Sunday, 10 December 2017

सारे जीवन की असफलता स्वीकार मुझे
-----------------------------------------------------

सारे जीवन की असफलता स्वीकार मुझे
अभिशापित जीवन ही मैं जीता जाऊँगा
है शपथ त्रसित मानवता की मुझको साथी
हर घूँट गरल का हँस हँस पीता जाऊँगा
जब तक शरीर में सांस ,सांस में दम बाकी
नीलाम नहीं होनें दूँगा अपनी वाणीं
बाजारी मोल -तोल से हो आजाद सदा
गाती  जायेगी मेरी कविता कल्याणीं
माना कि अकेला स्वर मेरा
सब पर अधिकार न पायेगा
बिक चुकी आज की दुनिया में
थोड़ा सा प्यार न पायेगा
पर सत्य पनपता नहीं अँधेरे खेतों में
सोनें की खाद न कोई फसल उगाती है
 चांदी की हँसिया बोझ भले ही बन जाये
पर उससे कोई फसल न काटी जाती है
बिकनें वाले बिकते ही हैं
पर कहीं कहीं धन झुकता है
हहराते नद का मद प्रवाह
पर्वत से टकरा रुकता है
वाणीं बिकनें को नहीं
मिली जन मन की व्यथा सुनानें को
वाणीं झुकने को नहीं
मिली गिरतों का भाग्य जगानें को
वाणीं का बल पा न्याय भाव
मद सत्ता से टकराता है
वाणीं के हांथों संवर रोष
विद्रोही स्वर बन जाता है
वाणीं नें राज्य उलट डाले
वाणीं नें सृष्टि सजायी है
फणधर के नाथ लगानें को
वाणीं नें वेणुं बजायी है
इसलिये लिये वाणीं का बल
मैं विघटन से टकराऊँगा
स्वर की स्वरता पर नचा- नचा
विप्लव का नाग बुलाऊंगा
हो प्रखर मुक्त मेरी वाणीं
साहस बटोर कर लायेगी
घुन खायी अर्थ -व्यवस्था से
गज -बल लेकर टकरायेगी
दो चार स्वरों के साथ
नकारेगी बहुमत की रूढ़ि -जाल
गौरव -द्विति से मण्डित होगा
मानवता का माथा विशाल
ललकार लगा मेरी वाणीं
भारत की सड़ी जवानी को
ललकार लगा मेरी वाणीं
मरदानी झांसी रानी को
ललकार लगा ,हुंकार उठा
फिर तरुण रक्त की लाली में
ललकार लगा सुषुप्ति भगे
सो रहे देश की माली में
लुट चुका देश ,अब सावधान
दो फेंक मुखौटे जाली
लें देख सभी जो झलक रही
होंठों पर हिंसक लाली
पी लिया रक्त वर्षों तुमनें
खुंखार रूप ,मायावी
मुंह -हटा श्रवित मानवता से
सन्तान जाग गयी भावी
वाणीं के पुत्रो, उठो
छोड़ दो मुसाहिथों की बातें
पायल की रुनझुन / लाल परी
मतवाली पागल रातें
सोनें चांदी की होड़ छोड़
अब भेरी -नाद बजाओ
अभिनन्दन- गीत समाप्त करो
विप्लव के गीत सजाओ
हर एक दिशा से घहराता
आ रहा प्रलय का पानी
फिर नयी सृष्टि रचनें को
कोई तो नांव बचानी
आनें वाले सैलाब शपथ है
मुझे तुम्हारे पानी की
कल के भविष्य है शपथ मुझे
फिर उठती हुयी जवानी की
वाणीं का लेकर खड्ग
काट दूंगा धोखे का स्वर्ण जाल
 वाणीं का लेकर वज्र
चूर्ण हो वृत्रासुर  का लाल भाल
अस्सी घावों को लिये अडिग
हांथों में लोच न आयेगी
ध्रुव से ध्रुव तक लूँ माप
मगर पैरों में मोच न आयेगी
जनता की थाती वाणीं है
विश्वासघात ,मर जाना है
घावों को लेकर कर्मभूमि में
गिरना भी तर जाना है
जब तक शरीर में साँस , सांस में दम बाकी
नीलाम नहीं होनें दूंगा अपनी वाणीं
बाजारी मोल -तोल से हो आजाद सदा
गाती जायेगी मेरी कविता कल्याणीं
सारे जीवन की असफलता स्वीकार मुझे--------





No comments:

Post a Comment