Wednesday, 6 December 2017

दो नावों पर
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मैं रहस्य खोजूँ जीवन का
या रोटी की राह तलाशूँ
दो नावों पर पग धर चलना क्या मुमकिन है ?
मेरे भीतर मछली ,मेढक
मेरे भीतर सारस ,बगुला ,हंस सुहावन
नहीं छिपा कर कुछ रखूंगा
सच कहता हूँ मेरे अन्दर
खों- खों कर के खौंख रहा है
जावा का मरदाना बन्दर |
कनखजूर की कोई पीढ़ी ,तिलचट्टे का
पितर अपावन
मेरे भीतर गरम ग्रीष्म है ,शीतल सावन
अथ से अब तक मेरा जीवट
अर्बुद कोटि रूप ले आया
अब से इति तक अनगिन केंचुल
छोड़ेगी माटी की काया
पहली शर्त बनें रहना है -पर तारों की राह
छोड़ना पितृ -घात है
अजब बात है
नश्वर माटी ही तारों के बीज संजोये
ज्योतिपिंड का हिम बन गलना क्या मुमकिन है ?
मैं रहस्य खोजूं जीवन का
या रोटी की राह तलाशूँ
दो नावों पर पग धर चलना क्या मुमकिन है ?
हर उत्तर अबूझपन में खुद प्रश्न बन गया
एक पहेली में तो दिक् -काल घिरे हैं
प्रश्नों का सम्पुजन ज्योति बन नभ में जगता
नील -परस पा प्रस्तर पर निर्वाध तिरे हैं
चल हो जाये अचल चला चल एक रूप हो
रोटी की चल राह अधर तक जा पावें जन
देह प्राण की कथा सलोनी छाँह धूप हो
हर दर्शन का सार यही क्या ?
कवियों का संसार यही क्या ?
पर खण्डित है युग जन जीवन की परिपाटी
देव -मूर्ति गढ़नें में असफल आज देश की माटी
तन -मन बंट दो भाग हो गये
इसीलिये तो स्वयं सिद्ध है
महल दुमहले आग हो गये
मन -मुराद न मिली मुरादाबाद जल गया
हाय ! मनुज को मनुज स्वयं ही सदा छल गया
धरे हाँथ पर हाँथ किन्तु मैं कैसे बैठूँ
गलत बात है |
धुप्प रात है
तमस -गर्भ में प्रभा पल रही
नील निलय का रवि बन गलना क्या मुमकिन है ?
मैं रहस्य खोजूं जीवन का
या रोटी की राह तलाशूँ
दो नावों पर पग धर चलना क्या मुमकिन है ?

जन्म लेगा सर्वदर्शी प्यार
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तोड़ना है मुझे प्रस्तर का प्रचंड प्राकार
ताकि
बंधकर छटपटाती है परिधि में जो
बहे
उन्मुक्त जीवन -दायिनी  रस -धार |
है सरल विध्वंस कहते मुकुटधारी
तुम करो निर्माण
शीत ,आतप ,बूँद सिर पर ही सहे हैं
सहस बरसों में
खपाये हैं तुम्हीं नें प्राण
और छत किनको मिली है ?
तोड़ना है छत ,परिधि ,प्राचीर
जहां संरक्षित लुटेरे ,मुफ्तखोरे
स्वयं को कहते सुधन्वा वीर |
हर मनुज यदि जन्म लेगा तो जियेगा
ज्ञान का ,विज्ञान का यह शुद्ध ,सुन्दर मर्म
जो व्यवस्था सत्य यह दफना रही है
तोड़ना उसका सभी का धर्म |
उभय कर ऊपर उठाये मैं प्रतिश्रुत हो रहा हूँ आज
जनम सार्थक कर सको तो आज कर लो
राम का यह काज |
रंगीं मूछें ,लपलपाती जीभ
यह डरौना है ,न तन में तान
स्वास्थ्य का सरगम नहीं संगीत यह
क्षय -क्षरित द्रुत मृत्यु का यह गान
इस डरौनें पर करो तुम बज्र -मुष्टि प्रहार
भित्ति की हर ईंट बनकर ढह गिरेगी क्षार
उग रहे सूरज तुम्हारी साक्षी
ध्वंस हो निर्माण का आधार
डूबते सूरज तुम्हारी शपथ लेकर कह रहा हूँ
घृणां से ही जन्म लेगा सर्वदर्शी प्यार |

एक मैं ही काल के हूँ पार
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सार्थक तुम सभी बस केवल ससीमित काल में
एक मैं ही काल के हूँ पार
तुम सभी टूटे ,झुके ,झिझके ,झिपे
अब तलक है शेष मेरी अस्मिता की धार |
हर सबेरा काम्य मुझको जब तलक लाली न फूटी
हर व्यवस्था जब तलक हो भावना -आधार
हर भजन जब झूम की झंकृति भरा हो
हर कहानी कह रही हो जब प्रकृति -गत प्यार
किन्तु हर दुहराव साँचा ही रहा यदि
मैं नहीं घिर सका उसकी बांह में
आँख के संकेत यदि आंगिक रहे
बैठ पाया कब पलक की छाँह में
है सहेजा क्या कभी कल के लिये
वक्ष पर लहरा चुका हो केश का जो हार ?
एक मैं ही  काल के हूँ पार |
झर रहे जो पात कल की खाद हैं
इसलिये झरना निरन्तर राग है
काल -कीलित कर्म कब बनता कला
काव्य की लौ आत्मा की आग है
दण्ड के सन्दर्भ में तुम लिख रहे
मुक्ति मेरी सांस की मनुहार है
चूर्ण -मुक्ता से सँवारी देह तुमनें
रंजना मेरी सदा से क्षार है
पुष्प बरसाते रहो तुम ताज पर
चरण रज दे मुकुट -धर हमनें दिये हैं तार
एक मैं ही काल के हूँ पार |





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