Monday, 4 December 2017

                                      20 वीं सदी के अन्त तक ऐसा माना जाता रहा है कि मानव जीवन की सफलता में सच्चायी और ईमानदारी का सबसे बड़ा योगदान होता है | हमारा विश्वास था कि 21 वीं सदी के प्रारम्भ होते ही यह दोनों गुण विश्व में सभ्यता का स्थायी आधार बन जायेंगें | हो सकता है कि मेरा ऐसा सोचना मानव इतिहास की एक सार्थकता बन जाय पर न जानें क्यों मेरा यह विश्वास लड़खड़ाने लगा है | मुझे ऐसा लगता है कि आडम्बर का लबादा ओढ़कर ही आज के युग मैं सफलता के सोपान जीते जा सकते हैं | मैं जब चिन्तन के क्षणों में अपनें अन्तर चक्षुओं से आज की दुनिया का अवलोकन करता हूँ तो मुझे अपनें चारो ओर बौद्धिकता के नाम पर ढोंग ,पाखण्ड और मिथ्या आचरण का आत्मजाल ही दिखायी पड़ता है | भारतीय संस्कृति में सन्त की व्याख्या भाषा के श्रेष्ठतम मानकों में भी व्यंजित नहीं हो पाती थी | पर आज क्या आशाराम बापू क्या रामपाल सभी सन्त परम्परा का जघन्यतम रूप प्रस्तुत करते दिखायी पड़ते हैं | सम्पादक और गहन विचारक राष्ट्रधर्मिता के धुधुवाहक होते हैं | पर आज तरुण तेजपाल और नोबेल विजेता पचौरी वासना के दुर्गन्ध जाल में सिमटे हुये हैं | राजनीतिज्ञ मानव विकास के कर्णधार होते हैं शायद भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में ऐसा हो भी पर भारत में क्या ओम प्रकाश चौटाला ,क्या लालू यादव क्या डी ० पी ०यादव क्या सारधा काण्ड के दोगले सूत्रधार सभी के सब प्रवंचना का लबादा ओढ़कर विकास की दुहाई देते रहे हैं | काले धन पर चिल्लानें वाले क़ानून की जटिलता का उल्लेख कर रहे हैं और दरिद्र नारायण की बात करनें वाले धन की अपार महिमा में चालीसा लिखनें लगे हैं | सहसा विश्वास नहीं होता कि प्रगति का सच्चा अर्थ क्या है ? ऊपर की ओर उठना या या अधोगामी होना | शक्ति और ज्ञान में तो रावण ,कंस और जरासंध भी अपना सानी नहीं रखते थे | पर भारत नें कभी उन्हें आदर्श नहीँ माना क्योंकि वे स्वयं के अभिमान से ऊपर उठकर समस्त मानव कल्याण के लिये अपनें को कभी समर्पित नहीं कर सके | मैं जानता हूँ कि मेरी द्रष्टि सम्पूर्ण नहीं है और शायद वो अपनें आस -पास के वातावरण को समग्रता से समेट नहीं पाती | पर द्रष्टि के अधूरेपन के बावजूद मुझे यह कहनें में संकोच नहीं है कि आज के अधिकाँश समाचार पत्र रुपये के तराजू पर तौले जा रहे हैं | मीडिया का काम सत्य को उजागर करना है न कि सत्य को हास्यास्पद दलीलों द्वारा विखण्डित करना | जब मीडिया किसी विशिष्ट अवधारणा के प्रति प्रतिबद्धित हो जाता है तो वह एक बाजारू वस्तु बन जाता है | भारत का प्रोफेसनल क्लास भी अराजकता  को न केवल बढ़ावा दे रहा है वरन उसमें सक्रिय सहयोग भी प्रदान कर रहा है | क़ानून के सरंक्षक वकीलों को ही लीजिये उनके धरनें ,प्रदर्शन ,आपसी मार -पीट ,कलह ,गोलीबारी सभी कुछ क़ानून को गहरे गड्ढे में दफना रही है | डाक्टरों को धरती पर ईश्वर के प्रतिरूप में सम्मानित किया जाता था पर हो सकता है कि लोग मुझे इस बात के लिये प्रतिगामी कहें कि मैं डाक्टरों को आज सभ्य डाकुओं से अधिक कहनें के लिये अन्तरशक्ति नहीं पा रहा हूँ | मोबाइल और इन्टरनेट की क्रान्ति नें संसार को एक गाँव में अवश्य बदल दिया है पर यह गाँव भी धीरे -धीरे अपराध की पृष्ठभूमि में बेजोड़ होता जा रहा है | भारत में नारी को नर से अधिक दो मात्रायें देकर महिमा मण्डित किया था पर अब नारी नर के मुकाबले में ही खड़े होकर बराबरी की मांग कर रही है | उसके मां होनें का गौरव उसे सदैव पुरुष से बड़ा बनाता था पर अब वह इस गौरव को छोड़कर कारपोरेट दुनिया की हेराफेरी में सम्मान की अधिकारणीं बनना चाहती है | हो सकता है मेरा यह कथन अति आधुनिक नारी चेतना को चोट पहुँचावे पर मेरा मन उसकी महत्ता को उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से जोड़कर देखनें का अभ्यासी हो चुका है | करोड़ों और अरबों में खेलनें वाली बाजारू मॉडलें और सौन्दर्य की नारियां भारत की सांस्कृतिक आत्मा को प्रभावित नहीं करतीं  हाँ उनकी ओर ललक भरी निगाह लगाकर तालियां बजानें वाला एक वर्ग अवश्य तैय्यार हो गया है | और बिका हुआ मीडिया बिना खूबसूरत चेहरों और झूठे -सच्चे सांकेतिक और अश्लील विज्ञापनों के बिना चल ही नहीं सकता | चारो ओर तुमुल कोलाहल है ऐसे में आन्तरिक श्रद्धा की तलाश कौन करे ? प्रसाद जी श्रद्धा के लिये एक अमर पंक्ति लिख गये वह पंक्ति आज केवल कुछ संस्कारी पुरुषों को ही प्रभावित करती है | खरीद -फरोख्त का बाजार उस पंक्ति को केवल मनोरंजन का साधन मानता है | तुमुल कोलाहल कलह में ,मैं हृदय की बात रे मन | आज कौन हृदय की बात सुनता है | अब तो चिकित्सा विज्ञान यह भी दावा करनें लगा है कि बनावटी हृदय का आरोपण सफल हो चुका है | और निकट भविष्य में बनावटी हृदय की धड़कनें ही मानव जाति  का भविष्य बनायेंगीं | शादी का साज आत्मा के स्वरों से सजता था पर अब उसमें प्रदर्शन और पाखण्ड के स्वर मुखर हो गये हैं | समाचार पत्रों की सुर्खियां पाखण्डों का पालागन करती हैं और प्रदर्शनों का  रंग -बिरंगा प्रतिरोपण |भारत के संस्कारी नर और नारी बेबस होकर असहायता का जीवन जीरहे हैं | पर उस जीवन में स्पन्दन की तीव्रता नहीं रही है | प्रेम कहानियां मिथ्याचार का कौतूहल संजोकर अपरिपक्व मष्तिष्कों को भर्मित करती रही हैं | कदाचार का वर्तुल चक्र प्रकाश के क्षीण विम्ब को घेरता जा रहा है | प्रकृति भी शायद इसी मानवीय स्खलन का प्रतिरूप बनती जा रही है | पश्चिमी विक्षोभ भारतीय संस्कृति के अवदात और वैतुल्य भरे नीतिशास्त्र को अवरोषित कर रहा है और भौगोलिक धरातल पर पश्चिमी विक्षोभ से भारत की कृषि प्रणालीं क्षुधित हो रही है | और न जानें कितने संक्रामक रोग पलते -पनपते जा रहे हैं 'माटी ' मैला आँचल के बावन दास की भांति कदाचार की वाहिका वाहन प्रणांली के आगे छाती खोलकर खड़ी है | उसे पूरा ज्ञान है कि उसे कुचल दिया जायेगा पर फिर भी कोई न कोई चिथरिया पीर का दर्जा तो देगा ही | तो आइये हम और आप एक छोटा पर आदर्श समर्पित जीवन जीनें के लिये चिथरिया पीर बन जानें को तैय्यार रहें | हिम्मत हो तो आप भी 'माटी ' के सहभागी बन सकते हैं | अन्यथा बाजार की खरीद -फरोख्त तो आपको मुबारक होती ही रहेगी | 

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