Sunday, 10 December 2017

                                                         कभी पढ़ा था | ठीक याद नहीं ,प्रारम्भिक यौवन के किस पायदान पर जेसस क्राइस्ट के ट्रायल की बात पढ़ी थी | सुनवाई करनें वाले जज पाइलेट नें एक प्रश्न कर उसका उत्तर भी स्वयं  ही दे दिया था | पाइलेट नें पूछा , ' What is Justice."और इसका उत्तर दिया , " My Will is Law ." सहस्राब्दियाँ गुजर गयीं पर पाइलेट की सोच थोड़े बहुत संशोधित रूप में आज भी अपनी जगह कायम है | हमारे न्यायाधीशों की Will ही अधिकतर मुकदमों का फैसला करती दिखायी देती है | न्याय पालिका के निचले स्तर पर व्याप्त सड़ांध की गन्ध तो सामान्य जन तक पहुंच ही रही है | उच्च ,उच्चतर और उच्चतम स्तर पर भी गिरावट की भयावह झाँकियाँ देखनें को मिलनें लगी हैं | कुछ समय पहले तार कुण्डे मेमोरियल व्याख्यान में उच्चतम न्यायलय के पूर्व जज जस्टिस रूमा पाल का व्याख्यान आँखें खोलनें वाला था | उन्होंने न्यायाधीशों की ईमानदारी को लेकर गढ़े गये न जानें कितनें मिथकों की सर्जरी कर डाली थी | सामान्य जन भी जिसका कभी कोर्ट कचहरी से पाला पड़ा है इस बात से भली -भांति परिचित है कि कचहरियों में रिश्वत का खुले आम नंगा नाच चल रहा है | मेरे एक निकट सम्बन्धी किसी प्लाट की रजिस्ट्री के सम्बन्ध में कानपुर की कचहरी में गये थे उन्होंने बताया था कि कैसे जिस रजिस्ट्री पर कुछ उल्टे -सीधे नियमों की आढ़ में  मोहर नहीं लग रही थी 10 ,000 /-की रिश्वत राशि पाकर सब कुछ ठीक -ठाक हो गया था | एक एडवोकेट होनें के नाते मैं न जानें कितनी बार कचहरी के कारकुन्दों से रिश्वत की बात को लेकर टक्कर ले चुका हूँ | मेरे साथी वकील मुझे यह कहकर समझाते रहते हैं कि जिस प्रकार सब्जी मण्डी में सब्जी बिकती है वैसे ही कचहरी भी न्याय की एक मण्डी है | और यहां भी हर सौदे का अपना अलग मोल -तोल होता है , अगर वकालत करनी है तो सत्य के  लिये शहादत का वाना ओढ़ने की जरूरत नहीं | संपादक बनकर जिया नहीं जा सकता , केवल साँसें ली जा सकती हैं | जीना चाहते हो तो वकील बनों | जजों से पटरी बिठाओ | देखते -देखते वजन में आठ दस किलो की बढ़ोत्तरी हो जायेगी | और यदि Jentic कारणों से वजन न भी बढ़ा तो कोठी का दायरा कई गुना बढ़ ही जायेगा | पर क्या करें ? फकीरी तो हमारे तकदीर का लेख है | टीम अन्ना के सदस्य शान्ति भूषण नें तो यह कहकर सबको चौंका ही  दिया था कि देश में अब तक मुख्य न्यायाधीशों के पद पर रहे जजों में से आधे भ्रष्ट थे | जब उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों का यह हाल है तो मजिस्ट्रेट मेढकों की पकाई -सफाई पर गीत गानें का कोई अर्थ ही नहीं है |
                                                      जस्टिस बी ० एन ० तारकुण्डे हाईकोर्ट से उठकर कभी सुप्रीम कोर्ट नहीं पहुँच सके क्या पता उनकी स्वतन्त्र अभिव्यक्ति ही उनकी प्रगति में बाधक बन गयी हो | तीन जजों पी ० डी ० दिनकरन ,सौमित्र सेन ,वी ० वी ० रामास्वामी को लेकर महा अभियोग की कार्यवाही पर शुरुआत हुयी थी  पर यह तीनों जज महाअभियोग की निर्णायक कार्यवाही होनें से पहले ही कार्य मुक्त कर दिये गये थे | वैधानिक रूप से दागी लोग दाग लगनें से बच गये | हालांकि वे तीनों ही मानते हैं कि उनके जैसा साफ़ -सुथरा दामन और किसी भी जज का नहीं है | बात को थोड़ा और आगे बढ़ायें तो हम कह सकते हैं कि उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के ० जी ० बालकृष्णन पर भी उंगलियां उठायी जा चुकी हैं ,उनके दो पूर्व साथी जजों जस्टिस समसुद्दीन और जस्टिस सुकुमारन नें उन पर पक्षपात के आरोप लगाये थे | जस्टिस बालकृष्णन के परिवार पर भी इस बात का आरोप है कि उनके पद के गौरव का दुरुपयोग कर उनके परिवार नें बहुत बड़ी सम्पत्ति इकठ्ठा की है | सच्चाई क्या है कौन जानें ? पर  के ० जी ० बालकृष्णन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद को तो सुशोभित कर ही चुके हैं |
                                                               मीडिया में अभी तक इस बात पर बहुत चर्चा होती रही है कि भारत का राजनीतिक प्रशासन तो भ्रष्ट है पर न्यायपालिका में अपेक्षाकृत शुद्धता है और सामान्य जान का न्याय पालिका में विश्वास है | पर 'माटी ' का संपादक कई बार इस प्रकार की बातों को भ्रान्तियों का प्रसारण प्रचारण ही मानता है | छोटे स्तर पर किये गये न जानें कितनें फैसले बड़े स्तर पर बदल दिये जाते हैं | हाई कोर्ट के फैसले सुप्रीम कोर्ट मेँ बदल दिये जाते हैं और कई बार सुप्रीम कोर्ट भी अपनें फैसले पर एक नयी नजर डालकर उन्हें बदल देनें की बात कहता है | इस सबका मतलब यही है कि न्याय भी एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है | न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बांधकर तराजू के दोनों पलड़ों को बराबर बनाये रखती है क्योंकि आँखें खोलकर देख लेनें पर अपनें चहेतों की ओर पलड़ा झुकानें का मन हो सकता है पर हमारे छोटे -बड़े सभी न्यायाधीशों की आँखें तो खुली ही हैं | उनके पूर्वाग्रह हैं ,उनके राजनीतिक रुझान हैं ,उनके पारिवारिक स्वार्थों के दबाव हैं | वे सब भी उन्हीं पदार्थों से बनें हैं जिनसे साधारण मानव शरीर निर्मित होता है | उनमें ईश्वरीय न्याय की झलक देखना सामाजिक संरचना को बनाये रखनें का एक मिथक मात्र है |
                           पर जो सबसे बड़ी बात है और जिस पर तुरन्त विचार किया जाना चाहिये वह है उनकी ईमानदारी ,उनकी कानूनी दक्षता और उनकी चारित्रिक पवित्रता के आंकलन के लिये किसी संवैधानिक व्यवस्था का आभाव उच्च न्यायालयों  और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति जजों के कलेजियम के द्वारा ही होती है | इसमें कोई पारदर्शिता नहीं होती | बहुत से जज अपनें पहले के जजों के निर्णयों से टुकड़ियां उठाकर और उन्हें जोड़ -तोड़ कर अपना फैसला सुनाते हैं | वैश्विक स्तर पर उठनें वाले  जटिल कानूनी प्रावधानों की बहुत कम सूझ -बूझ उन्हें प्राप्त होती है | जमानत यानि बेल या जेल का सुनहरा और पेंचीदा कानूनी तन्त्र उन्हें एक ऐसी ताकत दे देता है जो उन्हें सर्वशक्तिशाली होनें का आभाष देनें लगता है | भारत के कुछ जानें -मानें कानूनी विशेषज्ञ अब ला कमीशन के गठन की बात करने लगे हैं | लगता है सरकार के कान पर जूँ रेंगनें लगी है | सशक्त लोकपाल बिल क्या न्यायपालिका को भी अपनें घेरे में लेगा या नहीं ,क्या न्यायपालिका की जवाबदेही के लिये अलग से कोई संवैधानिक प्राविधान होगा या नहीं यह सब आने वाले समय में स्पष्ट हो जायेगा | इतना सब होनें पर भी क्या न्यायपालिका सचमुच न्यायपालिका बन जायेगी ऐसा सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता | जब राष्ट्र की सामूहिक नैतिकता में ही घुन लग चुका है तो उसके खोखलेपन को भरनें के लिये शायद अवतारी पुरुषों की आवश्यकता आ पड़ी है | जब तक ऐसा नहीं होता कोई संवैधानिक व्यवस्था तो करनी ही होगी | उच्च न्यायालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार का समग्र भारतीय समाज के ढांचें पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ रहा है | छोटे स्तर पर कोर्ट -कचहरी घुसते ही रौरव नर्क की बू आनें लगती है | खोखों में बैठे वकील बगुले और गिद्ध जैसे शिकारी पक्षियों की मानवीय रूपान्तर दिखायी पड़ते हैं और चैम्बर्स में टाँगें काले चोंगें ताकतवर बाज जैसे हैं जिनकी लपेट में जो आ गया वह जब तक पूरी तरह निगल न लिया जाय छूट ही नहीं सकता | शास्त्रों में कही हुयी बहुत सी बातें हमें कपोल कल्पना मात्र सी लगती थीं | कहते हैं नरक के भी ऊँचे -नीचे कई विभागीय स्तर हैं | कहीं कहीं कुंभ्भी पाप नरक  है ,कहीं रौरव नरक है | कहीं Heads है कहीं Tunjun ,कहीं Hel है | मैं ठीक से नहीं कह सकता कि निम्न ,उच्च और उच्चतम न्यायालय इन सब श्रेणियों में किस कोटि में खड़े होंगें पर इतना मैं अवश्य कह सकता हूँ कि सामान्य रेलवे स्टेशन पर पेशाबघरों से आनें वाली बदबू इन सभी न्यायालयों के परिसरों में फ़ैल रही है | आश्चर्य है कि यह बदबू जजों के नाशापुटों तक पहुंचते -पहुंचते सुगन्ध में कैसे बदल जाती है | इस रहस्य को कोई महान रसायनशास्री ही खोल सकेगा | यह संपादक इस क्षेत्र में अपनी हार स्वीकार करता है |









 

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