरे भाई यह रामायण का काल तो है नहीं | अब तो अलार्म क्लार्क का चलना भी बन्द हो गया है | उठने की पुकार लगाती हुयी मोबाइल की घण्टी नीचे बजनें लगी है संम्भवतः राकेश को कहीं रंगमंचीय प्रतियोगिता में प्रियम्बदा आदि के साथ जाना होगा | तो उठूं , जागरण की घड़ी आ पहुँची | महादेवी जी की एक पंक्ति मन में गूँज उठी |
" जाग तुझको दूर जाना
है अलस आँखें उनींदीं
आज कैसा व्यस्त बाना ?
जाग तुझको दूर जाना | "
                                                       दूर कहाँ ?  कोलाहल भरी अवनी से दूर ? नहीं संघर्ष के मध्य से गुजरना होगा | मरदानगी भरा हुआ एक स्वर ललकार देता है , " करना होगा यह समर पार | "
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                                 करना होगा ये  समर पार , कौन सा समर ? जीवन समर में महारथी होनें का दंम्भ न जानें कितनें असफल योद्धा पालते रहते हैं | जीवन समर की बात तो दूर उनींदीं आँखों की पलकें भी अभी उठनें का मन नहीं करतीं | बजनें दो मोबाइल की घण्टी , चलनें दो राकेश और प्रियम्बदा की रास लीला | भोरारी नीन्द की अलस भारी बाहें मुझे आलिंगन बद्ध करने के लिये फिर उत्सुक हैं | आह ! कितना सुखद होता है चेतन और अचेतन के मध्य स्मृतियों का आलोड़न | अवचेतन और चेतन के बीच उपचेतन की कुहास भरी सुरंग धुंध के बीच कुछ उजले स्थलों की झांकी भी प्रस्तुत करती चलती है | फ्रायड आडलर और जुंग की सारी मनोवैज्ञानिक  व्याख्यायें उपचेतन के कारनामों पर ही तो आधारित हैं | थपकी देती हुयी नीन्द की अन्तिम झोंक फिर कहाँ नभोन्मुख स्मृति पंखों पर उड़ा ले चली है | यह मैं किसके पैर  छू रहा हूँ ? यज्ञ दत्त शास्त्री के ? या राम रतन पाण्डेय के ? गले में पड़ी पुष्प मालायें और आस -पास एकत्रित जन समुदाय कौन से नारे लगा रहा है ? इन्कलाब जिन्दाबाद | किस किताब में यह पढ़ा था कि राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में निकले बिहार के जलूसों में हजारों अपढ़ श्रमिक और किसान इन्कलाब जिन्दाबाद को किन किलाब जिन्दाबाघ का भाषा रूप देकर उच्चरित करते थे ? पर उनका उत्साह अदमनीय था | उपचेतन की पछाड़ मारती एक और लहर | और अब मैं कहाँ खड़ा हूँ ? खड़ा हूँ या दौड़ रहा हूँ ? ये क्या गेंद है या क्रिकेट की बाल ? नहीं नहीं गेंद ही होगा क्रिकेट का व्योपार  तो अभी अपनी प्रारंम्भिक अवस्था में ही है | गाँव के गली गलियारों में गेंद के पीछे ही उसकी उछालों और लचकानों से ही बालकों के बढ़ते हुए शरीर को शारीरिक श्रम की ऊर्जा मिल पाती है | ब्राम्हण- बाहुल गाँव में अभी तक जाति समानता का गांधी दर्शन पूरी तरह स्वीकृत नहीं हो पाया है | परशुधर जामदग्नेय नें अब्राम्ह्ण को शस्त्र शिक्षा न देनें का जो व्रत लिया था उसकी प्रशंसा का आधार ब्राम्हण बाहुल गांवों में खण्डित नहीं हो सका था | कर्ण का अभिशापित होनां या एकलव्य का अंगुष्ठ दान अभी तक प्रश्नों के घेरे में नहीं घिरा था | यह कौन सा द्रश्य है | विलाप के मन्द स्वर कहाँ से आ रहे हैं ? जीवन समर में महारथी होनें का मेरा दंम्भ खोखला सा होता क्यों दिखायी दे रहा है | एक अद्वितीय जीवट की कहानी , एक हृदय द्रावक अतीत की झांकी के साथ मुझे अपनी ओर खींचें लिये जा रही  है | उपचेतन की धुंध के बीच उभरता एक द्रश्य दिखायी पड़ता है | पर इसके पहले कि द्रश्य स्पष्ट हो गोरी पतली उंगलियां मेरे बालों का स्पर्श करती हैं | राकेश की माँ कहती है, "  उठो न देर हो गयी कब तक पड़े रहोगे | " नीचे मोबाइल की घण्टी बज रही है आपके प्रोफ़ेसर साथी राकेश जी आपको याद कर रहे हैं | मैनें उनसे कुछ देर बाद फोन करनें को कहा है | उठो फ्रेश होकर नीचे आओ | " तो फ्रोफेसर राकेश मुझे याद कर रहे हैं | सुबह -सुबह क्या कोई ख़ास जरूरत आ पड़ी | बढ़ती उमर नें मुझे सिखा  दिया था कि जरूरत पड़ने पर ही मित्रों की तलाश होती है अब प्रोफ़ेसर राकेश का भी एक किस्सा है जिसे कह देना जरूरी होगा क्योंकि उसके कहे बिना मेरी उनकी घनिष्टता की गुथ्थी उलझी ही रह जायेगी | कालेज में आनें से पहले प्रो० राकेश दिल्ली सी.आई.डी. पुलिस  विभाग में एक लिपिक के पद पर कार्य करते थे | उनकी पत्नी के बड़े भाई दिल्ली के प्रसिद्ध कालेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे | उनके नाम से कई किताबें छपी थीं और परास्नातक विद्यार्थियों में परीक्षा की द्रष्टि से बड़ी मात्रा में बिक रही थीं | उनकी बहन नें भी हिन्दी में एम. ए. किया था और फिर उन्हीं की एक सहयोगी के देख रेख में पी. एच. डी. कर ली थी | दिल्ली में कोई सिफारश जुटाकर जिस कालेज में मैं था उसके महिला विभाग में उनकी नियुक्ति प्रवक्ता के पद पर हो गयी थी | वे एक सुन्दर सुशील व्यक्तित्व की धनी थीं और अध्यापक के नाते भी असफल नहीं मानीं जाती थीं | राकेश जी को लगा कि उन्हें  भी शिक्षा विभाग में पहुँच जाना चाहिये | हिन्दी का एम.ए. तो उनके लिये सरल बात तो  थी ही कर डाला | उच्च द्वितीय श्रेणीं भी पा गये | पर कोई काम नहीं दिखायी पड़ा | सरकारी मुहकमें में लिपिक तो थे ही | पत्नी भी प्रवक्ता थी | एक लड़का और एक लड़की दो ही सन्तानों का परिवार था | साधनों की कमी नहीं थी | अंग्रेजी के एम. ए. करनें में लग गये | कर भी डाला पर सब मिलाकर 49  प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाये | एक बार फिर प्रयास किया पर बात ज्यों की त्यों रही | 48 -49  के बीच तराजू की नोंक हिलती डुलती दिखायी दी | उन दिनों दिल्ली और पंजाब विश्वविद्यालय में पास का प्रतिशत 40 होता था और द्वितीय श्रेणीं के लिये कम से कम 50 प्रतिशत की आवश्यकता होती थी | अभी तक अंग्रेजी एम.  ए. का इतना विस्तार नहीं हो पाया था कि सभी कॉलेजों को प्रथम या उच्च द्वितीय श्रेणीं के प्रवक्ता मिल  जांय ? पी. एच. डी. और एम. फिल. अभी तक भविष्य की योजनायें बने हुये थे | विश्वविद्यालयों में भी प्रथम श्रेणीं में एम. ए. पास एम. ए. क्लासेज   को पढ़ाया करते थे | उन दिनों पंजाब यूनिवर्सिटी में आज का हरियाणां और हिमांचल प्रदेश भी शामिल थे | और पंजाब यूनिवर्सिटी से संम्बन्धित कालेज में डिग्री क्लासेज के साथ -साथ ग्यारहवीं , बारहवीं की क्लासेज भी हुआ करती थीं | पंजाब यूनिवर्सिटी नें एक सर्कुलर निकाला कि अंग्रेजी के प्राध्यापकों के पर्याप्त संख्या में न मिलनें के कारण अंग्रेजी के थर्ड क्लास एम. ए. भी कमी पूरा करनें के लिये लगाये जा सकते हैं | कुछ संयोग ऐसा हुआ कि मेरे कालेज में भी विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने के कारण एक नयी पोस्ट क्रियेट हो गयी | कालेज के महिला विभाग नें जो कालेज की मुख्य बिल्डिंग से दूर एक नये परिसर से संचालित होता था , उनकी पत्नी प्रवक्ता थी हीं | उन्होनें जोड़ -तोड़ करके अध्यक्ष और प्रबन्धक महोदय को अपनी नियुक्ति के पक्ष में कर लिया और वे कालेज में अंग्रेजी प्रवक्ता के रूप में लगा दिये  गये | पति -पत्नी दोनों को एक ही स्थान पर होनें से न केवल काफी सुविधा हुयी बल्कि उनका एक सामाजिक दायरा भी पढ़े लिखे लोगों के बीच बढ़ता गया | राकेश जी के साले लेखक प्राध्यापक थे ही , पंजाब विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के सभी प्राध्यापक भी उनकी जान -पहचान के दायरे में आ गये | अक्सर पति पत्नी का आना -जाना चण्डीगढ़ होता रहता था |
(क्रमशः )

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