Monday, 29 January 2018

गतांक से आगे -

                                               उर्वशी -पुरुखा , मेनका  ,विश्वामित्र ,आख्यानों की श्रंखला में रूप जीवा नारियाँ प्रणव को जीवन भर का बोझ नहीं बनातीं | ऐसी ही आख्याकिकायें घृताची , तिलोत्तमा और त्वरित छटा आदि रूप जीवावों  के साथ जोड़ दी गयी हैं | आज भी हॉलीवुड , वालीवुड , टॉलीवुड और मालीवुड की तारिकाओं के साथ ऐसी ही कहानियां रोमांस और सतरंगी चूनर ओढ़कर जुड़ी रहती हैं | भ्रष्टाचार की तरह यौनाचार का विषाणु भी ऊपर से नीचे की ओर फैलता चला जाता है | कहते हैं देवलोक में रोमांस की अवधारणां पाप पुण्यं से मुक्त होकर एक निराले आनन्द के रूप में सदैव प्रभावित होती रहती है | इस परम आनन्द की अनुभूति किसी सामाजिक बन्धन में नहीं बंधती | यह तो सर्वथा मुक्त तरंगायित वायु लहरियों की भांति जीवन के कण -कण को स्पन्दित करती रहती है | कुछ ऐसा ही तो हो रहा है मेरे पुत्रों और पुत्री के साथ | पर क्या ऐसा मेरे साथ भी हुआ था , पर क्या ऐसा सभी के साथ होता है | सभी के साथ होता हो या न होता हो पर मेरे जीवन में तो ऐसा हुआ ही था | कहीं ऐसा तो नहीं कि जीन्स के द्वारा रोमान्स का यह रोग मेरे बच्चों तक उतर आया है | पर इन बच्चों की माँ तो सर्वथा अनरोमान्टिक है | घिसी -पिटी परम्परा से पाये एक पुरुष के अतिरिक्त उसनें और किसी पुरुष के रोमान्टिक सहचर्य का परिचय ही नहीं किया | फिर उसके जीन्स बच्चों तक क्यों नहीं पहुंचें | हाँ अपर्णां में तो उनकी कुछ झलक मिलती है | हाय , कहाँ गये वे कच्ची तरुणायी के दिन जब किसी रूपवान किशोरी का सानिध्य पुलक की एक अनूठी अनुभूति नस नस में भर देता था | कई बार तो उम्र का अन्तर भी रोमान्स की आग को मन्द नहीं करता | मानव शरीर विकास के अध्येता यह कहते सुने जाते हैं कि 15 -16 और 35 -36 के बीच की उमर उछाभ आवेग की उमर होती है और इस दौरान दो चार वर्ष की उम्र का अन्तर कोई मायनें नहीं रखता | 18 -19  का नवयुवक और 21 -22  की तरुणीं उसी सखा भाव से मिलते हैं जिस प्रकार 21 -22  का तरुण और 18 -19  की तरुणीं | पश्चिमी देशों में तो ऐसे तरुण युग्मों का रोमांस अनचाहे बच्चे के भारी भरकम बोझ को उठानें के लिये वहां की सरकारों को बाध्य कर रहा है | भारत में अभी तक इसको सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली है पर फिजा का रंग बदलता दिखायी पड़ रहा है | मन की गति अबाध होनें के साथ अबूझ भी है | तभी तो मैं काम चेतना की दार्शनिक गहरायी में उलझनें लगा हूँ | स्मृति पटल पर एक  कौंध भरी नारी छवि क्यों उभरकर आनें लगी है | आधी शताब्दी से भी अधिक पीछे मुड़कर  भागता मन अश्व  क्यों नहीं रुक  पा रहा है ? इसे किस विश्रामस्थल तक जाना है | अरे हाँ , यह तो दरिया गंज की वह सकरी गली है जहां पर मैं किसी को अंग्रेजी पढानें जाता था | नहीं जनता कि कामनी कहाँ और कैसे है ? कौन जानें वह है भी या नहीं ? पर मैं तो अभी भाव वारिधि में फंस ही रहा हूँ | छह दशकों से ऊपर के इस अन्तराल में कितनें मधुर और कसैले अनुभवों के बीच से गुजरा हूँ उसका क्रम बद्ध लेखा -जोखा भी तो मस्तिष्क की तान्त्रिकायें स्मृति पटल पर उभार नहीं रही हैं | जीवन में सब कुछ निरर्थक सा होता जा रहा है | महाकवि निराला की पंक्तियाँ उभरकर चेतना के किसी स्तर पर ध्वनित हो रही हैं |
                                    " आम की यह डाल जो सूखी दिखी
                                       अब नहीं आते यहाँ पिक या शिखी
                                      पंक्ति में वह हूँ लिखी
                                      अर्थ जिसका  अब नहीं  कुछ रह गया है
                                      स्नेह निर्झर बह गया है | "
            कामनी के पिता एल. आई. सी. के एजेन्ट थे अपनें अथक परिश्रम से उन्होंने अच्छा खासा धन अर्जित कर लिया था | एल. आई. सी. की तरफ से आने वाले कई ऊँचे ऑफर उन्होंने इसलिये रिजेक्ट कर दिये थे क्योंकि बड़े लोगों के बीच उनकी पहुंच से उन्हें इतनें क्लाइन्ट मिल जाते थे जिनसे उन्हें अच्छी से अच्छी नौकरी से अधिक की आमदनी हो रही थी | अपनी कार्य व्यस्तता के बीच उनके पास इतना समय न था कि वे कामनी के साथ बैठते |  माँ सरल सीधी गृहणीं थीं | कामनी का छोटा भाई अभी आठवीं में पढ़ रहा था | कामनी के पिता अरविन्द शुक्ला नें अपनें एक साथी जो दिल्ली कालेज में प्राध्यापक थे से एक ऐसे विद्यार्थी शिक्षक की मांग की थी जो हाई स्कूल पास कर इन्टर ज्वाइन करनें वाली कामिनी को अंग्रेजी  , समाजशास्त्र , हिन्दी और भूगोल का अच्छा ज्ञान करवाये | बी. ए. के अन्तिम वर्ष में पहुँच जानें के कारण और अपनी कक्षा में श्रेष्ठतम माना जानें के कारण कालेज के प्राध्यापक मुझे पहचाननें लगे थे | मेरे रहन सहन से और कुर्ता -धोती के पहनावे से वे जान गये थे कि मैं संम्पन्न परिवार से नहीं आया हूँ | अरविन्द शुक्ला के प्राध्यापक मित्र नें उन्हें मेरा नाम सुझाया | मुझे अपनें द्वारा अर्जित आर्थिक आधार की आवश्यकता तो थी ही अतः कामनी का छात्र अध्यापक बनना मुझे अरुचिकर नहीं लगा | आखिर बी. ए. के अन्तिम वर्ष का टापर विद्यार्थी ग्यारहवीं बारहवीं क्लास की सामान्य बुद्धि वाली लड़की को पढानें के योग्य तो था ही | तरुणायीं के द्वार पर खड़ा होनें के कारण मैं यह जाननें लगा था कि शरीर गठन की श्रेष्ठता का दिमाग की श्रेष्ठता से कोई सीधा  संम्बन्ध नहीं होता है | हाई  स्कूल में सेकेण्ड क्लास पाने वाली कामिनी को देखकर मुझे पहली बार कैश्योर्य के द्वार से गुजरते नारी सौन्दर्य के अपार आकर्षण का अनुभव हुआ | प्रकृति जिसे देती है दोनों हाँथों  लुटाती है | 16 -17  वर्ष की कामिनी में मुझे रत्नावली की छवि दिखायी पड़ने लगी |  पर नियम बद्ध मेरा संयमित जीवन आकर्षण के इस प्रहार को झेलनें में पूरी तरह समर्थ था | विषयों का ज्ञान तो मुझे था ही और भाषा कुशलता के कारण मेरी समझानें की क्षमता भी साधारण स्तर से ऊपर की थी | एक महीनें से कम समय में ही कामिनी नें मुझे सच्चे पथ प्रदर्शक के रूप में स्वीकार कर लिया | कुछ महीनों बाद ग्यारहवीं की फाइनल एक्जामिनेशन में कामिनी अपनी क्लास में सर्वश्रेष्ठ छात्रा के रूप में उभर कर आयी | उसके रूप की श्रेष्ठता और उसके मस्तिष्क के परिष्कार दोनों ने मिलकर मणिंकांचन का संयोग प्रस्तुत कर दिया | इन्टरमीडिएट फाइनल का विद्यार्थी बनकर उसके मन में पढ़ायी- लिखायी की ऊंचाई को Extra coricular activities में भाग लेकर और अधिक अलंकृत करनें का विचार उभर आया | कुछ ही महीनों में उसे कई कॉलेजों की Debate प्रतियोगिताओं में पहला इनाम मिला साथ ही क्लासिकल Songs भी उसे भानें लगे | अब क्या था कामिनी की ओर सभी की आँखें लग गयीं | मेरे भीतर भी एक गर्व का भाव जग पड़ा | अब मैं प्रथम श्रेणीं का स्नातक बन चुका था और पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए Anthropology की ओर झुक रहा था | मुझे एक पब्लिशिंग फर्म से शाम के समय दो घण्टे काम करनें का ऑफर मिला |फर्म नें अच्छे खासे पैसे देनें की बात कही और मुझे लगा कि यदि मैं कामिनी को पढानें न भी जाऊँ तो भी मेरा काम चल जायेगा | पर न जानें क्यों मैं मन ही मन कामिनी के साथ बैठकर पढ़ाई की बात चीत करनें वाले एक घण्टे को अपनें उस समय के जीवन का सबसे आनन्द दायक कालखण्ड माननें लगा था | कामिनी नें कभी किसी भी दिन अपनें हाव भाव से यह बात स्पष्ट नहीं की थी | कि वो मुझे अंग्रेजी और समाजशास्त्र के अध्यापक के अतिरिक्त और कुछ भी समझती है | और मैं था भी क्या कुछ पैसों में ट्यूशन पढ़ाने वाले एक छात्र अध्यापक के अलावा ? पर फिर भी मैं भीतर ही भीतर अपनें अहंकार में डूबा था और सोचता था कि मैं असाधारण हूँ और कामिनी मेरे व्यक्तित्व से प्रभावित है | पर जब पब्लिशिंग हाउस से आये हुये ऑफर को और अधिक आकर्षक बनाकर मेरे सामनें लाया गया तो मैनें सुनिश्चित कर लिया कि अब दरियागंज की उस गली से विदायी का समय आ गया है | कामिनी के फाइनल एक्जामिनेशन होनें वाले थे और मुझे विश्वास था कि वह अपनी कक्षा में टाप करेगी और शायद मैरिट लिस्ट में भी आ जाय | यही समय था जब  मुझे उसके माता और पिता से अलविदा मांग लेनी चाहिये | मैं जानता था कि उसके पिता लगभग शाम को आठ बजे घर में  आते हैं इसलिये उस शाम 6  बजे के बजाय 7. 30 के आस -पास दरियागंज के उस ऊपर वाले कमरे में पहुंचा जो कामिनी का स्टडी रूम था | ऐसा लगता है कि काफी देर इन्तजार करनें के बाद कामिनी अपनी माँ के पास चली गयी थी क्योंकि मेज पर कापीं किताबें तो पड़ी थीं पर कामिनी उपस्थित नहीं थी | छोटे भाई नें मेरे आनें की खबर उस तक पहुंचायी और वह चलकर पढ़ने के लिये कमरे में आ बैठी | उसनें मुझे प्रश्न वाचक आँखों  से देखकर यह जानना चाहा कि मैं देर से क्यों आया हूँ | पर मैनें उससे उसके पिता जी के आनें की बात पूछी तो उसनें बताया कि वह आनें ही वाले हैं | मैनें उससे कहा कि मुझे उनसे एक आवश्यक बात कहनी है | कामिनी नें फिर अपनी बड़ी -बड़ी आँखों की पलकें मेरी ओर उठाकर देखा जैसे वह जानना चाहती हो कि पिता जी से क्या बात करनी है | कह नहीं सकता कि मेरा यह सोचना ठीक है या केवल अनुमान मात्र कि कामिनी जान गयी कि मैं अब उसे पढानें नहीं आऊंगा | यद्यपि मैनें इस विषय में विदा के उस अन्तिम दिन तक किसी से भी कोई बातचीत नहीं की थी | कामिनी के पिता जी के आते ही मैनें उनसे मिलना चाहा | उन्होनें मुझे ड्राइंग रूम में बुलाया और कहा , " बेटे क्या बात है | " मैनें उन्हें प्रणाम किया और कहा कि कुछ ही दिनों में कामिनी के इम्तहान होनें वाले हैं | उसकी तैय्यारी पूरी हो चुकी है और अब मैं शाम के समय एक अच्छा काम पा गया हूँ | आज मैं आप से और माता जी से विदा मांगनें आया हूँ | हाँ जाते जाते मैं इतनी बात अवश्य कहना चाहता हूँ कि आगे अब कामिनी को किसी शिक्षक की आवश्यकता ही नहीं है उसकी प्रतिभा उसे स्वयं ही मार्ग दिखा देगी | पिता जी ने कामिनी को ड्राइंग रूम में बुलाया उसकी माँ भी वहां आ गयी | उन दोनों नें मुझसे आग्रह किया कि मैं उनके यहां आता रहूँ और बी. ए. में भी कामिनी को गाइडेन्स देता रहूँ पर मेरे सिर पर न जानें कैसा भूत सवार था कि मैनें उनसे यह कहकर विदा चाही कि अब मैं उनके घर पर न आ सकूंगा | बड़ा होनें के नाते मैनें अपनी शुभकामनायें कामिनी को दीं और उसके माता पिता को प्रणाम कर सीढ़िया उतर कर बाहर आ गया | कुछ देर सड़क पर चलनें के बाद मैं पार्क की ओर बढ़ा और एकान्त स्थल की तलाश कर वहां बैठ गया | न जानें कौन सी गहरी हूक मेरे अन्तर में उठी और मुझे लगा कि मै अपनें जीवन का एक दुर्लभ अवसर खो बैठा हूँ | | मुझको ऐसा लगा कि मैनें कहीं न कहीं कामिनी के अन्तरमन को चोट पहुंचायी है शायद वह अपनें को अपमानित महसूस कर रही है | अब वह बड़ी हो गयी है और मुझे उसके माता पिता से विदा मांगनें के पहले उससे भी बात कर लेनी चाहिये थी | आखिर डेढ़ वर्ष का हमारा अध्ययन अध्यापन का साथ दोनों के लिये कई अर्थों में अत्यन्त लाभदायक रहा था | पर अब तो जो होना था हो चुका | पोस्ट ग्रेजुएशन की चुनौती तो मेरे सामनें थी | ही साथ ही परिवार की कुछ और जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी थी | सोचा कोई रेगुलर काम मिला तो कर लूंगा | उच्च शिक्षा का चक्र यदि कुछ देर के लिये टूटता है तो उसे आगे चलकर स्थिति संम्भल जानें के बाद पुनः गतिमान कर लिया जायेगा | आत्म प्रबोध के साहस का भाव मन में जगाया और कामिनी के शिक्षक के नाते उसके साथ बिताये घण्टें धीरे धीरे समय की धूल  चढ़ाकर धुंधले पड़ते गये | संयोग कहें या भाग्योदय कुछ ही महीनों बाद मुझे कलकत्ता की एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में प्रबन्धक के रूप में चयनित कर लिया गया और दिन के बाद महीनें और महीनों के बाद वर्ष बीतते चले गये | दो ढाई वर्ष बाद शायद जून के महीनें में जब मैं कम्पनी के दफ्तर में कुछ समय निकालकर अखबार देखनें में लगा था तो मेरी निगाह अखबार में छपे कुछ छाया चित्रों पर पड़ी | ये चित्र उन विद्यार्थियों के थे जिन्होनें दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय की बी. ए. परीक्षा में उच्चतम स्थान प्राप्त किये थे | मुझे लगा कि मैरिट में दूसरा स्थान पानें वाली जिस छात्रा का चित्र छपा है वह कामिनी ही है पर अभी तक यह एक अनुमान मात्र ही था क्योंकि जो चित्र मेरी स्मृति में उभर रहा था वह चित्र इस छपे चित्र से कुछ भिन्न था | हो सकता है कि ढाई वर्ष के समय नें कामिनी के नख शिख में कुछ परिवर्तन ला दिया हो | पर दिल्ली यूनिवर्सिटी में तो अत्यन्त प्रतिभावान छात्र -छात्रायें होती हैं उनके बीच इतने ऊचें स्थान पर पहुंचना क्या कामिनी के लिये संम्भव हो पाया होगा | सोच विचार में दिमाग उलझता रहा और बात आयी गयी हो गयी | शरद ऋतु की एक शाम जब मैं कम्पनी के आफिस से उतरकर फुटपाथ पर खड़े होकर टैक्सी के रुकनें का इन्तजार कर रहा था  तो मुझे टूर पर आयी एक बस में बैठी छात्राओं के बीच कामिनी की झलक मिली | मुझे लगा शायद भ्रम ही हो , कि  कामिनी नें मुझे देख लिया और प्रणाम करनें के लिये दोनों हाँथ जोड़े तेजी से जाती हुयी टूरिस्ट बस में मैं इससे अधिक कुछ न देख सका | अगले दिन 11 बजे सुबह के आस पास जब मैं अपनें प्रबन्धक वाले कमरे में बैठा हुआ था और कम्पनी के कुछ छोटे अधिकारियों से बात कर रहा था तो चपरासी नें मुझे बताया कि दो लड़कियां मुझसे मिलनें का इन्तजार कर रही हैं |
( क्रमशः ) 

                                  

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