Monday, 4 December 2017

कालजयी नर श्रष्टि
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तुलते रहे इतिहास में सदा ही
क्रान्ति द्रष्टा जन नायक
माप तौल सृष्टि की सनातन परिपाटी है
मूल्यों की तुला पर तुलते रहे शीश
तिल तिल कर कटती रही अत्याचार माटी है |
मनुजता के मापदण्ड मूल्यों की तुला
अब विगत की बात है
चांदी के सिक्कों से तुलनें की
अनबंधित मूल्य -हीन खुलनें की
नयी शुरुआत है |
मैनें भी तोला है कई बार अपनें को
पाया है औरों से भारी हूँ
विस्मित हुआ हूँ देख हल्कापन
अपनें आस पास का
सहज अभिमान हो आया है
अपनें गुरुत्व अहसास से |
रन्ट ग्रोथ ,बौनी नस्ल
लिलीपुटन ,अंगुल नर
उद्ग्रीव मैं ,इनकी तुलना में
कितना महान हूँ
तारों की सीमा में उगती
नव संस्कृति का गतिवान
पारदर्शी प्रखर शब्द यान हूँ |
किन्तु तब अन्तर से एक स्वर उभरा है
गांधी ,अरविन्द ,मंडेला भी मानव हैं |
चरणों में इनके बैठ निज को नाप
अपनें को लिजलिजा सरीसृप सा |
माप तौल सिक्कों की वंचना मात्र है
कालजयी नर -सृष्टि नभ कुसुम होते हैं |
कृमि कीट गोबरैले ,विष खाँपर वृथा सृष्टि
नीति नर जाते जब तारे स्वयं रोते हैं |

हमारे सत्य के अतिरिक्त भी सच है
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मैं हिमालय सा अटल
नम -शयनिका पर काल -कीलित ध्रुव कला हूँ
सोचता था
एक हल्की कालिमा जब नाक के नीचे लगी थी खेलनें |
मनुजता के मूल्य मेरे पैर के घुँघरू बनेंगें
और गुरु की खोज में सब भटकते जाबाल
चिन्तन -स्फुलिंग ले
बन वैनली आग ,स्वाहा कर सकेंगें झूठ खर पतवार
धरती राख से सोना जनेगी -सोचता था |
गगन चूनर ओढ़ वर्तुल नृत्य में डूबी धरित्री
खिलखिला हंसती रही इस चिन्तना पर
बढ़ गयी परछाइयाँ जब दोपहर ढलने लगी |
सोचता तब भी रहा पर
बीज उगनें में समय कुछ लग गया है
कोख में जो शक्ति का शुभ सम्पुजन है
समय पाकर कल्प तरु बनकर जनेगा |
किन्तु गहरे कहीं भीतर वह तरुण विश्वास
घुट -घुट मर रहा था ,हर गली हर मोड़ पर
आदर्श की लाशें पड़ी थीं
कीट कृमि जिन पर लगे थे रेंगनें |
 तर्क अपनें आप को देता रहा
लचक ही तो उर्ध्वगामी शान्ति का अन्दाज है
मूल्यहीन नहीं हुयी है यह धरा
वायु अब तक सांस लेनें योग्य है |
सत्य मृग -छौनें भरेंगें फिर कुलांचे सोचता था |
थिरकनें कुछ और देकर झूम में झूमी धरा
छाँह लम्बी और लम्बी हो गयी
शुभ्र वर्णीं धूप पाण्डुर रूप के
द्वार पर वार्धक्य के हँसने लगी |
गांधी ,नेहरू महज इतिहास बनकर रह गये |
सोचता हूँ, आज मैं
अटलता की बात कोरा दंम्भ है
सत्य युग से अलग हटकर
अहं का विस्फोट है
शब्द की हर धार
जो अवसाद का तम चीरती है
मृत्यु- गामी युग व्यवस्था पर
करारी चोट है |
चल रहा है जो नहीं वह हीन है
चुक चुका जो न बहुत महान था
साज का सरगम सदा यों ही बजा है
भिन्नता का बोझ सीमित ज्ञान था |
इसलिये अब मानता हूँ
नये युग के फिर नये आदर्श उभरेंगें
नये परिवेश संवरेंगे
नयी युग चेतना के प्रति
दुरा -गृह मुक्त होना है
हमारे सत्य के अतिरिक्त भी सच है
समय -सापेक्ष शाश्वत है
हमें इस बोध से फिर युक्त होना है |













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