कि मैं जो बना हूँ वही क्यों बना हूँ ?
------------------------------------------------
किसी नें कहा गीत लिख दो गयी का
किसी नें कहा जो न जन्मा जगाओ
किसी नें कहा आज का साज बांधों
किसी नें कहा राम का नाम गाओ
मगर इस कहे से कहीं कुछ बना है
कि लिखते समय मैं स्वयं कब रहा हूँ
कहीं कोई मुझसे बड़ा है मुझी में
वही ले गया है मुझे जब जहां हूँ
कि मैं हूँ जनक यह न अभिमान मुझको
अजानी अबूझी लहर पर पला हूँ
कि मैं जो बना हूँ वही क्यों बना हूँ ?
प्रकृति की प्रयोगी निरर्थक कला हूँ |
कि कल तक पिरामिड बनें जो खड़े थे
कई खण्ड बनकर धरा पर पड़े हैं
पहाड़ों की पसली सुरंगें बनी हैं
समुद्दर की छाती में कीले गड़े हैं
सभी वाद केवल विवादों के घेरे
समय की प्रवंचक मिथक साज सज्जा
कि बेटी बहू की बहस चल रही है
कोई निर्वसन है कोई है सलज्जा
किसी नें कहा लेप शीतल तुम्हारा
किसी नें कहा प्राण -लेवी बला हूँ
कि मैं जो बना हूँ वही क्यों बना हूँ ?
न मुझसा कहीं कुछ वृथा दम्भ कोरा
सभी काल के कौर बनकर चले हैं |
व्यवस्था समय की कड़ी एक छोटी
सभी मूल्य मानव -प्रकृति के तले हैं
प्रकृति की प्रयोगी निरर्थक कला हूँ |
अमरता मरण -धर्मिता की सहेली
कि दो शून्य के बीच की सन्धि -छाया
सहस्त्रों वरस बाद कब्रें खुली हैं
नकारी गयी है युगों पूज्य प्रज्ञा
कि चलते रहो बस यही एक सच है
दुबारा नदी में न कोई नहाता
कि बावन गजी वीर बौनें बनें हैं
कभी शून्य बावन डगों में समाता
झरे जो ,बनें बीज सोये पड़े हैं
उमर पल्लवन की पिपासा छिपाये
फरे जो झलक ले रहे हैं क्षरण की
प्रवचन -परत में स्वयं को भुलाये
मुझे भान ही क्या कि कैसे ढला हूँ |
कि मैं जो बना हूँ वही क्यों बना हूँ ?
प्रकृति की प्रयोगी निरर्थक कला हूँ |
आत्म भर्त्सना
---------------------------
जीता हूँ
शास्त्रों नें कहा है
जीवन वरदान है
और फिर मानव का जीवन तो
कर्मयोनि
विमत पुल्य -श्रंखला का
चरम प्रतिदान है
कर्मयोनि -अर्थ क्या ?
सुबह शाम रस हीन दिनचर्या
सस्ते फिल्म ,भोंडे गान
क्षणिक उत्तेजना काफी पान
सभी कुछ कर्म है
मान -युग धर्म है
पीले शहर -नंगें गाँव
अंध दौड़ गर्दन तोड़
चिल्ल पों ,कांव झांव
सांठं -गाँठ ,जोड़ -तोड़
नव्यतर ,नव्यतम ,न चूहा दौड़
अर्धव्रत ,विषम बाहु ,तंग मोड़ |
दंडहीन ,लुंज -पुंज
लक्ष्य हीन ,प्राणहीन
यही नर जीवन है
यही कर्मयोनि क्या ?
दो चार पीढ़ी बाद
शेष रह जायेगी
अणुमण्डित सड़कें
खोखले, पोपले धूल के बबूले
सांय सांय
वर्तुल ,ऊर्ध्व ,अधोमुख
और फिर
कोई विक्षिप्त स्वर शून्य में पुकारेगा
मनु पुत्र ,अभिशप्त थे तुम
विपुला प्रकृति को निर्वस्त्र करते रहे
अंध मद सुरापी
जननी को भोग्या बनाया
छिः नाली के कीड़े का जीवन जी
चरम विनाश ही \नियति तुम्हारी है
किन्तु कहीं
आर्ष स्वर बोला है
माटी का चन्दन लेप
रश्मि रथारूढ़ प्राण आभा का कर स्वागत
शाप मुक्ति संम्भव है
शरणागत शरणागत |
सीटी दे रहा घास का टिड्डा
--------------------------------------
नयी तकनीक से निर्मित धमन भट्टी
स्वतः चलित जड़न पट्टा नये तकुये
नयी -धुरियां ,नयी ज्यामिति ,कसीदे की मिया गीरी
जगरमग चौंध देती है कला की कर्मशाला
मगर भयभीत स्वर में है निदेशक कक्ष में चर्चा
कि कच्चा माल चुकता जा रहा है |
धरा की गोद में खोजो खनिज फिर कवि
तलाशो फिर नयी माटी
कि केवल चाक का बदलाव ही काफी नहीं है |
कि बन्धन मुक्त छोड़ो मन विहग को
आत्म रति के मिथक माया जाल से
उठाओ माल फिर कच्चा ,खरा सच्चा
गली के छोर से ,चौपाल से |
कला बस चाक -चिक्कण ही नहीं है ,
सांस का सरगम उसे मानों
कि हर जन में कहीं
जन से बड़ा जो जन उसे जानों |
सुनों जो गीत गातीं ग्राम्य -बालायें समूहों में
पढ़ो इतिहास जो अन्तर्निहित है ग्राम्य ढूहों में
चलो खुरपी उठा काढ़ें कि खर -पतवार खेतों का
लगायें अंकुरित नव -पौध में पानी ,
ठिठक कर मत खड़े हो मित्र ,
आओ साथ दें
पलवा उठानें में तनिक तो हाँथ दें
इस रेत में ही नहर है लानी
चलो इस पाण्डुरी का गीत तो सुन लें
कि सुग्गे की सजीली चोंच से
क्षत -विक्षत
कांपता बेर का यह फल
कला की दीर्घा में कल सजानें को
नयी तस्वीर तो चुन लें |
पुलकती पीडकी के फुरफुराते पंख तो देखो
चहकती झूम गौरय्या सखा का प्यार पानें को
कि पीले पंख खोले घूमती है बर्र की माला
कि सीटी दे रहा है घास का टिड्डा मंगेतर के बुलानें को |
कि नाते यह नये सिर से जगानें हैं
चकित हो नित्य नवला प्रकृति के फिर गीत गानें हैं
कि गोबर से धुयें से , धूल से , भगना नहीं अच्छा
कि सागर नीर से ही क्षीर ले अंकुएँ उगानें हैं
सितारों से भरा नभ
अब धरा का ही पड़ोसी है
कि कलंगी बाजरे से ही
कला की ताजपोशी है |
गगन भर गोद में बादल
कि झुकता जा रहा है
करो अब बन्द यह फुसफुस
'कि कच्चा माल चुकता जा रहा है '
सहज विश्वास पालो
फिर सृजन का युग
धरा पर आ रहा है |
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किसी नें कहा गीत लिख दो गयी का
किसी नें कहा जो न जन्मा जगाओ
किसी नें कहा आज का साज बांधों
किसी नें कहा राम का नाम गाओ
मगर इस कहे से कहीं कुछ बना है
कि लिखते समय मैं स्वयं कब रहा हूँ
कहीं कोई मुझसे बड़ा है मुझी में
वही ले गया है मुझे जब जहां हूँ
कि मैं हूँ जनक यह न अभिमान मुझको
अजानी अबूझी लहर पर पला हूँ
कि मैं जो बना हूँ वही क्यों बना हूँ ?
प्रकृति की प्रयोगी निरर्थक कला हूँ |
कि कल तक पिरामिड बनें जो खड़े थे
कई खण्ड बनकर धरा पर पड़े हैं
पहाड़ों की पसली सुरंगें बनी हैं
समुद्दर की छाती में कीले गड़े हैं
सभी वाद केवल विवादों के घेरे
समय की प्रवंचक मिथक साज सज्जा
कि बेटी बहू की बहस चल रही है
कोई निर्वसन है कोई है सलज्जा
किसी नें कहा लेप शीतल तुम्हारा
किसी नें कहा प्राण -लेवी बला हूँ
कि मैं जो बना हूँ वही क्यों बना हूँ ?
न मुझसा कहीं कुछ वृथा दम्भ कोरा
सभी काल के कौर बनकर चले हैं |
व्यवस्था समय की कड़ी एक छोटी
सभी मूल्य मानव -प्रकृति के तले हैं
प्रकृति की प्रयोगी निरर्थक कला हूँ |
अमरता मरण -धर्मिता की सहेली
कि दो शून्य के बीच की सन्धि -छाया
सहस्त्रों वरस बाद कब्रें खुली हैं
नकारी गयी है युगों पूज्य प्रज्ञा
कि चलते रहो बस यही एक सच है
दुबारा नदी में न कोई नहाता
कि बावन गजी वीर बौनें बनें हैं
कभी शून्य बावन डगों में समाता
झरे जो ,बनें बीज सोये पड़े हैं
उमर पल्लवन की पिपासा छिपाये
फरे जो झलक ले रहे हैं क्षरण की
प्रवचन -परत में स्वयं को भुलाये
मुझे भान ही क्या कि कैसे ढला हूँ |
कि मैं जो बना हूँ वही क्यों बना हूँ ?
प्रकृति की प्रयोगी निरर्थक कला हूँ |
आत्म भर्त्सना
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जीता हूँ
शास्त्रों नें कहा है
जीवन वरदान है
और फिर मानव का जीवन तो
कर्मयोनि
विमत पुल्य -श्रंखला का
चरम प्रतिदान है
कर्मयोनि -अर्थ क्या ?
सुबह शाम रस हीन दिनचर्या
सस्ते फिल्म ,भोंडे गान
क्षणिक उत्तेजना काफी पान
सभी कुछ कर्म है
मान -युग धर्म है
पीले शहर -नंगें गाँव
अंध दौड़ गर्दन तोड़
चिल्ल पों ,कांव झांव
सांठं -गाँठ ,जोड़ -तोड़
नव्यतर ,नव्यतम ,न चूहा दौड़
अर्धव्रत ,विषम बाहु ,तंग मोड़ |
दंडहीन ,लुंज -पुंज
लक्ष्य हीन ,प्राणहीन
यही नर जीवन है
यही कर्मयोनि क्या ?
दो चार पीढ़ी बाद
शेष रह जायेगी
अणुमण्डित सड़कें
खोखले, पोपले धूल के बबूले
सांय सांय
वर्तुल ,ऊर्ध्व ,अधोमुख
और फिर
कोई विक्षिप्त स्वर शून्य में पुकारेगा
मनु पुत्र ,अभिशप्त थे तुम
विपुला प्रकृति को निर्वस्त्र करते रहे
अंध मद सुरापी
जननी को भोग्या बनाया
छिः नाली के कीड़े का जीवन जी
चरम विनाश ही \नियति तुम्हारी है
किन्तु कहीं
आर्ष स्वर बोला है
माटी का चन्दन लेप
रश्मि रथारूढ़ प्राण आभा का कर स्वागत
शाप मुक्ति संम्भव है
शरणागत शरणागत |
सीटी दे रहा घास का टिड्डा
--------------------------------------
नयी तकनीक से निर्मित धमन भट्टी
स्वतः चलित जड़न पट्टा नये तकुये
नयी -धुरियां ,नयी ज्यामिति ,कसीदे की मिया गीरी
जगरमग चौंध देती है कला की कर्मशाला
मगर भयभीत स्वर में है निदेशक कक्ष में चर्चा
कि कच्चा माल चुकता जा रहा है |
धरा की गोद में खोजो खनिज फिर कवि
तलाशो फिर नयी माटी
कि केवल चाक का बदलाव ही काफी नहीं है |
कि बन्धन मुक्त छोड़ो मन विहग को
आत्म रति के मिथक माया जाल से
उठाओ माल फिर कच्चा ,खरा सच्चा
गली के छोर से ,चौपाल से |
कला बस चाक -चिक्कण ही नहीं है ,
सांस का सरगम उसे मानों
कि हर जन में कहीं
जन से बड़ा जो जन उसे जानों |
सुनों जो गीत गातीं ग्राम्य -बालायें समूहों में
पढ़ो इतिहास जो अन्तर्निहित है ग्राम्य ढूहों में
चलो खुरपी उठा काढ़ें कि खर -पतवार खेतों का
लगायें अंकुरित नव -पौध में पानी ,
ठिठक कर मत खड़े हो मित्र ,
आओ साथ दें
पलवा उठानें में तनिक तो हाँथ दें
इस रेत में ही नहर है लानी
चलो इस पाण्डुरी का गीत तो सुन लें
कि सुग्गे की सजीली चोंच से
क्षत -विक्षत
कांपता बेर का यह फल
कला की दीर्घा में कल सजानें को
नयी तस्वीर तो चुन लें |
पुलकती पीडकी के फुरफुराते पंख तो देखो
चहकती झूम गौरय्या सखा का प्यार पानें को
कि पीले पंख खोले घूमती है बर्र की माला
कि सीटी दे रहा है घास का टिड्डा मंगेतर के बुलानें को |
कि नाते यह नये सिर से जगानें हैं
चकित हो नित्य नवला प्रकृति के फिर गीत गानें हैं
कि गोबर से धुयें से , धूल से , भगना नहीं अच्छा
कि सागर नीर से ही क्षीर ले अंकुएँ उगानें हैं
सितारों से भरा नभ
अब धरा का ही पड़ोसी है
कि कलंगी बाजरे से ही
कला की ताजपोशी है |
गगन भर गोद में बादल
कि झुकता जा रहा है
करो अब बन्द यह फुसफुस
'कि कच्चा माल चुकता जा रहा है '
सहज विश्वास पालो
फिर सृजन का युग
धरा पर आ रहा है |
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