एक लम्बी जीवन यात्रा मानवीय सम्बन्धों की अनेक स्मृतियाँ अपनें में संजोये रहती हैं | जीवन की तात्कालिक बाध्यतायें ढेर सारी स्मृतियों को अवचेतन की कुहाओं में ढकेल देती हैं | पर कभी किन्हीं अलस ,उनींदें या अनमनें क्षणों में न जानें कौन सा अविश्लेषित मानसिक दबाव इनमें से एकाध स्मृति को मन के चेतन पटल पर मूर्तिमान कर देता है | लगभग 65 वर्ष पहले की एक ऐसी ही स्मृति विश्व महिला दिवस पर सुभाषनी अली का लेख पढ़कर मन में उभर आयी | लगभग 13 -14 वर्ष का रहा हूँगा | गाँव में सातवीं कक्षा का इम्तहान देकर मिडिल स्कूल से जब घर लौटा तो पाया कि पड़ोस के मुकुन्द त्रिवेदी के घर में कुछ बड़ी -बूढ़ी औरतें इकठ्ठा हैं | और किसी गम्भीर घटना पर चर्चा कर रही हैं | पड़ोस के मुकुन्द जी के यहां मैं अक्सर बैठा रहता था | मुकुन्द के तीन बच्चों में दूसरे नम्बर का गोविन्द मेरा हम उमर था और कक्षा 6 में पढ़ता था उससे छोटा शम्भू चौथी में था ,बड़ी बहन सुघरा सत्रह -अठारह की होकर सातवीँ पास कर घर के काम -काज में लगी रहती थी |मुकुन्द त्रिवेदी के घर में एक भैंस और एक गाय थी | दोनों दूध देती थीं | त्रिवेदी जी नें अपनें पास के चार -पांच बीघे खेत अधिया बटायी पर उठाये हुये थे | चिरंजू अहीर उनके खेतों की जुतायी -बुआई करता था कई बार सुघरा की माँ बीमार हो जाती थी और तब चिरंजू का बेटा भोला गाय- भैंस का दूध निकालनें के लिये बुला लिया जाता था | भोला नें भी गाँव से सातवीं पास की थी और अब घर पर कई गांय -भैंसें पालकर दूध का व्यापार करता था | 20 -21 साल का छबीला जवान था | अभी तक अविवाहित था | जब कभी वह दूध दुहनें आता सुघरा उसके पास बैठकर दूध निकालनें का हुनर सीखनें की कोशिश करती थी | इसके अतिरिक्त भोला और सुघरा के बीच कभी कोई सम्बन्ध नहीं देखा गया पर उस दिन उन बड़ी -बूढ़ी औरतों की बात -चीत से मैनें यह जान लिया कि सुघरा घर से निकल गयी है और शक किया जाता है कि वह भोला के साथ कहीं भाग गयी है क्योंकि भोला भी पिछली शाम से अपनें घर पर नहीं है | बाद में गोविन्द नें मुझे बताया कि दोनों की तलाश जारी है पर पुलिस में रिपोर्ट नहीं की गयी है क्योंकि परिवार की बदनामी का डर है | बात आयी -गयी हुयी | किशोर वय की न जानें कितनी घटनायें बढ़ती उम्र के साथ समय के कुहासे में ढक जाती हैं | कई वर्ष बीतनें पर भी भोला और सुघरा का कोई निश्चित पता नहीं चला | पहले सुननें में आया कि वे कानपुर के किसी मोहल्ले में हैं | फिर पता चला कि कानपुर छोड़कर बनारस चले गये हैं और फिर बनारस से भी कहीं और चले जानें की बात सुननें में आयी | वर्ष पर वर्ष बीतते चले गये ,मैनें कई इम्तहान पास कर लिये और अंग्रेजी में एम ० ए ० करके पंजाब के एक कालेज में प्राध्यापक लग गया | जब कभी गाँव आता और मुकुन्द त्रिवेदी के बेटे गोविन्द से मिलता तो सुघरा की याद ताजी हो जाती | गोविन्द अब मिडिल स्कूल में अध्यापक था और खेती बाड़ी का इन्तजाम भी करता था | मेरी तरह उसकी भी शादी हो गयी थी और एक बच्चा भी था | एक बार मैनें हिम्मत कर उससे सुघरा के विषय में जानना चाहा तो उसनें आवेश में कहा कि सुघरा उसके परिवार के लिये मर चुकी है और वह उसका नाम भी नहीं सुनना चाहता | मैनें सुघरा को प्रारम्भ से ही बड़ी बहन के रूप में माना था और गंवईं गाँव का यह स्नेह सम्बन्ध मेरे मन से निकल नहीं पाया था | पन्द्रह वर्ष का अन्तराल किसी भी स्मृति को इतनी दूरी तक खींच ले जाता है कि उसकी धुंधली प्रतिच्छाया भी मुश्किल से ही मन पर झलक पाती है पर पंजाब के जिस कालेज में मैं प्राध्यापक लगा था उस कालेज के चपरासियों की लिस्ट में भोलाराम यादव का नाम देखकर मेरे कान खड़े हो गये | कालेज में एक छात्रावास था | और उस छात्रावास में पंजाब के लम्बे -तगड़े बी ० ए ० ,एम ० ए ० क्लास के विद्यार्थियों के लिये पौष्टिक भोजन के साथ दूध ,दही और घी का होना अनिवार्य माना जाता था | शुद्ध दूध की प्राप्ति के लिये कुछ भैंसे और गायें खरीदकर विस्तृत होस्टल के एक कोनें में शेड डालकर रखी गयीं थीं | भोला राम यादव इन्हीं दुधारू पशुओं के इन्तजाम में लगा था | पास ही में एक क्वार्टर में उसका परिवार भी था | वह अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ वहीं रह रहा था | इतनी जानकारी इकठ्ठा करनें के बाद कालेज से लगभग आधा किलोमीटर दूर बनें उस छात्रावास में एक दिन मैं जा पहुंचा |
होस्टल इंचार्ज सरदार प्रद्युमन सिंह मेरे सीनियर कुलीग थे | उन्होंने मुझे होस्टल के दूध को टेस्ट करनें का आग्रह किया | बोले असली दूध का स्वाद चाखिये और यू ० पी ० के दूध से मुकाबला करिये पायेंगें कि जमीन आसमान का अन्तर है | सचमुच दूध का स्वाद अब तक पिये सभी दूधों से निराला लगा | मैनें पशुशाला को देखना चाहा और सरदार जी मुझे होस्टल के विशाल प्रांगण के उत्तरी कोनें की ओर लेकर चल पड़े | मैनें पाया कि गाय का दूध निकालकर लगभग 34 -35 वर्ष की एक भरे बदन की नारी उठी उसनें सरदार जी को देखकर नमस्ते किया और फिर मेरी ओर देखा और फिर देखकर उसके गालों पर लज्जा की हल्की लाली सी आयी और उसनें आँखें नीची कर लीं | मैं उसी क्षण पहचान गया कि वह मेरी सुघरा बहन है पर उस समय मैं चुप रहा | सरदार जी नें उससे पूछा कि भोला कहाँ है ? तो उसनें बताया कि भैंसों की सानी तैय्यार कर रहे हैं | अभी दूध निकालना है | मैं सरदार जी के साथ वापस लौटकर उनके कमरे में आ गया | अपनें क्वार्टर पर आकर मैनें अपनी पत्नी को सुघरा के विषय में बताया शायद मैं लिखना भूल गया हूँ कि मेरी पत्नी मेरे गाँव के पास के एक गांव से ही थी और उसनें भारतीय संस्कृति के सभी अच्छे संस्कार विरासत में पाये थे | उसनें खुले दिल से कहा कि सुघरा मेरी बड़ी ननद है मैं अपनें बच्चों के साथ उससे मिलनें जाऊँगी और उसको वही आदर दूंगीं जो एक छोटी भौजायी अपनी बड़ी ननद को देती है | उसनें कहा कि सुघरा भले ही घर से निकल गयी हो पर उसनें एक स्त्री का कर्तव्य निबाहा है | वह अपनें पति के प्रति वफादार है और मेहनत से अपना परिवार पाल रही है | मुकुन्द त्रिवेदी जैसे न जानें कितनें ना समझ अभिमानी अपनी हेकड़ी में अपनें सन्तान के सुखों का बलिदान ले लेते हैं और अन्त में मेरी पत्नी नें मुझे भी यह कहकर झिड़क दिया कि जब मैनें सुघरा को पहचान लिया था तो बड़ी बहन के नाते पैर तो छूना चाहिये था या कम से कम अगर प्रोफेसरी आड़े आती थी तो उसे प्रणाम तो करना चाहिये था | अधिक शिक्षित न होकर भी मेरी पत्नी नें नारी गौरव का जो पाठ उस दिन मुझे पढ़ाया वह आज तक मेरे लिये अविस्मरणीय है | आज उम्र के आठवें दशक में पहुंचकर मैं इस सत्य को दोहराना चाहता हूँ कि कहानी के रूप में पेश की गयी यह स्मृति मेरे जीवन में घटी एक वास्तविक घटना है | सेवा निवृत्ति के बाद मैं अपनें परिवार के साथ कानपुर ,में रह रहा हूँ | इस लेख के माध्यम से मैं अपनी बड़ी बहन सुघरा को अपनें शत -शत चरण स्पर्श अर्पित कर रहा हूँ |
होस्टल इंचार्ज सरदार प्रद्युमन सिंह मेरे सीनियर कुलीग थे | उन्होंने मुझे होस्टल के दूध को टेस्ट करनें का आग्रह किया | बोले असली दूध का स्वाद चाखिये और यू ० पी ० के दूध से मुकाबला करिये पायेंगें कि जमीन आसमान का अन्तर है | सचमुच दूध का स्वाद अब तक पिये सभी दूधों से निराला लगा | मैनें पशुशाला को देखना चाहा और सरदार जी मुझे होस्टल के विशाल प्रांगण के उत्तरी कोनें की ओर लेकर चल पड़े | मैनें पाया कि गाय का दूध निकालकर लगभग 34 -35 वर्ष की एक भरे बदन की नारी उठी उसनें सरदार जी को देखकर नमस्ते किया और फिर मेरी ओर देखा और फिर देखकर उसके गालों पर लज्जा की हल्की लाली सी आयी और उसनें आँखें नीची कर लीं | मैं उसी क्षण पहचान गया कि वह मेरी सुघरा बहन है पर उस समय मैं चुप रहा | सरदार जी नें उससे पूछा कि भोला कहाँ है ? तो उसनें बताया कि भैंसों की सानी तैय्यार कर रहे हैं | अभी दूध निकालना है | मैं सरदार जी के साथ वापस लौटकर उनके कमरे में आ गया | अपनें क्वार्टर पर आकर मैनें अपनी पत्नी को सुघरा के विषय में बताया शायद मैं लिखना भूल गया हूँ कि मेरी पत्नी मेरे गाँव के पास के एक गांव से ही थी और उसनें भारतीय संस्कृति के सभी अच्छे संस्कार विरासत में पाये थे | उसनें खुले दिल से कहा कि सुघरा मेरी बड़ी ननद है मैं अपनें बच्चों के साथ उससे मिलनें जाऊँगी और उसको वही आदर दूंगीं जो एक छोटी भौजायी अपनी बड़ी ननद को देती है | उसनें कहा कि सुघरा भले ही घर से निकल गयी हो पर उसनें एक स्त्री का कर्तव्य निबाहा है | वह अपनें पति के प्रति वफादार है और मेहनत से अपना परिवार पाल रही है | मुकुन्द त्रिवेदी जैसे न जानें कितनें ना समझ अभिमानी अपनी हेकड़ी में अपनें सन्तान के सुखों का बलिदान ले लेते हैं और अन्त में मेरी पत्नी नें मुझे भी यह कहकर झिड़क दिया कि जब मैनें सुघरा को पहचान लिया था तो बड़ी बहन के नाते पैर तो छूना चाहिये था या कम से कम अगर प्रोफेसरी आड़े आती थी तो उसे प्रणाम तो करना चाहिये था | अधिक शिक्षित न होकर भी मेरी पत्नी नें नारी गौरव का जो पाठ उस दिन मुझे पढ़ाया वह आज तक मेरे लिये अविस्मरणीय है | आज उम्र के आठवें दशक में पहुंचकर मैं इस सत्य को दोहराना चाहता हूँ कि कहानी के रूप में पेश की गयी यह स्मृति मेरे जीवन में घटी एक वास्तविक घटना है | सेवा निवृत्ति के बाद मैं अपनें परिवार के साथ कानपुर ,में रह रहा हूँ | इस लेख के माध्यम से मैं अपनी बड़ी बहन सुघरा को अपनें शत -शत चरण स्पर्श अर्पित कर रहा हूँ |
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